Sunday, January 26, 2014

एक अप्रवासी का पन्ना

बात अधिक पुरानी नहीं है...मात्र एक साल पुरानी...अब एक साल में कितने दिन, कितने महीने, कितने हफ्ते और कितने घंटे होते हैं, यह गिनने बैठा तो लगता है जैसे एक युग पहले कि बात की जा रही हो. मगर यह फक़त एक साल पुरानी ही बात है. आज रात ही को चेन्नई से निकला था बैंगलोर के लिए और सत्ताईस की सुबह पहुँचा था.

चेन्नई छोड़े मात्र एक साल हुआ है, मगर ऐसा लगता है जैसे कभी वहां था ही नहीं. वह भी तब जबकि जीवन में दूसरा सबसे लम्बा समय उस शहर में ही बीता है. पहला पटना था, और तीसरे की खोज में हिसाब-किताब करने बैठा नहीं, वरना तो किस्तों में ज़िन्दगी जाने कितने ही शहर दिखा चुकी है.

जिस शिद्दत से पटना कभी याद आता है, उतनी शिद्दत से मगर चेन्नई को कभी याद नहीं कर पाया. पता नहीं उम्र का असर ठहरा या वाकई उस शहर से उतना लगाव ही ना हो पाया हो? कारण कुछ भी हो सकता है. उम्र का असर इसलिए की समय के साथ आस-पास के जगहों का तिलिस्म टूटने लगता है. शायद यह बहुत बड़ी वजह होती है कि बचपन में बिताये समय और मित्र हमेशा ही ज़ेहन में वैसे ही याद रहते हैं जैसे कल की ही बात हो.

अब भी याद आता है, चेन्नई छोड़ने से महीने भर पहले साथ काम करने वाली एक मित्र ने पूछा था, "क्या हमें याद करोगे वहां?" उस समय तुरत बिना एक क्षण सोचे जवाब दिया था "नहीं".. फिर जैसे-जैसे बैंगलोर आने का दिन नजदीक आने लगा वैसे-वैसे ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. आखिर छः साल का समय कम भी नहीं होता है. एक दिन ईमानदारी से उस मित्र को अपना जवाब फिर दिया.. "चेन्नई याद आये चाहे ना आये, मगर आप जैसे दोस्त जरुर याद आयेंगे." और अंततः वही बात सही साबित भी हुई.


मुझे अब भी याद आता है, जिस दिन मैंने वहां अपना त्यागपत्र दिया, उस दिन बहुत खुश था. मन में एक ख्याल यह भी था कि इस शहर और इस कंपनी से पीछा छूटा आखिर! मगर जैसे-जैसे दिन करीब आते गए वैसे-वैसे अकुलाहट भी बढती गई. मन मायूस सा होता गया. और आखिर आज के ही दिन अपना सामान बाँध कर रात की बस से बैंगलोर के लिए निकल लिया.

पिछले एक साल के बैंगलोर का पूरा ब्यौरा दूँ तो, कार्यस्थल पर काफी कुछ सीखने को मिला. सबसे अधिक मन में एक 'भय'.. हाँ, वह भय ही था. नयी तकनीक, नया प्रक्षेत्र(Domain) और उस पर भी अपने अनुभव के मुताबिक़ कार्य संपन्न करने का दवाब. कर पाऊंगा या नहीं, इसकी शंका. खैर, इन सबसे उबरने में अधिक मेहनत-मशक्कत नहीं करनी पड़ी. दूसरी बात यह कि वहां कई सालों से एक ही जगह कार्य करने से एक कम्फर्ट जोन में था, वह यहाँ फिर से बनाना. खैर, नए लोगों से मिलना, उन्हें जानना-समझना अच्छा लगता है, सो जल्द ही यहाँ भी अपना कम्फर्ट जोन बना ही लिया.

खैर, जीवन यूँ भी खानाबदोश हो चुका है. अपने देश में रहते हुए भी अप्रवासी होने को हम अभिशप्त हैं. कहने को भले ही कितना भी पटना को अपना कहूँ, मगर अब पटना जाने पर ही परायापन महसूस होता है. और वापस बैंगलोर(पहले चेन्नई) में प्रवेश करते ही लगता है जैसे अपने शहर, अपने घर में आ गया हूँ. पटना अब मात्र नौस्टैल्जिक होने वाला शहर ही बन कर रह गया है.

Monday, January 20, 2014

ईमानदारी बनाम भ्रष्टाचार

आज अपने वैसे भारतीय मित्रों को देखता हूँ जो फिलहाल विदेश में बसे हुए हैं, लगभग वे सभी "आप" के समर्थक हैं. आखिर ऐसा क्या है जो भारतियों को विदेश में पहुँचते ही "आप" का समर्थक बना देती है? ऐसी मेरी सोच है कि जब वही भारतीय मित्र वापस भारत आयेंगे और वापस यहाँ कार्य करते हुए अपने आस-पास की बेईमानी से जब तक त्रस्त नहीं होंगे तब तक वे "आप" के साथ भी खड़े दिखेंगे भी नहीं. कारण, तब वे उस वर्ग से ऊपर उठ चुके रहेंगे जिसे साध कर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचे हैं.

मेरी इस सोच को इस बात से बल मिलता है कि मैंने अपने आस पास कई मित्रों को भारत में रहते हुए नियम तोड़ते देखा है, मगर विदेश जाते ही वे पूर्ण ईमानदार हो जाते हैं. नहीं-नहीं...उन्होंने भारत में रहते हुए कोई ऐसा नियम नहीं तोडा जिसे अपराध की श्रेणी में रखा जाए. वे कुछ ऐसे नियम हैं जिन्हें हम नजर-अंदाज करते चलते हैं. मगर वही छोटे-छोटे नियम तोड़ने पर भी विदेश में कड़ा अर्थ दंड भोगना पड़ेगा इसी डर से वह वहां नहीं हो पाता है. एक डर, एक भय..

मैं हमेशा एक बात पर गौर करता हूँ. सबसे अधिक भ्रष्टाचार उन्हीं देशों में है जो अविकसित हैं अथवा विक्सित होने की ओर अग्रसर हैं. विकसित देशों में अपवाद के तौर पर ही पूरा का पूरा देश भ्रष्ट दिखेगा. मुझे इसका सीधा सा उत्तर यही समझ में आता है कि वहां की व्यवस्था ऐसी है जो भ्रष्टाचार को बेहद महंगा बनाती है. वहां पकड़े जाने और सजा पाने के अवसर अधिक हैं किसी भी विकासशील देशों के मुकाबले.

माफ़ कीजियेगा.. मैं इस बात से पूर्णतः असहमत हूँ कि बचपन से ही ईमानदारी का पाठ बच्चों को पढाया जाए तो वह ईमानदार बनेगा. क्योंकि बेईमानी और रिश्वत का पहला सबक हर बच्चा घर के भीतर ही सीखता है. जैसे किसी बच्चे को कहना कि क्लास में फर्स्ट आओ तो सायकिल खरीद दूंगा. या अभी चुप हो जाओ तो शाम में घूमने जायेंगे.. मेरा यही मानना है कि कोई भी जीव-जंतु स्वभाव से हमेशा हालात का फायदा उठाने वाला होता है. वो कहते हैं ना "सरवाईवल ऑफ़ द फिटेस्ट".

साथ ही यह भी सोचता हूँ की क्या भारत के अभी के हालात में एक भय जगा कर लोगों को ईमानदार बनाया जा सकता है? तो इसका उत्तर भी नकारात्मक ही मन में आता है. भारत जैसे विशालकाय जनसँख्या वाले देश में ऐसा होना नामुमकिन से कम भी नहीं है.

मैं दावे के साथ कहता हूँ कि जिस दिन कोई पार्टी भारत को शत-प्रतिशत भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगी, उसी दिन सबसे पहले जनता ही उसे बाहर का रास्ता दिखायेगी...वापस भ्रष्ट होने की राह खोजने के अवसर ढूँढने के लिए. कुछ उदाहरण मैं जोड़ता जाता हूँ..
दो मिनट के लिए भी गाड़ी सड़क पर पार्क करने पर अर्थदंड.
सड़क पर थूकने अथवा किसी भी प्रकार का कचरा फेंकने पर अर्थदंड.
जहाँ किसी भी कार्य को करने के लिए तुरत पैसा दो और सारे झंझट से मुक्ति होती थी, वहीं उसी काम के लिए तीन घंटे लाईन में लगना.
जहाँ ट्राफिक पुलिस को पचास-सौ दो और हजार के फाईन से बच जाओ, वहीं हजार का नुकसान सहना.. इत्यादि ऐसे ही ना जाने क्या-क्या..

नोट - आवेश में आकर कुछ भी यहाँ कमेन्ट करने से पहले जरा ईमानदारी से सोचें. अपने अहम्(ईगो) से इतर हटकर जरुर सोचें.