Wednesday, October 28, 2009

कौन सा ब्लौग? कौन सा चिट्ठा? कौन से मठाधीष?

आज कोई भी माई का लाल ऐसा नहीं कह सकता है कि उसने हमे हिंदी ब्लौगिंग सिखाई.. अगर कोई है तो आये, हम भी ताल ठोके तैयार बैठे हैं..

हद है यार.. यहां ब्लौग को चिट्ठा किसने कहा? नामवर जी को क्यों बुलाया? जैसे व्यर्थ प्रश्न में ही अपना दिमाग खराब किये हुये हैं.. हम तो यहां आलोक जी से लेकर नामवर जी तक, सभी का नाम इंटरनेट पर पढ़कर ही जाने हैं.. हिंदी की मेरी इस समझ पर कई खुद को बुद्धीजिवी समझने वाले अपने बुद्धिमता झाड़ने को आ सकते हैं.. उनका स्वागत है..

कोई स्वधन्य ब्लौगर अपने ब्लौग को डिलीट करने की धमकी अपने कमेंट में कर जा रहा है.. कर दो भाई, हमारा क्या जाता है? बस यही कि पहले आपको पढ़ते थे, डिलीट होने के बाद नहीं पढ़ेंगे.. इससे ना तो मेरा कुछ बिगड़ने वाला है और ना ही किसी और का.. आपको पढ़ने या ना पढ़ने से इस संसार में किसी का भी कुछ नहीं जाता है.. कुछ ऐसा ही मेरे ब्लौग के होने या ना होने पर भी लागू होता है..

अब चिट्ठे को चिट्ठा किसने सबसे पहले बुलाया, और जिसने भी बुलाया वही हिंदी का सबसे महान ब्लौगर हो गया यह हम कैसे मान लें? हो सकता है कि उन्होंने ही सबसे पहला हिंदी चिट्ठा बनाया.. मगर मुझे तो इसमें भी कोई महानता नजर नहीं आ रही है.. इंटरनेट की बात करें तो अगर कोई महान है तो वो है जिसने यूनी कोड का पहला साफ्टवेयर बनाया.. मुझे उनका नाम क्यों नहीं याद आ रहा है? ओह मैं तो भूल ही गया, शायद मैंने उनका नाम कहीं पढ़ा ही नहीं.. और अगर पढ़ा भी होगा तो वह इतने हल्के में लिखा गया होगा कि उनका नाम इतने लंबे समय तक मन पर छाप छोड़ ही नहीं पाया..

मैं हिंदी ब्लौग किसी दूसरे के ब्लौग को देखकर नहीं बनाया.. और ना ही इसे बनाने के पीछे ना ही किसी मुद्दे को उठाना था.. और ना ही हिंदी को आगे बढ़ाना.. मेरा हिंदी से अपने व्यवसाय का भी रिश्ता नहीं है.. और ना ही मैं हिंदी में अपने खुद के असीम ज्ञान होने का भ्रम पाले बैठा हूं.. फिर क्यों बनाया हिंदी ब्लौग? अरे देखो ना! मैं भी कितना भुलक्कड़ होता जा रहा हूं.. थोड़ी देर पहले याद नहीं आ रहा था की यूनी कोड साफ्टवेयर किसने बनाया और अब ये भी याद नहीं आ रहा है कि मैंने हिंदी ब्लौग क्यों बनाया? हां याद आया!! मुझे हिंदी में लिखने का कोई औजार नेट पर मिल गया था और बस यूं ही बना लिया हिंदी ब्लौग.. 2006 में बनाया और अब लगभग तीन साल भी होने को आ रहे हैं.. मुझे तो नहीं लगता है कि मैंने कोई तीर मार लिया हो..

जिनके नाम को लेकर यहां बवाल मचा हुआ है कि उन्होंने ब्लौग को सर्वप्रथम चिट्ठा कहा(आलोक जी).. वो खुद तो कुछ कह नहीं रहे हैं और बाकी सभी लोग नये जमाने, पुराने जमाने को लेकर अपनी ढफली अपना राग गा रहे हैं, दुहाई देते फिर रहे हैं.. जिन्हें यह गुमान है कि 35 लोग मिलजुलकर साथ रहते थे वैसा अब क्यों नहीं हो रहा है? तो भाई लोग आप कोई ग्रुप बना लो और वहीं ब्लौग-ब्लौग खेलते रहो.. आप भी खुश रहेंगे कि अब कोई हमसे लड़ता नहीं है, कोई बहस नहीं करता है..

अभी जो समय है उसमें चाहे कोई कुछ भी कर ले, मगर हिंदी ब्लौग के विस्तार को कोई भी नहीं रोक सकता है.. अगर आज गूगल पैसा मांगने लग जाये तो कल ही सभी दूसरे डोमेन पर शिफ्ट हो जायेंगे.. कोई मठाधिषी करने लगे तो उसे बस उसके अनुयायी ही सुनेंगे और दूसरा कोई नहीं.. ब्लौग पर नियंत्रण रखने का भ्रम पाले लोग भी कुछ ना कर सकेंगे.. अभी तो मैं उस दिन के इंतजार में हूं जब हिंदी ब्लौग से कमाई शुरू हो और एक दूसरे तरह का घमासान देखने को मिले ट्रैफिक पाने के लिये..

पहले अफसोस हो रहा था कि मैं इलाहाबाद में होने वाले सम्मेलन में भाग नहीं ले सका.. अब लगता है कि अच्छा हुआ कि मैं इलाहाबाद से मीलों दूर बैठा हुआ हूं और इस वजह से वहां जाने का सपना भी नहीं देख सकता..

Tuesday, October 20, 2009

लंद-फंद देवानंद बतिया रहे हैं, पढ़ने का मन हो तभिये पढ़ियेगा

गूरू लोग अपन गूरूपनी झाड़ले चलते हैं कि बेटा खूब मेहनत करो.. बड़का औफिसर बनोगे.. पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे त होगे खराब.. एक्को गो नसिहत काम नहीं आता है.. दोस्त लोग के साथ लंद-फंद देवानंद बतियईते चलते हैं.. अबकी इंटरभ्यू में ई सब पुछिस थी ऊ एच.आर. अऊर टेक्निकल बला राऊंड तक त पहुंचबो नहीं किये.. जाने कौन बतवा पर खिसिया गई थी? बड़ा खीस पड़ता है ई सब देख के..

इंटरभ्यूयो के त अलगे एक्सपिरिंस है.. केतनो सही जवाब दो, ई त पूछे बला पर डिपेंड करता है कि उसको क्या अच्छा लगे? केकरो के सामने त हवाबाजिये में काम चल जाता है और कोई जन त केतना भी बढ़िया से केतना भी राईट बोलो, ऊ बिदकर कर उदबिलाऊ बनले फिरता है.. बेसी अलाय-बलाय बकने का भी अलगे नुकसान हो जाता है.. इससे बढ़िया त रात में कोनो सड़क के कोना कात में जाते समय मच्छड़ भंमोड़े, ऊ जादे बढ़िया लगता है..

ऑफिसवा में सबको कम से कम आठ घंटा का काम चाहिये.. ऊपर से हरमेसा एक-दू ठो सर्टिफिकेशनवा के तलवार लटकईले फिरते हैं.. डेली दू घंटा ऑफिस में उसके लिये निकालो त दू-चारे दिन बाद बॉस हवा-पानी खराब करने के फिराक में दिखने लगे.. बेटा अपन चरचकिया पर घूमे एतना ईजी नहीं होता है..

बड़का ज्ञानी लोग वईसे भी बोल गये हैं - "समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कुच्छो नहीं मिलता है.." हम ई सब सुन कर चद्दर तान कर हाथ में टी.वी. का रिमोट लिये और आंख पर चस्मा टांगे डेढ़-दू बजे तक सुत जाते हैं.. ई सोचते हुये कि कहियो त हमरो किस्मत चमकेगा.. हमरो भाग्य का नीक टाईम आयेगा.. भारत अईसे ही भाग्यवादीयों का देश नहीं कहलाता है.. हर कदम पर भाग्य जैसन कुछ ना कुछ सुनने को मिल ही जाता है..

कुल मिला कर कालेज से लेकर अभी तक का पूरा गप्प सार्ट में लिख दिये हैं..

Monday, October 19, 2009

दिवाली की रात मेरे घर में भूतों का हंगामा


इसमें मैं यह नहीं लिखूंगा की दिवाली की रात हमने कैसे दिये जलाये? क्या-क्या पकाया? और कितने पटाखे जलाये.. ये सब तो लगभग सभी किये होंगे.. मगर दिवाली कि रात कुछ हटकर अलग सा कुछ हो तभी तो मजा है, और वो भी अनायास हो तो सोने पे सुहागा.. तो चलिये सीधे किस्से पर आते हैं..

दिवाली मनाने के बाद हम सभी मित्र खाना खाकर सोने चले गये.. मेरा एक मित्र(नाम नहीं बताऊंगा नहीं तो बाद में बहुत गरियायेगा) :) मेरे घर पर ही रात में रोक लिया गया और उसके लिये बिस्तर मैंने अपने बगल ही लगा दिया.. लगभग रात साढ़े बारह बजे तक हम दोनों टी.वी. देखते रहे और कुछ बाते करते रहे, इस बीच मेरे बाकी दो मित्र सो चुके थे.. एक बजे तक हम दोनों भी सो गये..

मैं गहरी नींद में था तभी अचानक से मुझे अजीब तरीके से किसी के चीखने की आवाज आई, जैसे कोई चुड़ैल चिल्ला रही हो.. कम से कम वह किसी इंसान के चीखने की आवाज तो नहीं थी(नींद में तो ऐसा ही लग रहा था).. उसी समय मैंने एक हाथ अपने गले पर पाया.. अब तक मेरी नींद नहीं खुली थी और मैं काफी हद तक डर गया था और डर के मारे चिल्लाने लगा.. तभी एक भारी सी चीज मेरे ऊपर कूद पड़ी.. अब तक मेरी हालत खराब हो चुकी थी.. एक तो कोई अजीब तरीके से चिल्ला रहा था.. दूसरा मेरे गले को पकड़ने की कोशिश में था.. तीसरा कोई मेरे ऊपर कूद भी रहा था जिसका वजन कम से कम 2-3 किलो रहा होगा..

डर के मारे मैं भी चिल्लाने लगा और हाथ इधर-उधर फेंकने लगा.. मेरे हाथ में किसी के सर का बाल आ गया और मैंने उसे जोड़ से पकर कर खींचने लगा.. यह तमाशा लगभग एक मिनट तक चला और तब तक मेरी और मेरे मित्र की नींद भी खुल गई.. हम दोनों ही अकबका कर उठ बैठे थे और अंधेरे में ही कुछ देखने की कोशिश कर रहे थे.. तब तक मेरे बाकी दो मित्र जो दूसरे कमरे में सो रहे थे वो दोनों भी हमारे दरवाजे पर आकर खड़े हो गये थे और बत्ती जला चुके थे..

तब जाकर सारा माजरा समझ में आया.. मेरा मित्र जो मेरे बगल में सोया हुआ था वह नींद में कोई सपना देखकर डर गया था और चिल्ला पड़ा था.. साथ ही उसने मेरा हाथ पकड़ना चाहा तो मेरी गरदन उसके हाथ में आ गई थी.. इसी बीच एक बिल्ली, जो मेरे कमरे में घूम रही थी, इस हंगामे से डरकर भागना चाही और मेरे ऊपर ही कूद गई.. उसके कूदने से मैं भी डरकर चिल्लाने लगा और इसी बीच मेरे हाथ में मेरे मित्र के सर का बाल आ गया.. अब हम दोनों चिल्ला रहे थे और वो मेरा गला पकड़ कर हिला रहा था और मैं उसके सर का बाल पकड़ कर खींच रहा था.. और हमारे बाकी दोनों मित्र हंसे जा रहे हैं..

खैर नींद टूटने से सारा माजरा तो समझ में आ गया, मगर दिवाली की रात फिर हम दोनों सो नहीं सके.. मेरा मित्र उस सपने से बहुत डरा हुआ था.. और मैं डरा हुआ था कि कहीं ये नींद में फिर से मेरा गला ना दबाने लग जाये ;).. साथ ही एक ने रसोई की बत्ती जला दी, और उस रोशनी से भी मुझे नींद नहीं आ रही थी.. :)

Friday, October 16, 2009

शीर्षकहीन कविता दिवाली की


जहां हर खुशी से
तुम्हारी याद जुड़ी हो
अच्छा है कि हमने मिलकर
कभी नहीं मनाया,
होली या दिवाली..

अब कम से कम
इन दो त्योहारों पर
तुम्हारी याद तो नहीं आती है..

जैसे उन पहाड़ों से भागता हूं,
जहां घूमे थे हम साथ-साथ
हाथों में हाथ लिये..

सच है, कुछ यादें
बहुत देर तक मारती है..

Tuesday, October 13, 2009

एक बीमार की बक-बक

मेरे ख्याल से बीमार आदमी या तो बेबात का बकबकिया हो जाया करता है या फिर चुपचाप अपने में सिमटा रहता है और यह समय भी बीत जायेगा जैसे ख्यालों में रहता है.. जब तक घर में था तब जब कभी पापाजी बीमार पड़ते थे, उनके मुख से अनवरत कविता-कहानियों का निकलना चालू हो जाता था.. एक से बढ़कर एक कविता-कहानी.. किसी आशु कवि की ही तरह हर बात पर उनके पास एक कविता हाजिर मिलती थी.. वह जमाना ब्लौग का नहीं था, नहीं तो कम से कम 15-20 पोस्ट बस उन दो दिनों की बीमारी में ही बन जाती..

जहां तक मेरी बात है तो, बीमार पड़ने पर मैं किसी को उस समय नहीं बताता हूं, ठीक होने के बद ही किसी को इसके बारे में बताता हूं कि बीमार था.. मेरी दिनचर्या भी अन्य दिनों की तरह ही हुआ करती थी, मगर अभी हाल में कुछ बड़ा वाला बीमार पड़ गया था, जिसमें किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं पड़ी.. मेरे चेहरे पर ही हाल लिखा दिख रहा था.. अब घर में कोई था तो नहीं, सो अकेले में मैं भी खूब बकबकाया.. इतना हुनर खुदा ने दिया नहीं है कि खुद अपनी कविता बनाऊं सो कुछ पुरानी कविता-कहानी को ही याद करता रहा..

एक दिन बैठे-बैठे(कह सकते हैं लेटे-लेटे) मैंने सोचा कि अपनी वसीयत भी लिख ही दूं.. क्या पता शाम तक रहूं-ना-रहूं.. चंद चीजों के शिवा अपने पास था ही क्या जो किसी के नाम लिखूं.. सो उन चंद चीजों का ही बंटवारा कर डाला..

मेरा वसियतनामा -
एक अदद बाईक है मेरे पास.. दो मित्र साथ में रहते हैं जिसमें से एक को बाईक चलाना आता नहीं है.. सो जिसे चलाना आता है बाईक उसकी.. बाकी बचा एक टीवी, दो मोबाईल, एक आई-पॉड, एक लैपटॉप और कुछ बरतन.. सो उसे दूसरे मित्र के नाम कर देना ठीक लगा..

एक आखिरी इच्छा भी बताई अपने मित्र शिवेन्द्र को.. मैंने उससे कहा कि अगर शाम में ऑफिस से लौटो और मेरी लाश को पाओ तो घबराना मत.. और मेरी लाश के टुकड़े-टुकड़े करके चील-कौवों को खिला देना.. किसी के तो काम आ सकूं.. ;-) वैसे मेरा मित्र शिव कुछ ऐसा है कि एक बार शायद किसी तेलचट्टे को या चूहे को मार रहा था और उसे देखकर शिव लगभग रो ही दिया था.. अब ऐसे में मेरे लाश के टुकड़े-टुकड़े करना उसके लिये किसी पहाड़ तोड़ने से कम तो नहीं ही होता..

एक कविता भी लिख डाली जो मेरी नहीं, अनंत कुशवाहा जी कि है..
बाद मरने के, मेरी कब्र पर उगाना बैगन..
मेरी वो को भुरता बहुत पसंद है..


खैर, मैं फिलहाल ठीक हो चुका हूं.. बेचारों को जो भी मिलना था सो अब नहीं मिल पायेगा.. :)

Monday, October 12, 2009

ईश्वर बाबू

आज यूं ही अपने ई-मेल के इनबाक्स के पुराने मेल पढ़ते हुये कुछ कवितायें हाथ लगी, जिसे मैं यहां पोस्ट कर रहा हूं.. मुझे नहीं पता यह किसकी लिखी हुई है, मगर जिनकी भी है अगर उन्हें इस कविता के यहां पोस्ट करने से आपत्ति है तो कृप्या एक कमेंट अथवा ई-मेल के द्वारा सूचित करें.. तत्पश्चात इसे यहां से हटा लिया जायेगा..

ईश्वर बाबू

ईश्वर है
कि बस पहाड़ पर लुढ़कने से बच गये
बच्चे लौट आये स्कूल से सकुशल
पिता चिन्तामुक्त मां हंस रही है
प्रसव में जच्चा-बच्चा स्वस्थ हैं
दोस्त कहता है कि याद आती है
षड्यंत्रों के बीच बचा हुआ है जीवन
रसातल को नहीं गयी पृथ्वी अभी तक!

तुम डर से
भोले विश्वासों में तब्दील हो गये हो
ईश्वर बाबू!!!


ईश्‍वर जो गया फिर आया नहीं

ईश्वर
प्रायः आकर
मुझ पर प्रश्न दागता

मैं उसके प्रश्नों के सामने
सिर झुका लेता

...और मैं महसूस करता कि
ईश्वर कैसे गर्व से फूल जाता

और इस तरह उसका ईश्वरत्व कायम रह जाता!

एक दिन
ईश्वर के जाने के बाद
मुझे लगा कि मेरी गर्दन
सिर झुकाते-झुकाते दुखने लगी है

मुझे लगने लगा कि
एक जिंदा आदमी होने के नाते
मेरी सहनशक्ति जवाब देने लगी है

सो, इस बार जब ईश्वर आया
तब उसने प्रश्न किया
और मैंने उत्तर दिया

प्रत्युत्तर में
उसके पास प्रश्न नहीं था

वह चला गया
तब से नहीं आया

शायद मैंने उसका ईश्वरत्व भंग कर दिया था!!!


ईश्‍वर!

ईश्‍वर!
सड़क बुहारते भीकू से बचते हुए
बिल्‍कुल पवित्र पहुंचती हूं तुम्‍हारे मंदिर में

ईश्‍वर!
जूठन साफ करती रामी के बेटे की
नज़र न लगे इसलिए
आंचल से ढंक कर लाती हूं
तुम्‍हारे लिए मोहनभोग की थाली

ईश्‍वर!

Thursday, October 01, 2009

ब्लौगर हलकान सिंह 'विद्रोही' का चेन्नई आगमन

अब क्या कहें, ये हलकान सिंह विद्रोही आजकल जहां देखो वहीं दिख जाते हैं.. पहले कलकत्ता में शिव जी के साथ मटरगस्ती कर रहे थे.. फिर कानपूर में अनूप जी को कथा कहानी सुनाने लगे.. अब जब वह चेन्नई आये थे तब उन्होंने मुझे बताया कि एक दिन वे भटकते हुये मेरे पुराने पोस्ट पढ़ने लगे.. देखा कि यह तो अमूमन जिस किसी ब्लौगिये से मिलता है उस पर एक-दो पोस्ट तो ठोक ही देता है.. और उसमें किसी की बुराई तो छोड़ो, टांग खिंचाई भी नहीं करता है.. तो चलो चेन्नई भी घूम ही आते हैं.. और कुछ नहीं तो एक ठो पोस्टवा तो ठेल ही देगा पीडी.. कुछ हो ना हो मगर उसमें मेरे ब्लौग का लिंक लगा दिया तो चिट्ठाजगत के हवाले में एक और लिंक जुड़ जायेगा.. चिट्ठाजगत रैंकिंग में कुछ जुगाड़ तो होगा सो अलग, ब्लौगवाणी में एक पसंद भी उससे जुड़वा ही लेंगे..

यहां आने के बाद जब उन्हें पता चला कि पीडी तो आजकल मूडिया लेखन कर रहा है.. अब जब उसे मूड होता है तभी किसी के बारे में लिखता है.. यह बात उन्हें तब पता चली जब मैंने उन्हें बताया कि कलकत्ता में आपके चहेते शिव जी से मिला, पूरा दिन उनके साथ बिताया.. मगर एक भी पोस्ट नहीं लिखा.. मुझसे पूछ बैठे कि ऐसा क्यों? काहे नहीं लिखे उनपर? वो तो ऐसे भी हिंदी ब्लौगजगत के नामचीन जेंटलमैन ब्लौगिये बन चुके हैं.. फिर भी नहीं लिखे कुछ? मैंने बहाना बनाना शुरू किया कि घर पर नेट नहीं है.. ऑफिस में काम से फुरसत नहीं है.. इत्यादी.. इत्यादी.. मगर वह संतुष्ट नहीं हुये और मेरा लैपटॉप मांग कर टटोलने लगे उसमें देखे कि दो-तीन पोस्ट टाईप कर के रखा हुआ है, मगर पोस्ट नहीं है.. उसे पढ़ते ही उनके आह्लादित मुख पर मुस्कान फैल गई.. उन्होंने कहा, "बहुत अच्छा लिखते हैं आप.. लिखते रहें.. हिंदी ब्लौगिंग का नाम आपसे रौशन होगा.."

अब हमें ऐसे कमेंट से आश्चर्य नहीं होता है.. पहले तो जैसे ही ऐसा कमेंट आता था बस जोर का झटका लगता था.. भला हम बहुत अच्छा कब से लिखने लगे? और यह कहीं किसी ज्योतिष वाले ब्लौग से तो यहां नहीं आ रहे हैं जो भविष्यवाणी भी कर दिये हैं? मगर अब इन बातों पर भी कितने दिनों तक आश्चर्य करते रहेंगे? अगर आश्चर्य लगातार करते रहें तो हमारा तो शक्ल ही वैसा दिखने लगेगा.. कुछ-कुछ विश्मयकारी चिन्ह जैसा.. एक छोटी सी लकीर और उसके नीचे एक बिंदू.. मुझे उनकी बात सुनकर बचपन के मास्टर की याद आ गई जो बात-बात पर भविष्यवाणी करते थे, "पढ़ाई-लिखाई साढ़े बाईस.. बड़ा होकर घास काटेगा तुम.."

सच में भारत महान ज्योतिषियों का देश है, जहां हर दस में से आठ हमेशा कुछ ना कुछ भविष्यवाणी करते दिख ही जाते हैं.. चुनाव के समय नेता लोग अपने वादों को भविष्यवाणी का रूप देकर इतने आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रखते हैं जैसे वह तो अकाट्य सत्य है.. उसे होने से कोई नहीं रोक सकता है.. क्रिकेट शुरू होने से पहले मीडिया और क्रिकेट खिलाड़ी भी वही रवैया अपनाते हैं.. वैसे होता ढाक के तीन पात है, यह मुझे बताने की जरूरत नहीं है..

खैर लगता है मैं विषय से भटक रहा हूं.. मैं तो बैठा था ब्लौगर हलकान सिंह 'विद्रोही' जी के चेन्नई आगमन के बारे में लिखने, मगर चाय की चुस्कियों में कहीं और खो गया.. हां! तो मैंने बातों ही बातों में शिव जी के पोस्ट का हवाला देते हुये पूछा, "आपके कितने ऐसे ब्लौग हैं जिस पर आप अनाम बन कर लिखते हैं?" मैं सोच रहा था कि यह प्रश्न सुनकर थोड़ा तो सकपकायेंगे, मगर वे तो खी-खी करके हंस रहे थे.. इससे एक सबक सीखा, हिंदी ब्लौगर को निर्लज्ज होना अतिआवश्यक होता है..

वे वैसी ही हंसी हंसते हुये बोले, "कितनों का नाम गिनाऊं? मुझे खुद भी याद नहीं है.. वो तो जब अपना डैशबोर्ड देखता हूं तभी याद आता है.."

"फिर भी! कुछ का तो नाम याद होगा?" मैंने पूछा?

वो एक एक को यादकरके सभी का नाम गिनाना शुरू किये.. ठीक उसी समय मुझे कुछ याद आया और जिसे दो-तीन दिनों से याद करते आ रहे थे मगर बार बार भूल जा रहे थे.. अब क्या करें? ब्लौगिंग करने का हमारा मकसद भी तो यही था.. जो भूली बिसरी बातें हैं उन्हें संजो कर रखने की.. कहीं बाद में फिर से भूल गया तो? मुझे कुछ लिखता देख कर वे सशंकित निगाह से मुझे देखने लगे.. मुझसे पूछे कि क्या लिख रहे हो? मैंने कहा कि कुछ चीजें.. कहीं बाद में भूल ना जाऊं.. मगर वो आश्वस्त नहीं हुये..

मुझे सावधान करते हुये कहने लगे, "ये आप सनसनी फैलाने के लिये मेरे सारे अनाम ब्लौग का नाम लिख रहे हैं.. ये सब यहां नहीं चलेगा.. आप गुटबाजी को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं..&^%$#@...." कुछ अपशब्द सुनकर मैंने उन्हें चेताया कि आप ऐसा नहीं कह सकते हैं.. फिर से खिंसे निपोर कर बोले, "मैं कहां, यह तो बेनामी बोल रहा है.." मैंने यह बात साबित करने के लिये कि मैं उनके अनाम ब्लौग का नाम नहीं लिख रहा था, उन्हें अपना नोटबुक दिखाना चाहा.. मगर वह कुछ सुनने को तैयार नहीं और उसी समय विदा हो लिये..

मेरा मूड खराब हो चुका था.. और मेरे नोटबुक का पन्ना हवा में फड़फड़ा रहा था.. जिसमें कभी-कभी कुछ शब्द लिखे दिख रहे थे..

आटा - 5 किलो..
चावल - 5 किलो..
दाल.......

आखिर आज पहली तारीख है तो राशन का भी इंतजाम करना है..