Sunday, November 30, 2008

जल्द ही भारत में सभी के पास नौकरी होगी और सभी लखपति होंगे

जल्द ही भारत में सभी के पास नौकरी होगी और सभी लखपति होंगे.. जी हां, लखपति होना वह सपना है जो हर मध्यमवर्गीय भारतीय देखता है और साथ में सरकारी नौकरी भी हो तो क्या कहना.. कौन कहता है अभी वाली सरकार हिजड़ों कि जमात है या पिछली वाली थी? सभी झूठे हैं, बकवास करते हैं.. सरकार सारे अच्छे थे, सभी लोगों को लखपति और रोजगार देने वाली थी और है.. ऊपर से कुछ भाग्यवान लोग तो अब कड़ोड़पति भी बनने लगे हैं.. अजी जितनी मौतें उतनी सरकारी नौकरी और हादसों के हिसाब से लाखों रूपया..

अब मौत चाहे बम फटने से हुई हो या फिर फिर नक्सलियों कि गोली से.. अपनी सरकार है ना.. कुछ हो चाहे ना हो मगर कागजों पर तो लखपति बन ही जाओगे साथ में एक अदद नौकरी भी.. बस जरूरत है, हर घर में एक लाश की.. शर्त यह कि वो किसी राष्ट्रीय स्तर कि घटना में मरा हो.. देखो सरकार भी दुखी है, 4817 लोगों कि जान जो बचा ली गयी है.. अब इतने लोग लखपति बनने से बच जो गये.. धन्य हो ऐसी सरकार..

अंत में - आज मेरा हिंदी ब्लौगिंग में दो साल पूरा हो गया है.. मैंने बहुत पहले इस पर कुछ पोस्ट लिखे थे और सोचा था कि आज के दिन पोस्ट करूंगा मगर मन नहीं कर रहा है अभी उसे पोस्ट करने का.. फिर कभी पोस्ट करता हूं उसे..

Saturday, November 29, 2008

सबसे बुरी चीज होती है संस्कार

अगर ढंग से जीना हो तो सबसे पहले संस्कार को त्यागना होगा.. हमारा संस्कार ही किसी भी कार्य को करने में सबसे बड़ी बाधा बनती है.. कुछ उदाहरण मैं देना चाहूंगा, मैं अपने कार्यालय में कई बार जितना काम करता हूं उसका दोगुना या ढेड़ गुना दिखाता हूं.. मन में बहुत तकलीफ होती है.. ऐसा लगता है कि मैं गलत कर रहा हूं.. मगर अगर ऐसा ना करूं तो सबसे बड़ी समस्या पैदा हो जायेगी.. ढ़ंग से जीना भी हराम हो जायेगा.. मगर मन की तकलीफ का क्या करूं? वो तो हर पल सालता रहता है..

घर के दिये संस्कार हर पल बीच में आते रहते हैं.. कुछ भी गलत करने जाओ, बस मन के भीतर एक दूसरा मन रोकता है.. बताता है कि ये गलत है.. और बस हो गया, तरक्की का एक रास्ता बंद.. लेकिन एक बात तो जरूर है कि बाद में उसी फैसले पर गर्व सा महसूस होता है.. मगर आगे बढ़ने का रास्ता बंद..

ये क्षणिक विचार आये हैं मन में, मुझे पता है कि कई भाई इससे सहमत नहीं होंगे, मगर क्या करूं अभी यही विचार मन में आ रहे हैं.. खैर तब तक आप ये गीत सुने, ये पोस्ट लिखते हुये मैं यही गीत सुन रहा हूं..

कोई सागर दिल को बहलाता नहीं..
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दिन ढ़ल जाये हाये, रात ना जाये..
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यहां किसे फिकर है मुंबई की?

यहां किसे फिकर है मुंबई की? इसे आप व्यंग्य कि तरह लें या फिर सच्चाई कि तरह, मगर आज चेन्नई में यही हो भी रहा है.. यहां लोगों का जीवन चेन्नई में आयी इस प्राकृतिक आपदा से जूझने में ही लगा हुआ है.. किसी के लिये भी सबसे बड़ी जरूरत अपना और अपनों के प्राणों कि रक्षा करनी होती है, और लोग यही कर भी रहे हैं..

यहां जब मैं पहली बार आया था तब मेरे भीतर काफी आक्रोश था कि यहां के लोग उत्तर भारतियों के प्रति रूखा व्यवहार करते हैं.. मगर इतने दिनों से यहां रहते हुये मुझे भी अब समझ में आने लगा है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है.. अगर किसी ऐसे राजनितिक घटना को छोड़ दें जो सीधा देश की राजनिति पर असर डालता हो तो यहां के किसी भी घटना या दुर्घटना राष्ट्रीय स्तर पर कहीं कोई खबर नहीं बनती है.. मुझे पता नहीं कि अंडा पहले या मुर्गी? हां मगर एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि पहले जितना वैमनष्य उत्तर-दक्षिण को लेकर अब नहीं है यहां पर और यह दिनों दिन कम होता जा रहा है..

मेरे घर के तरफ बिजली-पानी कि समस्या अभी तक नहीं हुयी है, पांचवी मंजिल पर होने के कारण घर में पानी घुसने का खतरा भी नहीं है.. मगर अपने मित्रों से पता चला है कि ना जाने कितनों के घरों में कमर से ऊपर तक पानी भरा हुआ है.. कई जगहों पर पिछले 36 घंटों से बिजली-पानी नहीं है.. हमारे घर कि भी बिजली कभी भी जा सकती है..

आप इन तस्वीरों से अंदाजा लगा सकते हैं कि चेन्नई कि जिंदगी कितनी भयावह स्थिति में है अभी..

चेन्नई सेंट्रल


'12 बी' बस, जिससे हर रोज मेरा आना जाना होता है.


आर्कट रोड जो चेन्नई-बैंगलोर हाईवे पर जाकर मिलता है.



ये दोनों तस्वीरें है टी.नगर के पास वाले सबवे कि जो लबालब पानी से भरा हुआ है.. ये चेन्नई के सबसे व्यस्त सड़कों में से है..

अंत में मुंबई आतंकी हमलों में मारे गये सभी लोगों को श्रद्धांजली.. ध्यान रहे, मैं यहां लोगों कि बात कर रहा हूं.. भेड़ियों कि नहीं..

Friday, November 28, 2008

निशा अपना निशान छोड़ गई, चेन्नई अस्त-व्यस्त

आज सुबह अपने ऑफिस के एक मित्र के फोन से नींद खुली.. उन्होंने मुझे इससे पहले भी दो एस.एम.एस.भेज कर ऑफिस ना आने कि बात कही थी.. मगर मेरी तरफ से कोई उत्तर ना पाकर उन्होंने फोन किया.. उनसे पता चला कि आज ऑफिस को बंद कर दिया गया है.. पूरी टीम को ऑफिस आने से मना कर दिया गया है.. इसके बदले हमें किसी और दिन शनिवार या रविवार को काम करना परेगा.. तकनिकी भाषा में इसे कॉम्प ऑफ या कंपेन्सेशन ऑफ कहा जाता है..

हुआ ये कि पिछले शुक्रवार से हुई लगातार तेज वर्षा ने पूरे तमिलनाडु को अस्त-व्यस्त कर रखा है.. पूरे तमिलनाडु में अब तक 60 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और दक्षिण कि ओर जाने वाली अधिकतर रेलों को भी बंद कर दिया गया है.. मुख्यमंत्री करूणानिधि ने 100 करोड़ रूपये राहत कार्य में देने कि घोषणा भी कर रखी है.. तमिलनाडु में आये इस तूफान का नाम निशा रखा गया है.. मेरे कुछ तमिलनाडु के मित्र मुझसे पूछ रहे थे कि निशा का मतलब क्या है.. कितनी अजीब बात है ना, जहां तूफान आया हो वहीं के लोग उस तूफान के नाम का मतलब नहीं जानते हैं.. क्योंकि यह शुद्ध हिंदी शब्द है..

कल जब मैं ऑफिस से लौट रहा था उसी समय सोच रहा था कि कल ऑफिस जाते समय बहुत परेशानी का सामना करना परेगा.. अच्छी बात यह कि ऑफिस ही बंद कर दिया गया.. मुझे आज रात बैंगलोर के लिये निकलना था, मगर अब सोच रहा हूं कि कैसे जाऊं..



यह सेटेलाईट से लिये गये कुछ चित्र हैं जिसमें आप साफ देख सकते हैं कि किस तरह और किस आकार का यह चक्रवात था..

Thursday, November 27, 2008

मेरे अपने सब ठीक हैं मुंबई में, और मैं खुश


"बरसात बहुत जोर से हो रही है.. न्यूज में पढ़ा था कि पूरे तमिलनाडु में 30 के लगभग लोग मर गये हैं.." बाईक चलाते हुये उसने मुझसे कहा.. मैं पीछे बैठा हुआ था..

ट्रैफिक बहुत था और चारों ओर घुटने से थोड़ा कम ही पानी जमा हुआ था.. लोग बिना शोर किये, हार्न बजाये बिना बस चुपचाप खड़े ट्रैफिक के ख्त्म होने का इंतजार कर रहे थे.. एक भाईसाहब बाईक पर ही इत्मिनान से छतरी खोल कर बैठे हुये थे.. जैसे उन्हें पता हो कि अगले 10-15 मिनट तक ट्रैफिक नहीं खुलने वाला हो..

"हां.." मैंने बात आगे बढ़ाते हुये कहा.. इस ट्रैफिक के कारण बात करने का मौका मिल गया था.. "3-4 दिनों से खूब बरसात हो रही है.. वैसे आपने आज कि खबर पढ़ी?" मैंने उड़ता हुआ सवाल उनकी ओर फेका..

"हां.. जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ.." पल भर को चिंता उनके चेहरे पर दिखने लगी जो क्षण भर में ही गायब हो गयी.. थोड़ी खुशी के साथ आगे उन्होंने कहा "एक अच्छी बात यह है कि मेरे जान पहचान में से मुंबई में कोई भी नहीं है.. सो मैं निश्चिंत हूं.. वैसे भी चेन्नई में बम नहीं फूटता है कभी.."

"क्यों? चेन्नई में क्यों नहीं फूटता?" मैंने अगला सवाल किया..

"देखो मैं तमिलनाडु का ही रहने वाला हूं, मैं यहां के लोगों को अच्छे से जानता हूं.. यहां के अधिकतर लोग तमिल को धर्म से भी ऊपर रखते हैं.. उनके लिये पहले मैं तमिल हूं फिर जाकर हिंदू या मुसलमान.. तमिल होना उनका पहला धर्म है, तब जाकर कुछ और.." इतने दिनों से यहां रहते हुये मैं भी अब यह समझने लगा हूं.. मुझे उनकी बातों में सच्चाई लगी..

ट्रैफिक खुल चुकी थी और वो बाईक चलाने में व्यस्त हो चुके थे.. मैं भी सोचने लगा था.. "कल रात मैंने भी क्या किया? अपने सभी जान-पहचान के लोगों कि खबर ले ली और सुबह ऑफिस जाना है सोचकर चैन से सो गया, सोचा कि होगी कोई छोटी सी घटना और ऐसी घटना तो रोज ही घटती है.. एक भैया जो कोलावा में नेवी क्वाटर में रहते हैं, कुछ कालेज के दोस्त और ब्लौग जगत के मित्र.. सभी कुशल से हैं, और मैं भी निश्चिन्त.. क्या हम सभी के लिये ये आम घटना नहीं थी.. आज जिसे देखो उसका खून खौल रहा है इस पर.. 10 दिनों बाद न्यूज चैनलों के लिये ये कोई खबर भी नहीं रहेगी.. फिर आने वाले चुनाव में इसे खूब भुनाया जायेगा.. आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलने लगेगा.. जो आतंकवादी पकड़ा गया है उसका धर्म देखा जायेगा.. 10 साल बाद जब कोर्ट उसे मौत कि सजा सुनायेगी तब कुछ बेहद गिरे हुये नेता उसके बचाव में आ खड़े होंगे, उस पर भी राजनीति करेगें.. इस बीच कुछ और बम धमाके.. कुछ और आतंकवादी हमला.. बस हम और हमारे लोग ठीक हैं, हम इसी गुमान में जीते रहेंगे.."

Tuesday, November 25, 2008

क्रिकेट कि दिवानगी, बरसात और बैंगलोर/बैंगलूरू

रविवार का दिन, सुबह आसमान साफ था.. मैं बैंगलोर में बेलांदुर नामक जगह पर अपने कालेज के मित्रों के घर पर रुका हुआ था.. वहां से चंदन के घर जाना था.. चंदन भी साथ में ही था.. रात काफी देर से सोये थे, रात भर गप्पों और ताश का दौर चलता रहा था.. छोटे से रूम में ही क्रिकेट भी चला था.. शनिवार शाम जब मैं और चंदन वहां पहुंचे थे तब बत्ती गुल थी और फ्लड लाईट में ही क्रिकेट चल रहा था.. टेनिस कि गेंद और बल्ला, साथ में शू स्टैंड विकेट.. दो तरफ से इमरजेंसी लाईट जल रही थी.. अब सामने कंप्यूटर का मानिटर रखा हो या कुछ भी, उससे कोई फर्क नहीं परने वाला था.. बस दे दनादन क्रिकेट चालू..

सच कहूं तो बहुत दिनों से भूल सा गया था कि क्रिकेट में दिवानगी भी होती है.. बहुत दिनों बाद इसे महसूस किया.. जब तक क्रिकेट के मतवालों का झुंड ना मिले तब तक इसे महसूस नहीं किया जा सकता है.. पुराने दिन याद आ गये जब मैं पटना में रहता था और पढ़ाई के लिये घर से बाहर नहीं निकला था.. भारत का मैच आने पर चाहता था कि आज बरसात ना हो और अगर भारत हार रहा हो तो तुरत पलटी मार कर मनाने लगता था कि इतनी बरसात हो कि डकवर्थ लुईस रूल भी काम में ना आ सके..

बैंगलोर में भी मेरे दोस्तों के बीच स्थिती कुछ वैसी ही थी.. चंदन को 10 बजे कहीं जाना था सो सुबह 8.30 में बेलांदुर से निकला और उसके घर 9 बजे के लगभग पहूंच गया.. फिर चंदन निकल गया बोल कर कि 2 बजे तक आता हूं.. अब घर में बस मैं और विशाल थे जो कि मेरे कालेज का ही सहपाठी है.. वो हर आधे घंटे पर बाहर आसमान को झांक आता था और मना रहा था कि आज बरसात ना हो और मुझे गालियां दे रहा था कि शनिवार से पहले बरसात नहीं हो रही थी, तुम चेन्नई से बादल भी साथ लेते आये.. इसी बीच पार्थो भी घर पर आ गया जो कि मेरे ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन दोनो ही का मित्र है..

खैर मैच अपने नियत समय पर शुरू हुआ.. सहवाग और सचिन खेलना चालू किये, सचिन आऊट भी हो गया.. तभी हमारे घर के तरफ(जहां मैं ठहरा हुआ था) जोरदार बरसात शुरू हो गई.. और लगे सभी बरसात को कोसने कि अभी थोड़ी देर बाद स्टेडियम में भी बरसात होगी और जितने वेग से बरसात हो रही थी उसे देखकर लग रहा था कि मैच कहीं धुल ना जाये.. ठीक 10-15 मिनट बाद स्टेडियम में भी बरसात शुरू हो गई..

मैच शुरू होने के थोड़ी देर पहले चंदन के ऑफिस का एक मित्र भी घर पर आया था, खासतौर से मैच देखने.. अब सभी निराश.. लगभग 1 घंटे के बाद इधर बरसात रूकी और फिर सभी जुट गये कि मैच कब शुरू होता है? बीच-बीच में स्टेडियम में बैठे कुछ मित्रों से मैदान कि भी खबर ली जा रही थी.. उधर मैदान को सुखा कर मैच के लिये तैयार किया गया और इधर हमारे घर तरफ फिर से बरसात चालू हो गई.. हमलोग फिर से इंतजार करने लगे कि कब वहां फिर से बरसात शुरू होती है..

लोग इधर बरसात के थमने का इंतजार मैच के लिये कर रहे थे और मैं इंतजार कर रहा था कि बरसात रूके तो मैं चेन्नई के लिये बस पकड़ने के लिये निकलूं.. थोड़ी चिंता यह भी थी कि चेन्नई जाने के लिये बस स्टैंड बदल गया है और शांतिनगर नामक बस टर्मिनल से चेन्नई के लिये बस खुलने लगी है.. अब वो जगह भी ढूंढना था.. बरसात के रूकते ही मैं और चंदन चल परे.. एम.जी.रोड के सामने से गुजरते हुये स्टेडियम का फ्लड लाईट भी दिखा, पता नहीं क्यों जब कभी भी फ्लड लाईट का नाम सुनता हूं तो स्कड मिसाईल का नाम दिमाग में घूमने लगता है.. शायद दोनो का उच्चारण एक समान है इसलिये.. :)

कुछ दूर आगे जाने पर हम लोग अनजाने में वन वे में घुस गये और ट्रैफिक पुलिश ने हमें पकर भी लिया.. खैर वहां से निकले तो मुझे रास्ता जाना पहचाना सा लगा, फिर याद आया कि ये सड़क विल्सन गार्डेन कि ओर जाता है.. बी.एम.टी.सी. बस स्टैंड पहूंचने के बाद हम दोनों को समझ में आया कि यही शांतिनगर बस टर्मिनल है.. कुछ यादें जुड़ी है इस जगह से, इसे कैसे भूल जाता..

अब हमारा लक्ष्य था कि चेन्नई जाने वाली कोई सी भी बस में बैठ कर निकल लो.. जो पहली बस में टिकट मिला उसी में बैठकर मैं चल पड़ा और चंदन भी अपने घर चला गया.. रात भर ना जाने किन ख्यालों में डूबा रहा और नींद नहीं आयी.. सुबह घर ठीक 5.30 में पहूंच गया और टी.वी.खोलकर समाचार देखा तो पता चला मैच बरसात से धुला नहीं और भारत ने वो मैच डकवर्थ लुईस नियम से जीत लिया.. खैर क्या फर्क परता है, फिर से ऑफिस कि भागदौर में जिंदगी कटने वाली है सोचकर सोने कि कोशिश करने लगा.. सोमवार कि सुबह हो चुकी थी..

Saturday, November 22, 2008

यादों कि उम्र और बैंगलोर/बैंगलूरू

आज सुबह बैंगलोर पहूंचा.. बरसात कि रिमझिम बूंदों ने मेरा स्वागत बखूबी किया.. कल रात जब ऑफिस से चला तब चेन्नई में मूसलाधार बरसात हो रही थी.. बरसात इतनी तेज थी कि मैं सोच में पर गया था, जाऊं या ना जाऊं? मगर घर समय पर पहूंच गया और जल्दी से सामान बांध कर निकल परा बस स्टैंड कि ओर.. ऑफिस से जब निकल रहा था तब मेरे साथ काम करने वाले मित्रों ने पूछा कि टिकट लिये हो या नहीं? मैंने कहा नहीं.. इस पर उनका कहना था कि यही तो मजा है बैचलर लाईफ का.. कहीं भी अचानक और कैसे भी जा सकते हैं और साथ में आहें भी भर रहे थे कि वो अब यह सब नहीं कर सकते हैं.. :)

खैर आज का दिन तो निकल गया.. कहीं जाने कि इच्छा नहीं थी सो सारा दिन मित्रों के साथ ही बिताया.. अब कल क्या करता हूं पता नहीं.. वैसे अभी से कोई प्लान भी नहीं..

चलते-चलते कुछ लाईन भी लिखते जाता हूं.. मुझे नहीं पता कि मैं यह किसी कि पंक्तियों से प्रेरित होकर लिखा या यूं ही मन में आ गया हो.. खैर जब आ ही गया है तो आप इसे पढ़ कर मुझे बता भी दें कि क्या इस तरह कि कुछ पंक्तियां आपने पहले पढ़ी हैं क्या?

यादों के चेहरे पर झुर्रियां नहीं परती..
वो ताश के महलों सी नहीं होती जो छूते ही बिखर जाये..
कहते हैं कुछ यादों कि उम्र बहुत लम्बी होती है..


अंत में - ज्ञान जी, क्या आप बता सकते हैं कि यह पोस्ट कि कौन सी कैटोगरी में आती है? सुबुकतावादी या अंट-संटात्मक? :)

Tuesday, November 18, 2008

क्या आवाज में भी नमी होती है

कल शाम एक चिट्ठा बनाया, उसे चारों तरफ से सुरक्षित करके सुकून से बैठ गया.. उसे बनाने का मकसद बस अपने मन कि बातों को, जिसे मैं किसी से कह नहीं सकता.. किसी से बांट नहीं सकता.. बिलकुल एक निजी डायरी कि तरह.. कोई उसे पढ़ नहीं सके.. उसमें बस मैं रहूं और मेरी बातें रहे..

अभी मम्मी का फोन आया.. पूछी कहां हो? घर पहूंच गये क्या? मैं तुरत घर पहूंच कर, कपड़े बदल कर कंप्यूटर चालू करके नेट चलाया ही था.. मम्मी बतायी कि कैसे आजकल मेरी बिटिया(भगीनी) बातें करती है.. मम्मी का फोन आते ही दौड़कर फोन उठाती है और कहती है, "आपको अपनी बेटी से बात करनी है क्या?" और मम्मी के हां कहते ही जोर से चिल्लाती है, "मम्मी! तेरी मम्मी का फोन आया है.."

"तुम्हारे पाहुनजी आज भिवाड़ी ज्वाईन कर लिये हैं.." मम्मी यह खबर सुनायी.. साथ ही यह भी जोड़ दी कि भिवाड़ी में क्या-क्या है घूमने के लिये.. हमारे यहां जीजाजी को पाहुनजी कहने का रिवाज है और हम जीजाजी को पाहुनजी ही बुलाते हैं.. यह फैसला मैं और मेरे भैया, हम दोनों का लिया हुआ है..

बातों ही बातों में मैंने उन्हें अपने इस चिट्ठे के बारे में बताया.. कुछ तकनिकी बातें भी बतायी कि मैंने इसे कैसे सुरक्षित किया है.. मुझे पता है कि उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है फिर भी.. फीड को बंद किया, परमिशन हटाया और भी ना जाने क्या-क्या.. मैंने बताया कि मैंने इसे क्यों बनाया? इसे अपनी निजी डायरी कि तरह प्रयोग में लाना चाहता हूं.. मम्मी ने कुछ भी इंटेरेस्ट नहीं दिखाया उसे पढ़ने के लिये..

आगे मैंने कहा कि कोई कुछ भी और कितना भी निजी क्यों ना हो मगर पापा-मम्मी के सामने मेरे लिये कुछ भी निजी नहीं है.. क्या आप सुनना चाहेंगी कि मैंने क्या लिखा है? मम्मी को शायद पता था कि मैं क्या लिख सकता हूं.. उधर से कोई आवाज नहीं आयी.. मैंने सुनाना शुरू किया.. पहला पोस्ट पढ़कर खत्म हुआ.. मम्मी बोली कि अब इस सबसे बाहर निकलो.. भूल जाओ इन सबको.. तब तक मैंने दूसरा पोस्ट पढ़ना शुरू कर दिया..

उसके खत्म होते-होते मम्मी बोली अब नींद आ रही है.. सोने जा रही हूं.. मगर उनके आवाज से एक नमी सी झलक कर मेरे सामने गिर सी गई और मैं उसे बटोरने कि कोशिश करता रह गया..

देखा है कई बार आंखों कि नमी को..
पोछा है उसे इन हाथों से..
मगर मां के आवाज कि नमी का क्या करूं?
इसे तो बस दिल से महसूस किया जा सकता है..

Sunday, November 16, 2008

कथनी और करनी का अंतर

मैं आज अपनी इस पोस्ट में अपने कुछ अनुभव को बांटते हुये अपनी कुछ बातों को साफ करना चाहूंगा क्योंकि मुझे लगता है कुछ लोग मेरे पिछले पोस्ट को दूसरे तरीके से ले लिये थे.. सबसे पहले बात करते हैं राजेश जी के कल के पोस्ट पर.. उनका कल का पोस्ट बहुत ही अनुकरणीय था और मेरा मानना है कि हर किसी को एक बार उनका पोस्ट जरूर पढ़ना चाहिये.. उन्होंने लिखा था -

"बांग्‍लादेश के ग्रामीण बैक की स्‍थापना मोहम्‍मद युनूस ने 1983 में रखी थी…नोबेल प्राईज उन्‍हें 2006 में मिला था.. एक हम हैं पोस्‍ट लिखते हैं और पेज रिफ्रेश कर तत्‍काल देखते हैं कि क्‍या कोई कमेंट आया है क्‍या?"

साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि

"2008 का नवबंर महीना, मैं पोस्‍ट लिख रहा हूं, कई लोग लिख रहे होंगे…लेकिन कई लोग ऐसा भी कुछ कर रहे होंगे जिनके बारे में 2012 में कहीं लिखा कहा जाएगा कि यह 2008 में फलां फलां कर रहे थे…"

कुछ विचार उन्होंने गांधी जी के बारे में भी दिये जिससे मैं पूर्णतः सहमत हूं.. उन्होंने लिखा था -

"आप सभी लोग उस इंसान के बारे सोचिए जिनके आप कद्रदान हैं…उनके बारे में सोचिए जिनके काम करने के तरीके का आप नकल उतारने की कोशिश करते हैं…उनमें भी कमी होगी…
मैं गांधी को संपूर्ण के करीब मानता हूं…संपूर्ण नहीं मानता क्‍योंकि गलतियां उन्‍होंने भी की है…हर कोई करता है. मैं, आप..हम सभी लोग.."


अब मैं अपने कल के पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स कि बात करता हूं फिर अपनी बात कहूंगा.. कल के पोस्ट पर अजित जी ने कहा -
"सही है। राजेश के वक्तव्य में कुछ हडबड़ी, जल्दबाजी के निष्कर्ष हैं,मगर गलत नहीं। तुमने सही संदर्भ दिया। अच्छा लगा। अपने प्रति ईमानदारी ज़रूरी है। किन्हीं मूल्यों के प्रति समर्पण भी होना चाहिए।"

ताऊ जी ने कहा -
"जीवन में कुछ लोग फोकट यथार्थवाद ढूंढ़ते हैं ! प्रसंशा की एक सैनिक को भी आवश्यकता होती है ! भले फोकट ही हो बिना प्रसंशा के आदमी में कुछ करने का जज्बा ही नही आ सकता !"

कुछ लोगों ने राजेश जी को भी सही ठहराया.. और अंत में डा.अनुराग जी का भी कमेंट आया -
"प्रिय प्रशांत
आपकी इस सदाशयता के लिए आभारी हूँ पर शायद कही न कही @राजेश रोशन के मर्म को समझने की भूल हुई है ..वे शायद इस समाज की असवेदंशीलता से त्रस्त है .....हमारे ब्लॉग में टिपियाने के तरीके को लेकर असहमत है......शायद वक़्त की कमी या शब्दों का सही चुनाव न होना ...कुछ भ्रम पैदा कर गया है...
इन साठ सालो की आज़ादी के बाद भी इस देश का केवल एक तबका " हाईटेक " हुआ है ....ये देश का दुर्भाग्य ही है ..यही अब्दुल कलाम जिनको पुरा देश नवाजता है जब राष्टपति पड़ के लिए दुबारा नामांकित होते है .तो राजनैतिक गलियों के गठजोड़ में उनकी सारी योग्यता अचानक गायब हो जाती है..आख़िर में चलते चलते कभी एक चिन्तक ओर विचारक रामचंद्र ओझा जी का एक लेख मैंने कही पढ़ा था जिसमे उन्होंने कहा था
"हम संवेदना से परहेज नही कर सकते क्यूंकि संवेदना हमारा मूल है ,हमारे सारे मूल्य ओर यहाँ तक की "लोजिक "की जननी भी संवेदना ही है ...बुद्दि-विवेक के साथ उत्तरदायित्व होना भी मनुष्य के लिए जरूरी है.."


अब आता हूं मैं अपनी बात पर.. सबसे पहले तो मैं यह बता देना चाहता हूं कि मैं राजेश जी कि बातों से असहमत नहीं था तो साथ ही पूर्णतया सहमती भी नहीं थी.. जैसा कि डा.अनुराग जी ने कहा, "शायद वक़्त की कमी या शब्दों का सही चुनाव न होना ...कुछ भ्रम पैदा कर गया है.." से मैं सहमत हूं.. अपने इस छोटे से जीवन में मेरा खुद का ढेरों ऐसे अनुभव हैं जिसमें मैंने पाया है कि कहने को तो लोग बरी बरी बातें करते हैं मगर जब करने कि बात आती है तो वही लोग पहले सबसे पिछले कतार में दिखते हैं और धीरे-धीरे खिसक लेते हैं.. मगर इसका मतलब यह नहीं कि जो कर रहे हैं उनके किये को भी हम सारे लोगों के साथ डाल दें..

हर व्यक्ति अपने जीवन को दो हिस्सों में जीता है.. पहला सामाजिक और दूसरा पारिवारिक.. अगर कहीं भी यह संतुलन खराब होता है तो बस वहीं से परेशानी कि शुरूवात हो जाती है.. एक उदाहरण के तौर पर मैं गांधी जी को ही लेता हूं(राजेश जी कि तर्ज पर ही).. उन्होंने अपना सामाजिक जीवन खूब जिया और उसमें बहुत सफल भी रहे, मगर मेरा प्रश्न यह है कि क्या वह अपने परिवार के लिये भी उदाहरण देने में सफल रहे? मैं तो सफल नहीं मानता, अगर मैं गलत हूं तो कृपया मुझे सही करें..

मेरा हाल का एक अनुभव-
अभी कुछ दिन पहले बिहार कोशी से जूझ रहा था, उस समय कई ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो बिहार के लिये कुछ करना चाहते थे.. सच बात तो यह है कि इससे पहले मैं कभी भी इस तरह के सामाजिक कार्यों से जुड़ा नहीं था.. पहली बार जुड़ा और पाया कि कुछ लोग सच में कुछ करने को तैयार हैं और वो भी पर्दे के पीछे रहकर.. तो साथ ही कुछ लोग बस बरी-बरी बातें करके चंपत हो लिये.. कुछ काम मैंने भी किये(जिनकी चर्चा मैं नहीं करना चाहता हूं) जो मेरे लिये बिलकुल नया अनुभव था, तो काफी कुछ सीखा भी.. पर्दे के पीछे रह कर काम करने वालों से भी मिला, जो बस अपना काम करना जानते हैं.. अब भले ही उनके किये हुये कार्यों का प्रचार हो या ना हो.. खासतौर पर मैं एक व्यक्ति "चंदन जी" के बारे में बताना चाहूंगा जो सब छोड़ कर पिछले तीन महिने से अभी तक जमीनी स्तर पर राहत कार्य में लगे हुये हैं.. मेरे लिये यह संभव नहीं था कि मैं भी सब छोड़कर वहां चला जाऊं और कार्य करूं मगर चेन्नई में रहते हुये जो सबसे उत्तम प्रबंध मैं कर सकता था वह मैंने किया..

मैं अपने इस पोस्ट से यह संदेश देना चाहता हूं कि सबसे जरूरी है कि सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बना कर चलना.. नहीं तो अगर हम बस सामाजिक कार्यों पर ही ध्यान देंगे तो हम अपना कार्य तो उचित तरीके से करेंगे, मगर अपने परिवार के अपनी अगली पीढ़ी के लिये ज्यादा कुछ नहीं दे पायेंगे.. हमें सारा समाज तो पूजेगा मगर अपने परिवार वालों के साथ वैसी स्तिथि नहीं होगी.. और इसके ठीक विपरीत अगर हम बस पारिवारिक जीवन में ही उलझ कर रह जाते हैं और समाज को कुछ भी नहीं देते हैं तो इस अपराध को कई नस्ल याद रखेगी..

Saturday, November 15, 2008

डा.अनुराग आर्य जी के पोस्ट पर आये कमेंट पर कुछ बातें

आज डा.अनुराग आर्य के एक पोस्ट पर राजेश रोशन जी का एक कमेंट आया, उनकी बातें अपनी जगह पर सही भी है मगर मुझे उस पर कहने को कुछ था सो मुझे मेरा अपना ब्लौग मंच ज्यादा सही लगा.. उन्होंने कहा :

अगर मैं गलती नहीं कर रहा हूं तो ऐसा क्‍यों होता है कि जो बहुत कुछ कर सकते हैं केवल कलम चलाते हैं... अब कीबोर्ड चलाने लगे हैं... मैं भी और आप भी... हम उत्‍तेजना पैदा कर देते हैं. मॉनीटर के सामने बैठकर पोस्‍ट पर शानदार, बहुत अच्‍छा और पता नहीं कितने ही झूठी-सच्‍ची उपाधि दे देते हैं लेकिन इससे होगा क्‍या....

समस्‍या जस की तस बनी रहेगी. कुछ ऐसा काम करना होगा जो समाज में भद्र भी कहलाए और लोग वाह वाह भी कहें....तो पोस्‍ट ही लिख लो....

यह कमेंट मैं पोस्‍ट पर नहीं कमेंट्स को पढ़ कर दे रहा हूं....

सब बकवास है...काम करने की बारी आएगी तो तिनका नहीं हिलेगा और वाह-वाह की तो लाईन लगा दी जाएगी....

सचिन आउट हो गया तो उसे ऐसा खेलना चाहिए था, उसे वैसा खेलना चाहिए था. खुद टीवी पर नजर गड़ा कर सीख दी जाती है...नेता ने कुछ किया तो हमारे देश के नेता ऐसे ही हैं...

भाई लोग हमलोग क्‍यों नहीं बन जाते हैं सचिन या फिर नेता और खेले अच्‍छा भारत के लिए....हो पाएगा क्‍या.... किसी के पास जवाब हो तो जरूर दीजिएगा..


यह पढ़कर मुझे अपने होस्टल के दिन याद आ गये.. मैं तॄतीय सेमेस्टर में था.. उस समय हमारे राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जी हुआ करते थे.. किसी काम से उनका वेल्लोर आना हुआ था और उसी बहाने वो हमारे कालेज कि तफरी भी कर आये.. अनका भाषण बेहद प्रेरणाजनक और उत्साह से भर देने वाला था.. उस भाषण में उन्होंने विजन 2020 कि भी बात दोहराई थी..उनकी स्पीच खत्म होने के बाद सवाल जवाब चलने लगा था.. छात्र-छात्रायें उनसे सवाल पूछते थे और कलाम जी उसका उचित उत्तर देते थे.. किसी एक छात्र ने उनसे एक प्रश्न पूछा था जिसका सार कुछ ऐसा था, "हम साधारण छात्र-छात्रायें विजन 2020 के लक्ष्य को पाने के लिये अपने स्तर पर क्या कर सकते हैं?"

उसका उत्तर उन्होंने दिया था कि, "उसके लिये हमें साधारण मानव से ऊपर उठकर माहामानव बनने कि जरूरत नहीं है.. हम अपने आम जीवन में ही जो काम करते हैं उसी को पूरी ईमानदारी से करें.." अब चूंकि उस समय हम कॉलेज में थे सो उसी प्रकार से समझाते हुये उन्होंने उदाहरण दिया था कि, "अभी तुम सभी विद्यार्थी जीवन में हो और तुम्हें पता है कि तुममें से हर एक को अपने जीवन के लक्ष्य को पाने के लिये कितनी मेहनत कि जरूरत है.. मगर अधिकांश समय हम अपने आपको धोखा देते हैं.. सोचते हैं कि इस काम को बाद में करेंगे और वो बाद कभी नहीं आता है.. जीवन में सबसे जरूरी ईमानदारी है, अगर यही ईमानदारी हम सभी में हो तो एकल स्तर पर हम आगे बढते जायेंगे और जब सभी एकल अच्छे होंगे तो प्रगतिशील और स्वस्थ समाज खुद तैयार हो जायेगा.."

उनकी यह बात बहुत सही लगी थी और जेहन में बैठ सी गई है.. ये सच है कि किसी और को धोखा देने से पहले हम सभी अपने आप को धोखा देते हैं.. अब जैसा कि राजेश रौशन जी ने कहा है, "सब बकवास है...काम करने की बारी आएगी तो तिनका नहीं हिलेगा.." उम्मीद है कि इन सबका उत्तर उन्हें कलाम जी के उक्त कथन से मिल गया होगा..

साला बहुत बोलता है.. चिल्ल मार यार

"मालेगांव बम विस्फोट में हिंदू आतंकवादियों का हाथ बताया जा रहा है.."

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"फलाना कह रहा था कि ये हिंदू आतंकवादियों का काम है.."

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"चिलाना बोल रहा था कि हिंदू-मुसलमान आतंकवादी कुछ नहीं होता है.. आतंकवाद को धर्म से जोड़कर नहीं देखना चाहिये..

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"साध्वी का चार-चार बार नार्को टेस्ट हुआ, मगर कुछ नहीं निकला..

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"सी.बी.आई. अभी तक आरूषी के कातिलों को नहीं पकड़ पाई है.. मिडिया भी अपना टी.आर.पी.बटोर चुकी और उसे भी अब उसमें कोई इंटेरेस्ट नहीं है"

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"अरे सुना क्या? कल रात दिन दहाड़े भीड़ भरे सड़क पर मर्डर हो गया?"

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"चेन्नई में भी अब छात्र राजनीति गरमाने लगी है, जो पहले नहीं था.. अब सुना है वहां भी जे.एन.यू. और दिल्ली यूनिवर्सिटी कि तर्ज पर ए.बी.वी.पी. और आईसा के नाम दिवारों पर दिख जाते हैं.."

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"कल तो सुना वहां मारपीट भी हुई.. वहां भी बैकवर्ड-फारवर्ड का चक्कर है, कोई कह रहा था कि अम्बेदकर का नाम क्यों नहीं लिखा.. एक लड़का मरनाशन स्तिथी में है.."

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"ओबामा कह रहे थे कि आऊटसोर्सिंग बंद करा देंगे.. इससे अमेरिका में रोजगार बढेगा.. मगर भारत में तो रोजगार छिनेगा.."

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"फिर से चुनावी दंगल छिड़ रहा है.. टिकट के समय से ही राजनीति चालू है.. सुना है नामांकन के समय ही कईयों के सर फूटे हैं.."

"तो क्या हुआ? भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, खुश रहो.."

"राज ठाकरे बहुत नफरत फैला चुका है.."

"साला बहुत बोलता है.. चिल्ल मार यार.. भारत क्रिकेट मैच तो जीत गया ना, बस खुश रहो.."

Tuesday, November 11, 2008

मेरे हिस्से का चांद



कभी देखा है उस चांद को तुमने?
ये वही चांद है,
जिसे बांटा था तुमने कभी आधा-आधा..
कभी तेज भागती सड़कों पर,
हाथों में हाथे डाले..
तो कभी उस पहाड़ी वाले शहर कि,
लम्बी सुनसान सड़क पर..
तुमने तो रेल कि,
खिड़की से झांकते चांद को भी..
बांट लिया था आधा..
मेरे आंगन में आज,
चांद चमक रहा है आधा..
शायद तुम्हारे हिस्से का है!
मेरे हिस्से वाला चांद,
तुम्हारे आंगन में होगा..
उसे लौटा दो..
मेरे हिस्से का चांद मुझे लौटा दो..



Sunday, November 09, 2008

मम्मी! प्रशान्त मामू बैड बॉय है ना?

शनिवार, रात 12.45 -

मेरी भांजी अदिती ने मेरी दीदी से कहा, "मम्मी, मुझे प्रशान्त मामू से बात करनी है.."

"नहीं बाबू, मामू सो गये होंगे.." दीदी ने कहा.. "कल बात करते हैं.. ठीक है ना?"

"ठीक.."

रविवार, सुबह 8.30 -

"मम्मी, प्रशान्त मामू से बात करनी है.." अदिती ने फिर से कहा..

"नहीं बेटा, मामू सो रहे होंगे.." फिर से वही उत्तर..

"अदिती जग गई, मम्मी भी जग गई.. दोनों अपने टीथ में ब्रस भी कर लिये, और ब्रेकफास्ट भी कर लिये हैं.. दोनों गुड गर्ल हैं.. मामू अभी तक सो रहे हैं, प्रशान्त मामू बैड बॉय हैं ना?" उसका मासूम सा जवाब था.. :)

आज 11.30 के लगभग अदिती का फोन आया.. उसने मुझे एक कविता भी सुनाई.. आप भी सुने उसे.. :)

एक दो,
कभी ना रो..

तीन चार,
रखना प्यार..

पांच छः,
मिल कर रह..

सात आठ,
पढ़ ले पाठ..

नौ दस,
जोर से हंस.. हा हा हा...


यह एक साल पुरानी तस्वीर है.. जयपुर में ली हुई.. इसमें दीदी कि दोनों बेटियां(अदिती और अपूर्वा) अपनी नानी के साथ है.. अपूर्वा को सभी प्यार से अप्पू बुलाते हैं मगर मेरे लिये वो गप्पू है.. गप्पू जैसे उसके दोनों फुले हुये गाल जो हैं.. :)

त्रिवेणी फिर कभी, आज यह कविता सही


कविता से पहले मैं अनुराग जी को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उन्होंने मुझे त्रिवेणी संबंधित कुछ बढिया बाते बताई.. वैसे मैंने एक लिखी भी है मगर वो किसी और में डालूंगा.. पता नहीं वो त्रिवेणी ही है या कुछ और.. :)
परछाई

किसी परछाई का हाथ थामा है आपने?
मैंने थामा था एक बार..
कोरोमंगला कि तेज-भागती सड़कों पर..
हल्की बारिश कि बूंदों के बीच..
ट्रैफिक के हूजूमों में..
कभी ऑटो वाले को रुकने का
इशारा करते हुये..
तो कभी उसकी
खिलखिलाती हंसी के बीच..

अब भी उन सड़कों पर पहूंच कर,
अपने अस्तित्व का अहसास
खत्म सा महसूस होता है..
मानो पूरी दुनिया किसी परछाई में,
सिमट कर रह गई हो..
यह परछाई दिनो-दिन
और गहरी होती जाती है..
जैसे अमावस रात कि कालिमा..
फिर भी अच्छा लगता है,
उस परछाई का हाथ थामना...

Saturday, November 08, 2008

"कैसी रही दीपावली?"

दीपावली बीत जाने के बाद इस यक्ष प्रश्न ने कई बार रास्ता घेरा तो कईयों से मैंने भी यही पूछा.. दीपावली बीते कई दिन हो गये और अब तो छठ भी बीत गया है, मुझे पता है कि कैसे अगले साल कि दीपावली आ जायेगी ये भी पता नहीं चलेगा.. जो याद रह जायेगा वो बस यह कि पिछली दीपावली कैसी थी.. फिर से मैं किसी से पूछूंगा कि "कैसी रही दीपावली?" और कुछ लोग मुझसे भी यही प्रश्न करेंगे..

चलिये मैं आपको बताता हूं कि कैसी रही मेरी दीपावली..

जब आप घर से 2500 किलोमीटर दूर अकेले, अपने दोस्तों के साथ होते हैं और कोई खास पर्व आपके सामने होकर गुजर जाता है तो यह पल बहुत चुभते हैं.. बस वैसी ही रही मेरी भी दीपावली.. बचपन को याद करके नौस्टैल्जिक भी खूब हुआ.. मुझे याद आ रहा था कि कैसे मैं घर के सबसे छोटे सदस्य कि भूमिका बखूबी निभाता था.. मिठाई और पटाखों कि लंबी सूची बनाता था.. कई बार घर के लोग मना भी करते थे कि इतने पटाखे मत लो.. ये बस पैसे कि बरबादी है.. मगर अधिकतर मेरी मांगे पूरी हो ही जाती थी.. जो मांगें पूरी नहीं होती थी उनके बारे में मैं सोचता था कि बड़ा होकर खूब मस्ती करूंगा.. जैसे बड़े होने पर लोगों के पास पैसे अपने आप आ जाते हैं.. अब दुनिया की नजर में बड़ा भी हो चुका हूं, पैसे भी कमाने लग गया हूं.. मगर ना जाने कहां से एक संकोच कि दिवार भी खड़ी हो गई है.. पैसे आने पर उसे बचाने का भी सोचने लगा हूं.. यह बात और है कि कुछ बचता नहीं है.. :)

सबसे ज्यादा तब अखरा जब मन में पटाखे खरीदने कि इच्छा भी नहीं हुई.. डर सा गया.. कहीं यह बड़ा होने कि निशानी तो नहीं है? कहीं मैं बड़ा तो नहीं हो गया हूं? बचपन तो बचपन, 20 साल का होने के बाद भी चुटपुटिया चलाने वाली पिस्तौल हर दीपावली पर खरीदना नहीं भूलता था.. अपने अपार्टमेंट के कुछ बच्चों को उसे चलाता देख अच्छा लगा.. लगा जैसे कि बचपन अब भी वैसा ही है जैसा आज से 20 साल पहले हुआ करता था..

पिछले साल कि दीपावली भी याद आई, जब मैं 3 साल के बाद दीपावली में घर पर था.. मगर मेरे लिये वो दीपावली इसलिये खास थी क्योंकि भैया कि शादी के समय मैंने नयी-नयी नौकरी करनी शुरू कि थी जिस कारण छुट्टी नहीं मिल रही थी और मैं बिलकुल मेहमान कि तरह 2 दिनों के लिये घर गया था.. भाभी से ठीक से बाते भी नहीं कर पाया था.. अब उसके बाद पहली बार घर जा रहा था और वो भी दीपावली मे.. अब मुझसे ज्यादा खुश और कौन हो सकता था?

यूं तो मैं पूजा-पाठ से कोशों दूर रहता हूं मगर पिछले साल दीपावली में पूजा के समय आरती बहुत मन से गाया था.. आरती गाने के पीछे कारण श्रद्धा नहीं बल्की गीत था जो मैं गा रहा था.. उस आरती वाले विडियो का प्रयोग इस दीपावली में बखूबी हुआ.. घर में बस शिवेन्द्र ही था जिसके हिस्से पूजा-पाठ करने कि जिम्मेदारी थी, मगर उसे लक्षमी-आरती याद नहीं थी और उस खाली स्थान को मेरे गाये पिछले साल के आरती वाले विडियो से भरा गया..

अक्सर घर में साफ सफाई चलती ही रहती है खासकर तब से जब हमारे घर में खटमलों ने हमला बोला था मगर अब हम उस हमले को पूरी तरह से नेस्तनाबूत कर चुके हैं.. :) मगर उस दिन पूरे घर कि सफाई सुबह उठ कर मैंने और मेरे मित्रों ने कि.. अपना घर सजाने के लिये ना जाने कितने ही मकड़ियों का घर उजाड़ दिया.. दोपहर में अफ़रोज़ भी आ गया.. घर में गैस पिछले 2-3 दिनों से नहीं था और किसी के पास ऑफिस से उतना समय नहीं मिल रहा था कि गैस भराया जाये, सो यह काम भी उसी दिन करना था.. उत्तर भारत में दीपावली के दिन लोग अपनी दुकानें खुला रखते हैं और उनके बीच यह मान्यता है कि दुकान जितना चलेगा, लक्ष्मी उतना ही घर में आयेगी.. मगर उसके ठीक उलट यहां लोग अपनी दुकाने बंद किये हुये थे.. घर के पास वाले जिस होटल में हम खाते हैं, वो भी बंद था सो दुसरे होटल में जाना परा.. गैस वाले ने गैस तो रख ली मगर बोला कि आज ही दे पाना संभव नहीं होगा.. सो उस दिन बिना गैस के ही काम चलाना पड़ा..

सांझ ढलते-ढलते प्रियंका भी घर आ गयी.. फिर शिवेन्द्र और प्रियंका जाकर कुछ दिये और मोमबत्ती का इंतजाम भी कर आये.. थोड़ी देर बाद प्रियंका अपने घर पूजा करने चली गयी.. रात में जितनी थोड़ी सी गैस बची हुयी थी उससे मैगी बनाई फिर सो गये.. जहां फोन पर बधाईयां देनी थी वह भी दे डाला मगर बाहर से फोन कम ही आये, क्योंकि उत्तर भारत में दीपावली अगले दिन था..

अब सोचता हूं तो लगता है कि कैसे किसी पर्व-त्योहार पर पापा-मम्मी हमारी लगभग हर मांग पूरी करते थे? उनके पास कोई कुबेर का खजाना तो था नहीं.. वही बंधा-बंधाया वेतन मिलता था.. पांचवे वेतन आयोग के आने से पहले तो बहुत ही कम हुआ करता था.. अब पाता हूं कि हमारी हर मांग को पूरा करने के लिये वो कहीं ना कहीं अपने भविष्य कि योजनाओं में कटौती करते रहे होंगे.. क्योंकि अब समझ गया हूं, बड़े होने पर पैसा अपने आप नहीं चला आता है.. उसके लिये मेहनत करनी होती है..

अभी मैं सोच रहा था कि डा.अनुराग जी जैसे ही कोई त्रिवेणी हम भी अंत में लगाते हैं.. कुछ अजीब सा बन पड़ा जो मैं नहीं लिखने वाला हूं.. उम्मीद है डा.साहब ही अब इसका इलाज करेंगे.. :D

Friday, November 07, 2008

आज मेरा चिट्ठा तर गया!! :)

मेरी एक बहुत अच्छी मित्र है, मगर उसे मेरे अपने चिट्ठे पर कुछ निजी बातों को लिखना अच्छा नहीं लगता है सो शायद ही मैं कभी अपने चिट्ठे पर उसकी चर्चा किया हूं.. उसकी बातों का जिक्र मेरे चिट्ठे पर कुछ-एक बार हुआ है, मगर वो मेरी कलम से नहीं बल्की मेरे मित्र विकास कि कलम से.. अभी वो यू.एस.ए. में है, अपने ऑफिस के काम के चलते.. ढ़ाई महीने के लिये गयी हुई थी जो अब पूरा होने को आ रहा है.. आज सुबह उसने मेरे चिट्ठे पर पहली बार एक कमेंट किया.. सबसे पहले तो वो कमेंट देखकर बहुत खुशी हुई, मगर जल्द ही वो खुशी आश्चर्य में बदल गया.. मुझे तो कभी लगता भी नहीं था कि वो मेरे चिट्ठे को पढ़ती भी होगी.. वैसे ये भरोसा उसका कमेंट पढ़ने के बाद भी नहीं है :).. क्योंकि यह भी हो सकता है कि चूंकि मैंने पिछले दो पोस्ट दोस्तों के साथ बिताये पलों पर लिखा था सो उसे पढ़ने आयी हो.. वैसे उसे उसकी जरूरत नहीं थी क्योंकि मैंने अपने लगभग सभी मित्रों को वो लेख ब्लौग पर पोस्ट करने से पहले ही मेल कर दिया था.. सो अब वो पहले कि खुशी और बाद का आश्चर्य, दोनों मिलकर आश्चर्यमिश्रित खुशी में बदल गयी..

वैसे मुझे उसे जो भी लिखना था वो मैंने उसे और अपने दोस्तों को मेल करके लिख दिया है, मगर फिर भी मैं उसके कमेंट का उल्लेख अपने चिट्ठे पर करना चाहता था सो यह पोस्ट भी ठेल दिया.. :)

उसने कमेंट किया था -
Vani said...
2nd aur last snap bahut hi achha hai, per mujhe 2nd wala bhaut hi achha laga...tum sab ki yaad aa gayi...missing my friends:-(

मेरा उसे कहना है - अरे वाणी, टेंशन काहे को लेती हो.. एक हफ्ते में तुम फिर से चेन्नई में रहोगी.. फिर कभी हो आयेंगे.. :)

यहां वाणी ने अपने कमेंट में इस चित्र के बारे में लिखा था..

इसमें सबसे आगे विकास है उसके पीछे प्रियंका और उसके पीछे मैं हूं.. चित्र उतारने का काम शिवेन्द्र का था..

सन् 2006 नवम्बर में मैंने अपना चिट्ठा शुरू किया था.. उस समय बस मैं अपनी कवितायें ही लिखा करता था जो महीने-दो महीने में एक बार कुछ लिख देता था.. अपने ब्लौग पर अहसान कर देता था.. :) दिसम्बर की छुट्टियों में वाणी ने मेरा चिट्ठा अपने भैया को दिखाई, और उन्होंने मेरी कविताओं कि काफी तारीफ भी की.. वो तारीफ उस समय मेरे ब्लौग के लिये बहुत जरूरी था.. और जाने अनजाने में वाणी ने मुझे और लिखने के लिये प्रेरित भी किया.. आज भैया से संपर्क हुये बहुत दिन हो गये हैं.. इस बीच मुझे यह भी पता नहीं कि अब वो मेरा चिट्ठा पढ़ते भी हैं या नहीं.. खैर वाणी आये तो पूछता हूं..

हो सकता है कि वाणी को मेरा उसके बारे में यह सब लिखना अच्छा ना लगे.. मगर मेरे मन में जो भावनायें थी उसे तो मैंने लिख दिया.. अब चलता हूं.. :)

चेन्नई समुद्र तट पर सूर्योदय

रात में घर जाते जाते प्रियंका याद दिलाना नहीं भुली कि सुबह 3.30 का अलार्म लगा कर मुझे जगा देना.. उसके जाने के बाद विकास सोच में डूबा हुआ था कि कल का दिन कितना हेक्टिक रहेगा.. सुबह सुबह जल्दी उठना फिर देर रात में फैशन सिनेमा देख कर वापस लौटना और फिर अगले दिन सोमवार को फिर सुबह-सुबह ऑफिस जाना.. असल में हमारे यहां सुबह सबसे पहले विकास को ही ऑफिस जाना होता है..

विकास ने मुझसे पूछा, "ये सनराईज देखने का आईडिया किसका था?"

मैंने मुस्कुरा कर कहा, "I was the culprit.." वो कुछ बोला नहीं.. बस मुस्कुरा कर रह गया.. फिर खाना खा कर सभी सोने चले गये..

अगली सुबह 3.40 मे अलार्म से मेरी नींद खुली.. मैंने प्रियंका को फोन करके जगाया और नित्यक्रिया करने के लिये चला गया.. लौट कर पहले शिव को और फिर विकास को जगाया.. प्रियंका के आते-आते 4.40 हो गये और हमे निकलते-निकलते 5.20.. मेरे मित्र अमित के भाई कि बाईक हमारे अपार्टमेंट में ही पार्क थी और वो बैंगलोर गया हुआ था.. सो उसके बाईक का भरपूर इस्तेमाल हुआ.. प्रियंका कि गाड़ी पर विकास बैठा और मेरे साथ बाईक पर शिव और हम निकल परे मैरिना बीच कि ओर.. प्रियंका ने ही बताया था कि मैरिना बीच का सूर्योदय ज्यादा प्रसिद्ध है..

सुबह का समय था और पहली बार चेन्नई में ठंढक का अहसास भी हुआ.. शिवेंद्र मेरे पीछे सिमट कर बैठा हुआ था.. ठंढ मुझे भी लग रही थी मगर बाईक चलाने का मेरा जुनून और उसका लुत्फ़ लेने कि मेरी आदत उस ठंढ को पीछे छोड़ बस हवा से बाते कर रहा था.. सुबह ट्रैफिक बस नाम मात्र का ही था.. जो लोग भी दिख रहे थे वो सुबह के जौगिंग के लिये ही जा रहे थे.. हमलोग 6 बजने से पहले ही वहां पहूंच गये थे.. अभी तक हल्की लालिमा आकाश में दिखने लगी थी.. मैरिना बीच हमेशा कि तरह ही गंदा था..

"शायद यहां भी छठ पूजा हुआ लगता है.. कुछ ऐसा ही लग रहा है.." किसी ने मजाक किया..

"सुनामी... $%^&#@ सुनामी..." कोई चिल्लाया जब मैं पानी में था.. मैं पलट कर देखा कि एक और आदमी हमारे बीच वहां था.. बाद में समझ में आया कि वो मानसिक रूप से विक्षिप्त था..(यहां $%^&#@ को आप तमिल माने जो मुझे समझ में नहीं आया)

मुझे लग रहा था कि जैसे एक बार पांडिचेरी में हमलोग सूर्योदय का इंतजार करते रह गये थे और बाद में पता चला था कि बादलों के भीतर सूर्योदय हो भी चुआ है और हमें दिखा भी नहीं, कहीं वही बात यहां भी तो नहीं होने वाली है? कुछ-कुछ ऐसा ही लग भी रहा था.. ठीक जहां से सूर्योदय होना था वहीं बादल लगे हुये थे.. सूर्योदय तो नहीं ही दिखा मगर सूर्योदय के बाद वाला दृष्य नजर आ गया.. सभी खुश.. चलो आना सफल रहा.. इस मस्ती के पल में थोड़ी देर के लिये मैं थौटिंग मोड में भी पहूंच गया और पानी के बीच खड़ा होकर सोचने लगा कि ना जाने कितने शहरों में कितनी ही इमारतें सूर्योदय को निगल जाती है.. सोचा कि पिछली बार मैंने सूर्योदय कब देखा था तो मुझे महीना भी याद नहीं आया.. एक बात और भी पता चली, वो यह कि सूर्योदय से ठीक पहले जो समुद्र शांत दिख रहा था उसकी लहरें अचानक से ही सूर्योदय होने बाद तेज हो गयी..

फिर वापसी.. आते समय कैथेड्रल रोड पर एक फ्लाई ओवर था, जिस पर चढते समय ना जाने क्यों मुझे स्पीड बढाने का मन किया.. जो पहले 40 के औसत से चल रहा था वो अचानक 60-70-80-90 से होते हुये 98 पर पहूंचा मगर उससे ज्यादा नहीं बढाया क्योंकि ये भी ख्याल आया कि हम शहर के बीच चल रहे हैं, ना कि किसी हाईवे पर.. वैसे स्पीड बढाते समय शिवेन्द्र कि गालियां खाने का भी अलग ही लुत्फ़ है.. :)

सारे फोटो प्रियंका के N-96 से लिये हुये.. उसने मुझे कहा था कि कैमरा चार्ज कर लेना, मैंने चार्ज भी किया.. मगर मेरे कैमरे में ही कुछ दिक्कत आ गयी जिसके कारण मैं फोटो नहीं ले पाया.. मगर उसके मोबाईल कैमरे से भी अच्छी तस्वीरें आई.. :)

Wednesday, November 05, 2008

हम भाग जायेंगे यहां से

"हम भाग जायेंगे यहां से.." खिजते हुये प्रियंका ने कहा..

"हां! तुम तो बैंगलोर भाग ही रही हो.."

"नहीं! मन नहीं लग रहा है.. हम अभी भाग जायेंगे.."

"अच्छा रहेगा कि चलो कहीं घूम कर आते हैं.. क्या बोलती हो? समुद्र तट कैसा रहेगा?"

"हां.. चलो.."

विकास से पुछा, मगर उसे काम था और उसकी एक मित्र भी आई हुई थी सो साथ नहीं चलने कि स्थिति में था.. फिर थोड़ी देर में हमारा प्लान बदल गया..

"चलो पहले सत्यम चलते हैं.. वहां मूवी का टिकट देखते हैं.. उसके बाद समुद्र तट जायेंगे.." प्रियंका ने कहा..

"ठीक है.. चलो.."

प्रियंका गाड़ी चला रही थी और मैं पीछे बैठा हुआ था.. उस समय मैं गाड़ी चलाने के मूड में नहीं था, सो चलाने का ऑफर भी नहीं किया.. बस आराम से पीछे बैठा रहा.. उस समय लगा कि घर में जब होता हूं तो भैया हमेशा पीछे क्यों बैठते हैं.. बाईक चलाने का अपना अलग ही लुत्फ़ होता है मगर पीछे बैठने का मजा भी अलग ही होता है..

शनिवार रात का गोलमाल रिटर्न्स का टिकट मिल रहा था.. मगर वो किसी को नहीं देखना था.. फिर पता चला कि रविवार कि रात फैशन का टिकट मिल रहा है.. विकास को फोन किया, वो चलने को तैयार था.. अफ़रोज़ को फोन किया, उसने फोन नहीं उठाया.. शिवेंद्र को फोन ही नहीं किया, पता था कि वो कहेगा कि नहीं जाना है.. सो उससे बिना पूछे ही उसका भी टिकट ले लिये.. :)

"अब कहां चलें? सी बीच?" प्रियंका ने पुछ..

"चलो स्पेंसर प्लाजा चलते हैं, यहीं पास में है.. मुझे एक स्पोर्ट्स शू लेने का बहुत दिन से मन कर रहा है.. वहां एडिडास के शोरूम में डिस्काऊंट तो चल रहा होगा ना?"

"पता नहीं.. चल कर देख लेते हैं.."

फिर से प्रियंका गाड़ी चलाने लगी और मैं पीछे आराम से बैठ गया.. तभी सामने एक फ्लाईओवर दिखा.. मैंने पूछा, "ये रास्ता किधर जाता है?"

"पता नहीं.. चलो चल कर देख लेते हैं.."

फ्लाईओवर से उतरने पर पता चला कि हम रायपेट्टाह पहूंच गये हैं.. रास्ता मुझे कुछ जाना पहचाना लग रहा था मगर बिलकुल सही पता नहीं चल रहा था कि हम कहां हैं.. फिर भी आगे बढते चले गये.. मुझे बस दिशा ज्ञान था कि समुद्र तट जिस दिशा में है हम उसी दिशा में बढ रहे थे.. थोड़ी देर बाद पता चल ही गया कि हम उसी रास्ते पर हैं जिस इलाके में पहले मैं रहता था.. दिल खुश हो गया.. बहुत दिनों बाद इधर आना हुआ था.. उत्साह के साथ प्रियंका को बताना शुरू कर दिया कि देखो ये क्या है तो वो क्या है.. पता नहीं मन ही मन में कितनी गालियां दी होगी मुझे, मगर सामने कुछ बोली नहीं.. :)

उसने पूछा, "ईगा थियेटर कहां है?"

"चलो वो भी आज दिखा ही देता हूं.." फिर मैं उसे रास्ता बताने लगा.. माऊंट रोड से होते हुये चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन.. फिर वहां से पूनामल्ली हाई रोड पकड़ कर चेटपेट से होते हुये मैंने उसे ईगा थियेटर दिखाया.. ईगा थियेटर कि खूबी यह है कि चेन्नई में बस यही इकलौता सिनेमा हॉल है जहां सिर्फ हिंदी सिनेमा लगती है.. रास्ते में हमने अमरूद भी खरीदा जिसे मैं आराम से पीछे बैठ कर खाया..(पीछे बैठने का फायदा अब समझ में आया? :))

बीच ट्रैफिक में प्रियंका को दौड़ा पड़ने लगा.. :) कहती है, "मुझे चिल्लाने का मन कर रहा है.."

"हां, चिल्लाओ.. लोग तुम्हें तो कुछ नहीं कहेंगे.. मुझे ही मारेंगे.. अब लड़की के पीछे बैठा हुआ हूं और लड़की चिल्लाने लगे तो और क्या होगा?"

"नहीं मुझे चिल्लाना है.."

"ठीक है चिल्लाओ.."

और लगी वो चिल्लाने.. खैर अच्छी बात तो यह थी कि ट्रैफिक की आवाज में उसकी आवाज दब गई थी और किसी ने नहीं सुनी.. घड़ी में देखा तो 8 बजने जा रहे थे.. हम लगभग 30-35 किलोमीटर घूम चुके थे.. अभी तक अन्ना नगर का सिग्नल भी नहीं आया था जहां से हमें सी.एम.बी.टी. से होते हुये वडापलनी, अपने घर जाना था..

"आज रात 10.30 में सी-बीच चलोगे?" उसने पहले पूछा.. फिर झिझकते हुये कहा, "इतनी रात जाना ठीक रहेगा?"

"नहीं.. रात के समय सी-बीच पर कैसा माहौल रहता है वो मुझे नहीं पता.. मैरिना बीच का मुझे पता है कि वो रात में जाने लायक नहीं है.. बेसंत नगर बीच का मुझे पता नहीं.." थोड़ी देर के लिये शांति सी छा गयी.. वो चुप थी और ट्रैफिक का शोर बढ गया था.. मुझे लगा कि उसे सी-बीच जाने का बहुत मन है.. सो मैंने आगे कहा, "चलो कल सुबह सूर्योदय देखने चलते हैं.. क्या कहती हो?"

बस फिर क्या था.. प्रियंका खुश.. :) "हां हां.. ये ठीक रहेगा.. कल सुबह मुझे 3.30 मे उठा देना और अभी किसी को मत बताना.. सरप्राईज देंगे सभी को.."

मैंने कहा, "सभी को पहले ही बता दो, नहीं तो पता चलेगा कि सुबह-सुबह हमे सरप्राईज मिल रहा है और कोई नहीं गया.." और बस, हमारा प्लान पक्का हो गया.. फिर यूं ही बातें होती रही और प्रियंका बेहद भयंकर वाले ट्रैफिक में से बहुत कुशलता के साथ गाड़ी निकालते हुये घर पहुंचा दी..

अगले भाग में समुद्र तट का सूर्योदय..

Monday, November 03, 2008

The Devil Wears Prada और Fashion


अभी हाल-फिलहाल में मैंने फ़ैशन विषय के ऊपर दो सिनेमा देखी है.. पहला सिनेमा The Devil Wears Prada और दुसरा Fashion.. The Devil Wears Prada के साथ मैंने दीपावली कि रात गुजारी थी और Fashion मैं कल देर रात देख कर आया.. दोनों ही सिनेमा फैशन इंडस्ट्री के ऊपर बनाया गया है..

चलिये सबसे पहले बात करते हैं The Devil Wears Prada के बारे में.. यह सिनेमा सन् 2006 में आई थी.. इसमें Anne Hathaway ने Andrea "Andy" Sachs का किरदार निभाया है जो तुरत कॉलेज से पास होकर नौकरी कि तलाश में भटकते हुये न्यूयार्क जाती है और उसे वहां उसे काम मिलता है एक बेहद प्रसिद्ध फैशन मैगजिन के एडिटर Miranda Priestly की को-असिस्टेंट का.. इस सिनेमा में Miranda Priestly का किरदार निभाया है Meryl Streep ने..



इसमें कुछ ऐसा दिखाया था कि Anne Hathaway एक साधारण सी लड़की है जिसका अपने ब्वायफ़्रेंड के साथ लिव-इन रिलेशन है.. साधारण से कपड़े पहनती है और फैशन रिपोर्टिंग इंडस्ट्री में दूसरे लोगों से कुछ अलग हट कर सोचती है.. जैसे-जैसे समय बीतता जाता है वैसे-वैसे उसे समझ में आने लगता है कि यहां खुद के सोचने-समझने से कुछ नहीं होता है.. बस जो बॉस कहे उसे किसी भी हालत में पूरा करना ही एक मात्र कर्तव्य है.. इसी बीच पेरिस फैशन वीक आता है जिसमें जाने के लिये Anne Hathaway के साथ काम करने वाली उसकी एक सिनियर बहुत पहले से उत्साहित थी, मगर Miranda उसे ना ले जाकर ये ब्रेक Anne Hathaway को देती है.. वहां जाने से पहले भी उसके भीतर काफी अंतर्द्वंद चलता है क्योंकि उसे पता था कि उस फैशन वीक का महत्व उसके साथ काम करने वाली उसकी मित्र के लिये कितना महत्वपूर्ण था.. मगर सफलता प्राप्त करने का लालच उसके अंतर्द्वंद पर विजय पाता है.. पेरिस जाकर उसे इस इंडस्ट्री कि सच्चाई का पता चलता है.. जिसके बाद वो सब छोड़कर वापस न्यूयार्क अपने ब्वायफ़्रेंड के पास आ जाती है और फैशन रिपोर्टर से एक साधारण रिपोर्टर बन जाती है..


अब बात करते हैं फैशन सिनेमा की.. मेरे एक मित्र के शब्दों में, "बड़े पर्दे पर FTV देखना हो तो यह सिनेमा देख लो.." मधुर भंडारकर ने काफी मेहनत कि है इस सिनेमा पर मगर फैशन इंडस्ट्री के चमक दमक दिखाने के चक्कर में वो मूल कहानी से कई बार भटकते से नजर आये.. कई बार मुझे ऐसा लगा कि मधुर भंडारकर The Devil Wears Prada का नकल उतार रहे हैं.. उदाहरण के तौर पर इस सिनेमा में एक डायलॉग जब प्रियंका को किट्टू गिडवानी बताती है कि किस तरह तुमने पिछले मॉडल को रिप्लेस किया है शो स्टॉपर के जगह पर.. बिलकुल वैसे ही जैसे कि The Devil Wears Prada में Anne Hathaway कि बॉस उसे बताती है कि तुमने कैसे आगे बढने के लिये अपने साथी को पीछे धकेल दिया..

सच कहूं तो मेरे पास इस सिनेमा के बारे में ज्यादा कुछ कहने के लिये है भी नहीं.. मगर इतना तो जरूर है कि दोनों ही सिनेमा एक संदेश दे रही है कि कभी भी सफलता पाने के लिये खुद को नहीं खोना चाहिये.. इस सिनेमा को देखते हुये मुझे एक लड़की का भी ख्याल आया था जिसके लिये अचानक कैरीयर सबसे महत्वपूर्ण हो गया.. बाकी सारे रिश्ते पीछे छूट गये.. सिनेमा देखते हुये सोच में भी पड़ गया कि काश असल जिंदगी में भी सिनेमा के रंग भर जाते और हर अंत एक खुशनुमा सुबह लेकर आये..