Tuesday, April 29, 2008

चलो सुहाना भरम तो टूटा, जाना की हुश्न क्या है

कुछ दिन पहले रेडियोवाणी में गाईड से संबंधित कुछ कड़ियां पढाई जा रही थी और उसी के गीत अंतर्मन के किसी हिस्से में कहीं गूंज रहे थे जो कभी शब्दों का भी रूप लेकर होंठों से भी निकल रहे थे.. यूं ही ना जाने कैसे वे शब्द मेरे मित्र विकास के मोबाईल में भी जगह पा गई.. मैंने सोचा क्यों ना वो बेतकल्लुफी से निकले अल्फ़ाज को अपने चिट्ठे पर भी पोस्ट कर डालूं..

अब सबसे बड़ी मुसिबत ये थी की .AMR फाइल को कैसे .MP3 मे बदलूं.. इसका सबसे आसान मगर थका देने वाला रास्ता ये था की अपना माईक्रोफोन ऑन करके मोबाईल से उस गाने को बजा कर .MP3 में रिकार्ड कर लो.. और दूसरा रास्ता ये सूझा की क्यों ना कुच गूगल पर सर्च करके देखूं शायद ऐसा कोई साफ्टवेयर मिल जाये जिससे इसका कोई आसान हल मिले और आसानी से .MP3 में कन्वर्ट भी हो जाये..

रविवार को ना जाने क्यों सुबह-सुबह 6:30 नींद खुल गई जबकी पिछली रात भी देर से सोया था.. नींद तो खुल गई मगर बिस्तर से उठने का मन नहीं हुआ और लेटे-लेटे ही अपना लैपटॉप और गूगल से खेलने लगा.. अंततः लगभग 30 मिनट सर्च करने एक साफ्टवेयर मिला जिसने अपना काम बखूबी किया उस गाने को .MP3 में बदलने का.. अब अगला पड़ाव था उस गाने को पॉडकास्ट करने का.. चूंकि मैंने पहले कभी कोई आवाज को अपलोड करके पॉडकास्ट नहीं किया था सो मुझे लाईफलागर के अलावा किसी दूसरे साईट की जानकारी भी नहीं थी और लाईफलागर सही काम नहीं कर रहा था.. मैंने फिर सर्च करना शुरू किया की कहीं से कुछ असान तरीका मिले जिससे मैं इस गाने को पॉडकास्ट कर सकूं.. घंटे भर में लगभग 100 से ऊपर साईटों को डेखा और परखा मगर मेरे काम का कोई नहीं मिल रहा था..

अब सोचा इतनी मेहनत करने से तो अच्छा है किसी की मदद ले ली जाये और सबसे पहले ज़ेहन में युनूस जी का नाम कौंधा.. मैंने उन्हें फोन लगाया और अपनी समस्या बताई, उन्होंने कहा कि इंटरनेट आर्काईव डाट ओआरजी पर जाकर अपलोड कर दो और वहीं से तुम्हें प्लेयर भी मिल जायेगा.. मैंने उनके बताये राह पर चलते हुये फिर से अपना कार्य प्रारंभ किया.. मगर पहली बार अपलोडिंग का कार्य सफल नहीं हुआ.. मैंने दूसरी बार कोशिश की और एक और असफलता हाथ लगी.. तीसरा-चौथा प्रयास भी असफल होने के बाद मैंने फिर से युनूस जी का नंबर घुमाया.. और इस तरह मैं उन्हें लगभग दो घंटे परेशान करता रहा और वो भी पूरे धैर्य के साथ मुझे बताते रहे.. अंततः मैंने वो .MP3 फाईल उन्हें मेल कर दिया की आप ही चेक करके बताइये की दिक्कत कहां पर है..

फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझे गूगल टॉक पर पिंग किया और मुझे सारे लिंक के साथ पॉडकास्ट का HTML कोड भी दे दिया.. मतलब उन्होंने मेरा सारा काम ही कर डाला.. बाद में मुझे पता चला की मेरे कनेक्सन में कोई दिक्कत थी जिसके कारण वो फाईल ठीक से अपलोड नहीं हो पा रही थी.. आज मैं ये जो पॉडकास्ट कर रहा हूं उसका सारा श्रेय मैं युनूस जी को देता हूं.. क्योंकि ना वो रेडियोवाणी में गाईड को सुनवाते ना मैं ये गीत गाता और अगर गलती से गा भी लेता तो बिना युनूस जी की मदद के अपलोड करके पॉडकास्ट कहां करता?:)

अब आप ये गीत सुने और बतायें कैसी है? वैसे मेरा अपना फीडबैक ये है कि मैंने इस गीत को बहुत धीमा गाया है और कहीं-कहीं उच्चारण में भी गड़बड़ है.. जैसे हुश्न को मैं हुस्न उच्चारित कर रहा हूं..


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Keyword : Song, Sung by Prashant Priyadarshi, Guide's song chalo suhana bharama to toota..

Sunday, April 27, 2008

अकेलापन और यायावरी मनुष्य का सच्चा साथी

आज फिर मैं अपनी यायावरी पर निकल गया.. मेरा सोचना है की यायावरी का असली मजा अकेले ही यायावरी करने में आता है.. अगर आपको भरोसा ना हो तो कभी आप भी करके देखिये, मेरा दावा है की आप भी मुझसे सहमत होंगे.. हर बात पर आप बारीक नजर डालेंगे जितना आप उस समय कभी नहीं डाल सकते हैं जब कोई आपके साथ हो.. हर चीज को एक अलग ही नजरिये से देखेंगे..

मेरा सोचना है की अगर आप अकेले जीवन के मजे लेना सिख लिए हैं तो आपको इस दुनिया से कोई शिकायत नहीं रह जायेगी.. अकेलापन ही आपका सच्चा साथी है जो कभी आपका साथ नहीं छोड़ता है..

आज जो मैंने देखा उसे आप मेरी नजर से देखिये..

1. ढेर सारे लोग नए-नए फैसनेबल कपडे पहने हुए और दूसरों को ऐसे देखना जैसे उसकी साडी मेरी साडी से सफेद क्यों? (आज मैं चेन्नई के सबसे बड़े शौपिंग मॉल स्पेंसर प्लाजा गया था)

2. एक देहाती जोड़े को एस्केलेटर पर चढ़ते हुए देखना.. शायद महिला के लिए ये पहला अनुभव था एस्केलेटर पर चढ़ना.. पति उसका हाथ पकर कर चढ़ने लगे तो वो महिला घबरा कर वापस आ गयी और पति देव ऊपर चढ़ गए.. वो महिला सीढ़ी से ऊपर चढ़ना चाह रही थी मगर पति जी वापस आकर फिर से उसका हाथ पकर कर ऊपर ले जाना चाहे और वो महिला घबरा कर अपने पति से लिपट गयी मगर तभी उसे ध्यान आया की वो एक भीड़ भरे जगह पर है और ये जान कर उसका शर्म से दोहरा होते जाना..
उसके बगल से एक व्यक्ति जो टी-शर्ट और थ्री-फोर्थ पहने हुए था उन्हें देखकर ऐसे तन कर उतर रहा था जैसे वो बिना डरे एस्केलेटर पर चढ़ कर कोई बहुत ही महान काम कर रहा है.. :)

3. एक डार्ट से निशाने लगाने का कम्पीटिशन होना जिसे एक बच्चे ने पूरा कर दिखाया और बांकी सारे बरे लोग उसका मुंह देखते रह गए.. क्योंकि कोई भी बड़ा आदमी उसे पूरा नहीं कर पाया..

4. एक बहुत बड़े किताब की दूकान में जाने पर वहां एक भी हिंदी की किताब का ना दिखना.. अधिकतर अंग्रेजी की किताब का होना और कुछ तमिल की किताबें.. बस.. ऊपर से सभी किताब कम से कम २५० रूपये का होना..

5. उसी दूकान में हिंदी सिनेमा की ज्यादा सीडी होना.. जो ये साफ दिखाता है की हिंदी सिनेमा का चलन तमिलनाडू में भी बहुत है.. और दूसरी बात ये की लोग हिंदी नहीं पढना चाहते हैं पर हिंदी सिनेमा देखना चाहते हैं..

नोट : मेरी अगली पोस्ट में यूनुस जी ने मुझसे ज्यादा मेहनत की है जो अभी मेरे ड्राफ्ट में परा है.. उसके बाद मैं कब लिखूंगा मुझे पता नहीं.. जब अपनी बात नहीं कह पाने की कुंठा से ग्रस्त हो जाऊँगा तब लिखूंगा.. या फिर उस कुंठा की वजह से अवसाद ग्रस्त हो जाऊं और फिर से ना लिखूं.. देखिये.. मैं चिट्ठाकारों की दुनिया को अलविदा भी नहीं कह रहा हूँ.. बस अवकाश पर जा रहा हूँ.. पर मैं यहाँ सारे चिट्ठों को पढता भी रहूँगा और उन पर टिपियाता भी रहूँगा.. ज्ञान जी की भाषा में कहूं तो "मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग" क्योंकि जो मैं किसी से नहीं कह पाता हूँ उसे अपने ब्लौग पर डाल देता हूँ..

Keyword : Yayavari, Human Mind, Chennai spencer plaza

Saturday, April 26, 2008

पहले लड़की बनाया फिर उसे प्रेग्नेंट कर दिया

इस दुनिया में क्या-क्या नहीं होता है.. पहले तो अच्छे खासे 26 साल के खांटी जवान को लड़की बन कर काम करना परा और फिर जब उसका काम Client को पसंद आया और उसने उस लड़की से बात करनी चाही तो उसे Maternity Leave पर छः महीने के लिए भेज दिया.. ये कहानी किसी और की नहीं मेरी ही है.. :(

मैं आज-कल जिस प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूँ वो मेरी कम्पनी के लिए बिलकुल नया प्रोजेक्ट है, Client नया है.. इस प्रोजेक्ट के लिए Client ने पहले ही कह दिया था की कम से कम 2-3 साल के अनुभवी लोगों को ही इस प्रोजेक्ट में डालें.. सो इन्होने वैसा ही किया.. एक लड़की को भी इन्होने लिया जो उस समय दूसरी कम्पनी में काम कर रही थी और Job Shift करके मेरी कम्पनी में आ रही थी.. Client के यहाँ सभी का Login ID और Password भी बन चुका था.. मगर अंत समय में पता चला की उस लड़की को उसकी कम्पनी वालों ने नहीं छोडा और वो यहाँ नहीं आ रही है..

अब यह बात इनलोगों के लिए परेशानी का सबब बन चुका था क्योंकि अब अगर यहाँ से ये कहा जाता की वो यहाँ ज्वाइन नहीं कर रही है तो मेरी कम्पनी का So Called Image खराब हो जाता.. फिर उनलोगों ने मुझसे पूछा की क्या मैं ज्वाइन करूंगा वो प्रोजेक्ट और मैंने हामी भर दी.. चूंकि ये नया प्रोजेक्ट था और कोई इसे ज्वाइन नहीं करना चाह रहा था और इसीलिए मुझ जैसे नौसिखुवे को इन्होने अपने प्रोजेक्ट में रख लिया जिसके पास 2 साल का अनुभव नहीं था..

किस्सा शुरू होता है बस यहीं से.. अब मुझे उस लड़की का ID दे दिया गया और कहा गया की तुम्हे इसी पर काम करना है.. तब से मैं उसकी ID पर ही काम कर रहा था.. ट्रेनिंग तक तो सब ठीक-ठाक रहा.. पर बाद में कहीं ये मुसिबत ना बन जाये इसलिये एक लम्बी-चौडी टीम मीटिंग के बाद ये फैसला लिया गया की उस लड़की को Maternity Leave पर भेज दिया जाए और उन्हें कहा जाए की एक नया लड़का Join कर रहा है..

ये पूरी घटना मुझे इतनी दिलचस्प लगी की मैंने उसे यहाँ चिपका दिया.. :)
बाद में पता चला की ऐसी ही परेशानी लगभग ३-४ टीम में है और अब सभी को एक साथ Maternity Leave पर भेज दिया जाए..

Friday, April 25, 2008

काश हम इश्क ही ना करते किसी से

काश हम इश्क ही ना करते किसी से..


ना किसी दराज में रखते सूखे गुलाब छुपा कर..

ना बटुवे में कोई तस्वीर ही होती..

होती एक ऐसी दुनिया जहां,

जीने की तस्वीर ही अलग होती..


काश हम इश्क ही ना करते किसी से..


कहीं अचानक टकरा जाना सड़क पर

और हफ़्तों तक न दिखना का,

मलाल भी ना होता..

कभी यूं ही निगाहें मिल जाने पर,

उनका चेहरा लाल भी ना होता..


काश हम इश्क ही ना करते किसी से..


अपने हिस्से का चुंबन लेकर

उनके वापस दौड़ जाने पर

कोई गम भी ना होता..

इस जहान में उनका साथ छूटने पर,

आंखें नम भी ना होता..


काश हम इश्क ही ना करते किसी से..




कल मैं हिन्द-युग्म के ब्लौग पर गया और वहां एक कविता पढी.. उसी पर कमेंट लिखते समय ये कविता मेरी झोली से गिर गई जिसे मैं यहां डाल रहा हूं..

Keywords : Poem By Prashant, Love

Thursday, April 24, 2008

संजीव की भाषा में मैं सनकी हूँ

ये अक्सर मुझे और हमारे सभी दोस्तों को कहता था, "प्रशान्त सनकी है.. जब तक इसे सनक सवार नहीं है तब तक ये सभी के लिए बहुत अच्छा है नहीं तो एक बार सनक सवार हो जाए तो किसी को कुछ भी नहीं समझता.. सबसे जरूरी बात ये की कोई भी ये नहीं समझ सकता है की इसे सनक कब सवार होगी.. आज जिस बात पर सनक सवार हुआ था कल उसी बात पर हंसता हुआ मिलेगा.." वैसे मैं भी इसकी बात से लगभग पूरी तरह सहमत हूँ.. लगभग इसलिए क्योंकि मेरे पास पूरी वजह होती है किसी एक बात पर सनकने की और उसी बात पर हंसने की.. :)

संजीव नारायण लाल पूरा नाम है उसका.. कुछ लोग उसे संजीव बुलाते हैं तो कुछ लोग नारायण लाल.. मगर हमारे अधिकतर मित्र उसे लाल साहब ही कहते हैं.. बहुत ही अजीव किस्म का इंसान है(कभी-कभी तो मुझे अपनी इस बात पर भी शंका होती है कि इंसान है भी या नहीं :P).. उसे आप कभी जीवट पायेंगे तो कभी अति उत्साही.. कभी महा आलसी तो कभी उजड्ड किस्म का.. मगर आप उसके जितेने करीब आते जायेंगे वैसे-वैसे आप भी उसके मुरीद होते जायेंगे.. खुद को एक कट्टर हिंदू दिखाना उसके स्वभाव में है, मगर मुझे ये भी पता है कि अगर वो किसी को मुसिबत में देखेगा तो ये कभी नहीं पूछेगा कि उसका धर्म क्या है और बिना कुछ कहे उसकी सहायता में लग जायेगा और जब तक सामने वाला उसे अपनी सहायता के लिये धन्यवाद देना चाहे उससे पहले ही उसका वो वहां से अंतर्ध्यान हो जाना उसके साधारण से स्वभाव मे मिश्रित है.. संजीव मुझे बहुत पसंद है क्योंकि मेरी नजर में यह बहुत ही अच्छा इंसान है.. पहले दूसरों के बारे में सोचना फिर अपनी खबर लेना इसके प्राकृतिक स्वभाव में है..


होस्टल के समय की तस्वीर.. हमलोग परीक्षा के समय आल्मिरा के अन्दर बैठ कर पढ़ रहें हैं.. बाएँ तरफ संजीव है और दाहिने तरफ मैं हूँ.. :D

अभी महाशय मुम्बई में हैं.. हर दिन दौड़ते हुए कम्पनी वाली बस पकड़ना इनकी फितरत बन चुकी है और आफिस पहुंचते ही हम सभी को एक मेल जरूर करेंगे की आज बस कैसे पकडी या आज कैसे बस छूटी और सुबह कैसे १० मिनट में तैयार हुआ.. मुझे अभी भी कालेज के दिन याद आते हैं जब संजीव पूरे लगन के साथ हर दिन संकल्प करता था की आज से तो पढाई शुरू कर ही देनी है मगर वो आज कभी नहीं आता था, हाँ मगर एक बात तो जरूर है की पढाई चाहे ना करे, कक्षा में अच्छे नंबर भी ना आये मगर यह दिमाग का बहुत तेज था(क्या करूं संजीव आजकल हमारे साथ नहीं रह रहे हो ना, नहीं तो मैं लिखता की है :D).. वैसे मुझे अभी भी इसकी कुछ मजेदार बात याद आती है जैसे, C Language का फ्लो-चार्ट बनाने के लिए बेचारा बिलकुल हक्का-बक्का होकर बैठा हुआ चेहरा, हर समय इसके गले में लटकने वाला मोबाइल फोन, कैसा भी टी-शर्ट पहन कर कहीं भी चले जाना, जो भी पूरे लगन के साथ करने का सोचना वो कभी ना होना.. सबसे बड़ी बात ये की अगर इसे सुबह जल्दी उठना हो तो पूरी रात नहीं सोना की कहीं सुबह उठ ना पाऊँ और एन वक्त पर ठीक उसी समय सोना जब इसे काम हो.. और महाशय एक बार सो गए तो पूरे होस्टल की घडियाँ चिल्ला-चिल्ला कर खराब हो जाए तो हो जाने दो मगर इनकी नींद नहीं टूटने वाली है.. आज भी मुझे याद है जब होस्टल का पूरा फ्लोर इसके लगाए हुए अलार्म से जग जाया करता था मगर इसकी नींद नहीं खुलती थी.. और तो और इसे रूम-मेट भी चुन कर मिला था.. दोनों उसी घंटी की कर्ण फोडू शोर में सोये रहते थे जब तक कोई गालियाँ देते हुए इसका रूम पीट कर इन्हें जगा ना दे..

अरे यार क्या क्या गिनाऊं.. दिल से कहूं तो तुम बहुत याद आते हो.. आज के समय में अगर कोई भी मित्र बिना मतलब का मुझे फोन करता है तो उसमे तुम्हारा नंबर पहला है.. नहीं तो आज हालत ये है की भले हम कितने ही अच्छे मित्र हों मगर किसी को कुछ जरूरत होती है तभी उसका फोन आता है..

बोलने में तो महाशय पक्के उस्ताद हैं.. एक बार कुछ कहने को मिल जाए तो बस तर्क क्या और कुतर्क क्या.. होस्टल के समय में हमें जब कभी अंग्रेजी के शब्दों की जरूरत होती थी तो संजीव की ही सबसे पहले खोज होती थी.. सिनेमा के शौकीन और वो भी ऐसे वैसे नहीं, हर सिनेमा को कम से कम एक बार सभी को देखना चाहिए ऐसी विचारधारा रखने वाले.. अगर संजीव की चर्चा मैं करूं और इसके बैडमिन्टन प्रेम की बात ना करूं तो चर्चा अधूरी रह जायेगी.. इसके अति उत्साही स्वभाव(जिससे मैं हमेशा परेशान रहता था) और उसी अति उत्साह में अपने छाती की हड्डी में हल्का फ्रैक्चर कराना और छः माह तक इस खेल से दूर रहना और बस हमलोगों को खेलते हुए देखना इसके लिए किसी जुल्म से कम नहीं था..

मेरे और संजीव की विचारधारा में कभी मेल नहीं हुआ.. अगर मैं कहूंगा की पूरव चलो तो ये पश्चिम जाने को तैयार मिलेगा और अगर ये कहे की उत्तर चलो तो मैं दक्षिण जाना चाहूंगा.. मगर शायद इसे भी पता नहीं है की मैं इसे कितना मानता हूँ.. कोई बात नहीं, मेरे इस पोस्ट से इसे पता चल ही जायेगा.. :)

तुम्हारे भविष्य के लिए तुम्हें ढेरों शुभाकानाओं के साथ मैं आज का ये चिटठा समाप्त करता हूँ..

Keyword : Sanjeev Narayan Lal, VIT Friends, Good Human Being..

Wednesday, April 23, 2008

Oh!! Its Lalu's Bihar??

"Where is your native place?" उसने मुझसे पूछा..

मैंने कहा, "Patna, Bihar.."

"Oh!! Its Lalloo's Bihar??" उसने कहा..

"Nope.. Who told you that its Lalu's Bihar??" मैंने उससे कहा, "Its My Bihar.."

वो अपनी आंखें गोल-गोल करके आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगा, जैसे मेरा कहा इस दुनिया का नौवां अजूबा हो..

मैं भी इतनी देर तक लगातार काम करते रहने के कारण थोड़ा चिड़-चिड़ा सा हो गया था और थोड़ा आक्रामक भी.. मैंने उसी आक्रामक अंदाज में अपनी बात जारी रखी, "Bihar is not only about Lalu.. Bihar is not because of Lalu.. Yah, you probably say Lalu is because of Bihar.."

"But Lalu is from Bihar na(Typical Indian style english:))??" उसने थोड़ा प्रतिकार करना चाहा..

"Yes.. He is from Bihar but 70-80 Million people is also from Bihar.. Why you are not talking about those people??" मैंने कहा..

"It means you don't like Lalu?" उसका अगला प्रश्न, मानों वो अपनी हार नहीं मानना चाह रहा था..

"In some manner Lalu is good and some manner he is bad.. By the way I don't like any politician.. They all are corrupt.. Any more question??" मैंने बात खत्म करने की कोशिश की..

"No....." उसने उदास चेहरा बनाते हुये कहा पर उसके चेहरे पर मैं अब भी वही नौवां आश्चर्य वाला भाव पढ रहा था.. :)

Tuesday, April 22, 2008

Marriage Anniversary

आज मेरे पापा-मम्मी का वैवाहिक वर्षगांठ है..

इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं कहना है आज..

मुझे उनकी बहुते याद आ रही है..

I am missing You Papa-Mummy... :(

Sunday, April 20, 2008

यूनुस जी की सादगी - अंतिम भाग

मंगलवार को जब सुबह १० बजे यूनुस जी का फोन आया था तब उन्होने मेरी आवाज सुन कर सबसे पहले कहा की आपकी आवाज तो बहुत ही अच्छी है, आप गलत जगह पहुंच गए हैं.. एक आवाज के धनी व्यक्ति के मुंह से ये सुनना एक अलग ही बात है.. उनसे ये सुन कर मेरी हालत लगभग वैसी ही हो गई थी जैसे की किसी स्कूली बच्चे की हो जाए अगर उसे सचिन तेंदुलकर आकर कहे की तुम बहुत बढ़िया क्रिकेट खेलते हो.. :) मैं बचपन से ही उनकी आवाज सुनता आ रहा हूँ, और उनकी आवाज बहुत पसंद भी करता था.. कई बार दोस्तों के बीच किसी रेडियो उद्घोषक की नक़ल करते हुए कुछ कहता था तो या तो अमीन सयानी या फिर यूनुस खान की ही नक़ल करता था.. हाँ ये बात मैं जरूर स्वीकार करूंगा की पहले मैं रेडियो के उद्घोषकों के नामो को उतने ध्यान से नहीं सुनता था जितना आज सुनता हूँ, मगर यूनुस खान का नाम तो जरूर याद रहता था..

जब पहली बार मैंने रविवार की रात उनसे बात की तो वो बात मिनट भर से भी कम समय के लिए हुई, मगर उनसे बात करने के बाद मेरी पहली प्रतिक्रिया मेरे दोस्तों ने सुनी जो कुछ यूं थी.. "अरे यार पता है मैंने अभी यूनुस जी से बातें की.. फोन पर भी उनकी आवाज बिलकुल वैसी ही थी जैसी की रेडियो से आती है.. बिलकुल मख्खन जैसी.. :D"

जब एक बार उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो बात कहीं से कहीं पहुंच गया.. पहले मैं सोच रहा था की रेडियो और ब्लौग के अलावा और क्या बाते करूंगा, मगर यहाँ तो चेन्नई, मुम्बई, रेडियो, ट्रैफिक और ना जाने क्या क्या बाते निकलती चली गई.. हमारे बीच की बातें औपचारिकता से निकल कर कब अनौपचारिकता पर पहुंच गई इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं की मैंने उन्हें बीच में किसी बात पर ये भी कहा की "जब आपको मुझे डांटने का मौका मिले तो डांट दीजियेगा.. मैं बुरा नहीं मानूँगा.. वैसे भी किसी बड़े से डांट खाए बहुत दिन हो गए हैं.. :)"

ऐसा लग ही नहीं रहा था की मैं उनसे पहली बार बात कर रहा हूँ, सच्ची बात कहूं तो अपने करीबी मित्रों से भी आजकल इतनी लम्बी बात नहीं हो पाती है फोन पर जितनी की उनके साथ हुई.. और उनसे बात करके इतनी ख़ुशी हुई की मैं उस दिन अतिव्यस्त होते हुए भी पूरे उत्साह के साथ सारा काम किया और उसी उत्साह के साथ घर भी लौटा..

उन्होने मुझे मुम्बई आने का न्योता भी दिया, अब विविध भारती को अन्दर से देखने का मौका भला मैं क्यों चुकाने वाला हूँ :D सो झटपट न्योता स्वीकार करना चाहा मगर अपनी विवशता भी उन्हें बताई की अगर कुछ दिनों की छुट्टी मिलती है तो घर से इतनी दूर रहता हूँ की सीधा घर भागने का ही ख्याल आता है.. वैसे भी मुम्बई में कई अजीज दोस्त हैं जो की अगर मैं कभी मुम्बई जाऊं तो अपने पलकों को बिछा कर मेरा स्वागत करने को तैयार मिलेंगे.. और अब तो यूनुस जी भी हैं.. :)

Keyword : Yunus khaan, Radio, First talk..

यूनुस जी की सादगी - पार्ट 1

यूनुस जी से पहले मैं अपने जीवन मे अभी तक किसी भी ऐसे व्यक्ति से नही मिला था जिसने पहली ही मुलाक़ात मे मुझे प्रभावित किया हो, मगर कहीं ना कहीं से तो शुरूवात होनी ही थी और ये काम यूनुस जी ने किया और वो भी ऐसे मे जबकि मेरा स्वभाव कुछ ऐसा है कि में किसी के भी व्यक्तित्व से आमतौर पर प्रभावित ही नही होता भले ही वो कितने बडे आदमी क्यों ना हों.. मुझे प्रभावित करने के लिए बड़ा होना कोई मायने नही रखता है, हाँ एक अच्छा मनुष्य होना जरूर मायने रखता है..

मैंने कुछ दिन पहले उन्हें एक इ-मेल किया था जिसमे उनसे बात करने की इच्छा जाहिर की थी और जवाब मे उन्होने बहुत ही प्यार भरा जवाब दिया था की जब चाहो तब मुझे फोन कर सकते हो और साथ मे अपना और अपने घर का नम्बर भी दिया था.. मगर मुझमे कुछ संकोच और थोडी सी झिझक थी जिसके कारण उन्हें फोन करने मे लगभग २ सप्ताह का समय ले लिया.. बात करने से ज्यादा संकोच इसका था की पता नही वो कब फ्री रहते होंगे, मैं कहीं असमय फोन करके उनके कार्य मे विघ्न तो नही डाल दूंगा..

मैंने पिछली रविवार को उन्हें रात के समय फोन किया.. बस हल्की सी जान-पहचान के बाद उन्होने कहा की मेरे पिताजी का फोन आ रहा है सो मैं तुम्हे बाद में फोन करता हूँ.. फिर उस दिन उनका फोन नहीं आया.. अगले दिन मुझे दिन के समय उनका कॉल मिला, उस समय मैं एक मीटिंग में था.. सामन्यतः मैं किसी भी मीटिंग में कोई भी फोन नहीं उठाता हूँ(जबकि ऐसी कोई वर्जना नहीं होती है की आप किसी का फोन ना उठाओ), मगर फिर भी मैंने उनका फोन उठाया और हेल्लो...हेल्लो... बोलता रह गया.. उधर से कोई भी आवाज नहीं आ रही थी.. मैंने मीटिंग खत्म होने के बाद उन्हें फोन करना चाहा मगर उनका फोन नहीं जा रहा था.. और फिर कुछ ऐसी व्यस्तता की रात लगभग ११ बजे घर पहुंचा और उस समय कुछ भी होश नहीं था की किसी को भी फोन करूं और वैसे भी सभी मेरी तरह निशाचर नहीं होते हैं.. :)

यूनुस जी के ब्लौग से ही उठाया हुआ उनका चित्र
बाकी अगले भाग में.. :D

Keywork : Radio, Yunus Khan, First Talk

Saturday, April 19, 2008

Do you believe in Ghost??

कल... नहीं-नहीं आज सुबह जब आफिस से लौटा तो सुबह के ३:३० हो रहे थे.. मैंने इससे पहले कभी इतना समय कार्यालय में नहीं बिताया.. पिछला पूरा सप्ताह कुछ ऐसे बिता जैसे अपनी कोई निजी जिन्दगी ही ना हो.. उधार पर दे रखा हो अपनी कम्पनी वालों को.. पूरे १९ घंटे लगातार कंप्यूटर के मानीटर पर नजर गड़ा कर देखते जाना.. पहले Code को Code Coverage और Ultra Edit नामक Tool से Check करना की कितना प्रतिशत इस प्रोग्राम का Code Execute हो रहा है और अगर नहीं हो रहा है तो क्यों नहीं हो रहा है.. फिर उसका Documentation करना..

अनायास मुझे एक चुटकुला याद आ रहा था.. जिसमे सांभा आज के IT युग में गब्बर से कहता है की सरदार मैंने आपका Code लिखा है और गब्बर जवाब में कहता है की ले अब Documentation कर..

खैर वो भी एक दुस्वप्न की तरह गुजर गया लगता है, या फिर मैं गलत हूँ? मुझे तो पक्का यकीन है कि मैं गलत हूँ.. मैंने अपने अभी तक के कंप्यूटर कैरियर में तो यही पाया है कि अगर किसी के पास काम है तो बहुत है या फिर नहीं है तो वो किसी निकम्मे कि तरह बैठा रहता है..

कल रात एक मजेदार घटना भी घटी.. जब मैं और मेरा बास (Project Leader) बैठ कर काम कर रहे थे तभी मेरे Cubical के पास वाले ट्यूब लाईट का कवर निकल कर गिर गया.. उस समय रात के २ बज रहे थे और मेरे पूरे फ्लोर पर मैं और मेरे बास के अलावा कोई नहीं था.. मैं और मेरा बास एक दूसरे को देख कर बस मुस्कुरा दिए और फिर काम में लग गए.. थोडी देर बाद मैंने काम करते-करते अपने Project Leader से कहा, "Srini(his name), do you believe in GHOST?" वो अजीब तरह से मुस्कुराते हुए (या यूं कहें घूरते हुए मुस्कुरा कर) बोले, "At this time do you want to make fun? Still do you have that much energy?" मैंने कुछ नहीं कहा बस मुस्कुराया और फिर से काम में लग गया.. लगभग १५ मिनट के बाद उन्होने कहा, "Yeh!! I believe..." शायद तभी से उनके मन में बस यही चल रहा होगा..:D या शायद मैंने उन्हें डरा दिया.. जो भी हो मुझे तो मजा आ गया.. ;)

Keywords : Project Leader, Documentation, Office, Code Coverage, Cybernet-Slash Support Chennai, Ultra Edit.

संघर्ष के दिनों का सच्चा साथी

मेरी यह रचना कल रेडियोनामा में छाप चुकी है और यह संभव है की आपमें से अधिकतर ये पोस्ट पहले ही पढ़ चुके होंगे.. मगर ये फिर से अपने चिट्ठे पर डालने का मकसद यह है की मेरे कई मित्र और सबसे खासतौर पर मेरे पापाजी जो बस मेरे चिट्ठे को जानते हैं और किसी और चिट्ठे पर नहीं भटकते हैं, वो भी इसे पढ़ सकें..


यूँ तो रेडियो से नाता बचपन से ही जुडा हुआ है मगर इसने सच्चे साथी की तरह तब साथ निभाया जब मैं अपने संघर्ष के दिनों में था और अक्सर अवसादों से घिर जाया करता था.. मैं उस समय BCA के अंतिम साल का छात्र था और अपने आखिरी सेमेस्टर में किसी भी आम बिहारी छात्र की तरह दिल्ली की और रवाना हो गया था.. वैसे तो मैं स्व-अध्ययन के लिए दिल्ली गया था जो मैं घर में रह कर भी कर सकता था.. मगर अपने शहर की मित्र मंडली से पीछा छुडाने के लिए ये बहुत ही जरूरी था.. मैं जब घर से निकला तो पापाजी ने मुझे एक ट्रांजिस्टर भी साथ में दे दिए जो उन्हें किसी ने दुबई से लाकर उपहार स्वरूप दिया था.. सन् २००४ में वैसा डिजिटल रेडियो मैंने शायद ही किसी के पास देखा था या फिर ये भी कह सकते हैं की मैंने उस समय तक ज्यादा दुनिया ही नहीं देखी थी..

पहली बार घर से निकलने पर जो कुछ भी किसी युवा में मन में चलता रहता है कुछ वैसा ही मेरे मन में भी चला करता था.. सोचता था की अब घर लौटूंगा तो कुछ बन कर ही.. मैंने अपने जीवनकाल में अब तक सबसे ज्यादा मेहनत भी वहीं किया था और कभी-कभी अवसाद में भी घिर जाता था.. मैंने दिल्ली पहुंच कर मुनिरका में अपना अड्डा जमाया जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बिलकुल पास था सो उस विश्वविद्यालय को भी पास से देखने का मौका मिला.. दिन भर मैं JNU के पुस्तकालय में बैठ कर पढ़ता था.. वहाँ बाहरी लड़कों का बैठना मन था मगर जो कोई भी JNU जानते हैं वो ये भी जानते होंगे की ये बहुत ही आम है वहाँ..

वापस अपने कमरे में लौटते-लौटते रात के १० बज जाया करते थे और फिर शुरू होती थी हमारी रेडियो मंडली.. मैं जिस घर में रहता था उसमे ६ मंजिल थे और रात होते ही एक अलग नजारा होता था.. किसी मंजिल से FM Gold बजता होता तो कही कोई अंग्रेजी गाना.. कोई लव गुरू बड़े ध्यान से सुनता तो कहीं नए हिंदी फिल्मो के गाने.. हाँ मगर एक बात तो तय थी की मेरा रेडियो लगभग पूरी रात अपने ही धुन में बजता होता था और अधिकांशतः FM Gold पर ही जाकर अटका होता था.. जब पढ़ते हुए मन उचट जाता तो अपने उसी नोटबुक के पन्नों को मैं उन हसीन शब्दों से रंगीन करने लग जाता जो उस समय रेडियो पर आता होता था..

फिर समय आया जब हमारे BCA की अंतिम परीक्षा होने वाली थी और लगभग एक-एक करके मेरे सभी साथी मुझे छोड़ कर वापस पटना चले गए.. कुछ इस भाग दौर की जिंदगी से बचने के लिए हमेशा के लिए दिल्ली से अपना बोरिया बिस्तर बाँध लिए तो कुछ के साथ पैसे की समस्या थी.. जब सारे लोग वापस चले गए तो मैंने भी वहां से अपने भैया के घर में शिफ्ट होने का सोचा जो वहीं दिल्ली में भोगल में रहते थे(उस समय कुछ लोगों को बहुत हैरानी होती थी की दोनो सगे भाई अलग क्यों रहते हैं, खैर इस पर कभी और चर्चा करूंगा), मगर जाने से पहले लगभग १५ दिन मैं वहां अकेला रहा था और मेरी दिनचर्या वही बनी रही.. हाँ एक बदलाव जरूर आया की अब रात में कोई मुझसे लड़ता नहीं था की रेडियो बंद करो या फिर तुम्हारे पुराने गीत और गजल से तो मैं तंग आ चूका हूँ.. मेरा तो यही मानना था की सारे साथीयों के चले जाने के बाद भी रेडियो ही मेरा ऐसा सच्चा साथी था जो हर समय मेरा साथ निभाता रहा.. कभी गीतों के साथ तो कभी खबरों के साथ..


Keywords : JNU, New Delhi, All India Radio(AIR), My Old Memories

Friday, April 18, 2008

Big B's New Blog Era, अमिताभ बच्चन जी का नया ब्लौग

आमिर खान के बाद अपने बच्चन साहब भी ब्लौग की दुनिया में उतर ही आये हैं.. ये ब्लौग उन्होने अपने करीबी मित्र अनिल अंबानी के साईट ब्लौगअड्डा पर बनाया है.. अगर आप उनके ब्लौग पर नजर डालेंगे तो पायेंगे की ब्लौग पर उनकी आने वाली सिनेमा भूतनाथ का प्रचार है और उनके दो इंटरव्यू है.. वो कहते हैं की यहाँ मैं अपना अनुभव आप लोगों के साथ बांटना चाहूंगा.. बस एक पोस्ट ऐसा लग रहा है जैसे उन्होने लिखा है.. खैर अब ये तो समय ही बतायेगा की वो ब्लॉगिंग को लेकर कितने सीरियस रहते हैं.. मगर शुरूवात तो उन्होने कर ही दी है..

उनके ब्लौग का पता है : http://blogs.bigadda.com/ab/



Keywords : Amitabh Bachchan, Bloging
मैंने पिछले पोस्ट से एक नयी शुरूवात की है जिसमे मैं लगातार अपने ब्लौग पोस्ट पर कुछ अंग्रेजी के शब्द डाल कर देखूंगा की लोगों की सर्च इंजिन से मेरे ब्लौग पर आने की रफ़्तार बढ़ती है या नहीं.. उसी कड़ी का ये भी अंश है..

Thursday, April 17, 2008

पायलट एयर होस्टेज को हैंडल कर रहे थे



एक बार ब्राजील में हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया, बस एक बन्दर बचा जो जहाज के अन्दर बैठा था..एक बार ब्राजील में हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया, बस एक बन्दर बचा जो जहाज के अन्दर बैठा था.. संयोगवश बन्दर अपेक्षाकृत बुद्धिमान था और हमारी भाषा समझ बोल सकता था.. अधिकारीगण अस्पताल गए और उससे कुछ जवाब तलब किये..

अधिकारीगण : जब जहाज उड़ा तब सवारी क्या कर रहे थे?
बन्दर : अपना बेल्ट बांध रहे थे..
अधिकारीगण : एयर होस्टेज क्या कर रही थी?
बन्दर : गुड मार्निंग बोल रही थी..
अधिकारीगण : पायलट क्या कर रहे थे?
बन्दर : सिस्टम चेक कर रहे थे..
अधिकारीगण : तुम क्या कर रहे थे?
बन्दर : आदमियों को देख रहा था..
अधिकारीगण : 10 मिनट बाद लोग क्या कर रहे थे?
बन्दर : खा-पी रहे थे..
अधिकारीगण : एयर होस्टेज क्या कर रही थी?
बन्दर : लोगों को सर्व कर रही थी..
अधिकारीगण : पायलट क्या कर रहे थे?
बन्दर : स्टेयरिंग हैंडल कर रहे थे..
अधिकारीगण : तुम क्या कर रहे थे?
बन्दर : खा रहा था और सामान इधर-उधर फेंक रहा था..

अधिकारीगण : 20 मिनट बाद सवारी क्या कर रहे थे?
बन्दर : कुछ सो रहे थे और कुछ पढ रहे थे..
अधिकारीगण : एयर होस्टेज?
बन्दर : मेक-अप..
अधिकारीगण : पायलट?
बन्दर : स्टीयरिंग हैंडल कर रहे थे..
अधिकारीगण : और तुम?
बन्दर : कुछ नहीं..

अधिकारीगण : जहाज दुर्घटनाग्रस्त होने से पहले लोग क्या कर रहे थे?
बन्दर : सारे सो रहे थे..
अधिकारीगण : पायलट क्या कर रहे थे?
बन्दर : एयर होस्टेज को हैंडल कर रहे थे..
अधिकारीगण : और तुम?
बन्दर : स्टीयरिंग हैंडल कर रहा था..

और कोई सवाल नहीं.. (एक चुटकुला मात्र)
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Once in Brazil a plane crashed, only a monkey who was traveling in the plane was left alive. Fortunately the monkey was intelligent enough to understand our language and reply in actions.
The officials went to see the monkey in the hospital and had a talk with the monkey.

Officer: "When the plane took off what were the travelers doing?"
Monkey: "Tying their belts"
Officer: "What were the air hostesses doing?"
Monkey: "Saying Hello! Good morning!"
Officer: "What were the pilots doing?"
Monkey: "Checking the system"
Officer: "What were you doing?"
Monkey: "Looking for my people"
Officer: "After 10' minutes what were the travelers doing?"
Monkey: "Having beverages and snacks"
Officer: "What were the air hostesses doing?"
Monkey: "Serving the travelers"
Officer: "What were the Pilots doing?"
Monkey: "Handling the steering"
Officer: "What were you doing?"
Monkey: "Eating & throwing"

Officer: "After 30 minutes what were the travelers doing?"
Monkey: "Some were sleeping and some were reading"
Officer: "What were the air hostesses doing?"
Monkey: "Make up"
Officer: "What were the pilots doing?"
Monkey: "Handling the steering"
Officer: "What were you doing?"
Monkey: "Nothing"

Officer: "Just before plane crash what were the travelers doing?"
Monkey: "All were sleeping"
Officer: "What were the pilots doing?"
Monkey: "Handling the air hostess"
Officer: What were you doing?
Monkey: Handling the steering!!!!!

No more Questions!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
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ये बस एक ट्रायल है.. मैं बस ये चेक कर रहा हूं कि ऐसे पोस्ट करने से क्या सर्च इंजिन से आने वाले लोगों की संख्या में बढोत्तरी होती है??

Wednesday, April 16, 2008

फायरफाक्स समस्या का समाधान

मेरे चिट्ठे पर फायरफाक्स से आने वालों पाठकों को हुई असुविधा के लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूं और दिनेशराय जी को धन्यवाद देता हूं की उन्होंने मुझे इस समस्या का समाधान बताया..
अभी मैंने इंटरनेट एक्सप्लोरर, फायरफाक्स और ओपेरा में अपने चिट्ठे को टेस्ट किया है और ये बिलकुल सही काम कर रहा है..

मैंने दिनेश जी के कथनानुसार बस अपने चिट्ठे के टेम्प्लेट में जाकर CSS Files के Justify Alignment को Left Alignment में बदल दिया और सब ठीक दिखने लगा.. :)

Sunday, April 13, 2008

दिनेशराय जी, ज्ञान जी और पंगेबाज जी कि अर्थपूर्ण टिप्पणी

दलित, आदिवासी और पिछड़ों को उठाने की किसी भी सार्थक कोशिश से हम सहमत हैं। लेकिन वह सार्थक तो हो। आरक्षण अब सार्थक नहीं रह गया है। इस से इन वर्गों को ऊपर उठाने का काम बिलकुल नहीं हो रहा है। केवल वे ही लोग जो आजादी के बाद के कुछ सालों में आरक्षण पा कर अपनी अपनी जातियों में ऊपर उठ आए थे अब भी लाभ उठा रहे हैं। शेष वहीं के वहीं हैं और पूरी जाति को वहीं खड़ा रखते हैं। नतीजा यह है कि कोई लाभ नहीं हो रहा है। नुकसान यह हो रहा है कि जातियाँ और मजबूत हो कर सामने आ रही हैं। आपसी विद्वेष और फैल रहा है।
इन मेधावी छात्रों को हम यहाँ कर्मक्षेत्र में भुगत रहे हैं। प्रशासनिक, न्यायिक, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सेवाओं में इन्हें जनता भुगत रही है।
हम जब छोटे थे तो रेलें गिनती की थीं, पर लोग भी यात्रा कम करते थे कभी कभी परेशानी होती थी अन्यथा जनरल डब्बे में जगह मिलती थी। एलएलबी करने के समय मैं बाराँ से कोटा रोज यात्रा करता था। रोज मुझे सोने को जगह मिल जाती थी, जनरल डब्बे में। 1978 में बिना रिजर्वेशन के मुम्बई आने जाने की यात्रा की बिना रिजर्वेशन के बड़े मजे में। आज 90 दिन पहले रिजर्वेशन की चिंता लग जाती है। कारण एक ही है। साधन कम हैं। यहाँ भाटिया जी की बात का समर्थन करना होगा। हम साधनों का विकास उतना नहीं कर पाए जितनी आबादी का विस्तार किया। आज कोई भी आबादी को सीमित रखने की बात नहीं करता पिछले छह माह से हिन्दी ब्लॉगिंग में एक भी पोस्ट देखने को नहीं मिली आबादी नियन्त्रण पर। चीन ने कितनी खूबसूरती से अपनी आबादी पर नियन्त्रण पा लिया है। मेरी बेटी जहाँ पढ़ती थी और अब नौकरी में है उस इंस्टीट्यूट आईआईपीएस मुम्बई के द्वार के बाहर लगे आबादी दर्शाने वाले विशाल पट्ट पर नित्य ही आँकड़ो में जो वृद्धि हो रही है। वह दहलाने वाली है।
भारतीय समाज को दोनों ही दिशाओं मे काम करना होगा। माँग घटानी होगी और पूर्ति में वृद्धि करनी होगी।
अब तो सप्ताहांत हो गया। आप की पोस्ट फायरफॉक्स में सही दर्शन नहीं दे रही है। इसे ठीक करो। मेरे विचार में तो आप पोस्ट मेटेरियल को जस्टिफाई कर देते हैं इस से परेशानी है। नहीं तो टेम्पलेट बदल लो। कब तक एमएसवर्ड में ट्रांसफर करके पढ़ते रहेंगे।

दिनेशराय द्विवेदी जी ने मेरे चिट्ठे के इस पोस्ट पर अपने कमेंट के रूप में ये लिखा था और मुझे उनका अपना अनुभव बांटना बहुत पसंद आया.. फिर लगा कि आपको क्यों इससे वंचित रखा जाये? सो मैं उनका लिखा हुआ अपने चिट्ठे पर डाल रहा हूं.. उस पोस्ट पर और भी कई कमेंट आये थे जो मुझे बहुत ही पसंद आयी थी.. जिसमें ज्ञान जी का कमेंट मुझे कुछ ज्यादा ही सकारात्मक और उत्साहवर्धक लगा.. इसे भी आप पढें..


DR.ANURAG ARYA said...
aapki bat bilkul sahi hai ,abhi tak hamare all india ki CBSE medical entrance me us vaqt koi reservation nahi tha ..par ab shayd vaqt badal gaya hai,mera manna hai ki jarurat mand aor vastav me pichde logo ko 12 tak muft shiksha di jaye aor koi aisa pustaklaya ya institute banaya jaye jahan yogya parantu jaruratmand logo ko entrance ke liye muft snasthan chalaye jaye.


राज भाटिय़ा said...
प्रशांत भाई, सारी पढाई ही फ़्रि होनी चहिये,ओर बच्चो को किताबे भी फ़्रि मिलनी चाहिये,स्कुल कालेज इतने होने चहिये की,सभी बच्चे पढ सके.यह बात सपने मे नही इसी दुनिया मे होती हे,युरोप के ९९% देशो मे पढाई मुफ़्त हे ,किताबे मुफ़त हे,जहां विदेशी बच्चे भी इस का लाभ उठाते हे, तो हमारे जहा क्यो नही हो सकता ?


Gyandutt Pandey said...
व्यवस्था को मरने दें। वह फीनिक्स की तरह फिर जी उठ्ठेगी! समाज जीने के तरीके खोज लेता है। अन्तत: काबलियत ही चलेगी। चाहे वह जिसमें हो।


अल्पना वर्मा said...
भारत का दुर्भाग्य है कि अब तक आरक्षण जैसे मुद्दों में शिक्षा को उलझा रखा है.आरक्षण के नाम पर सिर्फ़ जाति वाद को बढावा दे रहे हैं और कुछ नहीं.
क्यों आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं करते???
दुःख होता है सरकार का जाति/क्षेत्र के नाम पर आरक्षण बढाने' जैसे ग़लत फैसलों पर.
यही सब 'कुव्यवस्था 'देख कर कितना चाहो फ़िर भी भारत लौटने की हिम्मत नहीं होती न ही बच्चों को भेजने की.ईश्वर समाज के कथित ठेकेदारों को समय रहते सदबुद्धि दे.


अरुण said...
हम यू ही तो २००० साल गुलाम नही रहे ना,पहले मुगलो,फ़िर अग्रेजो फ़िर इन गधो की गुलामी करमे को अभीशिप्त है हम लोग ,अगर इन्होने गये पचास सालो मे लोगो को पढाया होता तो आज ये ना होते इसी लिये ये सिर्फ़ द्वेश बडाने और अपनी कुर्सी पक्की करने के अलावा कुछ और नही कर रहे हा इन सालो मे इन्होने एक फ़ौज जरूर खडी की है वो है इन के सुर मे सुर मिलाने वाले वाम पंथी विचारो की ..:)

चित्र कथा - A Pictorial story

मैंने कल एक नया चिट्ठा शुरू किया है जिसमें मैं हिंदी और अंग्रेजी में लगातार लिखता रहूंगा.. मतलब ये कि जो कुछ भी मैं हिंदी में लिखूंगा उसे अंग्रेजी में भी अनुवाद करके लिखूंगा..

आप भी एक नजर इस पर डालें और बतायें कि आपको कैसा लगा?
लिंक है ->
http://pictorial-story.blogspot.com/

Friday, April 11, 2008

आरक्षण से निकलते मेधावी छात्र

अगर ऐसे-ऐसे विद्या की अर्थी निकालने वाले विद्यार्थियों को आरक्षण का संरक्षण मिलता रहे तो भारत की अर्थी निकलते भी देर ना लगे..

मैं BCA करने के बाद किसी भी आम बिहारी लड़के की तरह दिल्ली जाकर विभिन्न सरकारी नौकरी कि तैयारी करने लगा था.. मगर मुझमें और दूसरे बिहारी लड़कों में, जो बिहार से निकल कर पहली बार दिल्ली जाते हैं, सबसे बड़ा फर्क ये था कि मेरी बोली से एक बार में ही कोई ये नहीं पकड़ सकता था कि मैं बिहार से हूं और आत्मविश्वास अपनी चरम सीमा पर था.. मेरा मुख्य ध्यान बैंक कि परीक्षा पर होता था.. उसी साल पहली बार MCA की संयुक्त परीक्षा का आयोजन IIT रूढकी के द्वारा आयोजित किया गया था, जिसका नाम AIMCET था.. वैसे तो मैं बैंक पर ज्यादा ध्यान दे रहा था मगर पापाजी के कहने पर मैंने MCA के लिये फार्म भरना भी जारी रखा और उस प्रवेश परीक्षा का भी फार्म भर रखा था..

अब चूंकि बैंक की परीक्षा में जो भी प्रश्न पूछे जाते हैं और MCA के लिये जो प्रश्न पूछे जाते हैं उसमें काफी कुछ समानता होती है बस MCA में गणित कुछ उपर के स्तर का होता है, सो बिना कुछ भी पढे-लिखे ही मेरा परिणाम मेरी उम्मीद से ज्यादा अच्छा आ गया था और मैंने सोचा कि अपना साल बरबाद करने से अच्छा है की कहीं प्रवेश ले ही लिया जाये.. मैंने कई जगह फार्म भर रखे थे, मगर 89 Percentile होते हुये भी किसी NIT में मुझे प्रवेश नहीं मिला और बाद में मुझे पता चला कि 0.04 Percentile वालों को भी NIT में प्रवेश मिल गया है, जिनका आल इंडिया रैंक लगभग 25,000 के आस-पास रहा होगा क्योंकि वो आरक्षित कोटे से आते थे.. अंततः मैंने VIT में प्रवेश ले लिया.. मेरे एक सीनीयर का कहना था कि मैंने अपनी MCA की पढाई पूरी तो की मगर इसमें मेरी कोई काबिलियत नहीं थी, वो तो मेरे माता-पिता इस काबिल थे जो मुझे 1.5 लाख सालाना + जेब खर्च अलग से, पर भी मुझे MCA VIT जैसे महंगे कालेज से पढा सके और मेरी उनकी इस बात से पूर्ण सहमती है.. मुझे VIT MCA के बैच में कई ऐसे विद्यार्थियों से मुलाकात हुई जिनके AIMCET में 95 Percentile थे मगर वे भी VIT में पढ रहे थे क्योंकि वे भी सवर्ण थे..

मुझे आपसे बस इतना पूछना है कि क्या ऐसे विद्यार्थी किसी भी देश का भला कर सकते हैं? मेरे ख्याल से तो अगर ऐसे-ऐसे विद्या की अर्थी निकालने वाले विद्यार्थियों को आरक्षण का संरक्षण मिलता रहे तो भारत की अर्थी निकलते भी देर नहीं लगने वाली है.. वैसे भी हम सभी मिल कर इसकी अर्थी निकालने का पूरा इंतजाम कर ही रहें हैं..



VIT का टेक्नालाजी टॉवर

Thursday, April 10, 2008

मैं क्षत्रिय हूं, तुम क्या हो?

आरक्षण अभी फिर से सर उठा कर घूम रहा है, और उधर जातिवाद भी गरमा रहा है.. इसी बीच में जातिवाद से मेरा जब पहली बार पाला परा था उसे मैं आपके पास लेकर आया हूं..

मैं तब 15 साल का था और नया-नया दसवीं पास करके आगे कि पढाई करने के लिये कालेज जाना शुरू किया था.. मैं अक्सर कालेज में अपने गांव के पास के रहने वाले दो लड़कों के साथ जाता था.. चंदन और कुंदन नाम था.. वहां कालेज में हमारे साथ एक और लड़का बैठने लगा था(मुझे उसका नाम याद नहीं है).. वो शायद मेरे साथ रहने वाले चंदन-कुंदन की जाति जानता था सो मुझे भी उसी जाति का समझ कर मेरे पास बैटने से परहेज नहीं करता था..

एक बार उसने मुझसे कहा, "मैं क्षत्रिय हूं, तुम क्या हो?" मुझे थोड़ा झटका सा लगा, इससे पहले मुझसे इस तरह का प्रश्न किसी ने नहीं पूछा था.. मैं थोड़ी देर सोचा कि क्या उत्तर दूं और अंत में मैंने सवर्ण होते हुये भी कहा, "मैं सूद्र हूं, थूक दूं क्या? अगर थूक दूंगा तो तुम भी शूद्र हो जाओगे.." और फिर उसने मेरे साथ उठना-बैठना छोड़ दिया, या यूं कहें कि मैंने छोड़ दिया तो ज्यादा उचित होगा..

ये बात बिक्रमगंज की है, जो कि बिहार में है और सासाराम जिला का एक अनुमंडल है, कि है.. मेरे पिताजी उस समय वहां के अनुमंडल पदाधिकारी थे और अक्सर मुझे छोड़ने और लाने के लिये एक गाड़ी जाती थी.. जो उस छोटे से जगह के लिये कुछ नई बात थी और लड़कों का ध्यान हमेशा मेरे उपर चला ही जाता था.. कुछ दिनों के बाद उस लड़के को पता चल गया कि मैं सवर्ण हूं तो वो फिर से मेरे पास आया और पूछा कि तुम अपनी जाति को बदनाम क्यों कर रहे हो? तुमने उस दिन उस तरह का उत्तर क्यों दिया? मेरा उत्तर था कि मैं जिस जाति से संबंधित हूं वो ना तो ब्राह्मण है और ना ही क्षत्रिय है और ना ही वैश्य है, क्योंकि हमारा खानदानी पेशा व्यापार नहीं है.. तो बस एक ही चीज बचती है और वो है शूद्र.. अगर तुम इसे साबित कर दो कि मैं शूद्र नहीं हूं तो मैं भी मान लूंगा कि मैं शूद्र नहीं हूं.. उसके पास कोई जवाब नहीं था.. फिर पापाजी का वहां से तबादला हो गया और मैं पटना आ गया मगर एक नये अनुभव के साथ..



यहां से लिया हुआ

Wednesday, April 09, 2008

भागते मन पर लगाम कैसे लगाऊं

आज मन बहुत इधर-उधर भाग रहा है.. क्या लिखूं, किसके बारे में लिखूं, क्या-क्या लिखूं.. ना लिखूं तो भी काम ना चले.. आखिर अपने मन का गुबार निकालने का भी तो कोई माध्यम होना चाहिये..

क्या उस बस ड्राईवर के बारे में लिखूं जिसे मैं रोज आते जाते देखता हूं.. रोज मैं लगभग एक नियत समय पर ही आफिस के लिये निकलता हूं सो लगभग हर दूसरे दिन उसी के बस में बैठता हूं.. बिलकुल किसी तमिल सिनेमा के हीरो टाईप दिखने की कोशिश करता हुआ उसका व्यवहार.. मगर मैंने ये भी पाया है कि वो सभी से बहुत अच्छे से बात करता है.. दिल्ली के बसों कि तरह यहां के बसों में मैंने कभी भी बस ड्राईवर या कंडक्टर को उद्दंडता करते नहीं देखा हूं और ना ही कभी बस में बैठे लोगों को..

या फिर उस आदमी के बारे में लिखूं जिसे मैं हर दिन बस में आते जाते अपने घर के पास वाले होटल के पास देखता हूं.. वो उस होटल के सामने के ट्रैफिक को संभालता हुआ मुझे अक्सर दिखता है.. मैं किसी भी बस में बैठूं, उसका ड्राईवर उसे हाथ हिला कर अभिवादन जरूर करता है और इसे देख कर उसका चेहरा खिल सा जाता है..

या बात अपने अपार्टमेंट में रहने वाले उस काले रंग के कुत्ते कि बात करूं जो हमेशा अपार्टमेंट के आस पास ही मंडराता हुआ दिखता है.. पहले उसे कभी दूसरी मंजिल से उपर वाली मंजिल पर नहीं देखता था, मगर आजकल उसे चौथे मंजिल पर अक्सर सोया हुआ पाता हूं.. मैं अक्सर अपने दोस्तों से कहता हूं कि शायद इसका प्रोमोशन हो गया है.. मुझे देखते ही मेरे चारो ओर घूमने लगता है.. कारण पता नहीं.. शायद मैं उसे प्यार भरे नजर से देखता हूं जिसे वो मूक जानवर समझ जाता होगा..

या फिर उस गाने कि बात करूं जिसे मैं अभी सुन रहा हूं.. गाने के बोल हैं In the end जो लिकिन पार्क का गाया हुआ गीत है.. उसका विडियो ये रहा..

नहीं-नहीं ये हिंदी ब्लौग कि दुनिया है, यहां जो भी लिखो वो हिंदी में ही लिखो और खुद को पक्का हिंदी भाषी दिखाओ.. नहीं तो कुछ लोग अभी आ जायेंगे कटाक्ष करने के लिये.. भले ही अंदर से आप जैसे भी हों, यहां खुद को सबसे भला दिखाने में कोई कसर नहीं होनी चाहिये..

किसके बारे में लिखूं? अपने आफिस के लोगों कि बातें करूं, या अपने दोस्तों कि चर्चा करूं? या चुप ही रहूं और चुप रहकर ही अपनी मन कि बात कह डालूं..

Tuesday, April 08, 2008

बिहारियों पर सुधांशु रंजन की एक रिपोर्ट

महाराष्ट्र की घटनाओं से बिहार के लोगों को गहरी तकलीफ पहुंची है। कुछ अरसा पहले बिहार विधानमंडल के साझा सम्मेलन में कुछ विधायकों ने 'मराठी राज्यपाल वापस जाओ' के नारे लगाए। बिहार के लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन यह कार्रवाई बिहार की परंपरा और संस्कृति के अनुरूप नहीं थी। बिहार की अपनी खामियां हैं, लेकिन भारतीयता के पैमाने पर उसने जो मिसाल कायम की है, वह काबिलेतारीफ है। इस पर चलकर ही यह देश खुश रह सकता है।

आगे कि खबर पढने के लिये आप इस पते पर जा सकते हैं..
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/msid-2871864,prtpage-1.cms

आज अभी लगभग 13 घंटे आफिस में काम करके लौट रहा हूं.. कुछ भी लिखने कि ताकत नहीं है, हां मगर ब्लौगिंग की आदत कहां जाने वाली है? सो आज मैंने ज्यादा मेहनत नहीं करके आपको सुधांशु रंजन कि ये रिपोर्ट पढा दिया.. मेरे एक मित्र(अमित) ने मुझे ई-पत्र के द्वारा ये भेजा था, मुझे अच्छा लगा सो सोचा आपको भी ये पढा दूं..

Monday, April 07, 2008

Udan Tashtari जी का पत्र मेरे नाम

मेरे ब्लौगवाणी वाले पोस्ट पर उड़न तस्तरी जी ने एक टिप्पणी दी जिसने मुझे वह पोस्ट हटाने के लिये प्रेरित किया और ये भी ख्याल आया कि आगे से पुनः इस तरह का काम नहीं करूंगा.. समीर जी को मैं धन्यवाद देना चाहूंगा जो मुझे विवादास्पद और सस्ती लोकप्रियता के मृगतृष्णा के चक्कर में परने से पहले ही वापस ले आये..

समीर जी का वो पत्र कुछ यूं था(जैसा कि अमूमन वो टिप्पणी में नहीं लिखते हैं:))..

इस तरह ट्रेफिक बुलवाकर आप ठीक नहीं करते वो भी तब, जब आप यूँ भी अपनी लेखनी से सबको आकर्षित करते हैं. मैं आपका हितचिंतक हूँ अतः आपके इस कदम से निराश हुआ हूँ और अफसोस जताने आया था. आशा है भावनाओं को समझते हुए आप इसे अन्यथा न लेंगे/ राह में विचलित करने वाले अनेकों लोग मिलेंगे, क्या सब राहों पर एक साथ चलना आपके लिये संभव होगा?? तब फिर?? यह रास्ता आपका नहीं है भाई..यह काठ की हांडी है, बस एक बार चढ़्ती है.

एक बार फिर से मैं समीर जी को धन्यवाद देता हूं और साथ में ये भी कहना चाहता हूं कि मैंने उसे अन्यथा ही नहीं दिल पर ले लिया :D(Just Kidding) :)..

एक रिकार्ड मेरे नाम भी : ये मेरे चिट्ठे का पहला ऐसा पोस्ट है जिसे मैंने हटाया है..

Sunday, April 06, 2008

रेल यात्रा वृतांत(छुट्टियों का एक और दिन---पार्ट 5)

अंतिम दिन, जिस दिन मैं वापस आ रहा था, भैया कि तबियत खराब हो गई थी.. थोड़ा बुखार सा आ रहा था उन्हें.. सो मुझे विदा करने के लिये पापाजी ही आये थे.. मैं वापसी के समय अपनी यात्रा ट्रेन से पूरी करने का सोचा था.. मेरी द्वितीय श्रेणी में आरक्षण था.. जब पापाजी से वहां स्टेशन पर बैठकर बातें कर रहा था तो पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था जैसे कुछ छूट गया हो.. बहुत दिनों के बाद ऐसे ख्याल घर छोड़ते समय आ रहे थे.. नहीं तो मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे मेरी सारी भावुकता ही इस दुनिया के भाग-दौड़ में खत्म होती जा रही है.. इस बार कि यात्रा में जो भी ढंग से पापाजी से बातें किया वो पटना जंक्शन पर बैठ कर ही किया.. वहीं पर मेरा मित्र मनोज भी आया था मुझे छोड़ने के लिये.. मैंने काफी दिनों बाद इतनी लंबी यात्रा ट्रेन से कर रहा था, नहीं तो अपनी छुट्टी बचाने के चक्कर में ट्रेन का मजा ही खोता जा रहा था और हवाई यात्रा ही ज्यादा होती थी.... इससे पहले जब भी ऐसी यात्रा करता था हमेशा कोई मित्र साथ में होता था.. मगर इस बार मैं अकेला था.. पहले जब भी जाता तब सेकेंड क्लास स्लीपर में होता था, मगर इस बार मैं सेकेंड क्लास ए.सी. में था.. मुझे एक एक करके सारे अंतर पता चल रहे थे जो मैं पहले बस दूसरों के अनुभव से ही जान पाता था.. स्लीपर में जहां गरमी और पसीने कि बदबू होती थी वहीं यहां ए.सी. का सूकून था.. मगर जहां स्लीपर में एक अपनापन होता था वहीं यहां आत्मकेन्द्रित लोग थे जो ऐसा लग रहा था जैसे अपने ही अहम में सिमटे जा रहें हों..

खैर ऐसे ही करते-करते 2 दिन बीत गये और मेरी ट्रेन चेन्नई में आकर लग गई.. बीच में कई बार ट्रेन से उतरा.. कुछ किताबें खरीदी, जिसमें हंस और कुछ कामिक्स थी.. हंस का अंक बहुत दिनों बाद मेरे हाथ में था और उसमें अमिताभ बच्चन और राजेन्द्र यादव ही छाये हुये लगे.. खैर जो भी हुआ उस पर मैं अपनी राय नहीं रखना चाहता.. बस ऐसे ही मेरी इन छुट्टीयों का सफर भी खत्म हो गया.. :(

आप कुछ चित्र देंखे.. और अपनी राय दें.. :)


किसी हिंदी सिनेमा की तरह अंत में एक फ़ैमिली फोटोग्राफ.. :D


भैया-भाभी(फोटो अच्छी आयी है ना?) :)


टेलीविजन देखने में सभी मशगूल.. इसलिये मुझे ये पसंद नहीं है.. :(


टेलीविजन दर्शन का एक और दृश्य..


मेरा कमरा.. :)

मेरी भाभी, प्यारी भाभी (छुट्टियों का एक और दिन---पार्ट 4)

इस बार घर गया तो अपने घर में पहली बार किसी नौकर को देखा.. (सरकारी नौकर छोड़कर).. टिकेश्वर नाम है उसका मगर कुछ लोग उसे टिके तो कुछ लोग उसे टिकू पूकारते हैं.. 14-15 साल का लड़का है.. उसके शोषण की बात तो छोड़ ही दीजीये(जैसा कि अक्सर आम घरों में होता है), वो तो मुझसे भी ज्यादा मजे में है.. घर में ज्यादा काम नहीं होने के कारण दिनभर TV देखता है.. अक्सर सुबह मेरे पापाजी आफिस जाने से पहले उसे कुछ पढने को दे जाते हैं और शाम में जब वो पापाजी का पैर दबाने जाता है तो फिर वहीं पापाजी उससे उसके होमवर्क के बारे में पूछते हैं.. अगर उसे कुछ अच्छा लगता है तो थैंकयू बोलना नहीं भूलता है.. वो पहले मेरी भाभी के बड़े भाई के यहां था जो हैदराबाद में हैं और कुछ दिनों के लिये हमारे घर में है.. वो मेरे भैया को जीजाजी बोलता है, और मैं चूंकि उनका भाई हूं सो मुझे भी प्रशान्त जीजाजी ही पुकारता है और मेरी भाभी जल भुन जाती है क्योंकि मुझे उनको उनकी बहन को लेकर चिढाने का एक और मौका मिल जाता है, जिसे मैं हाथ से जाने नहीं देता.. ;) दुर्भाग्य वश मैं उसका फोटो लेना भूल गया क्योंकि मैंने सोचा भी नहीं था कि मैं उसके उपर पोस्ट लिख डालूंगा..

मैं लगभग हर रोज रात में खाना खाने के बाद भैया-भाभी के कमरे में जाकर बैठ जाता था और जब तक उन्हें नींद नहीं आ जाये तब-तक उनका भेजा खाता रहता था.. हर समय भाभी के आगे-पीछे, कभी उनका नाक खींचने पर उनका ठुनकना और उनके ठुनकने पर मेरी उनके ठुनकने की नकल करना, किसी कवि की कविता की तरह आनंददायक होता था.. यहां तक कि मेरे पापाजी को मुझसे शिकायत सी हो गई थी की भाभी के आगे ये सबको भूल गया है.. :) उनकी शिकायत सही भी थी क्योंकि इस बार मुझे पापा से ठीक से बात करने का मौका भी नहीं मिला.. कारण, कुछ मेरा हर समय भाभी के आगे पीछे करना और कुछ पापाजी का बहुत व्यस्त होना.. बस एक ही बात सुनना बचा रह गया था.. भाभी का चमचा :D..

मेरी एक आदत है, जब भी मैं बहुत ज्यादा अवसाद में होता हूं तब उसे कुछ छंदों में किसी कविता की तरह लिख कर घर में पापा-मम्मी, भैया-भाभी, सभी के मोबाईल पर मैसेज कर देता हूं.. और मेरा ये मैसेज अक्सर रात के 1-2 बजे के बाद ही भेजा जाता है, जिस समय सभी सोये रहते हैं.. उतनी रात में जब भी कोई मैसेज आता है तो सभी समझ जाते हैं कि ये प्रशान्त का ही हो सकता है किसी और का नहीं.. एक दिन भैया ने मुझे बताया की उतनी रात में मैं जब कोई मैसेज भेजता हूं और अगर भाभी जग कर उसे पढ लेती हैं तो सारी रात मेरी चिंता में ठीक से सो भी नहीं पाती हैं.. तो अब आप ही कहिये, जब भाभी मुझे इतना मानती हैं तो उनका चमचा बनने में मुझे भला क्यों परेशानी हो? :)



अंतिम अंक अगले पोस्ट में.. :D ये तो एकता कपूर का सिरीयल बनता चला जा रहा है, जिसका कोई अंत ना हो.. ;)

Saturday, April 05, 2008

खुश्बू का घर आना(छुट्टियों का एक और दिन---पार्ट 3)

11 मार्च को मैं खुश्बू को अपने घर खाने पर बुलाने कि तैयारी में था और इसके लिये मैंने पहले ही खुश्बू की मम्मी से आज्ञा ले रखी थी.. खुश्बू, स्नेहा कि छोटी बहन का नाम है.. अगले दिन सुबह-सुबह मैंने खुश्बू को फोन किया और कहा कि आज तुम मेरे घर खाने पर आ रही हो.. मैंने उससे पूछा नहीं था सीधा आदेश दे डाला था.. वो बेचारी असमंजस में पड़ी हुई थी कि मम्मी से पूछा भी नहीं और भैया बोल रहें हैं की आ जाओ.. मैंने थोड़ी देर तक उसे परेशान किया फिर उसे बता दिया कि चिंता मत करो, मैंने तुम्हारी मम्मी से पहले ही पूछ लिया है..:)

मैं उसे उसके होस्टल से लेने के लिये सुबह 10:30 के लगभग गया और 11 बजे तक मैं घर आ गया था.. मेरे घर आते ही उसने जो सबसे पहला काम किया वो था मेरठ में मेरे लिये हुये सारी तस्वीरों को अपने लैपटाप में कापी करना.. फिर उसने मेरा मोबाइल उठा कर मेरे घर कि, मेरी, मेरी मम्मी कि और मेरी भाभी कि तस्वीरें उतारनी शुरू कर दी.. मैंने पूछा कि इसका क्या करोगी? उसका उत्तर था कि इसे भी मैं अपने साथ ले जाउंगी.. तो मेरा कहना ता की इससे अच्छी फोटो नहीं आती है, ज्यादा मेगा पिक्सेल कि नहीं है और उसे अपना कैमरा दिया और उसे प्रयोग में लाना सिखा दिया.. फिर तो उसके उत्साह का ठिकाना ही ना रहा.. उसकी चहक से मानों घर गूंज उठा.. सबसे पहले वो मेरी मम्मी से लिपट गई और बोली भैया आंटी के साथ मेरा फोटो लिजीये.. अचानक से जो उसने मम्मी के साथ फोटो खिंचवाई उससे बेचारी मेरी मम्मी तो बस देखती ही रह गई.. शायद वो ये सोच भी नहीं पाई होगी कि ये पहली बार मुझसे मिलेगी तो इतने अपनेपन के साथ.. :)


खुश्बू के साथ मेरी मम्मी कि फोटो..

जब खुश्बू को वापस होस्टल छोड़कर मैं आया तो मेरे भैया का कहना था कि अच्छा लगा कि घर में कोई बच्चों जैसी हरकत करने वाला तो आया, नहीं तो आप(मेरे बारे में) सबसे छोटे होकर भी सबसे बड़े जैसा गंभीर होने का नाटक करते रहते हैं :D..(मैं घर में सबसे छोटा हूं पर फिर भी सभी लोग मुझे आप ही कह कर बुलाते हैं.. कारण मुझे भी नहीं पता..)


खुश्बू और मैं

अगले दिन खुश्बू को मुझसे कुछ काम था सो मैं फिर से गया.. थोड़ी देर उसके साथ बोरिंग रोड में इधर-उधर भटका.. वहां से उसे कालेज जाना था.. उसका जो कालेज(वैसे तो ये इंस्टीच्यूट है जो ढेर सारे विश्वविद्यालय का स्टडी सेंटर है पर कालेज कहना ही मुझे पसंद है) है वो किसी जमाने में मेरा भी कालेज रह चुका है.. सो मैंने कहा कि मैं फिर से अपने कालेज घूमना चाहता हूं, सो मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा.. वहां जाकर सोचा कि जब यहां आ ही गया हूं तो यहां के डायरेक्टर ऐ.के.नायक से भी मिलता चलूं.. वो कालेज के जमाने में मुझे अच्छे से पहचानते थे मगर अभी तक मैं उन्हें याद होउंगा इसमें मुझे शंका थी.. मैं जैसे ही उनके कमरे में घुसा वैसे ही उन्होंने मुझे पहचान लिया.. वो स्नेहा को भी पहचानते थे और उसी कारण से वो खुश्बू को भी जानते थे सो उन्हें पहले आश्चर्य हुआ कि खुश्बू के साथ मैं क्या कर रहा हूं.. उन्होंने मुझसे पूछ भी डाला.. मैंने कहा ये स्नेहा कि छोटी बहन है सो मेरी भी छोटी बहन है.. उससे उन्हें संतुष्टी नहीं हुई.. 2-4 इधर-उधर के प्रश्न पूछने के बाद फिर से वही सवाल दोहराने लगे.. अब तक मेरा भी कुछ मूड खराब होने लगा था उनके इस प्रश्न से.. मैंने उन्हें कहा "सर, सबसे पहले तो आप इस क्षुद्र मानसिकता से बाहर आईये.. खुले दिमाग से सोचिये.. फिर मैं आपके इस प्रश्न का उत्तर दूंगा.." दरअसल मुझे उनके पूछने का लहजा बहुत ही बुरा लग रहा था.. सो मैंने भी बिलकुल बुरे तरीके से उन्हें कह दिया.. वो मेरे इस उत्तर से हक्के-बक्के से रह गये.. मगर वो शायद भूल गये थे कि वो मुझे इतने सालों बाद भी याद रखे हुये थे इसके पीछे यही कारण था की अगर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता था तो मैं उसी समय अपना विरोध प्रकट कर देता था.. जैसे एक बार मैं उनसे लड़ बैठा था की लड़कियों को इंटरनल में मुझसे इतने ज्यादे नंबर क्यों दिये जाते हैं जबकि एक्सटर्नल में मेरे उनसे बहुत ज्यादे नंबर होते हैं.. :)

फिर वहां से बहुत ही औपचारिक सी बातें करके और खुश्बू को उसके हास्टल छोड़कर वापस घर आ गया.. कुछ फोटोग्राफ और छोटे-छोटे कुछ किस्से अगली किस्त में, जो शायद कल दोपहर तक पोस्ट कर दूं.. :)

Friday, April 04, 2008

सोचा भी ना था

सोचा था, तुम्हारे दर्द में मैं
और मेरे दर्द में तुम जागो सारी रात..
मैं तो आज भी जाग रहा हूं,
सोचकर कि तुम्हें कोई तकलीफ़ तो नहीं?
क्या तुम भी जागती हो?

सोचा था कि तुम्हारी खुशियों
में तुमसे ज्यादा मैं खुश होउंगा..
इसी भ्रम में आज भी खुश रहने की कोशिश करता हूं..
बिछड़कर मुझसे क्या तुम भी खुश रहती हो?

सुना था समय हर दर्द को भुला देता है..
मैं अब इसी भ्रम में हूं
कि मेरे घाव भी भर गये हैं..
क्या तुम्हें भी अब दर्द नहीं होता है?

आज कुछ भी लिखने का मन नहीं है सो आज मैं अपनी पिछली पोस्ट को पूरा नहीं कर रहा हूं.. और आपके सामने ये लेकर आया हूं..

Thursday, April 03, 2008

मुझे अपने गांव से कोई प्यार नहीं(छुट्टियों का एक और दिन---पार्ट 2)

मुझे अपने गांव से कोई प्यार नहीं है.. मैं अपने गांव भी कभी जाना नहीं चाहता हूं.. क्यों जाउं? मैं कभी वहां रहा नहीं सो मुझे उससे लगाव का कोई कारण भी नहीं है.. मेरे लिये तो मेरा गांव, शहर, कस्बा सभी कुछ पटना ही है.. कई लोगों को मेरी इस बात से परेशानी हो सकती है मगर मुझे उससे कोई फर्क नहीं परता.. कई बार मुझे उनकी दलील भी सुननी परती है, मगर मुझे अपनी किसी बात से सहमत कराना इतना आसान नहीं है.. पटना से मुझे हमेशा अच्छी चीजें ही मिली.. लोगों को पहचानने की व्यवहारिकता भी पटना के लोगों ने ही सिखाया.. कुछ पाने के लिये मेहनत करना भी पटना में ही सिखा.. वो पहला प्यार जिसके बारे में लोगों की मान्यता है कि पहला प्यार भुलाये नहीं भुली जाती, पटना में ही हुआ.. खराब चीजें तो बाहर आने पर जमाने ने सिखा दिया.. पापाजी की नौकरी ऐसी थी की लगभग पूरा बिहार(पुराना बिहार जिसमें झारखंड भी शामिल है) घूमने का मौका मिल गया.. मगर दसवीं के बाद से ग्रैजुएसन तक पटना में ही रहा, जो किसी भी मनुष्य के विकास का सबसे अहम दौर होता है.. मेरा वो समय पटना में ही बीता है.. पटना शहर... कह सकते हैं कि मेरे सपनों का शहर है.. अभी मैं जितना भी यहां कमा रहा हूं अगर उसका आधा भी वहां कमा पाउं तो मैं सब छोड़-छाड़ कर वापस चला जाउंगा.. और अभी इस हालत में नहीं हूं की अपने लिये खुद से वहां रोजगार के अवसर पैदा कर सकूं..

9 मर्च को मैं पटना पहूंचा और उसी दिन मेरी मित्र डा.तनुजा वर्मा की शादी थी.. मैंने पहूंचते ही उसे फोन किया.. थोड़ी देर इधर-उधर की बातें होती रही, थोड़ा मैंने उसे उसकी शादी को लेकर चिढाया.. मैंने उससे कहा की अगर मैं तुम्हारी शादी में आज रात आता हूं तो मेरे पास चुपचाप खाना खाकर जाने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा क्योंकि मैं वहां बस दो लोगों को ही जानता हूं और वो दोनो ही आपस में शादी कर रहें हैं.. ये कैसी विडंबना है.. :) और चूकि दोनों ही शादी कर रहे हैं तो उनसे बात भी हो पाना कठीन ही लगता है.. उसने भी मेरी हालत समझते हुये पूरी उदारता दिखाते हुये कहा की तुम्हारे हालात मैं समझ सकती हूं तुम सही कह रहे हो, कोई बात नहीं कल मेरी शादी के रिसेप्शन पर आ जाना.. आज ना भी आओ तो चलेगा.. फिर दिन में जाकर मैंने उसके लिये कुछ उपहार लिये और शाम में भैया-भाभी के साथ नाईट आउटिंग पर गया, बिलकुल लफंगों जैसा हुलिया बना कर.. :D

अगले दिन मैं उसके रिसेप्शन पर गया और उससे जैसे ही मिला मेरे मुंह से पहला वाक्य जो निकला वो ये था "अरे, तू जब लास्ट टाईम मिली थी तो पक्का इडियट दिख रही थी.. मगर आज बड़ी अच्छी दिख रही है.. :D" उसने कहा तुम्हे उस दिन दिखाई नहीं दिया होगा.. उस दिन मूंछे बढा कर आये थे ना दिल्ली में.. सो मूंछों में सब ढक गया होगा.. :)


तनुजा और धीरज

वहां तनुजा के पति के एक मित्र भी मिल गये थे.. उनका नाम डा.राजेश था.. उनसे बातों ही बातों में पता चला की उनकी एक छोटी सी बेटी है बस दो महीने की.. उसका फोटो भी उन्होंने दिखाया जो बहुत ही प्यारी सी थी.. मैंने उसका नाम पूछा जो बहुत ही अजीब सा उन्होंने बताया था.. मैंने उसका मतलब पूछा तो झेंप से गये और कहे की उन्हें उसका मतलब नहीं पता.. संयोग से वो भी मेरे घर के बगल में ही रहते हैं सो उन्हीं के साथ वापस घर आ गया.. मैं भी अपनी बाईक पर अकेला ही था और रात बहुत हो चुकी थी.. सो मैंने भी सोचा की एक से भले दो..

घर यात्रा की अंतिम कड़ी अगले अंक में..

Wednesday, April 02, 2008

छुट्टियों का एक और दिन---पार्ट 1

9 मार्च की सुबह जब मैं ट्रेन की खिड़की का पर्दा हटा कर देखा तो आरा दिखने लगा था.. मुझे ऐसा लगने लगा की जैसे पटना की खुश्बू मेरे सांसों में आने लगी है.. वैसे मैं ये जानता हूं की कि ये सब बस कहने की बातें हैं, मगर क्या कहूं दिल नहीं मानता.. जैसे-जैसे पटना पास आता जा रहा था वैसे-वैसे बेचैनी बढती जा रही थी.. लग रहा था की थोड़ी और जल्दी क्यों नहीं आ रहा है.. ट्रेन जो कि रात में 2 घंटे लेट थी वो भी सही समय पर हो गई थी, मगर फिर भी मन में लग रहा था की मैं लेट हूं.. शायद इसका कारण् ये हो कि मैं जब दिल्ली में रहता था तब के और अब के ट्रेन के समय में बहुत अंतर आ गया है..

दानापूर से गुजरते हुये मैंने सोचा की क्या भैया को तंग करूं, जबकी उन्होंने कहा था की जब दानापूर से गुजरोगे तब मुझे फोन कर देना.. मैं लेने आ जाउंगा.. खैर अंततः मैंने भैया से मिलने के लालच से और औटो के धक्के के बदले भैया को ड्राईवर बना कर घर जाना ज्यादा पसंद किया;) और भैया को फोन कर ही दिया.. बाद में पता चला कि भैया तो फोन के बाद भी आने के मूड में नहीं थे मगर भाभी ने उन्हें धमका कर रखा था की एक ही तो भाई है आपका और आप उन्हें भी लाने नहीं जाना चाहते हैं? ऐसे ही मैं अपनी भाभी को अपनी प्यारी-प्यारी भाभी नहीं कहता हूं.. :D


मुझे सबसे ज्यादा खुशी और आश्चर्य इस बात का हुआ की भैया के साथ-साथ पापाजी भी आये हुये थे मुझे लेने के लिये जो साधारनतया नहीं आते हैं..

अगले अंक में तनुजा की शादी, और स्नेहा की छोटी बहन खुश्बू का मेरे घर आना और मेरा उसके साथ उसके कालेज जाना जहां से मैंने भी BCA किया है.. और साथ में ढेर सारी तस्वीरें भी.. :D

Tuesday, April 01, 2008

अप्रैल फूल और किस्सा-ए-ब्लौगवाणी

आप बस ब्लौगवाणी का अभी रात 11:30 बजे का स्टैट देखें.. आप भी कहेंगे की ब्लौगवाणी का स्टैट अप्रैल फूल के साथ ही चल रहा है.. :)



आप क्या कहते हैं??