Wednesday, October 22, 2008

भैया के जन्मदिन पर ओ गदही बोलने वाली चिड़िया के नाम एक पोस्ट और

कल रात घर पर फोन से बातें हुई.. बातें शुरू होते ही बातों का रूख अचानक से मेरे चिट्ठे की ओर घूम गया.. एक एक करके सभी "एक चिड़िया जो ओ गदही पुकारती थी" वाले पोस्ट पर अपने विचार व्यक्त करने लगे.. यूं तो मुझे पता है कि मेरे हर पोस्ट को मेरे घर में सभी पढते हैं मगर मेरे उस पोस्ट पर कल पहली बार भैया कमेंट करने कि कोशिश भी किये जिसमें असफल रह गये(नेट कनेक्शन कि कुछ दिक्कत थी उन्हें) और आज फिर से उन्होंने कोशिश कि और उनका कमेंट कुछ यूं था.. सच कहूँ तो मुझे लगता है कि जब भी मैंने आपका कोई स्तम्भ पढा है तो मुझे उसमें कुछ ना कुछ खामियाँ ही नज़र आयी, इसमें भी है जैसे कि सीतामढी होता है ना कि सितामढी, पर आपने इतने दिल से लिखा है कि आँखें नम हो गयी। अचानक ही लगा कि मैं 20 साल पीछे चला गया हूँ, वही सब कुछ आँखों के सामने आ गया।

उन्होंने सच ही लिखा है.. इससे पहले जो कुछ भी मैं लिखता था उसमें बस मेरी यादें जुड़ी रहती थी मगर उस पोस्ट में बस मेरी ही नहीं पापा-मम्मी, भैया-दीदी, सभी कि यादें जुड़ी हुई थी.. तभी पापाजी से मैंने पूछा कि आप कितने दिनों के लिये चक्रधरपुर गये थे? उन्होंने कहा शायद 2-3 महीनों के लिये.. तभी पीछे से मम्मी कि आवाज आयी कि नहीं बस 1 महीने में ही लौट आये थे.. मेरे मन में यह बात आयी कि सच में जब इंतजार का लम्हा बहुत लम्बा हो जाता है तब एक-एक दिन महिनों कि तरह गुजरता सा मालूम होता है..

उस पोस्ट पर कुछ यादगार कमेंट्स भी आये जिनकी चर्चा अगर मैं यहां नहीं करूं तो यह मेरे पाठकों के साथ अन्याय ही होगा.. डा.अमर कुमार जी ने तो पूरी एक कविता और एक पोस्ट ही उस पर ठेल दी.. मैंने पापाजी को कहा था कि वो कविता मैं उन्हें मेल करूंगा मगर आज फिर से उसे यहीं डा.साहब से पूछे बिना ही अपने पोस्ट पर डाल रहा हूं.. मैं उम्मीद करता हूं कि वो से अन्यथा नहीं लेंगे..

आहः पुछरू, निमिष मात्र में
तुमने मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया,
सीतामढ़ी के आगे का स्टेशन रीगा,
उसके बगल ही में सुगर फ़ैक्टरी,
आहः पुछरू,जीते रहो !

ठीक उसके पीछे एक गाँव उफ़रौलिया,
जिसकी पगडंडियों पर ऊँगली पकड़ कर चलते हुये,
अपने बाबा से मिलती संस्कार शिक्षा...
सबकुछ अब जैसे बिखरा हुआ है, वहाँ !
आहः पुछरू,जीते रहो !

आधा गाँव तो कलकत्ता कमाने पहुँचा
बाकी को पटना मुज़फ़्फ़रपुर राँची ने निगल लिया।
बचे फ़ुटकर जन छिटपुट शहरों में हैं,
एक नाम उफ़रौलिया को जीते हुये ...
आहः पुछरू,जीते रहो !

कसमसाते हुये, लाल टोपी को कोसते हुये
उफ़रौलिया की गलियों में विचर रहेः हैं
उम्र की इस ठहरी दहलीज पर
उस माटी में लोटते हुये
आहः पुछरू,जीते रहो !

पर मैं भी कितना स्वार्थी हूँ कि
यह सब याद करते करते जाने कहाँ खो गया
और तुम्हारी गदहिया पर
कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी ..
आहः पुछरू,जीते रहो !

यह मेरे पोस्ट का सौभाग्य ही है जो किसी और को भी यादों कि गलियों में भटका गया.. आपका बहुत बहुत धन्यवाद डा.साहब..

उस पोस्ट को पढने के बाद ज्ञान जी भी यादों कि गलियों में ही भटकते पाये गये.. उन्हें बचपन में गाया गया यह गीत याद हो आया..
तीसी क तेल
भांटा क फूल
हम तुम अकेल
जूझैं बघेल!


नीतिश राज जी ने कहा - पुराने दिनों की याद ताजा कर दी आपने प्रशांत। बहुत ही अच्छा लिखा है। साथ में एक बात और लगता है आपके पिताजी के ट्रांस्फर के कारण आप भी कई जगह देख चुके हैं। उसके ऊपर भी लिखिएगा कभी यदि मौका लगे तो जगहों के बारे में।

मेरा कहना है - नीतिश जी, मैं जरूर लिखूंगा.. आखिर कभी ना कभी यह पोटली भी तो खुलनी ही चाहिये..

दिनेश जी का कमेंट भी दिल को छू गया.. उन्होंने लिखा - यह वही चिड़िया है फिर से जनम पा कर आप के पास चली आयी है। पुराने दिनों की याद दिलाने।

अनिल जी, जितेन्द्र जी, लवली, ताऊ जी, दीपक जी, अनुराग जी, भूतनाथ जी, अनुप शुक्ल जी ने भी इसे सराहा.. सभी को यह यादें कहीं ना कहीं खींच कर अपने साथ लेती चली गई..

पूजा जी ने देर से मगर लिखा - यादों की गलियों से गुजरना अच्छा लगा. चिट्ठी के बारे में मेरा भी यही ख्याल है, हाथ के लिए ख़त में एक खास अपनापन होता है. शब्दों पर उँगलियाँ फेर मन लिखनेवाले के पास पहुँच जाता है. बिल कुल दिल से आपने लिखा है. मुझे भी अपना बचपन और गाँव याद आ गया. आज के इस भाग-दौड़ की दुनिया में अगर किसी को किसी कि याद दिला कर दो पल के लिये चैन कि दुनिया में मैं लौटा ले गया.. अब इससे बड़ी खुशी मेरे लिये और क्या हो सकती है?


आज मेरे लिये एक और बड़ी खुशी कि बात है.. आज मेरे भैया सुस्मित प्रियदर्शी का जन्मदिन भी है.. आप भी लगे हाथों उन्हें बधाईयां देते जाईये.. :)

Tuesday, October 21, 2008

२४ घंटे, जो ख़त्म होता सा ना दिखे (भाग दो)

अमित की कलम से
यहां भाग एक है

अंततः उसने मुझे पैसा वापस कर ही दिया और मैं बस से उतर गया.. अब तक हद हो चुकी थी.. मैं वापस बस स्टैंड आया इस आशा में कि कोई ना कोई बस मिल ही जायेगा और् आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ मैंने पाया कि एक बस थी भी वो भी AC बस.. मैंने फिर एक दौड़ लगायी और पहुंचा उसके कंडक्टर के पास..

मैंने उससे पुछा, "अंकल, एक सीट दे दो.." उसने मुझसे पैसे मांगे और मैंने दे दिये.. अरे ये क्या!! उसका टिकट मशीन ने काम करना बंद कर दिया.. NOT AGAIN.. 30 मिनट उसने भी कोशिश की.. पर वो ठीक नहीं हुआ.. अब तक रात के 12.15 हो चुके थे.. अंत में वह कंट्रोल रूम गया और उसे ठीक करके ले आया.. Fianlly I got the ticket और मैं बस में बैठ गया और बस चल पड़ी.. एक बात यहां ये अच्छी थी की यह बस अपने समय से 2 घंटे देरी से चल रही थी इसलिये मुझे यह बस मिल गयी..

खैर मैं बस में बैठ गया.. अब तक कि सारी बातें दिमाग में घूम रही थी और मैं सोच रहा था कि अब सब ठीक हो गया है.. पर किसे पता? मेरी किस्मत का? पता नहीं किसका चेहरा मैंने सुबह-सुबह देखा था..

हां तो अंततः मैं बस में चढ ही गया.. और बस लगभग 12.30 में खुल गयी.. अब मैंने सोचा कि चलो अब तो कुछ नहीं होगा और मैंने अपना आई-पॉड कान में डाला और सोने कि कोशिश करने लगा.. पर नींद आती तब ना? वही सारी बात दिमाग में घूम रही ती.. वही सब सोचते सोचते आंख लग गयी.. जब आंख खुली तो मैं इलेक्ट्रोनिक सिटी में आ चुका था.. मतलब बैंगलोर में घुस चुक थ.. थोड़ा सुकून मिला कि चलो बैंगलोर फहूंच गया.. लगभग 7.30 सुबह में मैजेस्टिक(बैंगलोर का प्रमुख बस अड्डा) भी पहूंच ही गया..

नया दिन नई शुरूवात.. अब कल की सारी बातें भूतकाल में जा चुकी थी.. और बैंगलोर पहूंचते ही मुझे काफी सुकून मिला.. काफी रिलैक्स महसूस करता हूं.. मैं लोकल बस स्टैंड कि तरफ बढ गया.. लोकल बस लेने के लिये.. मुझे यहां से बनसंकरी थर्ड स्टेज जाना था.. बस मिल गई.. मैं बैठ गया.. और बस चल भी पड़ी.. मैजेस्टिक से बनशंकरी बस 25-30 मिनट लगते हैं.. सो 8.10 के लगभग मुझे घर पर होना चाहिये था.. पर होनी को कुछ और ही मंजूर था.. और मेरा बैड लक अभी तक चालू था.. लगभग 5 मिनट चलने के बाद ही बस के गियर ने काम करना बंद कर डिया.. बेचारे ने बहुत कोशिश की.. पर कैसे ठीक होता मैं जो थ बैठा हुआ उस बस में.. मुझे मन में काफी हंसी आई.. खैर बस से उतर गया.. सोचा औटो ले लूं.. पर यह सोच कर कि औटो में क्यों पैसा बरबाद करूं.. सो वापस बस स्टैंड जाकर दूसरी बस ले लेता हूं.. मैं वापस बस स्टैंड गया.. पर अफ़सोस कोई बस नहीं थी.. सिर्फ एक ही नंबर 45B सीधे वहां तक जाती है और वो बस नहीं थी.. खैर कोई बात नहीं, मैंने ये सोच कर एक डूसरे नंबर की बस में बैठ गया जो बनशंकरी के पास मुझे उतार देती और वहां से मैं औटो ले लेता.. यह सोचकर मैं बैठ गया उसमें..

And thanks to God अब इस बस में कुछ नहीं हुआ और उसने मुझे BDA COMPLEX जहां मुझे उतरना था, उतार दिया.. अब बारी थी औटो लेने की.. 4-5 औटो खड़े थे.. मैंने एक-एक करके पूछा.. जिसने सबसे कम बोला मैं बैठ गया और औटो चल पड़ी.. मुश्किल से 15 मिनट का रास्ता था यहां से लेकिन लगभग 7-8 मिनट के बाद औटो रुक गयी.. मैंने पूछा क्या हुआ भाई? उसने कहा कि कुछ नहीं सर गैस खत्म हो गया है..(Not again) अभी चेंज करता हूं.. जान में जान आयी की उसके पास एक्स्ट्रा सिलेंडर था.. और वो उतर कर पीछे चला गया सिलेंडर बदलने.. काफी समय हो गय मगर वह वापस नहीं आया.. मैं भी उतर गया देखने के लिये कि इतना समय क्यों लग रहा है.. पीछे देखा.. That was Unbelievable.. I was just Shocked.. औटो वाला नीचे जमीन पर पड़ा था.. और उसके मुंह से कुछ लिक्विड निकल रहा था या कहें तो थूक निकल रहा था.. पूरा शरीर उसका बुरी तरह हिल रहा था.. मैं घबरा गया.. मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूं.. ऐसा मेरे साथ दूसरी बार हो रहा था.. पहली बार कब हुआ था ये कहानी फिर कभी..

आस पास कोई था भी नहीं.. सुबह का समय था.. मैंने उसे हिलाया डुलाया.. लेकिन सब बेकार.. उसका कांपना लगातार जारी रहा.. अब तक मुझे ये समझ में आ चुका था कि इसे मिरगी का दौरा पड़ा है.. लेकिन मैं क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था.. मेरे पास जो पानी था मैंने उसके चेहरे पर डाल दिया लेकिन कोई असर नहीं हुआ.. तब तक एक अंकल आते दिखे.. जौगिंग कर रहे थे वो.. मैंने उनसे मदद मांगी और उन्होंने बताया कि Epilepsy का केश है.. and see the Coincedence अरे नहीं वो डा.नहीं थे.. लेकिन उनका बेटा डाक्टर था.. उन्होंने मेरे फोन से अपने बेटे को कॉल किया.. उसने क्या कहा मुझे नहीं पता लेकिन उसके बाद अंकल ने उसे गोबर सुंघाया.. तब तक उनका बेटा भी आ गया.. और औटो वाले को होश भी आ गया थ..

उनके बेटे ने उसे कुछ टैब्लेट्स दीया.. फिर वो लोग कन्नड़ में आपस में बात करने लगे.. मुझे काफ़ी थैंक्स बोला.. औटोवाले ने तो हद ही कर दिया था.. फिर मैंने कहा यार मैं अब जाता हूं.. अब तक वो पूरी तरह नॉरमल हो चुका थ.. लेकिन औटोवाले ने बहुत जोर दिया कि वो मुझे घर तक छोड़ देगा.. और काफ़ी मना करने के बाद भी वो नहीं माना.. और एक बार फिर मैं औटो में बैठा और घर के तरफ निकल पड़ा.. वो अंकल और उनके बेटे ने भी काफी आभार प्रकट किया..

रास्ते भर औटो वाला थैंक्स बोलता रहा और बताया कि उसे कभी-कभी ये प्रोबलेम होती रहती है.. खैर लगभग 9.30 में मैं घर पहूंच गया.. जब औटो वाले को पैसा देने लगा तो उसने इंकार कर दिया लेने से.. लेकिन अंततः मैंने उसे पैसा दे ही दिया और मैं घर पहूंच गया..

तेरे मेरे प्यार का ये रिश्ता कभी ना टूटे

नुसरत के गानों कि खूबी या खराबी जो कहना चाहें वह नाम दे सकते हैं.. वह यह कि जिसे उनका गाना अच्छा लगता है वह किसी और के गाये उसी गीत को कभी पसंद नहीं कर सकता है और जिसे उनके गाने अच्छे नहीं लगते हैं वह किसी भी हालत में उनकी आवाज नहीं सुन सकता है.. अब सुफ़ियाने गानों कि यह खूबी होती है कि जो भी चाहे वह उस गाने को अपनी आवाज और अपनी धुन से सजा सकता है.. यही कारण है कि एक ही गाने कई कई बार, कितने ही गायकों द्वारा और कितने ही अलग धुनों में आपको मिल सकता है.. मगर जिसने एक बार नुसरत की आवाज में कोई गीत सुन लिया, बस.. उसे कोई और आवाज सुहा ही नहीं सकती..

खैर आज मैं बात करता हूं सलाम नाम अलबम के ही अनसुने मगर खूबसूरत नगमों कि जो पिया रे कि जैसे शानदार गीत के सामने छुप सा गया था मगर यह सभी अपने आप में अनमोल नगीने से कम नहीं थे.. यह गीत भी रोमांस के रंग में डूबा हुआ एक बेहतरीन नगमा है जिसमे नुसरत के सुफियाने अंदाज और पाश्चात्य संगीत पर नुसरत के पकड़, दोनों को ही दिखाता है.. इसके बोल कुछ यूं हैं - "मेरे हाथ में, तेरा हाथ हो".. एक कल्पना जिसमें प्रेमिका का हाथ अपने हाथों में आने कि कल्पना में प्रेमी डूबा हुआ है और फिर उसे सारा जमाना अपना लगने लगता है.. इस अहसास को लिखा नहीं जा सकता है इसे बस सुन कर महसूस किया जा सकता है.. सो आप भी इसे महसूस करें..





मेरे हाथ में, तेरा हाथ हो..
महकी हुई, हर रात हो..
हो.. प्यार से जो दिल मिले सपने हैं खिले-खिले..
तेरे मेरे प्यार का ये रिश्ता कभी ना टूटे..
हमसे जमाना चाहे रूठे..

मेरे हाथ में, तेरा हाथ है..

हो.. दिल तुम्ही हो.. मेरी मंजिल तुम्ही हो..
दुनिया को भूल जाऊं मैं तेरे प्यार में..
हो.. दिल तुम्ही हो.. मेरी मंजिल तुम्ही हो..
दुनिया को भूल जाऊं मैं तेरे प्यार में..
सामने बिठा के तुझे प्यार करूं..
पूजा मैं तुम्हारी मेरे यार करूं..
देखे ये जमाना..
ओ मेरी जाने जाना..
संग रहना अपना..

तेरे मेरे प्यार का ये रिश्ता कभी ना टूटे..
हमसे जमाना चाहे रूठे..

मेरे हाथ में, तेरा हाथ है..

मेरे मन में..
ओ दिलबर तन बदन में..
आग लगाने लगी ठंढी ठंढी ये हवा..
ओ..मेरे मन में..
ओ दिलबर तन बदन में..
आग लगाने लगी ठंढी ठंढी ये हवा..
अंखियों में है नशा सा ये छाने लगा..
प्यार भड़ा दिल बहकाने लगा..
दिल है बेकाबू..
चल गया जादू..
आ गले लग जा..

तेरे मेरे प्यार का ये रिश्ता कभी ना टूटे..
हमसे जमाना चाहे रूठे..

मेरे हाथ में, तेरा हाथ है..

प्यार से जो..
मांगे तू जां मेरी..
जान क्या है तुम पे जमाना सारा वार दें..
प्यार की ऊमंगो को जगाया तूने..
जब से है अपना बनाया तूने..
ये चेहरा तुम्हारा..
है जीने का सहारा..
और कहूं मैं क्या?

तेरे मेरे प्यार का ये रिश्ता कभी ना टूटे..
हमसे जमाना चाहे रूठे..

मेरे हाथ में, तेरा हाथ है..
हो.. प्यार से जो दिल मिले सपने हैं खिले-खिले..


Sunday, October 19, 2008

नुसरत का एक गीत, जो मदहोश कर दे

आपने नुसरत का गीत पिया रे तो सुना ही होगा.. कई रियलिटी शो और म्यूजिक चैनल पर कई बार दिखाया जा चुका है.. आजकल इंडियन आयडल में भी १० गायकों में से १ तो ऐसा निकल ही जाता है जो यह गीत गाता है.. मगर क्या आपने इस अलबम के बाकी गीतों को सुना है? इस अलबम के बाकी गीत मुझे कई मायनो में पिया रे से कहीं आगे लगते हैं.. जिसमे से दो गीतों का मैं खास तौर पर कायल हूँ.. पहला गीत ओ जानेमन, ओ जानेजां.. हो कभी, मेहरबां.. और दूसरा गीत ये शाम, फिर नहीं आएगी..

सबसे पहले मैं चर्चा करना चाहूँगा ओ जानेमन गीत की.. यह धुन इस अलबम के भारत में आने से पहले ही एक सिनेमा में रिलीज हो चुकी थी.. जिसे सोनू निगम ने गाया था और उसका धुन नुसरत ने ही दिया था.. उसके बोल थे एक दिन कहीं, हम दो मिले.. और तीसरा कोई न हो.. इन दोनों गानों कि सबसे बड़ी खूबी यह थी कि दोनों ही गीत अपने आप में लाजवाब थी.. जीतनी खूबसूरती से नुसरत ने इसे गाया था, सोनू निगम ने भी इससे पूरा इन्साफ किया.. तू मेरा दिल, तू मेरी जान भी इसी धुन पर है जिसमे आप सूफियाना अंदाज देख सकते हैं.. जो मेरा सबसे पसंदीदा है..

अभी थोडी जल्दी हो रही है और गीत भी नेट पर नहीं मिल रहे हैं सो फिलहाल आप यह गीत सुनिए.. बाकि बाते बाद में करते हैं.. :)

गीत! सूफियाना अंदाज में..

तू मेरा दिल, तू मेरी जान..
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यह दूसरा गीत जो इतने रोमांटिक अंदाज में गाया गया है जिसे सुन कर कोई भी मदहोश हो जाए.. इसके एक एक शब्द से रोमांस झलकता सा नजर आता है.. सच कहूँ तो इस गीत को सुनने के पहले मैं कभी सोच भी नहीं सकता था की नुसरत इस तरह के गीत भी गा सकते हैं.. इसमे नुसरत ने संगीत की एक नयी ऊंचाईयों को छुवा है.. अपने आस पास के कई लोगो में मैंने पाया है की वह नुसरत को पसंद नहीं करते हैं जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण होता है उसकी भाड़ी आवाज.. मगर इस गीत में उसने अपने भाड़ी आवाज को बेहद कोमलता से अपनी आवाज से सजाया है.. इसे आप भी सुने और अपनी राय बताये..


ये शाम फिर नहीं आयेगी..
ये शाम फिर नहीं आयेगी..

कुछ ना कहा तो,
कुछ ना सुना तो,
यूँ ही ढल जायेगी..

ये शाम फिर नहीं आयेगी..
ये शाम फिर नहीं आयेगी..

आज ही कर लो दिल कि बात,
कल पछताओगे..
आज अगर तुम पास ना आये,
फिर कब आओगे?
ये पल बीत गया तो जानम,
कहाँ जाओगे?
तन्हाई का दर्द कभी तुम,
सह ना पाओगे..

ये शाम फिर नहीं आयेगी..
ये शाम फिर नहीं आयेगी..

दिलरुबा.. ओ मेरे दिलरुबा..
क्या किया, ये तुमने क्या किया..
दिल मेरा, क्यों कहाँ खो गया..
पल में क्यों, तेरा ही हो गया..
जाने क्या नशा है तेरी आँखों में..
जादू सा भरा है तेरी बातों में..
सांसे तेरी महकी मेरी सांसो में..
तेरी ही झलक मेरी आँखों में..
तेरे सिवा है क्या?
दुनिया में मेरी जान..
तू है मेरी जिन्दगी.. पास आ...

ये शाम फिर नहीं आयेगी..
ये शाम फिर नहीं आयेगी..

आज हम ए सनम आज हम..
भूल कर दुनिया के रंजो गम..
ये कसम.. कसम है प्यार की..
साथ हो.. साथ हो हर कदम..
यूँ ही तेरी आँखों में मेरी आंखे हों..
छोटी-छोटी प्यार भरी बातें हो..
भींगी-भींगी रंग भरी शाम हों..
जागी-जागी यादें तेरी रातें हो..
तेरे सिवा है क्या?
दुनिया में मेरी जान..
तू है मेरी जिन्दगी.. पास आ...

ये शाम फिर नहीं आयेगी..
ये शाम फिर नहीं आयेगी..

कुछ ना कहा तो,
कुछ ना सुना तो,
यूँ ही ढल जायेगी..

ये शाम फिर नहीं आयेगी..
ये शाम फिर नहीं आयेगी..

Saturday, October 18, 2008

एक खास मित्र का परिचय

ज्ञान जी के चिट्ठे पर कुछ दिन पहले पढा था कि अगर किसी चिट्ठाकार को विश्वनाथ जी जैसे 3-4 पाठक मिल जायें तो उनका चिट्ठाकारी जीवन सफल हो जाये.. कुछ उसी तर्ज पर मैं कहना चाहता हूं कि अगर मनोज जैसा एक मित्र भी गलती से किसी को जीवन में मिल जाये तो उसका जीवन सफल हो जायेगा.. कुछ दिन पहले मैंने अपने मित्र मनोज कि लिखी हुई एक कविता ठेली थी, जिसके बाद ज्ञान जी ने टिपियाया था कि "सुन्दर। मनोज के परिचय में कुछ पंक्तियों की अपेक्षा थी।" मैंने उस पोस्ट में उसके बारे में कुछ भी नहीं लिखा था क्योंकि वह पोस्ट बस उस कविता के लिये समर्पित कर रखा था.. अगर वहां मैं मनोज के बारे में लिखता तो यह उस पोस्ट और मनोज के बारे में लिखी गई यह पोस्ट, दोनो के ही साथ नाइंसाफी होती..

ग्रैजुएशन मे नया नया एडमिशन लिया था.. कक्षा बहुत कम जाता था.. उस समय का उपयोग आवारागर्दी कि लम्बी कहानियां लिखने में करता था या फिर बस कुछ फालतू के कार्यों के लिये.. कक्षा ना जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि जो कुछ भी सिलेबस में था उसमें मुझे लगता था कि मेरे लिये कुछ भी नया नहीं है.. मित्रों कि संख्या भी बहुत सीमित थी.. अगर कभी गलती से सुबह वाले क्लास से कुछ समय पहले पहूंच गया तो मनोज को पहले से वहां पाता.. कुछ औपचारिकता होती और बस इतना ही.. धीरे-धीरे औपचारिकता मित्रता में बदलने लगी.. एक ही कक्षा में थे सो आपस में पढाई को लेकर होड़ भी लगती, मगर हमेशा मित्रवत प्रतिस्पर्धा ही रही..

हमारी मित्रता कैसे प्रगाढ मित्रता में बदली यह पता नहीं.. क्योंकि ऐसा किसी एक दिन में नहीं होता है.. इसके ऐसा होने के लिये एक-एक पल के हजार लम्हों के संयोग की जरूरत होती है.. सुख-दुख में बराबर की भागीदारी होने की जरूरत होती है.. अब अपने जिंदगी रूपक डायरी के पुराने पन्नों को पलटता हूं तो लगता है कि हमेशा उसने मेरा साथ मुझसे ज्यादा दिया.. इस मामले में मैं कहीं दूर तक नजर भी नहीं आता हूं.. शायद यही एक ऐसा कारण है जिसके कारण मैं इससे इतना ज्यादा जुड़ा हुआ हूं..

मेरा ऐसा मानना है कि अगर आपके जीवन में कोई ऐसा व्यक्ति आता है जो बिना किसी स्वार्थ के और बिना किसी वजह के आप पर सब कुछ लुटाने को तैयार रहता है और आप उस व्यक्ति को सही समय पर नहीं पहचान पाते हैं और उसे खो देते हैं, तो यहां खोने के लिये उस व्यक्ति के लिये कुछ भी नहीं होता है.. अगर कुछ खोते हैं तो आप ही.. और सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसा व्यक्ति आपके जीवन में एक ही बार आता है.. हो सकता है कि उससे अच्छे लोग आपको मिल जायें जो कि अपने आप में एक मिशाल हो.. बहुत अच्छे मित्र भी आपको मिल जायें.. मगर बिना किसी स्वार्थ के आपके लिये कुछ भी और किसी भी हद तक करने को तैयार रहने वाला मित्र आपको एक ही बार मिलता है..

मेरे लिये अच्छी बात तो यह है कि मैंने अपने जीवन में ऐसे व्यक्ति कि पहचान सही समय पर कर ली.. अपने कुछ मित्रों कि तरह देरी नहीं कि..

यह पोस्ट मैं यहीं खत्म करता हूं.. इसके बारे में मैं समय-समय पर लिखता रहूंगा.. क्योंकि एक पोस्ट पूरा नहीं है इसके लिये.. सही कहूं तो मैं इसके बारे में जितने पोस्ट चाहूं उतने लिख सकता हूं.. हजारों उन लम्हों के बारे में जो हमने साथ बिताये.. खुशी के मौके.. गम का शमां.. गंगा किनारे बिताये गये क्षण.. आवारागर्दी करते हुये पटना की सड़कों कि खाक छानने का समय.. नाला रोड, मछुवा टोला, राजाबाजार, राजेन्द्रनगर, कंकड़बाग, बोरिंग रोड, शास्त्रीनगर और भी ना जाने कहां कहां.. क्लास में कि गई शैतानियां.. दिल्ली में गुजारे गये गये खुशगवार पल.. तो वहीं बिताये गये मायूस पल भी.. सिर्फ शीर्षक ही लिखूं तो 2-3 पोस्ट बन जायेंगे..

चलिये यह फिर कभी..

एक चिड़िया जो ओ गदही पुकारती थी

मुझे उस चिड़िया का नाम पता नहीं है जो ओ गदही पुकारती थी.. हम तीनों भाई-बहन बहुत छोटे थे उस समय.. मैं छठी कक्षा में था, भैया आठवीं में और दीदी नौंवी में.. पापाजी हम तीनों को अलग-अलग नामों से पुकारते थे.. मुझे पुछरू(अब इस नाम से पुकारे गये जमाना बीत गया है), भैया को नकपिच्चू और दीदी को गदही.. इस नाम से पुकारे जाने पर पूरे जन्म भर का प्यार उमर आता था..(शायद अब भी पुकारे जाने पर वही एहसास रहे.).. दो कमरे और एक ड्राईंग रूम के अलावा दो लैट्रिन-बाथरूम, एक बाल्कनी, रसोई घर, डायनिंग हॉल और एक छोटा सा बगीचा हुआ करता था.. हम सभी सितामढी में रहते थे.. कुछ धुंधली सी यादें जानकी मंदिर कि भी है जिसके बारे में मान्यता है कि सीता जी का जन्म वहीं हुआ था..

बगीचे में 5-6 अमरूद के पेड़ थे, कुछ पपीते के और केला के पेड़ों का एक समूह भी जिसे बहुत छोटे में मैंने ही लगाया था और जब सूखने लगा था तब गुस्से से काट भी दिया था.. मगर बाद में चाचाजी ने उस कटे हुये पेड़ को फिर अच्छे से लगाया तो वह लग गया.. शायद 5-6 साल का रहा हो ऊंगा उस समय.. एक खास तरह कि चिड़िया अक्सर उन्हीं पेड़ों में से किसी पर आकर बैठती थी और "टू नी नी" जैसी आवाज निकालती थी.. एक दिन दीदी को पापाजी ने बताया कि वह ओ गदही पुकार रही है.. मतलब तुम्हें बुलाती है.. बचपन का मासूम मन भी इसे मान लिया.. वैसे भी दीदी किसी आम लड़की कि तरह चिड़िया जैसे उड़ना चाहती थी.. हवाओं को अपने मुट्ठी में बंद कर उड़ाना चाहती थी.. जमाने कि फिक्र से बेफिक्र..

ठीक-ठीक याद नहीं है पर शायद 1992-93 में पापाजी का तबादला चक्रधरपुर, जो बिरसा मुंडा कि कर्मभूमी रह चुकी है और अब झारखंड में है, हो गया.. पापाजी 2-3 महीने या शायद 3-4 महीने के लिये हमलोगों को वहीं छोड़कर वहां चले गये.. हो सकता है 1-2 महीने के लिये ही गये हों मगर वही सालभर से कम नहीं था मेरे बालमन के लिये.. सो अभी तक बस इतना ही याद है कि बहुत दिनों तक नहीं आये थे.. फोन का जमाना उस समय तक हमलोगों के लिये नहीं आया था.. सारा काम चिट्ठियों से ही होता था जो महिने में 2-3 ही मिलते थे.. वो चिड़िया भी लगता था उन्हीं के साथ चली गयी थी.. उसने भी आना कम कर दिया था.. जब कभी ओ गदही जैसी आवाज आती हम दौड़ पड़ते बगीचे कि तरफ.. लगता जैसे पापाजी का संदेश लेकर आयी हो..

सितामढी के बाद कभी भी उस चिड़िया कि आवाज नहीं सुनी.. मैं सोचता था कि कहीं वो भी तो विलुप्त नहीं हो गयी होगी? आज सुबह-सुबह लगभग 5.30 में एक फोन के आने से नींद खुल गई.. बाहर बालकनी में आया तो ठंडी हवा चल रही थी.. आसमान में बादल छाये हुये थे.. तभी कहीं से वही आवाज सुनी.. "ओ गदही" या कह सकते हैं "टू नी नी".. लगा कि बस हम इंसानों की भाषा ही बदलती है.. पंछी-जानवरों कि भाषा हर जगह एक जैसी ही होती है.. लगा जैसे कि वही बचपन फिर से लौट आया है.. मन ख्यालों में डूब गया.. लगा जैसे पापाजी अभी कहेंगे कि देखो स्वीटी, तुम्हें ये चिड़िया "ओ गदही" बुला रही है..

भले ही अब हर दिन घर बात हो जाती है.. जब जिससे संपर्क में आना चाहूं आ सकता हूं.. चौबिसों घंटे मोबाईल भी साथ होता है.. ई-पत्रों से सुविधा और भी बढ गयी है.. मगर उस हाथ के लिखे पत्रों कि महत्ता खत्म नहीं हो सकती है.. उसकी छुवन से वो अहसास कभी नहीं जा सकता है.. हस्तलिपी से आप पल भर में किसी को पास पा सकते हैं.. कुछ दिन पहले मैंने पापाजी को एक ई-पत्र लिखा था जिस पर उन्होंने कहा था कि मैं तुम्हें इसके जवाब में सेन्ड नहीं पोस्ट करूंगा.. 10 दिन हो गये हैं.. अभी तक मुझे मिला नहीं है.. या तो पापाजी भूल गये भेजना या फिर कहीं रास्ते में अटका होगा.. पता नहीं.. खैर अगर भूल गये होंगे तो मेरा यह पोस्ट पढकर याद आ जायेगा..

Thursday, October 16, 2008

दूसरी बकवास - अर्चना ऐ ईनो

परसो कि बात है.. मैं अपने आफिस के एक साथी के साथ उसके बाईक से घर लौट रहा था.. यूं ही बातें भी हो रही थी.. बातों ही बातों में हिंदी सिनेमा के ऊपर बातें होने लगी.. उन्हें हिंदी टूटी-फूटी समझ में आ जाती है.. सो हिंदी सिनेमा का खूब लुत्फ़ भी उठाते हैं.. बाते करते करते अचानक से उन्होंने पूछा.. Hey! What was that movie? "अर्चना ऐ ईनो"?
मैं सोच में आ गया.. अर्चना ऐ ईनो? ऐसा नाम तो मैंने किसी हिंदी सिनेमा का नहीं सुना था.. बहुत दिमाग घुमाया, कुछ समझ में नहीं आया.. फिर उसी से पूछा कि एक्टर कौन था.. उन्हें याद नहीं.. फिर पूछा एक्ट्रेस कौन थी? अबकी एक नाम बताया.. बिपासा.. फिर सोचा.. हां याद आ गया.. मैंने पूछा क्या आप बचना ऐ हसीनों कि बात कर रहे हैं? जवाब आया Yes yes.. और मेरा हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया.. बेचारे मेरे साथी मुझे अजीब तरीके घूरे जा रहे थे.. :D

मेरे पहले बकवास को पसंद करने से मेरा हौसला बढता ही जा रहा है.. सोच रहा हूं कि कोई नया चिट्ठा ही बकवास करने के लिये शुरू कर दूं.. (बकवास कर रहा हूं, सो लोड ना लें..) वैसे कम्यूनिटी चिट्ठा शुरू करने पर ज्यादा फायदे नजर आ रहे हैं, यहां सभी इस बकवास की तारीफ करने वालों को भी बकवास करने के लिये एक चिट्ठा मिल जायेगा.. दिनेश जी सबसे पहले हौसला बढाने के लिये आये.. पीछे-पीछे संजीत जी हा हा हा करते हुये आये.. अरे हां इससे याद आया.. हमेशा मन में आता था कि टीवी सिरीयल के राक्षस सभी इतने हट्ठे-कट्ठे क्यों होते थे.. बहुत सोचने पर पाया कि हंसी ही उनका राज था.. बात-बेबात की हंसी.. इससे यह शिक्षा मिलती है कि आप भी दिल खोल कर हंसिये और हट्ठे-कट्ठे बने रहिये.. अनिल जी, अपने ताऊ और रंजन जी इस पोस्ट से खूब मजे लिये और अगले के इंतजार में भी पाये गये.. एक तरह अभिषेक ओझा जी को यह सबसे बकवास लगा तो अजित जी इसमें बकवास ढूंढ भी नहीं पाये.. हद हो गई भाई.. इतना बकवास करने पर भी किसी को बकवास ना लगे तो मन खट्टा हो जाता है.. कुश जी बढिया कह कर निकल गये तो मसिजिवी जी बस मुस्कुरा कर रह गये.. वैसे भी कई बार देखा गया है कि लोग मुसिबतों का मुस्कुराकर सामना करते हैं.. मसिजिवी जी का कहीं यही हाल तो नहीं है? वैसे भी वो तस्वीर में जितने खूंखार टाईप दिखते हैं असल जिंदगी में उतने ही हंसमुख मिजाज हैं.. सो कुछ भी कह लें वे तो हमेशा मुस्कुराते ही रहेंगे..(कम से कम मैं तो यही सोचता हूं).. :)

और अंत में सबसे अच्छी बकवास से भड़े कमेंट का ईनाम जाता है जितेन्द्र भगत जी को.. उन्होंने फरमाया "थाली में मुर्गे की लाश है, पौधों में फुल की तलाश है, सागर में जल की प्‍यास है, सोचा था ऐसी टि‍प्‍पणी दूँ जो लगे कि‍ बकवास है, पर लगता है आपकी तरह मैं भी गड़बड़ा गया।"


आप सभी को धन्यवाद..

Wednesday, October 15, 2008

मत पढिये इसे, सब बकवास लिखा है

आज 2-3 शीर्षकों के ऊपर मैं चर्चा करना चाहूंगा जिसके बाद बुद्धिजिवी वर्ग के प्राणी बहस तक कर सकते हैं कि क्या इस तरह की चिट्ठाकारी को आप साहित्य का दर्जा दे सकते हैं? और उन लोगों का भ्रम भी टूटेगा जो चिट्ठाकारिता को एक साहित्य के रूप में सामने रख कर पढने कि नाकाम कोशिश करते हैं.. तो चलिये चलते हैं पहले बकवास की ओर..

कौवा क्या सोचता होगा?

क्या अजीब शीर्षक है ना? मगर आपने कभी सोचा है कि इतनी जगह से दुत्कारे जाने के बाद भी वो आपके द्वार पर दुबारा क्यों आता है? क्या उसके मन में रोष जैसी भावना नहीं आती होगी? कभी कोई प्रेमिका अपने प्रीतम की याद में(साठ के दशक वाले स्टाईल में सोचे तभी कल्पना कर सकते हैं) किसी कौवे से प्राथना करती दिखेगी तब उस समय एक कौवा क्या सोचता होगा?

बहुत पहले की बात है.. हमने घर में हमने एक तोता पाला था.. बहुत प्यार से.. मेनका गांधी से भी छुपा कर.. एक जाड़े की नर्म धूपा में(कुछ याद आ रहा है क्या? हां जी गाना.. या जाड़े की, नर्म धूपा में.. आंगन में लेट कर.. अर्रर्र.. मैं विषय से भटक रहा हूं, अगर कहीं विषय जैसी कुछ चीज होगी तो..) हम उसका पिंजड़ा रख छोड़े थे.. तभी एक कौवे ने आकर उसे बहुत परेशान किया.. तभी हमें कौवे की एक बात पता चली.. हमारा तोता बेचारा, जब तक वहां कौवा था तब तक कौवे की भाषा में बोलता रहा.. पहले तो हमें लगा कि तोता परेशान होकर कांय-कांय चिल्ला रहा है सो उस कौवे को मार कर भगा दिया.. बाद में खूब सोचा तब जाकर महसूस हुआ कि वो बेचारा तड़प रहा था कौवे से बात करने के लिये.. इतना ज्यादा बेचैन था कि वो सुध-बुध खोकर भूल बैठा कि वो तोता है, कौवा नहीं.. और उसी की भाषा में बोलने लगा.. बाद में पाया कि रात में कभी किसी बिल्ले ने आकर तंग किया तो भी कौवे की भाषा में पुकारता था.. कांय-कांय.. नेवला परेशान करे तो भी वहीं भाषा.. कांय कांय..

मन में आया कि कहीं मैकाले की कोई प्रजाति कौवे में भी तो नहीं थी जिसके कारण मेरा तोता अपनी भाषा का सम्मान करना छोड़कर अंग्रेजों.. आं.. माफ किजियेगा कौवे की भाषा में बोलने लगा है..(कॄपया यह प्रश्न ना उठायें कि कौवे अंग्रेज कब से हो गये या फिर अंग्रेज कौवे कैसे.. एक काला और दूजा गोरा.. दोनो में समानता कैसे.. भई हम ब्लौगरों का यही काम ही होता है.. जो चाहे सिद्ध कर सकते हैं.. वैसे भी भई मेरा चिट्ठा है, मेरा लेख है.. जो मन में आये लिखूंगा).. ;) फिर मैंने सोचा कि जब यही कौवा इतना अच्छा है तो क्यों ना कौवा ही पाल लिया जाये.. वैसे भी एक दिन मेरा तोता पिंजड़े से संन्यास लेकर निकल भागा.. अब संन्यास से फिर कुछ याद आ रहा है.. गांगुली.. अजी क्या बतायें हम.. हमको कितना अच्छा लगता है.. वो भी संन्यास ले लिये हैं..

उस दिन से अब तक प्रतिक्षा में हैं कि कब कोई कौवा उस पिंजड़े में आकर बैठता है.. मगर उसकी प्रजाति में गुलाम होना नहीं लिखा है.. सो अब क्या करें.. देखिये.. आपने तो मुझे विषय से ही भटका दिया था.. विषय था कौवा क्या सोचता होगा? मैंने बहुत सोचा और अंततः समझ भी गया.. वो सोचता होगा "कांव-कांव".. अगर मैं गलत हूं तो साबित करके दिखायें.. :D

चलिये अब दूसरे बकवास की ओर चलते हैं.. क्या अभी भी आपमें इतनी उर्जा बची हुई है कि दूसरा बकवास भी पढेंगे? अगले पोस्ट का इंतजार तो कर लें.. :)

Sunday, October 12, 2008

इंतजार है मुझे(एक कविता मनोज द्वारा)


जाने किसका इंतजार है मुझे..
जब घर में अकेला होता हूं मैं,
सन्नाटों से घिरा होता हूं मैं..
कोई आहट सी होती है तो,
चौंक जाता हूं..
दरवाजे पर निगाहें टिकी होती है,
दस्तक कोई दे रहा हो जैसे..
जाने किसका इंतजार है मुझे..

अखबारों को पलटते समय,
निगाहें बेकरार होती है जैसे..
हर खबर को पढकर,
कुछ ढूंढती हुई निगाहें जैसे..
अखबारों के हर पन्ने से,
खेल रहा होता हूं मै..
जाने किसका इंतजार है मुझे..

कभी चबूतरे पर बैठा हुआ,
सड़कों पर नजरें जमाये,
कुछ सोचते हुये..
दौड़ते-भागते गाड़ियों में जैसे,
कुछ ढूंढ रहा होता हूं मैं..
जाने किसका इंतजार है मुझे..

भीड़ में चलते लोगों में,
किसी को पहचानने कि
कोशिस कर रहा होता हूं मैं..
पता नहीं कोई मिल जाये कभी..
इन ख्यालों में घुम रहता हूं मैं..
जाने किसका इंतजार है मुझे..

मेरे खास मित्र मनोज द्वारा प्रस्तुत यह कविता.. यह उनका प्रथम प्रयास है, आप उनका उत्साहवर्धन अपने टिप्पणियों द्वारा करें..

चित्र के लिये Artbywicks.com को साभार..

Saturday, October 11, 2008

अंततः मैं इंडियन आयडल में चुन लिया गया :)

मेयांग चांग - ये है इंडियन आयडल का चेन्नई चैप्टर.. मंदिरों और खूबसूरत समुद्र तट के लिये प्रसिद्ध इस शहर में हम आये हैं साल 2008 के इंडियन आयडल के लिये संगीत के जूनूनी लोगों का चुनाव करने.. तो आप क्या सोचते हैं? क्या आज हम इस शहर से अपने सपनों के गायक का चुनाव कर पायेंगे?
दिपाली - कहीं उत्साह है तो कहीं घबराहट.. आखिर हो भी क्यों ना.. संगीत प्रेमियों के लिये यही तो सपनों की मंजिल भी है.. जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है वैसे वैसे माहौल गरमाता जा रहा है.. और अभी-अभी हमारे जजेस भी यहां आ चुके हैं.. उत्साह के साथ कंटेस्टेंट्स ने उनका स्वागत किया..

(15 मिनट बाद..)

उफ्फ.. कितनी गर्मी है.. फिर भी लोगों का उत्साह अपने एक्सट्रीम पर है.. जितनी गर्मी इधर बाहर है उससे ज्यादा गर्मी अंदर जजेस पर भी छाई हुई है.. अभी वक्त है इम्तेहान का.. सिर्फ एक मौका मिलेगा सुनहरे भविष्य से हाथ मिलाने का.. एक मौका जजेस को इंप्रेस करने का.. सभी कंटेस्टेंट्स तैयार हो जाईये.. ये मौका बार बार नहीं आता.. जितने सतर्क कंटेस्टेंट्स हैं उतने ही जजेस भी.. आखिर आज उनका भी तो इम्तेहान है.. अंदर जाकर दिखा देना है कि चेन्नई में भी है कुछ बात..

(काफी देर बाद..)

मैं मन ही मन सोचते हुये, "चलो अब मेरा समय भी आ ही गया.." धरकते हुये दिल से मैं अंदर गया.. सोचते हुये, "पता नहीं क्या होगा अंदर.. खैर जो होगा देखा जायेगा.." अंदर पाया कि पिछले प्रतियोगी से जजेस बहुत चिढे हुये से लग रहे थे..

अनु मलिक - आईये.. आप भी आइये.. क्या सुनाना चाहते हैं आप?
जावेद अख्तर - आप पिछले प्रतियोगी कि खीज इन पर क्यों उतार रहे हैं?
अनु - लो.. मैंने क्या कह दिया?
जावेद - जो कहना था वह तो आपने पहले ही कह दिया..
कैलाश खेर - हा हा हा..
सोनाली - अरे अभी तो आप लोग बहस करना बंद करें.. हां तो आप कहां से हैं?

मैं - जी मैं पटना बिहार से..

सोनाली - बिहार से और यहां चेन्नई में? क्या कर रहे हैं आप यहां पर?

मैं - जी हां.. मैं यहां एक साफ्टवेयर कंपनी में काम करता हूं..

सोनाली - हां तो गाईये..

मैंने गाना शुरू किया..

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अनु - ये गाना है? आप क्या सोचते हैं, साफ्टवेयर बनाते हुये आप गाना भी गा सकते हैं?
कैलाश - मेरे मुताबिक तो कुछ बात है इसकी आवाज में.. मेरी तरफ से येलो कार्ड के लिये हां है..
अनु - मानता हूं कि लय सही पकड़ा इन्होंने मगर ये आवाज सही है गाना गाने के लिये?
कैलाश - आप जितनी भी सूफी कव्वालियां सुनेंगे, आपको ऐसी ही भाड़ी आवाज सुनने को मिलेगी..

मैं मन ही मन सोचते हुये, "अरे यार हां करना है तो करो नहीं तो निकाल दो ना.. इतना नाटक क्यों कर रहो हो यारों.. मैं कौन सा इंडियन आयडल बनने आया था.. अपन भी तो टाईम पास कर रहा है यार.. :)"

जावेद - तुम एक काम करो, एक और गीत सुना दो..


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जावेद - बस.. मेरी तरफ से यह येलो कार्ड पक्का है..
सोनाली - मेरी तरफ से भी..
उधर अनु मलिक गुस्से से मुझे देखे जा रहे थे और मैं खुशी-खुशी येलो कार्ड लेकर बाहर निकला.. खुशी से चीखते हुये..

तभी आवाज आई.. अबे साले! क्यों नींद में चिल्ला रहा है? खुद तो सोता नहीं है और किसी दूसरे को भी नहीं सोने देता है.. घड़ी देखा तो रात के तीन बज रहे थे.. सोचा चलो देखता हूं कि सच में इंडियन आयडल चेन्नई कब आ रहा है.. कंप्यूटर चालू किया और इंटरनेट पर सर्च किया.. पता चला कि चेन्नई नहीं आ रहा है.. बल्की आजकल जो भी दिखा रहा है उसकी रिकार्डिंग मई महिने में ही हो चुकी थी.. सो अगर बैंगलोर जाकर आडिसन देना भी चाहूं तो नहीं दे सकता.. खैर चलो सोने चलता हूं.. शायद फिर सपने में आगे का एपिसोड दिख जाये.. :)

Friday, October 10, 2008

इंतजार भी कितनी खूबसूरत होती है.. है ना?

इंतजार भी कितनी खूबसूरत होती है..
एक ऐसा इंतजार जो कभी लगता है,
खत्म ना ही हो तो अच्छा है..
दिल को सकून तो मिलता है,
कि तुम भी शायद इसी इंतजार में हो..
मेरे इंतजार में..

भुलावे में जीना भी कभी-कभी
जीने कि वजह बन जाती है..
तुम कभी वापस मत आना..
शायद यह खुशफहमी खत्म ना हो जाये..
जीने की वजह ही खत्म ना हो जाये..
तुम कभी वापस मत आना..
प्लीज मत आना..


मेहदी हसन जी का एक गीत..

Tuesday, October 07, 2008

२४ घंटे, जो ख़त्म होता सा ना दिखे

मेरे मित्र अमित द्वारा

अमूमन मैं इतना लम्बा नहीं लिखता हूँ.. उतना धीरज ही नहीं है की लिखू.. पता नहीं क्यों आज लिखने का मन कर रहा है और आज लिख रहा हूँ.. इससे पहले भी मेरे साथ बहुत साड़ी अजीबोगरीब घटनाएं हो चुकी हैं.. मगर आमतौर से मैं बांटता नहीं हूँ और बांटता भी हूँ तो बहुत कम लोगो से..

शुरु से शुरु करते हैं.. पहले मैं हरेक दूसरे हफ्ते या हर हफ्ते बैंगलोर जाया करता था.. पर इस बीच में हालत कुछ ऐसे हो गए कि मैं लगभग एक-दो महीनों से बैंगलोर नहीं जा सका.. पिछले हफ्ते किसी तरह मौका निकाल कर मैंने बैंगलोर जाने का मन बनाया और शुक्रवार को निकल पड़ा बैंगलोर के लिए.. अक्सर मैं ऑफिस से ही निकला करता था लेकिन उस दिन मैं ऑफिस से घर आया फिर घर से निकला.. घर से निकलते ही मुझे अपने आस पास के चीज़ों पर से कण्ट्रोल ख़तम होता सा लगाने लगा.. ऐसा मुझे काफी बाद मैं पता चला.. खैर!! घर से निकलते ही लिफ्ट के पास पहुंचा.. बटन दबाया.. पर लिफ्ट काम नहीं कर रहा था.. ऐसा अक्सर होता है.. इसलिए मैं सीढियों से नीचे गया..

फिर बारी आई ऑटो लेने कि.. जिस भी ऑटो वाले से पूछो कोई ८०-९० रूपये से कम बोल नहीं रहा था.. मेरे घर से कोयम्बेदु(चेन्नई इंटर सिटी बस स्टैंड) तक का साधारण किराया ४० रूपया है.. मैंने लगभग १० ऑटो छोडे फिर जाकर एक ऑटो वाले ने ४५ रूपये में मुझे कोयुम्बेदु पहुंचाया.. अब यहाँ सबसे पहले मुझे वापसी का टिकट लेना था.. आमतौर से मैं वापसी का टिकट बैंगलोर से चेन्नई ले लेता हूँ जिससे आते समय कोई दिक्कत ना हो.. और जाने का टिकट वहीँ लेता हूँ.. इसके लिए मुझे ATM से पैसा निकालना था.. अभी तक ज्यादा कुछ नहीं हुआ था.. खैर जब ATM के पास गया तो पता चला ATM ख़राब है.. मेरे पास सिर्फ १०० रूपये थे.. मुझे हर हालत में पैसा निकालने थे.. फिर क्या मैंने वापस ऑटो लिया और वापस १०० फीट रोड आकर पैसे निकाला और फिर उसी ऑटो से वापस बस स्टैंड पहुंचा.. अब मुझे टिकट लेना था वापसी का और मैं सोच रहा था की काश टिकट काउंटर पर भीड़ ना हो.. और यही हुआ भी.. टिकट काउंटर पर बिलकुल भीड़ नहीं थी.. देख कर जान में जान आई(पर मुझे पता नहीं था कि क्या होने वाला है मेरे साथ).. बस मेरे आगे 2 लोग ही थे.. ३ मिनट में मेरा नंबर आ गया..

टिकट काउंटर पर जो बैठा था उसने मेरी सारी जानकारी फीड कर दिया और टिकट निकालने के लिए उसने कन्फर्म बटन दबा कर मुझसे पैसे ले लिए.. बस अब इंतजार था प्रिंटआउट आने का.. ५ मिनट बीता.. १० मिनट बीता.. १५ मिनट हो गए.. पर कुछ नहीं आया.. उसने फिर से कन्फर्म बटन दबाया.. कुछ आना था नहीं सो नहीं आया.. इंतजार करते-करते ३० मिनट हो चले.. वो बटन दबाता पर कुछ नहीं होता.. बीच में मैंने उससे कहा भी कि फिर से बंद करके शुरू करे पर वो नहीं माना.. खैर इसी तरह करते-करते एक घंटे हो गए.. टाइम १० बजकर ३० मिनट.. बैंगलोर जाने वाली बसें निकलती जा रही थी और मैं लाचार होकर बस देखता जा रहा था.. अब टिकट काउंटर वाले किसी जानकार को बुला रहे थे.. मैं उन्हें अपनी बात समझा भी नहीं सकता था.. तमिल मैं बोल नहीं सकता और इंगलिश उन्हें समझ में नहीं आ रही थी.. अबा समय था ११.०० PM.. किसी तरह मैंने उन्हें फिर से ऍप्लिकेशन को बंद करने और शुरू करने के लिए मना लिया.. और अंततः ११.२० तक मेरा टिकट हाथ में आ गया..

लेकिन अब तक लगभग सारी बसें जा चुकी थी.. एक बस खुलने वाली थी.. मैं दौड़ के वहां पहुंचा.. कंडक्टर दिख नहीं रहा था.. तभी एक आदमी ने आवाज़ दिया.. मैं गया उसके पास.. ताबेअत्याप जैसा ही दिख रहा था.. एक कंडक्टर के पास जो होना चाहिए सब थे उसके पास.. खैर! मैंने पुछा आप उस बस के कंडक्टर हो.. उसने कहा हाँ और ये भी की बस एक सीट खाली है, जल्दी करो.. मुझे भी जल्दी थी.. मैंने उसे पैसे दिए और उसने मुझे सीट नंबर ३४ का टिकट दे दिया.. मैं भाग कर बस के अन्दर गया.. लेकिन यह क्या? उस सीट पर कोई और बैठा था.. उसने अपना टिकट दिखाया और उसका भी नंबर ३४ था.. बस लगभग खुल चुकी थी और स्टैंड से निकलने लगी थी.. मैं नीचे उतरा कंडक्टर को खोजने.. वो तो कहीं नहीं मिला इस बस का कंडक्टर मिला.. मैंने उससे कहा की ३४ सीट नंबर पर कोई है जबकि वो मेरी जगह है.. उसने इंतजार करने को कहा...मैं फिर बस के अन्दर चला गया.. बस स्टैंड से निकल चुकी थी और मैं बेवकूफ जैसे बस में खडा था.. कंडक्टर आया.. वो सीट नंबर ३४ के पास गया.. फिर वापस आया.. उसने मुझसे पुछा की ये टिकट मैंने दिया है और मैंने यहाँ झूठ बोला क्योंकि अबतक मैं जान चूका था की मुझे किसी ने मामू बना दिया है.. बस मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा, "हाँ भाई आपसे ही तो लिया है.." बेचारा सोच में पड़ गया.. अंततः उसने मुझे ड्राईवर के ठीक पीछे भैटने का ऑफर किया.. वहां बैठ नहीं सकते थे इसलिए मैंने उससे पैसा वापस के लिए कहा..

क्रमशः...

Saturday, October 04, 2008

तुम बहुत दुबले हो, इज दिस राईट फौर यू?

एक दिन जब मैं मोटा हो जाऊंगा तब,
हवायें उड़ा ना पायेंगी मुझे..

लोग मुझे मोटा कहकर पेपरवेट कि तरह,
मेरी बातों को दबाने का प्रयास भी किया करेंगे..

किसी मटके सा मेरा पेट होगा,
गालें फुली होंगी चर्बी से..

किसी मोटे सेठ सा मेरा हुलिया होगा
लोग मुझे उसी स्तर का समझ सलाम ठोकेंगे..

गरीबी रेखा से नीचे वालों के लिये,
मैं ईर्ष्या की वस्तु होऊंगा..

अपने दबे-पिचके पेट, सूखे गालों कि तुलना
वो मुझसे किया करेंगे..

इज्जत का चिथड़ा उड़ाकर
ऐ मोटे कहकर दोस्त लोग बुलायेंगे..

मैं मन ही मन गालियां देकर
और उपर से खींसे निपोर कर रह जाऊंगा..

एक दिन जब मैं मोटा हो जाऊंगा तब,
हवायें उड़ा ना पायेंगी मुझे..

Friday, October 03, 2008

धुम्रपान निषेध और मेरे कुछ अनुभव


कल से पूरे भारत में धुम्रपान संबंधित कई तरह के नये नियम लागू किये गये.. उसका असर मुझे अपने घर के आस-पास भी देखने को मिला.. सुबह-सुबह अपनी बाल्कनी से झांका तो मुझे एक पुलिसवाला पार्किंग स्थल पर घूमता हुआ मिला जो लगभग हा 1 घंटे पर आकर झांक जाता था.. वैसे यह दोपहर 12 बजे तक ही दिखा.. उसके बाद उसी पार्किंग में लोग सिगरेट पीते हुये दिखे.. भारत में नाना प्रकार के कानून बनाये गये हैं, मगर कितनों का पालन अच्छे से होता है? चलिये मैं धुम्रपान से संबंधित अपने अनुभव सुनाता हूं..

अनुभव एक -
पिछले साल कि बात है.. मैं अपने घर के पास वाले एस.बी.आई. के ए.टी.एम. से पैसे निकालने के लिये गया.. वहां लम्बी कतार लगी हुई थी.. मुझसे दो आगे एक विदेशी भी था.. वो लगातार सिगरेट पिये जा रहा था.. चूंकि मैं सिगरेट पीता था सो मुझे कोई परेशानी नहीं थी, मगर मैंने देखा कि आस-पास के लोगों को खास करके महिलाओं को परेशानी हो रही है मगर विदेशी होने के कारण संकोच से कोई भी उसे कुछ नहीं बोल रहा था.. मैंने उसे बोला इसे बंद करने के लिये.. उसने अनसुना कर दिया और पीता रहा.. मैंने देखा कि गार्ड भी कुछ नहीं बोल रहा था और मजे ले रहा था.. फिर वो वैसे ही सिगरेट पीते हुये ए.टी.एम. के अंदर चला गया.. अब मैंने गार्ड से पूछा कि क्यों कुछ नहीं बोले उसे? वो हिंदी या अंग्रेजी नहीं समझने कि बात इशारों में कह कर कुछ नहीं किया..
अब तक सारे लोग बस तमाशा देख रहे थे.. मैं पूरे मूड में आ चुका था.. मैंने भी अपनी सिगरेट निकाली.. और उसे जला कर पीने लगा.. अब गार्ड मुझे घूरने लगा.. जब मैं ए.टी.एम. के अंदर जाने लगा तो उसने मुझे इशारों में टोका अंदर नहीं पीने के लिये.. अब वहां सारे लोग उससे लड़ने लगे.. कि जब ऐसा ही था तो उस विदेशी को कुछ क्यों नहीं बोले? खैर मैंने सिगरेट बुझाई, अपने पैसे निकाले और चला गया वहां से, दिल में खुश होता हुआ कि कुछ गलत को होने से रोकने कि कोशिस तो की मैंने..

अनुभव दो -
बहुत पहले कि बात है.. ठीक-ठीक याद नहीं कि वो संपूर्ण क्रांती एक्सप्रेस थी या दानापुर-हावड़ा.. ट्रेन अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थी.. रात के लगभग बारह बज रहे थे.. मैं ए.सी. टू टीयर में था शायद.. मैं सोने से पहले बाथरूम जा रहा था, तो मैंने देखा कि एक लड़का दरवाजा खोल कर सिगरेट पी रहा है.. मुझे भी सिगरेट पीने कि इच्छा हो आई.. थोड़ी देर बाद उस लड़के की जगह मैं था.. उसी तरह धुवें के छल्ले उड़ाता हुआ.. तभी वहां से टी-टी गुजरा.. उसने मुझे देखा और कहने लगा कि फाईन होगी.. मैंने कुछ कहा नहीं बस अपना सिगरेट का पैकेट निकाल कर उसे भी पीने का ऑफर कर डाला.. वो कभी मुझे देखता और कभी सिगरेट को.. फिर मुझे बुला कर अलग से ले गया.. बैठाया और एक सिगरेट मुझसे लेकर पीने लगा.. कहने लगा कि बहुत दिनों बाद मार्लबोरो सिगरेट देख रहा है.. बहुत देर तक मेरा दिमाग चाटता रहा.. मुझे लग रहा था कि यह मुझसे फाईन ले लेता वही अच्छा होता.. :)

एक और अनुभव मैंने बहुत पहले लिखी थी.. उसे आप यहां पढ सकते हैं..

Wednesday, October 01, 2008

नये न्यूज चैनल VMM का खबरिया, प्रशान्त

नमस्कार!! आप देख रहे हैं VMM न्यूज चैनेल.. आज का समाचार आप प्रशान्त प्रियदर्शी से सुनने जा रहे हैं.. आज के मुख्य समाचार इस प्रकार हैं..

*शिवेन्द्र अपने घर बीबीपुर, छपरा के लिये रवाना, वडापलानी चिड़ियाघर में खुशियों का सा माहौल..
*वडापलानी चिड़ियाघर में इंडियन आईडल का धमाल..
*कोलकाता में त्योहारों का उल्लास मगर नीता को अपने पैसे अभी तक नहीं मिलने से उनका मन उदास..
*मुम्बई में लंगड़ा त्यागी जी प्रशान्त कि नयी कविता के इंतजार में.. संजीव के 3-4 कॉल अमित ने मिस किये..
*बैंगलोर में सन्नाटा..
*USA में आर्थिक संकट..
*प्रशान्त ने क्रिकेट टीम से अपना नाम वापस लिया.. चंदन शतक कि ओर..


अब समाचार विस्तार से सुने..
अभी-अभी हमारे विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि शिवेन्द्र कुमार गुप्ता जी अपने घर बीबीपुर जाने के लिये चेन्नई सेन्ट्रल पहूंच चुके हैं.. यह खबर सुनते ही वडापलानी चिड़ियाघर में स्थित हमारे मित्रों में खुशियों की लहर सी दौर गई.. हमारे संवाददाता ने उनसे फोन लाईन पर संपर्क किया और पुछा आपको कैसा लग रहा है.. उन्होंने बताया की बहुत उल्लास पूर्वक वो घर जा रहे हैं.. संवाददाता ने उन्हें याद दिलाया कि बोतल में चूड़ा का भूंजा पैक करके लाना ना भूलें.. वो इन दिनों बहुत परेशान नजर आ रहे थे, उनकी परेशानी दूनी हो गई जब उन्हें पता चला कि 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये और 25 से 50 तक गृहस्थ का.. उन्हें पता चला की इस तरह उन्होंने अपना 1 वर्ष और 1 महिना व्यर्थ कर दिया है.. हम उम्मीद लगा रहे हैं कि बीबीपुर से वापस आ कर साथ में अप्नी बीबी का भी हाल समाचार सुनायेंगे.. यह समाचार हम सबसे पहले आप तक पहूंचा रहे हैं.. हमारे दूसरे फोन लाईन पर मौजूद हैं वडापलानी चिड़ियाघर में रहने वाले एक प्राणी विकास..
"हां विकास जी, क्या आप हमें सुन पा रहे हैं?"
घर्रर्रर्र.. "हां कहिये.."
"आपको कैसा लग रहा है?"
"अच्छा हुआ साला चला गया.. कुछ दिन मन को शांति मिलेगी.. एक साला से उसकी सूरत देख-देख कर पक गया था.. दूसरी बात यह है कि जब घर से आयेगा तो खाने-पीने का सामान भी लेता आयेगा.."
"तो आप देख रहे हैं कि वडापलानी चिड़ियाघर के प्राणियों के चेहरे पर कितनी खुशी छाई हुई है.."
सबसे तेज VMM न्यूज चैनल..

आज-कल वडापलानी चिड़ियाघर में स्थित हमारे सभी जानवर गण रात में अपने पिंजड़े में पहूंचते ही ठ्V पर टूट परते हैं.. आज-कल वहां इंडियन आईडल और जरा-जरा नच के दिखा जैसे रियालिटी शो ने धमाल मचा रखा है.. आज-कल प्रशान्त को उनके मित्र विकास, अमित और शिव इंडियन आईडल में भाग लेने के लिये चने कि झाड़ पर चढा रहे हैं.. देखिये कब तक चने कि झाड़ पर प्रशान्त चढने में सफल होते हैं, जिससे कि उन्हें वहां से धक्का दिया जा सके..

दशहरा के पावन मौके पर कोलकाता में खुशियों का सा महौल है.. रोज खरीददारी करके बाकी जगहों के लोगो को जलाया जा रहा है.. उधर हमें अभी-अभी पता चला है कि नीता को अपने पैसे नीरज से वापस नहीं मिले हैं.. वो काफी गुस्से में हैं और उदास भी.. और इस त्योहार में नीरज को गालियों का उपहार देने का सोच रहीं हैं..

आज ही पता चला कि हमारे अनुज कुमार सिंह उर्फ़ 'लंगड़ा त्यागी' काफी दिनों से दूसरों कि कवितायें पढकर बोर हो जाने के कारण से एक अदद कविता कि मांग प्रशान्त प्रियदर्शी के सामने रखे हैं.. उन्होंने धमकी दी है कि अगर जल्द से जल्द उन तक कविता ना पहूंचाई गयी तो वो देशव्यापी बंद का आयोजन करेंगे.. इधर प्रशान्त घबरा कर अपने ऑफिस में ही किसी कविता कि तलाश में जुट गये हैं.. एक कविता को वो जानते थे, मगर वो तो दूसरे ब्रांच में काम करती है..

उधर कल रात अमित ने संजीव भाई के 3-4 बार फोन करने पर भी फोन नहीं उठाया.. हमारे विश्वत शूत्रों से पता चला है कि अमित ने वो कॉल देखा ही नहीं.. मगर अमित कि हालत पतली बताई जा रही है.. उन्हें डर है कि कहीं मुम्बई से भाई लोगों का फोन जबरदस्ती टैक्स वसूलने के लिये तो नहीं था? उन्होंने अभी तक पुलिस को खबर नहीं की है और इससे अपने स्तर से निकलने कि तैयारी में हैं..

आज ही अर्चना का मेल भी मिला, जिसमें उन्होंने कहा एडवांस में हैप्पी ईद और हैप्पी दशहरा.. हाल में हुये बम धमाकों को मद्देनजर रखते हुये इसे एक प्रकार कि धमकी के रूप में लिया जा रहा है.. माना जा रहा है कि इसमें उच्च स्तर के तकनीक का प्रयोग किया गया है.. मुम्बई के किसी Wi-Fi नेट्वर्क को हैक करके यह ई-मेल भेजे जाने कि भी संभावना व्यक्त की जा रहीं है.. विरोधी पार्टी इस ई-मेल कि जांच उच्च स्तर पर किये जाने की मांग कर रहे हैं..

उधर बैंगलोर में काफी सन्नाटा छाया हुआ है.. कहीं से किसी प्रकार कि खबर मिलने कि सूचना नहीं है.. आशंका व्यक्त की जा रही है कि कहीं यह तूफान से पहले की शांति तो नहीं है?

अब चलते हैं कुछ अंतरराष्ट्रीय खबरों कि ओर..
वाणी मिश्रा के USA पहूंचने कि खबर सुनते ही वहां आर्थिक मंदी का माहौल तैयार हो गया है.. माना जा रहा है कि ऐसे कंजूस के वहां पहूंचने से वहां की उपभोक्तावाद संस्कृति पर भी काफ़ी बुरा असर परा है और लोग पैसे खर्च करना बंद कर दिये हैं.. फेडेरल बैंक ने इस स्थिति से बाहर निकलने के लिये $700 बिलियन बाजार में लाने का प्रबंध कर रही थी मगर राष्ट्रपति बुश ने यह सोचकर इसे खारीज कर दिया कि वाणी को तो अब बस 1.5 महिने ही यहां रहना है.. उसके बाद सब खुद ही ठीक हो जायेगा..

अभी अभी हमारे तेज खबरिया रिपोर्टर से पता चला है कि USA में छाई मंदी का असर कोलकाता में भी हुआ है.. नीरज अफ़रा-तफ़री में अपना सारा पैसा बैंको से निकाल कर अपने घर में जमा कर रहे हैं.. उन्हें चोर-लूटेरों का भी भय हो रहा है, मगर वह निश्चिंत हैं की बैंक जैसे चोर-लूटेरों से तो मोहल्ले वाले चोर-लूटेरों अच्छे हैं.. कुछ तो छोड़ ही जायेंगे.. बैंक वाले तो कुछ भी नहीं छोड़ते हैं..

अब कुछ खेल समाचार..
अभी पूरा विश्व दिल थामे बैठे हैं कि कब चंदन अपना शतक पूरा करते हैं.. वो अभी नर्वस नाईन्टी में पहूंच चुके हैं.. 90किलो पार करने के बाद वो अभी संभल कर बल्लेबाजी कर रहे हैं.. उम्मीद जतायी जा रही है कि एक बार 100 पूरा कर लेने के बाद फिर से उनकी धुवांधार बल्लेबाजी देखने को मिलेगी.. इधर चेन्नई में CSS कंपनी के तरफ से आयोजित क्रिकेट टूर्नामेंट से प्रशान्त ने अपना नाम वापस ले लिया है.. माना जा रहा है कि उन्हें चयनकर्ताओ ने जबरी टीम में शामिल कर लिया था..

इसी के साथ आज का समाचार समाप्त होता है.. नमस्कार..

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पिंजड़ा नंबर 420,
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यह पत्र मैंने अपने दोस्तों के लिये लिखा था.. इसमें वडापलानी में मेरा घर है जिसे सभी मित्रगण वडापलानी चिड़ियाघर के नाम से बुलाते हैं.. और बाकी सभी मेरे कालेज के मित्रों के नाम हैं.. VMM का फुल फार्म है - VIT MCA Mitra Mandali NEWS Channel.. ;)