Wednesday, April 09, 2008

भागते मन पर लगाम कैसे लगाऊं

आज मन बहुत इधर-उधर भाग रहा है.. क्या लिखूं, किसके बारे में लिखूं, क्या-क्या लिखूं.. ना लिखूं तो भी काम ना चले.. आखिर अपने मन का गुबार निकालने का भी तो कोई माध्यम होना चाहिये..

क्या उस बस ड्राईवर के बारे में लिखूं जिसे मैं रोज आते जाते देखता हूं.. रोज मैं लगभग एक नियत समय पर ही आफिस के लिये निकलता हूं सो लगभग हर दूसरे दिन उसी के बस में बैठता हूं.. बिलकुल किसी तमिल सिनेमा के हीरो टाईप दिखने की कोशिश करता हुआ उसका व्यवहार.. मगर मैंने ये भी पाया है कि वो सभी से बहुत अच्छे से बात करता है.. दिल्ली के बसों कि तरह यहां के बसों में मैंने कभी भी बस ड्राईवर या कंडक्टर को उद्दंडता करते नहीं देखा हूं और ना ही कभी बस में बैठे लोगों को..

या फिर उस आदमी के बारे में लिखूं जिसे मैं हर दिन बस में आते जाते अपने घर के पास वाले होटल के पास देखता हूं.. वो उस होटल के सामने के ट्रैफिक को संभालता हुआ मुझे अक्सर दिखता है.. मैं किसी भी बस में बैठूं, उसका ड्राईवर उसे हाथ हिला कर अभिवादन जरूर करता है और इसे देख कर उसका चेहरा खिल सा जाता है..

या बात अपने अपार्टमेंट में रहने वाले उस काले रंग के कुत्ते कि बात करूं जो हमेशा अपार्टमेंट के आस पास ही मंडराता हुआ दिखता है.. पहले उसे कभी दूसरी मंजिल से उपर वाली मंजिल पर नहीं देखता था, मगर आजकल उसे चौथे मंजिल पर अक्सर सोया हुआ पाता हूं.. मैं अक्सर अपने दोस्तों से कहता हूं कि शायद इसका प्रोमोशन हो गया है.. मुझे देखते ही मेरे चारो ओर घूमने लगता है.. कारण पता नहीं.. शायद मैं उसे प्यार भरे नजर से देखता हूं जिसे वो मूक जानवर समझ जाता होगा..

या फिर उस गाने कि बात करूं जिसे मैं अभी सुन रहा हूं.. गाने के बोल हैं In the end जो लिकिन पार्क का गाया हुआ गीत है.. उसका विडियो ये रहा..

नहीं-नहीं ये हिंदी ब्लौग कि दुनिया है, यहां जो भी लिखो वो हिंदी में ही लिखो और खुद को पक्का हिंदी भाषी दिखाओ.. नहीं तो कुछ लोग अभी आ जायेंगे कटाक्ष करने के लिये.. भले ही अंदर से आप जैसे भी हों, यहां खुद को सबसे भला दिखाने में कोई कसर नहीं होनी चाहिये..

किसके बारे में लिखूं? अपने आफिस के लोगों कि बातें करूं, या अपने दोस्तों कि चर्चा करूं? या चुप ही रहूं और चुप रहकर ही अपनी मन कि बात कह डालूं..

4 comments:

  1. भाई। होता है कभी कभी ऐसा भी जब बहुत से विषय घुमड़ रहे होते हैं, लेकिन लिखने को एक भी नहीं मिलता।

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  2. असंशय महाबाहो मनः दुर्निग्रह चलम,
    अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्यें च गुह्यते.

    अत: मन को वश में कर के मन के बारे में लिखो :)

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  3. वाह मित्र, आपकी भी बात खूब पसन्द आई,क्या लिखूँ?क्या लिखूँ? कहते कहते अपनी बात भी कह गये,और वो बात हम तक पहुँच भी गई.. यही तो बात मेरे साथ भी है,मन हमेशा भटकता रहता है अब क्या किया जाय क्या लिखा जाय,ऐसा जैसे सब मेरा ही इंतज़ार कर रहे हों जैसे...आपकी बात मे मेरी भी कुछ झलक मिल रही है..कुछ कुछ मेरे साथ भी ऐसा ही होता है..आप जो भी सोच रहे हों मत समझिये कि आप अकेले सोच रहे है...वही चीज़ आपसे दूर बैठा व्यक्ति भी सोच रहा है...क्या बात है लिखते रहिये...हम पढ़ रहे हैं....

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