संजीव नारायण लाल पूरा नाम है उसका.. कुछ लोग उसे संजीव बुलाते हैं तो कुछ लोग नारायण लाल.. मगर हमारे अधिकतर मित्र उसे लाल साहब ही कहते हैं.. बहुत ही अजीव किस्म का इंसान है(कभी-कभी तो मुझे अपनी इस बात पर भी शंका होती है कि इंसान है भी या नहीं :P).. उसे आप कभी जीवट पायेंगे तो कभी अति उत्साही.. कभी महा आलसी तो कभी उजड्ड किस्म का.. मगर आप उसके जितेने करीब आते जायेंगे वैसे-वैसे आप भी उसके मुरीद होते जायेंगे.. खुद को एक कट्टर हिंदू दिखाना उसके स्वभाव में है, मगर मुझे ये भी पता है कि अगर वो किसी को मुसिबत में देखेगा तो ये कभी नहीं पूछेगा कि उसका धर्म क्या है और बिना कुछ कहे उसकी सहायता में लग जायेगा और जब तक सामने वाला उसे अपनी सहायता के लिये धन्यवाद देना चाहे उससे पहले ही उसका वो वहां से अंतर्ध्यान हो जाना उसके साधारण से स्वभाव मे मिश्रित है.. संजीव मुझे बहुत पसंद है क्योंकि मेरी नजर में यह बहुत ही अच्छा इंसान है.. पहले दूसरों के बारे में सोचना फिर अपनी खबर लेना इसके प्राकृतिक स्वभाव में है..
होस्टल के समय की तस्वीर.. हमलोग परीक्षा के समय आल्मिरा के अन्दर बैठ कर पढ़ रहें हैं.. बाएँ तरफ संजीव है और दाहिने तरफ मैं हूँ.. :D
अभी महाशय मुम्बई में हैं.. हर दिन दौड़ते हुए कम्पनी वाली बस पकड़ना इनकी फितरत बन चुकी है और आफिस पहुंचते ही हम सभी को एक मेल जरूर करेंगे की आज बस कैसे पकडी या आज कैसे बस छूटी और सुबह कैसे १० मिनट में तैयार हुआ.. मुझे अभी भी कालेज के दिन याद आते हैं जब संजीव पूरे लगन के साथ हर दिन संकल्प करता था की आज से तो पढाई शुरू कर ही देनी है मगर वो आज कभी नहीं आता था, हाँ मगर एक बात तो जरूर है की पढाई चाहे ना करे, कक्षा में अच्छे नंबर भी ना आये मगर यह दिमाग का बहुत तेज था(क्या करूं संजीव आजकल हमारे साथ नहीं रह रहे हो ना, नहीं तो मैं लिखता की है :D).. वैसे मुझे अभी भी इसकी कुछ मजेदार बात याद आती है जैसे, C Language का फ्लो-चार्ट बनाने के लिए बेचारा बिलकुल हक्का-बक्का होकर बैठा हुआ चेहरा, हर समय इसके गले में लटकने वाला मोबाइल फोन, कैसा भी टी-शर्ट पहन कर कहीं भी चले जाना, जो भी पूरे लगन के साथ करने का सोचना वो कभी ना होना.. सबसे बड़ी बात ये की अगर इसे सुबह जल्दी उठना हो तो पूरी रात नहीं सोना की कहीं सुबह उठ ना पाऊँ और एन वक्त पर ठीक उसी समय सोना जब इसे काम हो.. और महाशय एक बार सो गए तो पूरे होस्टल की घडियाँ चिल्ला-चिल्ला कर खराब हो जाए तो हो जाने दो मगर इनकी नींद नहीं टूटने वाली है.. आज भी मुझे याद है जब होस्टल का पूरा फ्लोर इसके लगाए हुए अलार्म से जग जाया करता था मगर इसकी नींद नहीं खुलती थी.. और तो और इसे रूम-मेट भी चुन कर मिला था.. दोनों उसी घंटी की कर्ण फोडू शोर में सोये रहते थे जब तक कोई गालियाँ देते हुए इसका रूम पीट कर इन्हें जगा ना दे..
अरे यार क्या क्या गिनाऊं.. दिल से कहूं तो तुम बहुत याद आते हो.. आज के समय में अगर कोई भी मित्र बिना मतलब का मुझे फोन करता है तो उसमे तुम्हारा नंबर पहला है.. नहीं तो आज हालत ये है की भले हम कितने ही अच्छे मित्र हों मगर किसी को कुछ जरूरत होती है तभी उसका फोन आता है..
बोलने में तो महाशय पक्के उस्ताद हैं.. एक बार कुछ कहने को मिल जाए तो बस तर्क क्या और कुतर्क क्या.. होस्टल के समय में हमें जब कभी अंग्रेजी के शब्दों की जरूरत होती थी तो संजीव की ही सबसे पहले खोज होती थी.. सिनेमा के शौकीन और वो भी ऐसे वैसे नहीं, हर सिनेमा को कम से कम एक बार सभी को देखना चाहिए ऐसी विचारधारा रखने वाले.. अगर संजीव की चर्चा मैं करूं और इसके बैडमिन्टन प्रेम की बात ना करूं तो चर्चा अधूरी रह जायेगी.. इसके अति उत्साही स्वभाव(जिससे मैं हमेशा परेशान रहता था) और उसी अति उत्साह में अपने छाती की हड्डी में हल्का फ्रैक्चर कराना और छः माह तक इस खेल से दूर रहना और बस हमलोगों को खेलते हुए देखना इसके लिए किसी जुल्म से कम नहीं था..
मेरे और संजीव की विचारधारा में कभी मेल नहीं हुआ.. अगर मैं कहूंगा की पूरव चलो तो ये पश्चिम जाने को तैयार मिलेगा और अगर ये कहे की उत्तर चलो तो मैं दक्षिण जाना चाहूंगा.. मगर शायद इसे भी पता नहीं है की मैं इसे कितना मानता हूँ.. कोई बात नहीं, मेरे इस पोस्ट से इसे पता चल ही जायेगा.. :)
तुम्हारे भविष्य के लिए तुम्हें ढेरों शुभाकानाओं के साथ मैं आज का ये चिटठा समाप्त करता हूँ..
Keyword : Sanjeev Narayan Lal, VIT Friends, Good Human Being..
लाल साहब को लाल सलाम मेरी तरफ़ से!
ReplyDeleteमाफ करना। ये संजीव नारायण लाल जी जरा खोल वाले भाई लगते हैं। सर्दी जुकाम से अधिक डरने वाले। बचने के लिए खोल धारण किये हुए।
ReplyDeleteभाई तुम्हारे लाल साहब सचमुच मे मस्त इन्सान हे , ओर इन्सान हो तो ऎसा ही, बाकी सनकी होना गलत नही लेकिन सनक सही होनी चाहिये, मे भी एक बार जिस काम के पिछे पढ जाउ वो मेरे से बच नही सकता, ओर जब तक वो पुरा ना हो जाये मुझे ना खाना अच्छा लगता हे ना पुरी नीद ही आती हे, अगर यह सनक हे तो मे कहुगा अच्छी हे
ReplyDeleteबहुत बढिया,
ReplyDeleteहर कालेज में संजीव जैसे जिन्दादिल मिलते हैं जो हमेशा याद रहते हैं ।
वैसे अलमारी मैं बैठ के पढने का तरीका पसन्द आया, इसे आज ही प्रयोग करके देखता हूँ :-)
दुनियां की प्रगति में सबसे ज्यादा योगदान सनक का है!
ReplyDeleteहमारा लाल सलाम ओर २१ तौपे भी.....
ReplyDeleteदोनो अलमारी मे बंद हो और ताली खो जाये :)
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट! बधाई ऐसे दोस्त मिलने और बने रहने के लिये।
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