Thursday, May 22, 2014

इश्क़ का धीमी आंच में पकना

आज का ही दिन था. ठीक एक साल पहले. मन अंतर्द्वंदों से घिरा हुआ था, कई प्रश्न थे जो भीतर कुलबुला रहे थे. कल पापा-मम्मी अनुजा से मिलने के लिए जाने वाले थे. हमारे यहाँ के चलनों के मुताबिक आमतौर से मिलने-मिलाने की प्रक्रिया तब ही शुरू होती है जब लगभग रिश्ता तय माना जाता है. एक तरह से मेरी शादी की बात तय होने जा रही थी कल, ठीक एक साल पहले. एक-दो दोस्तों को छोड़ किसी को बताया नहीं था.

खुल कर कहूँ तो मैंने तस्वीर देखने तक की जहमत नहीं उठायी थी उस समय तक. घर पर पूछा गया था की कैसी जीवनसाथी चाहिए, तो बस इतना ही कहा की अपना निर्णय खुद लेने वाली हो, बाकी और कुछ नहीं.. दोपहर होते-होते भाभी का फोन भी आ चुका था, चुहल करती हुई..मेरे ठंढे प्रतिक्रिया ने उनके जोश को भी ठंढा कर दिया. शाम होते-होते मम्मी ने अनुजा का नंबर मुझे मैसेज करते हुए बोली आज ही बात कर लेना. मुझे ख़ुशी सिर्फ एक ही बात की थी, घर में सभी खुश हैं....मगर अन्दर से आवाज सुनाई देती...'और तुम्हारी ख़ुशी'? तत्क्षण मैं पशोपेश में था, मुझे यह भी नहीं पता था की मैं खुश हूँ भी या नहीं. बाहरी तौर पर दोनों मित्रों पर अपनी ख़ुशी ही ज़ाहिर की, उनके बधाई को खुश हो कर स्वीकार भी किया...मगर खुद से पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था, क्या मैं वाकई खुश हूँ?

कुछ बातें समय पर छोड़ देना चाहिए. समय सही निर्णय लेता है. समय पर छोड़ी गई बातें अक्सर समयातीत हो जाती है. आज पुरे एक साल बाद अपने रिश्ते को पलट कर देखता हूँ तो वाकई हमारा रिश्ता समयातीत हो चुका है..आज इस रिश्ते के बिना मेरे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा!! आज यही लगता है की तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूँ अनुजा...

उसी दिन मैंने उसे फोन किया, मन में चल रहे उथल-पुथल से उसकी ख़ुशी, एक अलग से अहसास को फीका नहीं करना चाहता था..पूरे उत्साह से फोन किया. उस दिन बात नहीं हुई, रास्ते में थी, और घर पहुँचते-पहुंचते देर रात हो चुकी थी उसे..अगले दिन बात हुई. एक साधारण सी मगर लम्बी बात..

एक मजेदार किस्सा याद आता है, दो-तीन दिनों बाद ही उसे कलकत्ता के दम-दम हवाई अड्डे से मेलबर्न के लिए हवाई जहाज पकड़ना था.. देर रात गए मैं उस समय अपने मित्र शिवेंद्र के घर पर था. उसी ने मेरा फोन लेकर अनुजा का नंबर घुमा दिया और मुझे फोन दे दिया. थोड़ी देर की बात के बाद फोन काटने के बाद अनुजा का एक छोटा सा मैसेज आया. "It was a bliss in solitude". शिवेंद्र ने दोस्त की भूमिका निभाते हुए फोन छिनकर मैसेज पढ़ा, उसका मतलब पूछा. मैंने कहा "एकांत में आनंदातिरेक होना"..शिवेंद्र फिर से इस हिंदी अनुवाद का मतलब पूछा..और मैं हँसते-हँसते दोहरा हो गया.. चिढाते हुए उसे बोला, "साले, ना हिंदी समझता है और ना अंग्रेजी"

बीते एक साल में कई लम्हें गुजरे..अधिकाँश ख़ुशी के, कुछ नोंक-झोंक के, तो कुछ लड़ाई के भी. ज़िन्दगी भी तो ऐसी ही कुछ है, खट्टी-मीट्ठी..एक स्वाद आखिर कब तक किसी के जबान पर चढ़ सकता है? एक स्वाद अक्सर बोरियत ही लाता है. एक स्वाद के तुरत बाद ही हम दुसरे स्वाद को चखना चाहते हैं...तुम्हारा इश्क़ जैसे डिनर के बाद डेजर्ट खाना.. तुम्हारा इश्क़ जैसे जून के महीने में तेज आंधी के साथ बारिश.. तुम्हारा इश्क़ जैसे पाला पड़ते दिनों में खिली हुई धूप.. तुम्हारा इश्क़ जैसे किसी बच्चे की मुस्कान.. तुम्हारा इश्क़ जैसे तीखा मशालेदार चाय..तुम्हारा इश्क़ जैसे तुम!!! सिर्फ तुम्हारे इश्क़ का स्वाद ही है जो तालू से चिपकी हुई है, और मन चाहता है जीवन भर चिपकी रहे....आमीन!!!

कुछ बातें सार्वजनिक रूप में सीधे तुमसे कहनी है अनुजा - जानती हो, पिछले आठ-दस सालों में मुझसे सबसे अच्छा साल चुनने को अगर कहा जाए तो यह यही बीता हुआ साल है. शायद इसलिए पता भी नहीं चला की कैसे एक साल गुजर गए! शुक्रिया मेरी ज़िन्दगी में आने के लिए.....

Tuesday, April 22, 2014

मशाला चाय - दिव्य प्रकाश दुबे

दिव्य भाई की पहली किताब(टर्म्स एंड कंडीशंस एप्लाई) एक ही झटके में पूरा पढ़ गया था. और पढने के बाद दिव्य भाई को अपना ओनेस्ट ओपिनियन भी दिया था फेसबुक के इनबाक्स में जिसका सार यह था, "कहानियां साहित्यिक मामलों में कुछ भी नहीं है और बेहद साधारण है, मगर कहानियों की बुनावट और कसावट आपको किताब छोड़ने से पहले पूरा पढने को मजबूर कर दे."

अभी उनकी दूसरी किताब मशाला चाय जब आने वाली थी उस समय अपनी निजी चीजों में कुछ इस कदर उलझा हुआ था की प्री-बुकिंग नहीं किया, जैसा पहली किताब को लेकर किया था. यह किताब आने से पहले उन्होंने बहुत हल्के-फुल्के अंदाज में मुझे इनबाक्स में लिखा, "कुछ ऐसा लिख दो जिससे लोगों को लगे की यह नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा..." और उन्हें मैंने बताया, "मैं आपकी किताब से नए लोगों को पढ़ना सीखा रहा हूँ. मेरे वैसे दोस्त जो कभी कोई किताब नहीं पढ़ते वे भी आपकी किताब बड़े चाव से पढ़े."

मैं यह बात अभी भी उतने ही पुख्ते तौर से कह रहा हूँ. अगर आप हिंदी पढना जानते हैं मगर कभी कोई किताब हिंदी की नहीं पढ़ी है तो यह आपके लिए पहला पायदान है..पहली सीढी... और दिव्य भाई, आपको यह जानकार और भी अधिक आश्चर्य होगा की आपकी पहली पुस्तक अभी मेरे एक कन्नड़ मित्र के पास है जो हिंदी बेहद हिचक-हिचक कर ही पढ़ पाती हैं. मगर थोड़ा पढने के बाद मुझे बोल चुकी हैं की यह तो मैं पूरा पढ़ कर ही वापस करुँगी, कम से कम दो महीने बाद...

यह मैं उस वक़्त लिखने बैठा हूँ जब अधिकाँश लोग जिन्हें इस किताब में रुचि होगी, वे सभी इसे पढ़ चुके होंगे. जिन्हें जो कुछ भी बातें करनी थी, वह भी वे कर चुके. मगर फिर भी लिख रहा हूँ...

पहली कहानी पढ़ते वक़्त बचपन से पहले मुझे अपना वह जूनियर याद आया जो अभी भी बात-बात पर विद्या कसम खाता है. उसे कभी कोई और कसम खाते नहीं देखा हूँ, ना ही भगवान् कसम खाते. शायद अब वह समझ गया होगा की अब विद्या कसम खाने से भी कुछ हानि नहीं होने वाली..

दूसरी कहानी.....मैंने कई आस पास के चरित्र बहुत करीब से देखें हैं जो इससे मिलते हैं...कुछ सौ फीसदी...कुछ नब्बे फीसदी...खुद मैं भी तो साठ-सत्तर फीसदी तक के आस पास पहुँच ही जाता हूँ...दरअसल यह भारत के किसी भी मेट्रो में रहने वाले युवाओं की साझी कहानी है..जो ज़िन्दगी में किसी भी नए बदलाव का स्वागत करना जानता है..कुछ पीछे छूट जाए तो रुदाली नहीं गाता है..अकेलापन दूर करने का एकमात्र साधन दफ्तर और दोस्त ही हैं....ऐसी कई बातें तो मैंने भी कई दफे सोची थी/है, मगर इतनी आसानी से कोई ऐसे भी लिख सकता है? ब्रैवो....

बाकी कहानी अभी पढ़ी नहीं.. सो बाकी किस्सा फिर कभी...

चलते-चलते आपको फिर से याद दिला दूँ, अगर आप यह किताब इस उम्मीद में उठायें हैं पढ़ने के लिए की आपको घोर साहित्यिक खुराक मिले, तो यह किताब आपके लिए नहीं है..मगर याद रखें, इसमें वही कहानियां आपको मिलेंगी जैसी मानसिक अवस्था से आज का युवा गुजर रहा है.

Sunday, January 26, 2014

एक अप्रवासी का पन्ना

बात अधिक पुरानी नहीं है...मात्र एक साल पुरानी...अब एक साल में कितने दिन, कितने महीने, कितने हफ्ते और कितने घंटे होते हैं, यह गिनने बैठा तो लगता है जैसे एक युग पहले कि बात की जा रही हो. मगर यह फक़त एक साल पुरानी ही बात है. आज रात ही को चेन्नई से निकला था बैंगलोर के लिए और सत्ताईस की सुबह पहुँचा था.

चेन्नई छोड़े मात्र एक साल हुआ है, मगर ऐसा लगता है जैसे कभी वहां था ही नहीं. वह भी तब जबकि जीवन में दूसरा सबसे लम्बा समय उस शहर में ही बीता है. पहला पटना था, और तीसरे की खोज में हिसाब-किताब करने बैठा नहीं, वरना तो किस्तों में ज़िन्दगी जाने कितने ही शहर दिखा चुकी है.

जिस शिद्दत से पटना कभी याद आता है, उतनी शिद्दत से मगर चेन्नई को कभी याद नहीं कर पाया. पता नहीं उम्र का असर ठहरा या वाकई उस शहर से उतना लगाव ही ना हो पाया हो? कारण कुछ भी हो सकता है. उम्र का असर इसलिए की समय के साथ आस-पास के जगहों का तिलिस्म टूटने लगता है. शायद यह बहुत बड़ी वजह होती है कि बचपन में बिताये समय और मित्र हमेशा ही ज़ेहन में वैसे ही याद रहते हैं जैसे कल की ही बात हो.

अब भी याद आता है, चेन्नई छोड़ने से महीने भर पहले साथ काम करने वाली एक मित्र ने पूछा था, "क्या हमें याद करोगे वहां?" उस समय तुरत बिना एक क्षण सोचे जवाब दिया था "नहीं".. फिर जैसे-जैसे बैंगलोर आने का दिन नजदीक आने लगा वैसे-वैसे ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. आखिर छः साल का समय कम भी नहीं होता है. एक दिन ईमानदारी से उस मित्र को अपना जवाब फिर दिया.. "चेन्नई याद आये चाहे ना आये, मगर आप जैसे दोस्त जरुर याद आयेंगे." और अंततः वही बात सही साबित भी हुई.


मुझे अब भी याद आता है, जिस दिन मैंने वहां अपना त्यागपत्र दिया, उस दिन बहुत खुश था. मन में एक ख्याल यह भी था कि इस शहर और इस कंपनी से पीछा छूटा आखिर! मगर जैसे-जैसे दिन करीब आते गए वैसे-वैसे अकुलाहट भी बढती गई. मन मायूस सा होता गया. और आखिर आज के ही दिन अपना सामान बाँध कर रात की बस से बैंगलोर के लिए निकल लिया.

पिछले एक साल के बैंगलोर का पूरा ब्यौरा दूँ तो, कार्यस्थल पर काफी कुछ सीखने को मिला. सबसे अधिक मन में एक 'भय'.. हाँ, वह भय ही था. नयी तकनीक, नया प्रक्षेत्र(Domain) और उस पर भी अपने अनुभव के मुताबिक़ कार्य संपन्न करने का दवाब. कर पाऊंगा या नहीं, इसकी शंका. खैर, इन सबसे उबरने में अधिक मेहनत-मशक्कत नहीं करनी पड़ी. दूसरी बात यह कि वहां कई सालों से एक ही जगह कार्य करने से एक कम्फर्ट जोन में था, वह यहाँ फिर से बनाना. खैर, नए लोगों से मिलना, उन्हें जानना-समझना अच्छा लगता है, सो जल्द ही यहाँ भी अपना कम्फर्ट जोन बना ही लिया.

खैर, जीवन यूँ भी खानाबदोश हो चुका है. अपने देश में रहते हुए भी अप्रवासी होने को हम अभिशप्त हैं. कहने को भले ही कितना भी पटना को अपना कहूँ, मगर अब पटना जाने पर ही परायापन महसूस होता है. और वापस बैंगलोर(पहले चेन्नई) में प्रवेश करते ही लगता है जैसे अपने शहर, अपने घर में आ गया हूँ. पटना अब मात्र नौस्टैल्जिक होने वाला शहर ही बन कर रह गया है.

Monday, January 20, 2014

ईमानदारी बनाम भ्रष्टाचार

आज अपने वैसे भारतीय मित्रों को देखता हूँ जो फिलहाल विदेश में बसे हुए हैं, लगभग वे सभी "आप" के समर्थक हैं. आखिर ऐसा क्या है जो भारतियों को विदेश में पहुँचते ही "आप" का समर्थक बना देती है? ऐसी मेरी सोच है कि जब वही भारतीय मित्र वापस भारत आयेंगे और वापस यहाँ कार्य करते हुए अपने आस-पास की बेईमानी से जब तक त्रस्त नहीं होंगे तब तक वे "आप" के साथ भी खड़े दिखेंगे भी नहीं. कारण, तब वे उस वर्ग से ऊपर उठ चुके रहेंगे जिसे साध कर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचे हैं.

मेरी इस सोच को इस बात से बल मिलता है कि मैंने अपने आस पास कई मित्रों को भारत में रहते हुए नियम तोड़ते देखा है, मगर विदेश जाते ही वे पूर्ण ईमानदार हो जाते हैं. नहीं-नहीं...उन्होंने भारत में रहते हुए कोई ऐसा नियम नहीं तोडा जिसे अपराध की श्रेणी में रखा जाए. वे कुछ ऐसे नियम हैं जिन्हें हम नजर-अंदाज करते चलते हैं. मगर वही छोटे-छोटे नियम तोड़ने पर भी विदेश में कड़ा अर्थ दंड भोगना पड़ेगा इसी डर से वह वहां नहीं हो पाता है. एक डर, एक भय..

मैं हमेशा एक बात पर गौर करता हूँ. सबसे अधिक भ्रष्टाचार उन्हीं देशों में है जो अविकसित हैं अथवा विक्सित होने की ओर अग्रसर हैं. विकसित देशों में अपवाद के तौर पर ही पूरा का पूरा देश भ्रष्ट दिखेगा. मुझे इसका सीधा सा उत्तर यही समझ में आता है कि वहां की व्यवस्था ऐसी है जो भ्रष्टाचार को बेहद महंगा बनाती है. वहां पकड़े जाने और सजा पाने के अवसर अधिक हैं किसी भी विकासशील देशों के मुकाबले.

माफ़ कीजियेगा.. मैं इस बात से पूर्णतः असहमत हूँ कि बचपन से ही ईमानदारी का पाठ बच्चों को पढाया जाए तो वह ईमानदार बनेगा. क्योंकि बेईमानी और रिश्वत का पहला सबक हर बच्चा घर के भीतर ही सीखता है. जैसे किसी बच्चे को कहना कि क्लास में फर्स्ट आओ तो सायकिल खरीद दूंगा. या अभी चुप हो जाओ तो शाम में घूमने जायेंगे.. मेरा यही मानना है कि कोई भी जीव-जंतु स्वभाव से हमेशा हालात का फायदा उठाने वाला होता है. वो कहते हैं ना "सरवाईवल ऑफ़ द फिटेस्ट".

साथ ही यह भी सोचता हूँ की क्या भारत के अभी के हालात में एक भय जगा कर लोगों को ईमानदार बनाया जा सकता है? तो इसका उत्तर भी नकारात्मक ही मन में आता है. भारत जैसे विशालकाय जनसँख्या वाले देश में ऐसा होना नामुमकिन से कम भी नहीं है.

मैं दावे के साथ कहता हूँ कि जिस दिन कोई पार्टी भारत को शत-प्रतिशत भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगी, उसी दिन सबसे पहले जनता ही उसे बाहर का रास्ता दिखायेगी...वापस भ्रष्ट होने की राह खोजने के अवसर ढूँढने के लिए. कुछ उदाहरण मैं जोड़ता जाता हूँ..
दो मिनट के लिए भी गाड़ी सड़क पर पार्क करने पर अर्थदंड.
सड़क पर थूकने अथवा किसी भी प्रकार का कचरा फेंकने पर अर्थदंड.
जहाँ किसी भी कार्य को करने के लिए तुरत पैसा दो और सारे झंझट से मुक्ति होती थी, वहीं उसी काम के लिए तीन घंटे लाईन में लगना.
जहाँ ट्राफिक पुलिस को पचास-सौ दो और हजार के फाईन से बच जाओ, वहीं हजार का नुकसान सहना.. इत्यादि ऐसे ही ना जाने क्या-क्या..

नोट - आवेश में आकर कुछ भी यहाँ कमेन्ट करने से पहले जरा ईमानदारी से सोचें. अपने अहम्(ईगो) से इतर हटकर जरुर सोचें.