Saturday, September 29, 2007

दो विपरीत अनुभव

पहला अनुभव

मैं चेन्नई में जहां रहता हूं वहां से कार्यालय जाने वाले रास्ते में 'बस' में बहुत ज्यादा भीड़ होती है। उस भीड़ का एक नजारा आप भी इस तस्वीर में ले सकते हैं। (चित्र के लिये आभार 'हिंदू' को)

मैं उस दिन अपने कार्यालय से जल्दी घर के लिये निकल गया था। मैं उस दिन अपने कार्यालय से जल्दी घर के लिये निकल गया था। 'बस' में अपने लिये जगह बनाने के लिये मैं 'बस' के पीछे वाले हिस्से में चला गया। वहां देखा एक बहुत ही बुजुर्ग, जो शायद मेरे दादा जी के उम्र के होंगें और जिन्हें चलने में भी परेशानी होती होगी, वहां खड़े हैं। मुझे वहां बैठे अपने उम्र के लोगों पर तरस आया की इनके पास इतना भी संस्कार नहीं है की खुद उठ कर उन्हें बैठने के लिये जगह दे दें। संस्कार कि बात अगर हटा भी दें तो इतनी मानवीयता तो होनी ही चाहिये। थोड़ी देर बाद मैंने देखा की आगे वाले एक जगह खाली हो रही थी और मैंने लपक कर उस जगह पर बैठ गया। और अपने बगल में खड़े एक सज्जन को कहा की उन्हें यहां बुला दें जिससे मैं उनको बैठने के लिये जगह दे सकूं। वो सज्जन अंग्रेजी नहीं समझ पा रहे थे और मुझे तमिल नहीं आ रही थी। खैर मैंने किसी तरह इशारों में उन्हें समझाया और अंततः वो समझ गये और उन्हें बुलाया। मैं वहां से खड़ा हो गया और उनको बैठने के लिये जगह दे दिया, उन्होंने मुझे तमिल में कुछ कहा जिसे मैं समझ नहीं पाया पर इतना जरूर अंदाजा लगा लिया की वो मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। फिर मैंने देखा कि वहां बैठे लोग मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैंने कुछ गलती कर दी हो और उनकी नजरें मेरा उपहास कर रही थे। पर मुझे उन नजरों की कोई चिंता नहीं थी, और उनके उपहास भड़ी नजरों से मेरा सर गर्व से और ऊंचा हो गया।

दूसरा अनुभव

यहां मैंने पाया है कि चेन्नई में उत्तरी भारतीय लोगों के लिये एक बात बहुत आम है और वो यह है कि यहां अक्सर आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो आपसे हिंदी में बात करेंगे और बतायेंगे की कैसे वो यहां आये थे और कैसे उनका सारा सामान चोरी हो गया और अब उनके पास खाने के लिये कुछ भी नहीं है। वो वापस कैसे जायेंगे इसका भी कुछ पता नहीं है। कुछ पैसों से अगर मदद मिल सके तो कर दें। वे सारे लोग आपको अच्छे कपड़ों मे सजे-धजे दिखेंगे और अगर आप चेन्नई में नये हैं तो आप जरूर उनके बहकावे में आकर ठगे जायेंगे।

उस दिन मेरे मित्र विकास के पापा आने वाले थे और मुझे उनको लेने रेलवे स्टेशन जाना था। उसके लिये मैंने यहां के मांम्बलम स्टेशन से लोकल लेकर चेन्नई सेंट्रल जाना मुनासिब समझा। जब मैं अपने कार्यालय से स्टेशन के रास्ते पर था तो मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे कोई पूकार रहा हो। "भाई साहब आप हिंदी जानते हैं!" मैं ठिठक गया, सोचा शायद ऐसा कोई हो जिसे कहीं जाने का रास्ता या पता चाहिये होगा। और उसे सही सही कोई बता नहीं पा रहा होगा।
मैंने देखा एक आदमी अपनी बीबी और एक बच्चे के साथ था। वो बताने लगा की वो औरंगाबाद महाराष्ट्र का रहने वाला है और उसकी बात यहां कोई समझ नहीं पा रहा है, क्योंकि उसे अंग्रेजी ठीक से नहीं आती है। मैं उस समय जल्दी में था पर फिर भी रूक कर उसकी बात सुनने लगा की शायद कोई मदद कर सकूं। मगर वो भी वही बात दोहराने लगा जो मैं चेन्नई में आने के बाद कई बार सुन चुका हूं। और फिर मैं अपना मुंह बनाते हुये उसकी पूरी बात सुने बिना आगे बढ गया। पर आगे बढने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने कुछ गलत कर दिया हो, क्योंकि मुझे उसके बच्चे का चेहरा याद आया जो मासूमियत से भड़ा हुआ था और अपने पिता को देखे जा रहा था। उसे शायद पूरी उम्मीद थी की शायद इस बार कुछ बन सके। और वो कुछ भूखा भी लग रहा था। मुझे पहली बार ऐसा लगा की वो आदमी सही था। लेकिन मैं अब वापस पीछे नहीं जा सकता था नहीं तो मुझे बहुत देर हो जाती। मैंने अपने मन को समझाया कि अगर मैं उसकी मदद करना चाहता, तब भी नहीं कर पाता क्योंकि मेरे पास 7-8 रूपये चिल्लर के अलावा कुछ 500 के नोट थे। लेकिन मुझे पता है कि वो गलत तर्क है, क्योंकि अगर मैं उसकी मदद करना चाहता तो मेरे पास 3-3 कार्ड थे और वो रास्ता बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर से भड़ा हुआ था। अगर मैं चाहता तो कुछ खाने के लिये खरीद कर उसे दे सकता था।

अभी भी मैं सोचता हूं तो थोड़ी तकलीफ होती है कि किस तरह हमलोग ठगों से बचने के चक्कर में जरूरतमंदों से भी नजरें मोड़ लेते हैं।

Monday, September 24, 2007

कवि का निर्माण (व्यंग्य)

मैंने अक्सर लोगों को और अपने दोस्तों को कहते सुना है कि जब किसी का दिल इश्क़ में टूटता है तो वो कवि बन जाता है और कवितायें लिखने लगता है। मेरी भाभी मुझे अक्सर चिढाती भी हैं कि आपका दिल किसने तोड़ा कि आप कवितायें लिखने लग गये। और मेरे पास कोई जवाब नहीं होता है। मैं सोचने लगता हूं की किस-किस का नाम् लूं, कोई एक हो तो। जहां कोई खूबसूरत हसीना दिख जाती है बस दिल वहीं अटक जाता है। शायद जवानी की मस्ती ऐसी ही होती है। लेकिन मेरी बात को कोई गंभीरता से लेता ही नहीं है तो इसमें मेरी क्या गलती है? हर वक़्त उन्हें लगता है की मैं उनसे मजाक ही कर रहा हूं।

खैर मैं आया था कुछ रिसर्च वर्क करने और अपनी ही कहानी सुनाने बैठ गया। रिसर्च का विषय है "कवि का निर्माण"। अगर दिल टूटने से ही कोई कवि बन जाये या फ़िर मेरी तरह छोटी-मोटी कवितायें लिखने लगे तो, मुझे इस पर आश्चर्य होगा की हमारे महान भारत की पृष्टभूमि से जिन महाकवियों की उपज हुई है, वो कवि कैसे बने होंगें? बाल्मिकी से लेकर तुलसी दास तक और दिनकर से लेकर सुभद्रा कुमारी चौहान तक, सभी के पीछे एक दिल टूटने की कहानी होनी चाहिये। वैसे भी ये कहा गया है :

वियोगी होगा पहला कवि,
आह से उपजा होगा गान।
आंखों से बहकर चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान।




मैं जहां तक तुलसी दास के बारे में जानता हूं, वो अपनी पत्नी की बातों से आहत होकर भगवान की खोज में निकल पड़े थे और स्त्रीयों के बारे में उनके विचार इस पंक्तियों से पता लग सकता है :

ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी।
ये सब तारण के अधिकारी।


हां तो मैं बोल रहा था की कुछ ना कुछ गड़बड़ तो जरूर होनी चाहिये इस सभी महान कवियों के पीछे। कम-से-कम एक रहस्य तो जरूर होनी चाहिये जिसकी खोज करके लोग PHD की डिग्री ले सकें। छोटी-मोटी कई कहानी ना होकर एक सॉलिड कहानी तो होनी ही चाहिये। वैसे अगर ये कहावत सही है की "सौ चोट सुनार की, एक चोट लुहार की", तो हमारे रोमान्टिक कहानियों के सुपर हीरो मजनू को इस कविता की दुनिया के सबसे पहुंचे हुये कवि का खिताब मिलना चहिये।

खैर मेरा रिसर्च अभी यही तक पर सीमीत है, अगर आप इस पर रिसर्च करके कुछ और तथ्य को सामने ला सकें तो बहुत कृपा होगी। शायद मैं इसी में PHD की डिग्री प्राप्त कर लूं!!!
:D

"सामर्थ्य और सीमा" के कुछ अंश

'टन-टन-टन' घड़ी ने तीन बजाये और चौंककर मेजर नाहरसिंह ने अपनी आंखें खोल दीं। अब मेजर नाहरसिंह को अनुभव हुआ कि रात के तीन बज गये हैं। दिन निकलने में कुल दो घण्टे बाकी हैं। कितनी तेजी के साथ यह समय बीत रहा है। इस समय को सेकण्ड, मिनट, घण्टे, दिन-रात, महीनों, वर्षों, सदियों, युगों और मन्वन्तरों में विभक्त किया है मानवों ने। अपनी सीमा को लेकर आने वाला यह अहम् और दर्प से युक्त मानव इस अखण्ड और निःसीम काल को सीमाओं में विभक्त करता चला आ रहा है। और एकाएक मेजर नाहरसिंह के अन्दर वाली ग्लानि जाती रही, उनके मुख पर एक हल्की मुस्कान आयी, "मुर्ख् कहीं के! इस समय को भी कोई विभक्त कर सका है? निःसीम की कहीं सीमा निर्धारित की जा सकती है? इस काल के उपर भला किसी का अधिकार है? असीम, अक्षय! यह काल हरेक को खा लेता है, इसकी क्षुधा का कोई अन्त नहीं है। इस काल से भला कोई लड़ सकता है या कोई लड़ सका है? इस काल को विभक्त करके उसे नापने का प्रयत्न करनेवाली यह घड़ी स्वयं काल का ग्रास बन जायेगी। राजभवन के कूड़े-खाने में न जाने कितनी टूटी हुई बीकार घड़ियां पड़ी थी, एक दिन यह घड़ी भी उसी ढेर में डाल दी जायेगी। इस घड़ी को बनाने वाला भी कितना मूर्ख था!"

और... और उसी समय उनका ध्यान उनके हृदय से आनेवाली टिक-टिक की आवाज पर गया। इस हॄदय-रूपी यन्त्र को किसने बनाया? क्या वह भी मूर्ख है? समस्त अस्तित्व मानव का इस हॄदय की धड़कन पर अवलम्बित है। न जाने कितने हॄदय पिण्ड कब्रों के अन्दर पड़े हैं। और फ़िर भी 'टिक-टिक' करनेवाले यह हॄदय-पिण्ड, इन्हीं के कारण से मानव का अस्तित्व है।
-भगवतीचरण वर्मा


Saturday, September 22, 2007

कल्पनायें

आज अपने एक मित्र से बात कर रहा था तो वो युं ही मज़ाक में बोली थी कि अब बस इमैजिनेट करते रहो, उस समय मन किसी और ही भंवर में फ़ंसा हुआ था और मन ही मन में ये कुछ शब्द उभर आये जो मैं यहां लिख रहा हूं।


असीमित इच्छाओं की उड़ान,
जैसे पंछियों का गगन में उड़ना,
मगर ये मानव मन की उड़ान,
कुछ अलग है उनसे..
जैसे,
निर्जीव 'औ' असीम कल्पनाऐं,
और उन कल्पनाओं के पीछे भागता मनुष्य,
कल्पनाओं को पीछे छोड़ता मनुष्य..
पर ये तो निर्जीव हैं!
बिलकुल भावनाओं की तरह..
पर फ़िर भी कल्पनाऐं
'औ' भावनाऐं पनपती हैं..
और उनके पीछे भागता है मनुष्य...

Wednesday, September 12, 2007

कुछ कविताऐं दोस्तों की तरफ़ से

मैंने आज का अपना ये पोस्ट अपने इंटरनेट के मित्रों के नाम किया है जो अपने आप में एक अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी हैं। एक का नाम है वंदना त्रिपाठी और दूसरे हैं सजल कुमार। दोंनो ही अपने आप में कई खूबियों को समेटे हुये हैं। वंदना जी से मैं सबसे पहले दिसम्बर महीने में मिला था और सजल जी से मैं कब मिला मुझे याद नहीं है पर शायद अक्टूबर या नवम्बर में मिला था। इन दोनों ही से मेरी मुलाकात और्कुट पर हुई थी और वो भी सुपर कमांडो ध्रुव काम्यूनिटी में। वंदना जी की चर्चा मैं अपने इस ब्लौग पर पहले भी कर चुका हूं। उसे पढने के लिये यहां खटका दबाऐं।

य़े दोनों ही मेरे ऐसे मित्र हैं जिनसे बातें करते समय मुझे लगता ही नहीं है की मैं किसी ऐसे से बात कर रहा हूं जिससे मैं कभी मिला नहीं हूं। सजल जी की बातों से जहां मासूमियत झलकती है तो वंदना जी की बातो से परिपक्वता। दोनों ही के अपने-अपने तरीके हैं तो अपनी-अपनी पसंद भी। पर एक जगह जाकर दोंनो की पसंद मिल जाया करती है। वो ये की ये दोनों ही अच्छी कविताऐं लिखते हैं। जहां वंदना जी अंग्रेजी में कविता लिखने के हुनर में माहिर हैं तो सजल जी हिंदी और उर्दू की अच्छी समझ रखते हैं।

यहां लिखी हुई पहली कविता वंदना जी की लिखी हुई है और दूसरी कविता उसे उसी अंदाज में सजलजी के द्वारा अनुवाद किया हुआ है। इसके मौलिक रूप को पढने के लिये आप यहां खटका दबाऐं।

Today the wind is blowing so fast,

That I can remember the Memories of my past

I can feel the moisture of Your tears in the Air

I can feel the Fragnance of Your body here & there

All these sparkling stars in the Sky

Make Me to remember

The Serenity of Your Eyes

As the Wind kisses My Cheeks

I can remember

The Softness of Your lips

As these black clouds are Wandering without Fear

It's natural for Me

To image them as Your untied Hair

All these beautiful things make to feel that

I am not Alone

Somebody is always besides Me to shape My SOUL!!!

ये सजल जी के द्वारा किया हुआ अनुवाद है।

आज इन हवाओं में कुछ ऐसी गति है,

कि इनमे नज़र आती मेरे अतीत की प्रगति है,

हवाओं में तेरे

आँसूओं की नमी महसूस होती है,

तेरे बदन की खुश्बू यहीं कहीं महसूस होती है,

आकाश के ये चमकते सितारे याद दिलाते है

तेरे आँखों की शांत चंचलता,

जब हवा सहला जाती है मेरे गालो को,

मुझे याद आती है तेरे होंठो की कोमलता,

ये निर्भीक काले बादल स्वभाविक रूप से

तेरे खुले बालों कि भाँति नज़र आते है,

ये खूबसूरती का 'आलम' कराता है एहसास,

की मैं अकेली नही हूँ,

कोई हमेशा है पास,

और जो मेरी आत्मा को नये आयाम,

नये मायने दे रहा है..


सबसे बड़ी बात तो ये है कि ये दोनों ही पेशे से लेखक या कवि ना होकर इंजीनियर हैं। जहां सजल जी अभी अपनी पढाई पूरी भी नहीं किये हैं, वहीं वंदना जी अभी-अभी अपनी पढाई पूरी करके नोयडा में अपनी पहली नौकरी में गई हैं।

Tuesday, September 11, 2007

तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी

आज सुबह से ही मैं इस गीत को मन ही मन गुनगुना रहा था, सो सोचा क्यों ना आज इसे अपने ब्लौग पर चिपका ही दूं। वैसे मुझे इस सिनेमा के सारे गाने ही पसंद हैं और 'लकड़ी पे काठी' वाला गाना तो मेरे बचपन की याद से भी जुड़ा हुआ है पर इस गाने से कुछ और ही लगाव है। इस गाने में गुलजार ने जीवन के यथार्थ से भी हमारा परिचय कराया है तो वहीं 'हूजूर इस कदर भी ना' में जवानी की मचलती तरंगों को भी महसूस किया जा सकता है।
शेखर कपूर की इस फ़िल्म में उन्होंने पेश किया है एक उलझते गृहस्ती की उल्झने और वो कैसे एक दूसरे की समझ से ही सुलझ सकती है। नसिरूद्दीन साह, शबाना आजमी और साथ में जुगल हंसराज की अभूतपूर्व अदाकारी ने तो जैसे पूरे फ़िल्म में जान फ़ूंक दी है।

मुझे याद भी नहीं है की मैंने इस फ़िल्म को कितनी बार देखी है और मैं ये भी नहीं बता सकता हूं कि मैं इसे और कितनी बार देखूंगा। मैं पहले दूरदर्शन पर इसके आने का इंतजार करता था और अक्सर सहारा इंडिया पर इसे पा भी लेता था। पर उसमें बीच में आते ब्रेक के चलते फ़िल्म का मज़ा किरकिरा हो जाता था, फिर मैंने अंततः पूरे फ़िल्म का मजा लेने के लिये इसकी सीडी बाजार से खरीद ली।

तो चलिये इस गाने को पढते हैं और गुनगुनाते हैं। इस गाने को लिखा है गुलजार ने, इसके दो वर्जन हैं, पहला अनुप घोषल की आवाज में और दूसरा लता मंगेशकर की आवाज में।

इस गाने को यहाँ सुने...

Tujhse Naraaz Nahi...



तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूं मैं,
हैरान हूं मैं..

तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं,
परेशान हूं मैं..

जीने के लिये सोचा ही नहीं, दर्द संभालने होंगे..
मुस्कुराए तो, मुस्कुराने के कर्ज उतारने होंगे..
मुस्कुराए कभी तो लगता है, जैसे होंठों पे कर्ज रखा हो..

तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूं मैं,हैरान हूं मैं..
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं,
परेशान हूं मैं..


जिंदगी तेरे गम ने हमें रिश्ते नये समझाये..
मिले जो हमें, धूप में मिले, छांव के ठंडे साये..
ला ला ला, ला ला ला ला...............

तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूं मैं,
हैरान हूं मैं..

तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं,
परेशान हूं मैं..

आज अगर भर आयी हैं, बूंदे बरस जाएगी..
कल क्या पता इन के लिये, आंखे तरस जाएगी..
जाने कब गुम हुआ, कहां खोया, एक आंसू बचा के रखा था..

तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूं मैं,
हैरान हूं मैं..
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं,
परेशान हूं मैं..

Monday, September 10, 2007

अव्यवस्थित किस्से

जैसा कि मेरे इस लेख का विषय है, आपको मेरे इस लेख में कुछ भी व्यवस्थित रूप में नहीं मिलेगा। सो आपसे निवेदन है कि आप कृपया इसमें सामन्जस्य बिठाने की कोशिश ना करें। इसमें कोई भी घटना कहीं से भी किसी भी तरफ़ मुड़ सकती है, इसका दोष मुझे मत दिजीयेगा। हां मैं सिर्फ़ आपको इतना भरोसा दिलाता हूं की सारी घटनायें सही है और मेरे जीवन में इसका इतना महत्व तो है की मैं इसे भूलना नहीं चाहता।

मेरे कालेज का मुख्य द्वार

कई मित्रों का मानना है कि मैं गाना अच्छा गाता हूं और अक्सर मुझसे गाना गाने का आग्रह करते रहते हैं। एक अंधे को क्या चाहिये बस दो आंखें उसी तर्ज पर एक कवि या गवैये को क्या चाहिये बस एक श्रोता। और मैं भी आनंद सिनेमा के राजेश खन्ना कि तरह कभी खाने और गाने मे शरमाता नहीं हूं। खैर ये तो बस एक भूमिका थी, असल बात तो ये बताना था कि कैसे दोस्तो ने ये निर्णय किया था की रात के खाने के बाद सब बैठकर गाना गाना सिखेंगे। और मेरा सोचना था कि जूनियरों के उपर ये अत्याचार के अलावा और कुछ नहीं होगा। आखिर वे बोल भी क्या सकते थे और मेरे कमरे के आस-पास विकास, संजीव और नीरज को छोड़कर बाकी सभी जूनियर ही रहते थे। खैर हमने कभी इसे गम्भीरता से लिया नहीं तो बेचारों का पता नहीं क्या होता।


अर्चना बैंगलोर के फोरम मौल में

मैं आपको दूसरे दॄश्य में लिये चलता हूं। मैं चेन्नई में नया-नया आया था और नये जगह में नयी भाषा और नयी संस्कॄति में जल्दी रम नहीं पा रहा था सो उस दिन कहीं मन नहीं लग रहा था। उस दिन गूरूवार था और रात में मुझे पता चला की शुक्रवार को अर्चना बैंगलोर जाने वाली है। और मैने आनन-फ़ानन में बैंगलोर जाने का प्रोग्राम बना लिया। खैर, शुक्रवार को दफ़्तर ना जा कर मैं बैंगलोर के लिये निकल लिया। रास्ते में काटपाड़ी(अर्चना को वहीं से चढना था) से अर्चना का साथ मिल गया। फ़िर बैंगलोर पहूंचकर वहां से हम दोनों वाणी, प्रियंका और प्रियदर्शीनी के आफिस चले गये। शाम के समय हम दोनों और साथ में प्रियंका और प्रियदर्शीनी भी वाणी का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर में वाणी हमलोगों को ढूंढते हुये हमलोगों के पास पहूंची तो अर्चना के मुंह से ठेठ बिहारी स्टाईल में अचानक ही ये निकल गया कि, "तुम हम लोग को उधर ढूंढ रही थी और हम लोग यहां खड़े होकर बतिया रहे थे।" उसके बाद हंसते हुये अपना माथा पिटते हुये बोली की ये मैं क्या बोलने लगी हूं, तुम लोगों के साथ रहते हुये मैं भी बिहारी भाषा बोलने लग गयी हूं। मुझे कोई बिहारी बॊय फ़्रेन्ड नहीं बनाना है जो तुम लोग मुझे ये सिखा रहे हो। दरअसल अर्चना बचपन से ही मुंबई और दिल्ली में रहती आयी थी और कालेज में आकर ही बिहार के लोगों के संपर्क में आयी थी और वो भी ऐसा की हमारे झुंड(झुंड इसलिये कहा क्योंकि हमारा ग्रुप था ही इतना बड़ा कि उसे ग्रुप नहीं कह सकते थे)में 1-2 को छोड़ कर सारे बिहार या झारखंड से ही थे।


वालपरई की खूबसूरत पहाड़ियां

तीसरे दॄश्य में आपको लिये चलता हूं वालपरई की खूबसूरत घाटियों में। ये तमिलनाडू में स्थित है और यहां चाय के कई बागान आपको मिल जायेंगे। ये एक बहुत ही खूबसूरत जगह है और किसी भी तरह से उंटी और मुन्नार(केरल) से कम नहीं है पर ज्यादा लोगों को इसकी जानकारी नहीं है शायद इसीलिये यहां पर्यटकों की ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं है और इसका फायदा मुझ जैसे चंद पर्यटकों को मिल जाता है जो वहां कि अनछुई खूबसूरती देखने पहूंच जाते हैं। हमें वहां तक पहुंचते-पहूंचते रात के 10:30 से ज्यादा बज गये थे, और वहां होटल पहूंचते ही सभी थक कर चूर हो गये थे। फिर वाणी ने कहा की सुबह-सुबह कौन घुमने चलेगा मौर्निंग वाक पर? कोई तैयार नहीं हुआ, सभी सुबह की मीठी नींद खराब नहीं करना चाह रहे थे। बस मैं बोला की मैं उठ जाउंगा, पर तुम सोये मत रह जाना। और सुबह जब मैं उठा तो वहां की खूबसूरती देखता ही रह गया। चारों ओर बस पहाड़ीयाँ थी जो चाय के बागानों से ढकी हुयी थी। मैंने बस अपना कैमरा निकाला और धराधर फोटो लेना चालू कर दिया। फिर जाकर तैयार हो गया। इस बीच एक के बाद एक सभी उठने लगे और वहां की खूबसूरती को निहारने लगे। सबसे पहले अमित उठा और उठते ही चिल्लाया "अरे यार मस्त"। और उसने इस एक वाक्य को इतनी बार कहा की सभी कोई उठ कर एक बार जरूर चिल्लाते, "अरे यार मस्त"। फिर तो ये वाक्य हमारा उस यात्रा में पंचलाइन ही बन गया। कुछ भी अच्छा दिखा बस सभी बोल उठते, "अरे यार मस्त"। आज भी कुछ अच्छा दिखता है और अमित मेरे साथ होता है तो मैं एक् बार जरूर कहता हूं, "अरे यार मस्त" और उन पलों को याद कर लेता हूं।

आप सोच रहे होंगे की मैं मौर्निंग वाक पर गया की नहीं, तो जवाब ये है की वाणी सुबह-सुबह उठी और तैयार होकर फिर सो गयी। तमिलनाडू की उमस भरी गर्मी को झेलने के बाद कोई भी उस ठंढे वातावरण में सोने का मज़ा खोना नहीं चाहता था। :)