tag:blogger.com,1999:blog-13645521726084711442024-03-06T13:45:24.931+05:30मेरी छोटी सी दुनियाहर किसी की अपनी दुनिया होती है जिसमें वह हर खुशी तलाश करता है. मेरी दुनिया भी कुछ ऐसे ही तत्वों से बनी है...PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.comBlogger548125tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-85798469185745936552020-05-24T14:09:00.001+05:302020-05-24T14:10:57.029+05:30बातें इरु की - 1<div>मम्मा - व्हाट इज नानूज नेम?<br></div><div>इरु - बिजय</div><div>मम्मा - व्हाट इज नानीज नेम?</div><div>इरु - आनीटा</div><div>मम्मा - व्हाट इज दादीज नेम?</div><div>इरु - नेनु</div><div>मम्मा - व्हाट इज दादाज नेम?</div><div>इरु - उम्म</div><div>मम्मा - उदय </div><div>इरु - पुदय</div><div>मम्मा - नो इट्स उदय</div><div>इरु - पुदय</div><div>मम्मा - से उ</div><div>इरु - उ</div><div>मम्मा - दय</div><div>इरु - दय</div><div>मम्मा - उदय</div><div>इरु - पुदय</div><div><br></div>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-69735098606623868312018-10-22T17:33:00.000+05:302020-05-24T14:10:40.585+05:30बनास बब्बा और निन्नी परी<span style="color: black; font-size: 104%;"> ये मेरी बनास बब्बा, कल निन्नी परी की कहानी सुनी। शेर-हाथी वाली कहानी भी सुनी। और और और... हाँ बन्दर-खरगोश वाली कहानी भी। लेकिन फिर भी निन्नी नहीं आयी। फिर मैंने इसे निन्नी परी वाली लोरी भी सुनाई। लोरी चार बार सुनने के बाद इसकी ओर देखा तो पाया कि हंस रही है। खाली बनासी खाली बनासी, और कोई काम नहीं।<br>
<br>
निन्नी परी वाली लोरी ये रही।<br>
<br>
निन्नी परी निन्नी परी </span><br>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<span style="color: black; font-size: 104%;">कितनी प्यारी होती है<br>
निन्नी परी के पास एक<br>
जादू की छड़ी होती है।<br>
<br>
इरा-पिरा जब खेल कूद कर<br>
थक कर वापस आती है<br>
निन्नी परी छड़ी घुमाकर<br>
उसको सुलाती है।<br>
<br>
सोकर उठकर इरा-पिरा<br>
पूरा फ्रेश हो जाती है<br>
नाच नाच कर गा गा कर<br>
घर में धूम मचाती है। </span><br>
<span style="color: black; font-size: 104%;"><br></span>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzvqODMs3KAIo8Ex5oe3-EIbwHQ5MVgXK-xhaHbPJhEkjvKLS3b2xs977UtSxBfCww3wSeJyd_wksI0HU8K60dugQtsN_bZj0t1nGemHHPzq8YJB48-BJ3IfAyRmQpahV7X1HQgpVx4G4/s1600/43063230_10155471991036086_572086972357541888_o.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzvqODMs3KAIo8Ex5oe3-EIbwHQ5MVgXK-xhaHbPJhEkjvKLS3b2xs977UtSxBfCww3wSeJyd_wksI0HU8K60dugQtsN_bZj0t1nGemHHPzq8YJB48-BJ3IfAyRmQpahV7X1HQgpVx4G4/s640/43063230_10155471991036086_572086972357541888_o.jpg" width="480"></a></div>
<span style="color: black; font-size: 104%;"><br></span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-59033557175360158452018-07-06T17:24:00.000+05:302018-07-06T17:24:16.472+05:30महुआ घटवारन - मारे गए गुलफ़ाम से<span style="font-size: 16.64px;">''सुनिए! आज भी परमार नदी में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट हैं। इसी मुलुक की थी महुआ! थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पीकर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली माँ साच्छात राकसनी! बहुत बड़ी नजर-चालक। रात में गाँजा-दारू-अफीम चुराकर बेचनेवाले से लेकर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी। सबसे घुट्टा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी। लेकिन काम कराते-कराते उसकी हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई। एक रात की बात सुनिए!''</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">हिरामन ने धीरे-धीरे गुनगुनाकर गला साफ किया,</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<blockquote class="tr_bq">
<span style="font-size: 16.64px;">'हे अ-अ-अ- सावना-भादवा के, र- उमड़ल नदिया, में,मैं-यो-ओ-ओ,</span><span style="font-size: 16.64px;">मैयो गे रैनि भयावनि-हो-ए-ए-ए;</span><span style="font-size: 16.64px;">तड़का-तड़के धड़के करेज-आ-आ मोरा</span><span style="font-size: 16.64px;">कि हमहूँ जे बार-नान्ही रे-ए-ए।'</span></blockquote>
<br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">ओ माँ! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्ही बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है। अकेली कैसे जाऊँ घाट पर? सो भी परदेशी राही-बटोही के पैर में तेल लगाने के लिए! सत-माँ ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बंद कर ली। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहराकर बरसा होने लगी। महुआ रोने लगी, अपनी माँ को याद करके। आज उसकी माँ रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटाकर रखती अपनी महुआ बेटी को 'हे मइया इसी दिन के लिए, यही दिखाने के लिए तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी माँ पर गुस्सायी- क्यों वह अकेली मर गई, जी-भर कर कोसती हुई बोली।</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">हिरामन ने लक्ष्य किया, हीराबाई तकिये पर केहुनी गड़ाकर, गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही है। खोई हुई सूरत कैसी भोली लगती है!</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">हिरामन ने गले में कँपकँपी पैदा की,</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<blockquote class="tr_bq">
<span style="font-size: 16.64px;">''हूँ-ऊँ-ऊँ-रे डाइनियाँ मैयो मोरी-ई-ई,</span><span style="font-size: 16.64px;">नोनवा चटाई काहे नाही मारलि सौरी-घर-अ-अ।</span><span style="font-size: 16.64px;">एहि दिनवाँ खातिर छिनरो धिया</span><span style="font-size: 16.64px;">तेंहु पोसलि कि तेनू-दूध उगटन।"</span></blockquote>
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">हिरामन ने दम लेते हुए पूछा, ''भाखा भी समझती हैं कुछ या खाली गीत ही सुनती हैं?''</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">हीरा बोली, ''समझती हूँ। उगटन माने उबटन, जो देह में लगाते हैं।''</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">हिरामन ने विस्मित होकर कहा, ''इस्स!'' सो रोने-धोने से क्या होए! सौदागर ने पूरा दाम चुका दिया था महुआ का। बाल पकड़कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा और माँझी को हुकुम दिया, नाव खोलो, पाल बाँधी! पालवाली नाव परवाली चिड़िया की तरह उड़ चली । रात-भर महुआ रोती-छटपटाती रही। सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया, 'चुप रहो, नहीं ते उठाकर पानी में फेंक देंगे।' बस, महुआ को बात सूझ गई। मोर का तारा मेघ की आड़ से जरा बाहर आया, फिर छिप गया। इधर महुआ भी छपाक से कूद पड़ी पानी में। सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उलटी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में। महुआ असल घटवारिन की बेटी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सफरी मछली-जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है। और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकारकर कहता है, ''महुआ जरा थमो, तुमको पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूँ। जिंदगी-भर साथ रहेंगे हम लोग।'' </span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">लेकिन!!</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-51324000139638282442016-04-28T18:34:00.000+05:302016-04-28T18:38:28.287+05:30मेला<span style="font-size: 16.64px;">मैंने वो चक्रधरपुर में लगने वाले सालाना मेले से खरीदी थी. दो लीवर लगे हुए थे उसमें. बाएं वाले लीवर को दबाओ तो पीछे के दोनों पाँव झुक जाते थे, मानो बैठ कर खाना मिलने का इन्तजार कर रहा हो. दायें वाले को दबाओ तो आगे के, जैसे पानी पीने को नीचे झुका हो. दोनों को एक साथ झटके से दबाओ तो पूरा शरीर ही ऐसे गिर पड़ता था जैसे अचानक निष्प्राण हो गया हो. वो खिलौना किसी भी जानवर का हो सकता था. कुत्ता, बिल्ली, शेर, जिराफ, मगर सब के सब चौपाये. बन्दर, गोरिल्ला जैसे जानवरों का कोई स्थान नहीं था. </span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">यूँ तो मेरे पास तीन-चार जानवरों वाले थे, मगर मुझे जिराफ अधिक पसंद था. लम्बा गर्दन, गर्दन में भी तीन लोच जो किसी और जानवर के खिलौने में नहीं था. हलके से दोनों लीवर को दबाओ तो सिर्फ गर्दन हल्का सा झुकता था, मानो सलामी दे रहा हो. मुझे उसका एक खेल बहुत पसंद था, बाएं लीवर को आधा दबाना, और जब पीछे का पैर आधा झुक जाए तो खिलखिला कर हँसते हुए सबको दिखाना, देखो पॉटी कर रहा है. अब भी याद है जब पापा चक्रधरपुर से कुछ दिनों के लिए गए तो वो खिलौना लेकर गए, जब भी हमारी याद आती तो उस खिलौने को देख लेते.</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">बहुत सी चीजें बचपन की तरह ही ख़त्म हो जाया करती है, वह खिलौना भी. अब किसी बाज़ार में वह नहीं दिखता. किसी खिलौने के दूकान में जाने पर सबसे पहले मैं वही खिलौना ढूंढता हूँ. उसका परिष्कृत रूप कई जगह दिखते भी हैं, मगर मन तो वही पुराने नौस्तैल्जिया में रहता है. कुछ बचपन की बच्चों सी जिद भी, चाहिए तो बस वही चाहिए. और एक दिन हमें पता भी नहीं चलता और हर कुछ ख़त्म हो जाता है. बचपन, भरोसा, खिलौना, उस किस्म का मेला और हाँ, ज़िन्दगी भी.</span><br />
<span style="font-size: 16.64px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.64px;">हम अपने पसंदीदा खिलौने जैसे ही होते हैं. वे अपने तमाम अच्छाइयों-बुराइयों के बाद भी कभी बुरी नहीं लगती. ठीक वैसे ही जैसे हम खुद को कभी गलत नहीं मानते. हम जानते हैं, खिलौने में किस जगह दरार है. किधर से जरा सा टूट गया है. बाएं वाले लीवर को जरा आहिस्ते से दबाना है नहीं तो धागा टूट जाएगा, वह निष्प्राण करने वाला खेल अब और नहीं. लेकिन फिर भी वह हमारा फेवरेट होता है, सालों साल बचा कर रखना चाहते हैं. उससे ना भी खेलें तो भी सही सलामत हमारे शोकेस में टंगा रखना चाहते हैं. क्योंकि हम ऐसे ही हैं. चीजें ऐसी ही होती हैं.</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivClQQnkAQkQz4GVBK877FhIyWy12lV4xksAzH5HS1Fp9Kq9jKUirUy_IWlnNZw27NS4s1FM2sii48_BZ4je0v1RwB9gRhbmmwFVIBilTnI8oNvaUZNT7R18IyUvDwnjRt5XhkDItpDCM/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivClQQnkAQkQz4GVBK877FhIyWy12lV4xksAzH5HS1Fp9Kq9jKUirUy_IWlnNZw27NS4s1FM2sii48_BZ4je0v1RwB9gRhbmmwFVIBilTnI8oNvaUZNT7R18IyUvDwnjRt5XhkDItpDCM/s1600/images.jpg" /></a></div>
PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-24470326227026201592015-04-16T17:41:00.001+05:302015-04-16T17:43:39.717+05:30डिस्क ब्रेक<span style="font-size: 16.6399993896484px;">वो जमाना था जब डिस्क ब्रेक नाम की चीज नई हुआ करती थी. उसी ज़माने में हमारे एक मित्र ने सेकेण्ड हैण्ड CBZ खरीदी दिल्ली जाकर. पटना में शायद सेकेण्ड हैण्ड उपलब्ध नहीं थी और अगर थी भी तो बेहद महँगी. याद है हमें की उस दिन खूब बारिश हो रही थी फिर भी हम घर से कोई बहाना बना कर निकल लिए थे उसकी बाईक देखने. बाईक देखने का अड्डा, या यूँ कहें की हम दोस्तों का अड्डा, नाला रोड में एक दोस्त का घर था..और बारिश की वजह से नाला रोड उस समय नदी रोड बना हुआ था..घुटने से बस कुछ ही कम पानी. अब उस समय तक स्कूटर चलाने में उस्ताद हो चुके थे सो उस पानी में भी हेला दिए हम स्कूटर को..पता था की सायलेंसर से ऊपर तक पानी हो तो कितना एक्स्लेरेटर देना पड़ता है.. </span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">दोस्त का घर भी नाला रोड में ऐसी जगह पर की वहीं का वहीं पटना का पूरा नजारा एक ही बार में दिखा दे.. कदमकुवां के तरफ से नाला रोड में घुसते ही एक तरफ ठेले वाले उस दो लेन वाली सड़क में घुसे हुए मिलते, वहीं दसेक रिक्शा वाले भी घुसाए रहते..साथ में हम जैसे नए खून और लहरियाकाट एक्सपर्ट अपना हुनर दिखाते हुए अपनी गाडी घुसाए रहते. वहीं बगल से अधेड़ उम्र के कोई अंकल जी अपने चेतक को धीरे-धीरे निकालते हुए ऐसे चलते रहते जैसे की अगर थोड़ा सा भी और तेज चलेंगे तो एक्सीडेंट हो जाएगा, और उनके पीछे ट्रैफिक का पूरा हुजूम..साथ में बड़ी छोटी सभी कारें अपना ख्याल खुद रखते हुए बच-बचा कर निकलने की जुगत में.. खैर उस दिन ये सब नहीं था. बारिश से पटना बेहाल था.</span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">अब हम अपने अड्डे पर बैठ कर इन्तजार कर रहे थे की वो दोस्त अपनी गाडी लेकर आये तो हम भी थोड़ा हाथ आजमा कर देखें..उस ज़माने में हमारा एकमात्र बॉडी बिल्डर दोस्त अपनी गाडी पर बैठ शान से आया..आते ही ये दिखाया की इसका सायलेंसर कितना ऊपर है की पानी घुसिए नहीं सकता है.. हम भी एक-एक पार्ट पुर्जा देखकर पुलकित हो रहे थे..उसकी गाडी चलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी मगर..एक तो बारिश, दूसरा नाला रोड का नदी रोड हुआ जाना, तीसरा की उतनी भारी गाड़ी कभी चलाये नहीं थे तब तक. उसने अपनी गाडी दिखाते हुए बताया की ये डिस्क ब्रेक है..कितनी भी तेजी से गाड़ी चल रही हो लेकिन अगर यह दबाया जाए तो बिना फिसले जहाँ का तहाँ रुक जाए, ऐसी खूबी है इसमें. हम भी आँखें फाड़ कर ये सब सुनते रहे आश्चर्य से.. फिर मन हुआ की बारिश रुकी हुई है और कालेज के कुछ काम से हड़ताली मोड़ जाना था हम टीम लोगों को, सो हम चल निकलें..</span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">रास्ते में गीले सड़क पर ही हमारा वो दोस्त दो-तीन बार डिस्क ब्रेक का करिश्मा दिखाता रहा की देखो बिलकुल नहीं फिसलता है और पीछे से हम स्कूटर पर बैठे सोचते रहे की कभी हम भी डिस्क ब्रेक वाली बाईक खरीदेंगे. थोड़ी दूर जाने पर पहले जहाँ 'उमा सिनेमा' हुआ करती थी उससे थोड़ा सा आगे और एग्जीविशन रोड से थोड़ा सा पहले उसे ट्रैफिक की वजह से ब्रेक लगाना पड़ा..ब्रेक लगते ही बाईक फिसली और सीधे सड़क पर धड़ाम.. हम पीछे से सकपका कर देखे की 'ले लोट्टा, ई का हो गया'? गाडी कैसे फिसल गई? अपना स्कूटर साईड में लगाये, दोस्तों को उठाने से पहले उस गाडी को उठाये, आखिर नई गाडी जो थी भले ही सेकेण्ड हैण्ड.. जब तक सड़क के किनारे लाते, वहां एक ठेले पर बैठे ठेले के मालिक ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा, "भोरे से आप अठवाँ आदमी हैं हियाँ गिरने वाले, भोर में हईजे एक ठो मोपेड गिरा था और उसका पूरा तेल रोडवे पर हेरा गया था.." अब हम लगभग पेट पकड़ कर हँसते हुए बोले, "और आप का कर रहे हैं? भोरे से बीड़ी फूंकते खाली गिन रहे हैं का? की एक..दू..तीन..चार......"</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-33991035986775898602015-04-12T00:14:00.000+05:302015-04-12T00:14:01.023+05:30ब्योमकेश बख्शी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixwx6_ICQrQ-_X-T5oaveQc9K87cxMgvaJbPUixq8FikTTAPeJQEKqa1kUusto4L9vLWSpqQ11i29a-MiZElBC1gHPfKDA5Xo-kBwhZFrV9ZAdSoez6vgvIi2pnChqzZy9iJeTwiULxK0/s1600/detective-byomkesh-bakshi-motion-poster.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixwx6_ICQrQ-_X-T5oaveQc9K87cxMgvaJbPUixq8FikTTAPeJQEKqa1kUusto4L9vLWSpqQ11i29a-MiZElBC1gHPfKDA5Xo-kBwhZFrV9ZAdSoez6vgvIi2pnChqzZy9iJeTwiULxK0/s1600/detective-byomkesh-bakshi-motion-poster.jpg" height="236" width="400" /></a></div>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">मैंने शरदिंदु बनर्जी जी का उपन्यास ब्योमकेश बख्शी पढ़ी नहीं है..ब्योमकेश की जो भी जानकारी मिली वह नब्बे के दशक के शुरुवाती दिनों में आने वाले टेलीविजन धारावाहिक से ही मिली.. उन दिनों उम्र अधिक नहीं थी, ग्यारह-बारह साल का रहा होऊंगा, उस ज़माने में उस उम्र में होने वाली समझ का अंदाजा भी आप लगा ही सकते हैं. मगर फिर भी इस धारावाहिक का क्रेज गजब का था.. इंटरनेट, यूट्यूब और टोरेंट से पहले जब हम सिर्फ और सिर्फ टेलीविजन पर ही इन धारावाहिकों के लिए निर्भर हुआ करते थे तब की बात है.. जब भी इस धारावाहिक का री-टेलीकास्ट हुआ, हम अपना डेरा-डंडा लेकर टेलीविजन के सामने हाजिर रहे. आज भी याद है की वह भूत कैसा था जो पंद्रह फुट ऊपर दोमंजिले मकान कि खिड़की से झाँक कर भाग जाता था.. बच्चे थे, सो डर भी लगा..अब उस भूत को जब यूट्यूब पर देखता हूँ तो लगता है वाकई बचपना ही था..आज के बच्चे तो उसे भूत ना समझ कर कोई नौटंकी वाला जोकर ही समझेंगे..</span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">खैर, ये तो नोस्टैल्जिक बातें हुई. कुछ और बातें करते हैं. मैं यहाँ सिनेमा की समीक्षा करने नहीं बैठा हूँ, वह काम करने को कई धुरंधर बैठे हैं. बात कहानी की करते हैं. कमिक्सों को दीवानों की तरह पढ़ते रहने के कारण यह समझ जरुर पैदा हुई की जो कहानी कामिक्स में होती है, उसी कहानी को लेकर अगर सिनेमा बनाई जाए तो वह हमेशा कुछ अलग होती है कामिक्स के कथानक से. मेरी समझ से कारण मात्र इतनी सी है की सिनेमा बनाने वाले उस कहानी को उठाते हैं, उस पर आधारित अपना स्क्रिप्ट लिखते हैं और उसमें उसके कैनवास को बड़ा करते हैं. </span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">फ़िलहाल, चूँकि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि मैंने शरदिंदु जी की किताब पढ़ी नहीं है और धारावाहिक को ही सामने रख कर बाते कर रहा हूँ. डा.अनुकूल गुहा, जो एक पीजी चलाते हैं, जो कोकीन का धंधा करते हैं, जो मुसीबत सामने देख हत्या करने से भी नहीं चूकते हैं.. अब धारावाहिक में वे मात्र इतना ही करते हैं..मगर सिनेमा तक आते-आते वे चीनी-जापानियों से संपर्क भी साधने लगे.. धंधा भी कोकीन का ना कर, वे हेरोइन का धंधा करने लगते हैं.. अब अपना जासूस ब्योमकेश भी कोई मामूली जासूस तो है नहीं, सो जेम्स बांड की तरह दुनिया को नहीं तो कम से कम कलकत्ता को तो बचा ही सकता है.. सो बस उसी कैनवास को बड़ा करना था..बस इतनी सी ही कहानी..</span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">धारावाहिक के मुताबिक अनुकूल गुहा का केस सन 1934-35 का था..उन दिनों कलकत्ता को बचाने लायक कोई बहाना नहीं मिल रहा था, सो समय काल को बढाकर द्वितीय विश्व युद्ध तक लाया गया..चीनी-जापानी गैंग को भी शामिल किया गया..अब जापानी को दिखा रहे हैं तो समुराई युद्ध शैली को भी दिखा ही दो, सो वह भी दिखाया गया जिसके होने या ना होने से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता..</span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">धारावाहिक वाले अनुकूल गुहा को दस साल की कैद मिली जिसमें किसी दुर्घटना के कारण उनका चेहरा जल गया..यहाँ सिनेमा में उन्हें सजा तो नहीं मिली मगर चीनियों के साथ लड़ाई में उन्हें अपनी एक आँख से हाथ धोना पड़ा. धारावाहिक में भी गुहा ने धमकी दी थी की वे वापस आयेंगे, और ठीक दस साल बाद वापस आये भी, खुद का नाम ब्योमकेश रख कर.. शुरू में अपने हीरो को धोखा देने में कामयाब भी हुए, मगर बाद में माचिस और सुराही के कारण पकडे गए..पकडे जाने के बाद फिर से धमकी देते हुए वापस जेल भेजे गए..उसके बाद धारावाहिक में उनका कोई जिक्र नहीं है, शायद उपन्यास में हो.. अब सिनेमा के अगले भाग में(अगर वह बन कर तैयार हुआ तो) देखना है गुहा कि इंट्री कैसे की जाती है..</span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">अब जहाँ तक सिनेमा की बात है तो मेरे लिए वह परफेक्ट थी.. मेरे ख्याल से सिर्फ उन्हें ही इससे दिक्कत हुई होगी जो पुराने धारावाहिक के नोस्टैल्जिया से बाहर निकले बिना यह सिनेमा देखने गए होंगे. मैं भी पूर्वाग्रह लेकर ही पहले ही दिन देखने गया था, मगर अब तठस्थ होकर सोचने पर लगता है की धारावाहिक तो इससे भी धीमा था, मगर था यथार्थ के करीब. और सिनेमा बड़े कैनवास के साथ थोड़ा सा अति की ओर झुका हुआ. वैसे भी अगर सिनेमा ऐसे ना बनाया जाता तो उसमें सिनेमा जैसी कोई बात ही नहीं रहती..</span><br />
<span style="font-size: 16.6399993896484px;"><br /></span>
<span style="font-size: 16.6399993896484px;">देखते हैं, शायद अगले भाग में ब्योमकेश बाबू शायद पूरी दुनिया को बचाने में कामयाब रहें!</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-30971288884761081362015-02-20T01:03:00.000+05:302015-02-20T01:03:23.192+05:30पापा जी का पैर - दो बजिया बैराग्यपापा जी को पैर दबवाने की आदत रही है. जब हम छोटे थे तब तीनों भाई-बहन उनके पैरों पर उछालते-कूदते रहते थे. थोड़े बड़े हुए तो पापा दफ्तर से आये, खाना खाए और उनके लेटते ही तीनों भाई-बहन उनके पास से गुजरने से कतराते थे, कहीं पापा जी देख लिए तो पैर दबाना पड़ेगा. मगर फिर भी कोई ना कोई चपेट में आ ही जाता था. ऐसा भी नहीं की हर रोज कोई एक ही पकड़ाता था, तीनों ही को अलग-अलग शिफ्ट में पैर दबाने का काम मिल ही जाता था. जब हमें पापा जी के खर्राटे से लगता था की पापा सो गए हैं और हम चुपके से निकलने ही वाले होते थे की पापा जी का पैर हिलने लगता था, जो यह दिखाता था की "सोये नहीं हैं, और दबाओ."<br />
<br />
पापा जी तलवे पर चढ़ कर एक ख़ास जगह पर थोडा जोर देते ही 'कट' से आवाज़ आती थी. अब भैया-दीदी ये ट्रिक जानते थे या नहीं ये वो ही जाने, मगर मैं जब भी पैर दबाता था तो उस जगह से 'कट' की आवाज़ के बिना मजा नहीं आता था. अगर आवाज़ नहीं आती थी तो कई बार उस जगह कूदने लगता था आखिर सेल्फ सटीस्फैक्शन भी कोई चीज होती है, और पापा जी डांटते, "दबाना नहीं तो 'ऐड़' क्यों रहा है?" <br />
<br />
उन दिनों पापा जी के सर पर इक्के-दुक्के ही पके बाल थे, अगर कोई एक पैर दबा रहा हो तो बाकी दोनों का काम उनके उन सफ़ेद बालों को तोड़ने का भी मिलता था...बाद में हम लालच में सर के सफ़ेद बाल तोड़ें उसके लिए पापा जी हमारा मेहनताना भी तय कर दिए. एक सफ़ेद बाल के दस पैसे. सन उन्नीस सौ नब्बे के आस-पास की बात है ये. हम रोज बाल उखाड़ते थे और रोज पिछले सारे पैसों का हिसाब रखते थे. ये बात दीगर है की वे पैसे शायद ही कभी हमें मिले. हाँ! एक बार मुझे मिला था..पूरे पांच रुपये, और उससे मैंने पेंटिंग करने वाला कलर बॉक्स ख़रीदा था. पिछले साल यूँ ही मजाक में पापा जी मैंने कहा, अब भी पैसे देंगे तो आपके सफ़ेद बाल सारे उखाड़ दूंगा.. अब तो चुनने कि भी झंझट नहीं है, लगभग सारे के सारे सफ़ेद हो चुके हैं. :-)<br />
<br />
पापा जी के पैर दबाने का एक फायदा भी मिलता था. पापा जी गाँव-जवार के किस्से-कहानियों और मुहावरों के पूरे खान थे और हैं, तो वे सब उनसे सुनते जाना. अब चूँकि मैं और भैया आपस में बहुत लड़ते थे तो इसी पैर दबाने को लेकर एक किस्सा सुनाये थे जो यहाँ सुनाता जाता हूँ.<br />
<blockquote class="tr_bq">
एक गुरूजी थे, उनके दो चेले. दोनों ही उनको बहुत मान देते थे. अब गुरूजी की एक आदत थी, रोज दोपहर में खाना खाने के बाद दोनों चेलों से पैर दबवाने की. बस यही पैर दबाना दोनों चेलों के बीच झगड़े की जड़ थी. दोनों ही इस बात पर लड़ते थे की आज पैर मैं दबाऊंगा तो मैं दबाऊंगा. झगड़े का हल गुरूजी ने कुछ यूँ निकाला की, बायाँ पैर चेला १ का और दायाँ पैर चेला २ का. एक दिन चेला १ बीमार पड़ गया तो गुरूजी ने चेला २ से कहा की आज बायाँ पैर भी तुम ही दबा दो. चेला २ गुस्से में सोचा की मैं चेला १ का पैर क्यों दबाऊं? गुस्से में उसने एक पत्थर उठाया और गुरूजी का बायाँ पैर तोड़ दिया. अगले दिन चेला १ वापस आया और देखा की गुरूजी बिस्तर पर पड़े हुए हैं और उनका बायाँ पैर चेला २ ने तोड़ दिया.. अब गुस्से में आने की बारी उसकी...उसने भी एक पत्थर उठाया और चेला २ का पैर, यानी गुरूजी का दायाँ पैर भी तोड़ दिया.</blockquote>
हम बच्चों से यह कथा कह कर पापा जी दो निशाने साधते थे. पहला यह की हम खूब खुश हो जाएँ ये मजेदार कहानी सुन कर. और दूसरा यह की खूब मन लगा कर पैर दबाएँ. :-)<br />
<br />
इधर पिछले दो-तीन साल से देख रहा हूँ, पापा जी का पैर दबाते समय ऐसा लगता है जैसे मांसपेशियां हड्डियों से कुछ अलग होती जा रही हैं..इधर कुछ सालों से देख रहा हूँ, पापा जी पैर भी उतने मन से नहीं दबवाते जिद करके.. शायद पापा जी अब यही मान कर चलने लगे हैं की हर समय कोई बच्चा साथ तो रहेगा नहीं पैर दबाने के लिए..<br />
<br />
पिछले दो-तीन महीनों से पापा जी का पैर दबाने का बहुत मन कर रहा है...किसी तलब की हद्द तक...PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-204583088827591102014-05-22T00:53:00.000+05:302014-05-22T18:24:07.879+05:30इश्क़ का धीमी आंच में पकनाआज का ही दिन था. ठीक एक साल पहले. मन अंतर्द्वंदों से घिरा हुआ था, कई प्रश्न थे जो भीतर कुलबुला रहे थे. कल पापा-मम्मी अनुजा से मिलने के लिए जाने वाले थे. हमारे यहाँ के चलनों के मुताबिक आमतौर से मिलने-मिलाने की प्रक्रिया तब ही शुरू होती है जब लगभग रिश्ता तय माना जाता है. एक तरह से मेरी शादी की बात तय होने जा रही थी कल, ठीक एक साल पहले. एक-दो दोस्तों को छोड़ किसी को बताया नहीं था.<br />
<br />
खुल कर कहूँ तो मैंने तस्वीर देखने तक की जहमत नहीं उठायी थी उस समय तक. घर पर पूछा गया था की कैसी जीवनसाथी चाहिए, तो बस इतना ही कहा की अपना निर्णय खुद लेने वाली हो, बाकी और कुछ नहीं.. दोपहर होते-होते भाभी का फोन भी आ चुका था, चुहल करती हुई..मेरे ठंढे प्रतिक्रिया ने उनके जोश को भी ठंढा कर दिया. शाम होते-होते मम्मी ने अनुजा का नंबर मुझे मैसेज करते हुए बोली आज ही बात कर लेना. मुझे ख़ुशी सिर्फ एक ही बात की थी, घर में सभी खुश हैं....मगर अन्दर से आवाज सुनाई देती...'और तुम्हारी ख़ुशी'? तत्क्षण मैं पशोपेश में था, मुझे यह भी नहीं पता था की मैं खुश हूँ भी या नहीं. बाहरी तौर पर दोनों मित्रों पर अपनी ख़ुशी ही ज़ाहिर की, उनके बधाई को खुश हो कर स्वीकार भी किया...मगर खुद से पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था, क्या मैं वाकई खुश हूँ?<br />
<br />
कुछ बातें समय पर छोड़ देना चाहिए. समय सही निर्णय लेता है. समय पर छोड़ी गई बातें अक्सर समयातीत हो जाती है. आज पुरे एक साल बाद अपने रिश्ते को पलट कर देखता हूँ तो वाकई हमारा रिश्ता समयातीत हो चुका है..आज इस रिश्ते के बिना मेरे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा!! आज यही लगता है की तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूँ अनुजा...<br />
<br />
उसी दिन मैंने उसे फोन किया, मन में चल रहे उथल-पुथल से उसकी ख़ुशी, एक अलग से अहसास को फीका नहीं करना चाहता था..पूरे उत्साह से फोन किया. उस दिन बात नहीं हुई, रास्ते में थी, और घर पहुँचते-पहुंचते देर रात हो चुकी थी उसे..अगले दिन बात हुई. एक साधारण सी मगर लम्बी बात..<br />
<br />
एक मजेदार किस्सा याद आता है, दो-तीन दिनों बाद ही उसे कलकत्ता के दम-दम हवाई अड्डे से मेलबर्न के लिए हवाई जहाज पकड़ना था.. देर रात गए मैं उस समय अपने मित्र शिवेंद्र के घर पर था. उसी ने मेरा फोन लेकर अनुजा का नंबर घुमा दिया और मुझे फोन दे दिया. थोड़ी देर की बात के बाद फोन काटने के बाद अनुजा का एक छोटा सा मैसेज आया. "It was a bliss in solitude". शिवेंद्र ने दोस्त की भूमिका निभाते हुए फोन छिनकर मैसेज पढ़ा, उसका मतलब पूछा. मैंने कहा "एकांत में आनंदातिरेक होना"..शिवेंद्र फिर से इस हिंदी अनुवाद का मतलब पूछा..और मैं हँसते-हँसते दोहरा हो गया.. चिढाते हुए उसे बोला, "साले, ना हिंदी समझता है और ना अंग्रेजी"<br />
<br />
बीते एक साल में कई लम्हें गुजरे..अधिकाँश ख़ुशी के, कुछ नोंक-झोंक के, तो कुछ लड़ाई के भी. ज़िन्दगी भी तो ऐसी ही कुछ है, खट्टी-मीट्ठी..एक स्वाद आखिर कब तक किसी के जबान पर चढ़ सकता है? एक स्वाद अक्सर बोरियत ही लाता है. एक स्वाद के तुरत बाद ही हम दुसरे स्वाद को चखना चाहते हैं...तुम्हारा इश्क़ जैसे डिनर के बाद डेजर्ट खाना.. तुम्हारा इश्क़ जैसे जून के महीने में तेज आंधी के साथ बारिश.. तुम्हारा इश्क़ जैसे पाला पड़ते दिनों में खिली हुई धूप.. तुम्हारा इश्क़ जैसे किसी बच्चे की मुस्कान.. तुम्हारा इश्क़ जैसे तीखा मशालेदार चाय..तुम्हारा इश्क़ जैसे तुम!!! सिर्फ तुम्हारे इश्क़ का स्वाद ही है जो तालू से चिपकी हुई है, और मन चाहता है जीवन भर चिपकी रहे....आमीन!!!<br />
<br />
कुछ बातें सार्वजनिक रूप में सीधे तुमसे कहनी है अनुजा - जानती हो, पिछले आठ-दस सालों में मुझसे सबसे अच्छा साल चुनने को अगर कहा जाए तो यह यही बीता हुआ साल है. शायद इसलिए पता भी नहीं चला की कैसे एक साल गुजर गए! शुक्रिया मेरी ज़िन्दगी में आने के लिए.....<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrb1npIROPSQ40hCvmZkvvAXkysem4PNOIq-I4FdUjjvekYdbJzzprFfXiUZxadgQVXk3xcG9Q9LQTFRekrK3RCW_6dZKKg-2EFBBFKnHmg9NlfwPMPsU76S1dLcXlbrsCiXsb4mtLfhc/s1600/Anuja+&+me.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrb1npIROPSQ40hCvmZkvvAXkysem4PNOIq-I4FdUjjvekYdbJzzprFfXiUZxadgQVXk3xcG9Q9LQTFRekrK3RCW_6dZKKg-2EFBBFKnHmg9NlfwPMPsU76S1dLcXlbrsCiXsb4mtLfhc/s1600/Anuja+&+me.jpg" height="265" width="400" /></a></div>
<br />PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-67991967896942020642014-04-22T00:45:00.000+05:302014-04-22T00:45:18.545+05:30मशाला चाय - दिव्य प्रकाश दुबे<a href="https://www.facebook.com/dubeydivyaprakash" target="_blank">दिव्य भाई</a> की पहली किताब(टर्म्स एंड कंडीशंस एप्लाई) एक ही झटके में पूरा पढ़ गया था. और पढने के बाद दिव्य भाई को अपना ओनेस्ट ओपिनियन भी दिया था फेसबुक के इनबाक्स में जिसका सार यह था, "कहानियां साहित्यिक मामलों में कुछ भी नहीं है और बेहद साधारण है, मगर कहानियों की बुनावट और कसावट आपको किताब छोड़ने से पहले पूरा पढने को मजबूर कर दे."<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjL37tGsnGj0-XxOzD5wIr0DMbKGqFEc7OUUxpGJuLgvKugNCzaekgQqAZ0yYys7Yx7AmoPW1vTARz3tJR8l4lDwHmK-PHtAiCGmjhA5lc_2dxnPaGblNp5D2dmldIofGZmJA7Wzb3DPKI/s1600/mashala+chaay.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjL37tGsnGj0-XxOzD5wIr0DMbKGqFEc7OUUxpGJuLgvKugNCzaekgQqAZ0yYys7Yx7AmoPW1vTARz3tJR8l4lDwHmK-PHtAiCGmjhA5lc_2dxnPaGblNp5D2dmldIofGZmJA7Wzb3DPKI/s1600/mashala+chaay.jpg" height="248" width="320" /></a></div>
अभी उनकी दूसरी किताब मशाला चाय जब आने वाली थी उस समय अपनी निजी चीजों में कुछ इस कदर उलझा हुआ था की प्री-बुकिंग नहीं किया, जैसा पहली किताब को लेकर किया था. यह किताब आने से पहले उन्होंने बहुत हल्के-फुल्के अंदाज में मुझे इनबाक्स में लिखा, "कुछ ऐसा लिख दो जिससे लोगों को लगे की यह नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा..." और उन्हें मैंने बताया, "मैं आपकी किताब से नए लोगों को पढ़ना सीखा रहा हूँ. मेरे वैसे दोस्त जो कभी कोई किताब नहीं पढ़ते वे भी आपकी किताब बड़े चाव से पढ़े."<br />
<br />
मैं यह बात अभी भी उतने ही पुख्ते तौर से कह रहा हूँ. अगर आप हिंदी पढना जानते हैं मगर कभी कोई किताब हिंदी की नहीं पढ़ी है तो यह आपके लिए पहला पायदान है..पहली सीढी... और दिव्य भाई, आपको यह जानकार और भी अधिक आश्चर्य होगा की आपकी पहली पुस्तक अभी मेरे एक कन्नड़ मित्र के पास है जो हिंदी बेहद हिचक-हिचक कर ही पढ़ पाती हैं. मगर थोड़ा पढने के बाद मुझे बोल चुकी हैं की यह तो मैं पूरा पढ़ कर ही वापस करुँगी, कम से कम दो महीने बाद...<br />
<br />
यह मैं उस वक़्त लिखने बैठा हूँ जब अधिकाँश लोग जिन्हें इस किताब में रुचि होगी, वे सभी इसे पढ़ चुके होंगे. जिन्हें जो कुछ भी बातें करनी थी, वह भी वे कर चुके. मगर फिर भी लिख रहा हूँ...<br />
<br />
पहली कहानी पढ़ते वक़्त बचपन से पहले मुझे अपना वह जूनियर याद आया जो अभी भी बात-बात पर विद्या कसम खाता है. उसे कभी कोई और कसम खाते नहीं देखा हूँ, ना ही भगवान् कसम खाते. शायद अब वह समझ गया होगा की अब विद्या कसम खाने से भी कुछ हानि नहीं होने वाली..<br />
<br />
दूसरी कहानी.....मैंने कई आस पास के चरित्र बहुत करीब से देखें हैं जो इससे मिलते हैं...कुछ सौ फीसदी...कुछ नब्बे फीसदी...खुद मैं भी तो साठ-सत्तर फीसदी तक के आस पास पहुँच ही जाता हूँ...दरअसल यह भारत के किसी भी मेट्रो में रहने वाले युवाओं की साझी कहानी है..जो ज़िन्दगी में किसी भी नए बदलाव का स्वागत करना जानता है..कुछ पीछे छूट जाए तो रुदाली नहीं गाता है..अकेलापन दूर करने का एकमात्र साधन दफ्तर और दोस्त ही हैं....ऐसी कई बातें तो मैंने भी कई दफे सोची थी/है, मगर इतनी आसानी से कोई ऐसे भी लिख सकता है? ब्रैवो....<br />
<br />
बाकी कहानी अभी पढ़ी नहीं.. सो बाकी किस्सा फिर कभी...<br />
<br />
चलते-चलते आपको फिर से याद दिला दूँ, अगर आप यह किताब इस उम्मीद में उठायें हैं पढ़ने के लिए की आपको घोर साहित्यिक खुराक मिले, तो यह किताब आपके लिए नहीं है..मगर याद रखें, इसमें वही कहानियां आपको मिलेंगी जैसी मानसिक अवस्था से आज का युवा गुजर रहा है.PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-75723012837539797722014-01-26T14:56:00.001+05:302014-01-26T14:56:53.965+05:30एक अप्रवासी का पन्नाबात अधिक पुरानी नहीं है...मात्र एक साल पुरानी...अब एक साल में कितने दिन, कितने महीने, कितने हफ्ते और कितने घंटे होते हैं, यह गिनने बैठा तो लगता है जैसे एक युग पहले कि बात की जा रही हो. मगर यह फक़त एक साल पुरानी ही बात है. आज रात ही को चेन्नई से निकला था बैंगलोर के लिए और सत्ताईस की सुबह पहुँचा था.<br />
<br />
चेन्नई छोड़े मात्र एक साल हुआ है, मगर ऐसा लगता है जैसे कभी वहां था ही नहीं. वह भी तब जबकि जीवन में दूसरा सबसे लम्बा समय उस शहर में ही बीता है. पहला पटना था, और तीसरे की खोज में हिसाब-किताब करने बैठा नहीं, वरना तो किस्तों में ज़िन्दगी जाने कितने ही शहर दिखा चुकी है.<br />
<br />
जिस शिद्दत से पटना कभी याद आता है, उतनी शिद्दत से मगर चेन्नई को कभी याद नहीं कर पाया. पता नहीं उम्र का असर ठहरा या वाकई उस शहर से उतना लगाव ही ना हो पाया हो? कारण कुछ भी हो सकता है. उम्र का असर इसलिए की समय के साथ आस-पास के जगहों का तिलिस्म टूटने लगता है. शायद यह बहुत बड़ी वजह होती है कि बचपन में बिताये समय और मित्र हमेशा ही ज़ेहन में वैसे ही याद रहते हैं जैसे कल की ही बात हो.<br />
<br />
अब भी याद आता है, चेन्नई छोड़ने से महीने भर पहले साथ काम करने वाली एक मित्र ने पूछा था, "क्या हमें याद करोगे वहां?" उस समय तुरत बिना एक क्षण सोचे जवाब दिया था "नहीं".. फिर जैसे-जैसे बैंगलोर आने का दिन नजदीक आने लगा वैसे-वैसे ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. आखिर छः साल का समय कम भी नहीं होता है. एक दिन ईमानदारी से उस मित्र को अपना जवाब फिर दिया.. "चेन्नई याद आये चाहे ना आये, मगर आप जैसे दोस्त जरुर याद आयेंगे." और अंततः वही बात सही साबित भी हुई.<br />
<br />
<br />
मुझे अब भी याद आता है, जिस दिन मैंने वहां अपना त्यागपत्र दिया, उस दिन बहुत खुश था. मन में एक ख्याल यह भी था कि इस शहर और इस कंपनी से पीछा छूटा आखिर! मगर जैसे-जैसे दिन करीब आते गए वैसे-वैसे अकुलाहट भी बढती गई. मन मायूस सा होता गया. और आखिर आज के ही दिन अपना सामान बाँध कर रात की बस से बैंगलोर के लिए निकल लिया.<br />
<br />
पिछले एक साल के बैंगलोर का पूरा ब्यौरा दूँ तो, कार्यस्थल पर काफी कुछ सीखने को मिला. सबसे अधिक मन में एक 'भय'.. हाँ, वह भय ही था. नयी तकनीक, नया प्रक्षेत्र(Domain) और उस पर भी अपने अनुभव के मुताबिक़ कार्य संपन्न करने का दवाब. कर पाऊंगा या नहीं, इसकी शंका. खैर, इन सबसे उबरने में अधिक मेहनत-मशक्कत नहीं करनी पड़ी. दूसरी बात यह कि वहां कई सालों से एक ही जगह कार्य करने से एक कम्फर्ट जोन में था, वह यहाँ फिर से बनाना. खैर, नए लोगों से मिलना, उन्हें जानना-समझना अच्छा लगता है, सो जल्द ही यहाँ भी अपना कम्फर्ट जोन बना ही लिया.<br />
<br />
खैर, जीवन यूँ भी खानाबदोश हो चुका है. अपने देश में रहते हुए भी अप्रवासी होने को हम अभिशप्त हैं. कहने को भले ही कितना भी पटना को अपना कहूँ, मगर अब पटना जाने पर ही परायापन महसूस होता है. और वापस बैंगलोर(पहले चेन्नई) में प्रवेश करते ही लगता है जैसे अपने शहर, अपने घर में आ गया हूँ. पटना अब मात्र नौस्टैल्जिक होने वाला शहर ही बन कर रह गया है.PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-54792657257017242202014-01-20T21:21:00.003+05:302014-01-20T21:24:02.745+05:30ईमानदारी बनाम भ्रष्टाचार<h5 class="uiStreamMessage userContentWrapper" data-ft="{"type":1,"tn":"K"}">
<span style="font-size: small; font-weight: normal;"><span class="messageBody" data-ft="{"type":3,"tn":"K"}"><span class="userContent">आज
अपने वैसे भारतीय मित्रों को देखता हूँ जो फिलहाल विदेश में बसे
हुए हैं, लगभग वे सभी "आप" के समर्थक हैं. आखिर ऐसा क्या है जो भारतियों को
विदेश में पहुँचते ही "आप" का समर्थक बना देती है? ऐसी मेरी सोच है कि जब
वही भारतीय मित्र वापस भारत आयेंगे और वापस यहाँ कार्य करते हुए अपने
आस-पास की बेईमानी से जब तक त्रस्त नहीं होंगे तब तक वे "आप" के साथ भी खड़े
दिखेंगे भी नहीं. कारण, तब वे उस वर्ग से ऊपर उठ चुके रहेंगे जिसे साध कर
केजरीवाल सत्ता तक पहुंचे हैं.<br /> <br /> मेरी इस सोच को इस बात से बल मिलता
है कि मैंने अपने आस पास कई मित्रों को भारत में रहते हुए नियम तोड़ते देखा
है, मगर विदेश जाते ही वे पूर्ण ईमानदार हो जाते हैं.
नहीं-नहीं...उन्होंने भारत में रहते हुए कोई ऐसा नियम नहीं तोडा जिसे अपराध
की श्रेणी में रखा जाए. वे कुछ ऐसे नियम हैं जिन्हें हम नजर-अंदाज करते
चलते हैं. मगर वही छोटे-छोटे नियम तोड़ने पर भी विदेश में कड़ा अर्थ दंड
भोगना पड़ेगा इसी डर से वह वहां नहीं हो पाता है. एक डर, एक भय.. <br /> <br />
मैं हमेशा एक बात पर गौर करता हूँ. सबसे अधिक भ्रष्टाचार उन्हीं देशों में
है जो अविकसित हैं अथवा विक्सित होने की ओर अग्रसर हैं. विकसित देशों में
अपवाद के तौर पर ही पूरा का पूरा देश भ्रष्ट दिखेगा. मुझे इसका सीधा सा
उत्तर यही समझ में आता है कि वहां की व्यवस्था ऐसी है जो भ्रष्टाचार को
बेहद महंगा बनाती है. वहां पकड़े जाने और सजा पाने के अवसर अधिक हैं किसी भी
विकासशील देशों के मुकाबले.<br /> <br /> माफ़ कीजियेगा.. मैं इस बात से
पूर्णतः असहमत हूँ कि बचपन से ही ईमानदारी का पाठ बच्चों को पढाया जाए तो
वह ईमानदार बनेगा. क्योंकि बेईमानी और रिश्वत का पहला सबक हर बच्चा घर के
भीतर ही सीखता है. जैसे किसी बच्चे को कहना कि क्लास में फर्स्ट आओ तो
सायकिल खरीद दूंगा. या अभी चुप हो जाओ तो शाम में घूमने जायेंगे.. मेरा यही
मानना है कि कोई भी जीव-जंतु स्वभाव से हमेशा हालात का फायदा उठाने वाला
होता है. वो कहते हैं ना "सरवाईवल ऑफ़ द फिटेस्ट".<br /> <br /> साथ ही यह भी
सोचता हूँ की क्या भारत के अभी के हालात में एक भय जगा कर लोगों को ईमानदार
बनाया जा सकता है? तो इसका उत्तर भी नकारात्मक ही मन में आता है. भारत
जैसे विशालकाय जनसँख्या वाले देश में ऐसा होना नामुमकिन से कम भी नहीं है.<br /> <br />
मैं दावे के साथ कहता हूँ कि जिस दिन कोई पार्टी भारत को शत-प्रतिशत
भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगी, उसी दिन सबसे पहले जनता ही उसे बाहर का
रास्ता दिखायेगी...वापस भ्रष्ट होने की राह खोजने के अवसर ढूँढने के लिए.
कुछ उदाहरण मैं जोड़ता जाता हूँ..<br /> दो मिनट के लिए भी गाड़ी सड़क पर पार्क करने पर अर्थदंड.<br /> सड़क पर थूकने अथवा किसी भी प्रकार का कचरा फेंकने पर अर्थदंड.<br /> जहाँ किसी भी कार्य को करने के लिए तुरत पैसा दो और सारे झंझट से मुक्ति होती थी, वहीं उसी काम के लिए तीन घंटे लाईन में लगना.<br /> जहाँ ट्राफिक पुलिस को पचास-सौ दो और हजार के फाईन से बच जाओ, वहीं हजार का नुकसान सहना.. इत्यादि ऐसे ही ना जाने क्या-क्या..<br /> <br /> नोट - आवेश में आकर कुछ भी यहाँ कमेन्ट करने से पहले जरा ईमानदारी से सोचें. अपने अहम्(ईगो) से इतर हटकर जरुर सोचें.</span></span></span></h5>
<span style="font-size: small;"><br /></span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-14244731801311426252013-12-19T17:56:00.000+05:302013-12-19T20:26:42.171+05:30देवयानी पर उठे बवाल संबंधित कुछ प्रश्न<span style="color: black; font-size: 104%;"> हमारे कई मित्र इस बात पर आपत्ति जता रहे हैं कि देवयानी मामले में भारत सरकार इतनी आक्रामक क्यों है? जबकि दुसरे अन्य मामलों में ऐसा नहीं था. मेरे कुछ अमेरिका में रहने वाले मित्र भी इस बात को हमारी बातचीत में उठा चुके हैं. कुछ मित्र यह भी कह रहे हैं कि "सुनील जेम्स" जो छः महीनों से टोगो के जेल में बंद हैं, उनके मामले में भारत सरकार इतनी तीव्रता से कोई कदम क्यों नहीं उठा रही है? कई लोग आधे-अधूरी जानकारी होने के कारण से भी भ्रम में हैं.<br /><br />जहाँ तक मेरी जानकारी और समझ है, देवयानी भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है. इसलिए यह मसला इतना संजीदा हो चुका है. सुनील जेम्स का मामला हो या अन्य कोई मामला, वे सभी भारत का सीधे तौर पर प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे. मगर यह सीधा भारत की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है. यहाँ तक कि मेरे वे सभी मित्र भी भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं जो भारत के बाहर हैं. अभी के भारतीय राजनीति के संबंध में भी देखें तो एक और आयाम दिखता है इस मुद्दे को इतनी हवा मिलने का. कांग्रेस सरकार कई जगहों पर अपनी असफलता से उबरने के लिए और खुद को एक सख्त एवं भारतीय प्रतिष्ठा के प्रति जागरूक दिखाने के लिए भी इस मुद्दे को हाथों-हाथ ली है.<br /><br />कई जगह वियेना समझौते कि बात हो रही है, जिसके तहत इस मुद्दे को </span><span style="color: black; font-size: 104%;"><span style="color: black; font-size: 104%;">वियेना </span>संधि के उल्लंघन का मामला भी बताया जा रहा है. तो आईये जानते हैं कि </span><span style="color: black; font-size: 104%;"><span style="color: black; font-size: 104%;">वियेना </span>संधि आखिर है क्या? और कैसे अमेरिकी सरकार उसका उल्लंघन कर रही है?<br /><br /><b>"अमेरिका का व्यवहार वियना समझौते के अनुच्छेद 40 और 41 का खुला उल्लंघन है. मूलत: यह एक प्रोटोकाल है, लेकिन इसने अनेक अर्थों में एक कानून का रूप ले लिया है. इस संधि के मूलत: दो भाग हैं और दूसरे भाग का संबंध दूतावास में काम करने वाले अधिकारियों और काउंसलर पोस्ट के अन्य सदस्यों को मिलने वाले अधिकार, सुविधाओं और रियायतों से है.<br /><br />अनुच्छेद 40 के अनुसार कोई देश अपने यहां कार्य करने वाले दूसरे देशों के राजनयिकों के साथ यथोचित सम्मानजनक व्यवहार करेगा और उन्हें एक राजनयिक को मिलने वाली सुविधाओं से वंचित नहीं किया जाएगा तथा उनके व्यक्तित्व, स्वतंत्रता और गरिमा पर होने वाले किसी हमले से उनकी रक्षा करेगा. अनुच्छेद 41 के अनुसार केवल गंभीर प्रकृति के अपराधों के मामलों को छोड़कर दूतावास के अधिकारियों और कर्मचारियों की गिरफ्तारी नहीं की जाएगी अथवा उन्हें हिरासत में नहीं लिया जाएगा. इसी तरह अनुच्छेद 42 गिरफ्तारी, हिरासत अथवा अभियोजन की नोटिफिकेशन से संबंधित है. कुल मिलाकर ऐसी व्यवस्था की गई है कि दूतावास के किसी अधिकारी और कर्मचारी के साथ इस तरह बर्ताव किया जाएगा कि उनके सम्मान, स्वतंत्रता , गरिमा पर कोई आंच न आए. देवयानी के मामले में अमेरिका ने यह कसौटी पूरी नहीं की. तीनों आधार पर अमेरिका ने वियना संधि का उल्लंघन किया. देवयानी खोबरागडे को जिस तरह गिरफ्तार किया गया उससे उनके सम्मान पर आंच आई, जिस तरह तलाशी ली गई उससे उनकी निजता प्रभावित हुई और उन्हें जिस तरह कुख्यात अपराधियों के साथ जेल में रखा गया उससे उनकी गरिमा को आघात लगा. भारत की आपत्ति का यही आधार है और सख्त जवाबी कार्रवाई की यही वजह."</b><br /><br />कुछ लोग यह कह रहे हैं, यहाँ तक कि मैं भी जानता हूँ की देवयानी गलत थी. मगर इसके बरअक्स यह भी सवाल मन में आता है कि जब 23 जून से ही उनकी नौकरानी लापता हैं, उनका पासपोर्ट भी इस वजह से भारत सरकार निलंबित कर चुकी है, तो अमेरिकी सरकार उस पर संज्ञान उतनी ही तीव्रता से क्यों नहीं ली जितनी कि देवयानी पर ली?<br /><br />इसमें भी कोई शक नहीं कि हमारी भारतीय व्यवस्था सामंतवादी व्यवस्था है. और देवयानी ने उसी के अनुरूप कार्य करके अमेरिकी क़ानून का उल्लंघन की है. भले भारत में यह शान की बात है मगर वहां के लिए यह जुर्म है इस बात को भी अच्छी तरह समझती रही होंगी. मगर यह मामला इतना भी आसान नहीं है जितना दिखता है. क्योंकि संगीता इतनी भी बेचारी प्रतीत नहीं हो रही जितनी एक आम भारतीय के घर में कार्य करने वाले सेवक-सेविकाएँ. इसका सबसे बड़ा उदहारण यह है कि दस दिसंबर को संगीता के पति एवं पुत्र अमेरिका के लिए निकले थे और बारह दिसंबर को देवयानी कि गिरफ़्तारी हुई. एक आम भारतीय के पास अमेरिका यात्रा से पहले अनेक अर्थ संबंधी प्रश्न मुंह बाए खड़े होते हैं यह हम सभी जानते हैं. और अगर उनके टिकट का इंतजाम अमेरिकी सरकार की है तो यह और भी रोचक षड्यंत्र के तौर पर सामने आती है.<br /><br />फिलहाल तो भारतीय सरकार द्वारा अमेरिकी विदेश मंत्रालय से पूछे गए वे चार सवाल मेरे मन में भी है जिसका उत्तर अभी तक नहीं दिया गया है.<br /><br /><b>1. </b>देवयानी की घरेलू सहायक और भारतीय नागरिक संगीता रिचर्ड की खोज के बारे में क्या हुआ? संगीता भारतीय पासपोर्ट पर अमरीका पहुंची थीं और वो 23 जून से ही लापता हैं. इस बात की जानकारी तत्काल न्यूयॉर्क स्थित विदेशी मिशन विभाग को दे दी गई थी.<br /><br /><b>2. </b>इसके अलावा इस बात की भी जानकारी मांगी गई कि पासपोर्ट और वीज़ा स्टेटस में बदलाव करने और अमरीका में कहीं भी काम करने की छूट देने संबंधी संगीता रिचर्ड की मांग के ख़िलाफ़ अमरीका ने क्या कार्रवाई की, क्योंकि ये अमरीकी नियमों के प्रतिकूल है.<br /><br /><b>3.</b> तीसरा सवाल पूछा गया कि चूंकि संगीता का पासपोर्ट आठ जुलाई 2013 को रद्द कर दिया गया था और वो अभी भी वहां ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से रह रही है, तो अमरीकी सरकार ने संगीता को वापस भेजने में किस तरह की मदद की?<br /><br /><b>4.</b> संगीता की गिरफ़्तारी के बारे में क्या क़दम उठाए गए क्योंकि वो देवयानी के घर से नगद पैसे, मोबाइल फ़ोन और कई ज़रूरी दस्तावेज़ उठाकर ले गई थी. यहाँ चोरी का भी मामला बनता है.</span><br />
<br />
<span style="color: black; font-size: 104%;">एक सवाल जो भारत सरकार ने नहीं पूछा मगर मेरे मन में है उसे भी इन सवालों कि सूची में शामिल कर रहा हूँ.</span><br />
<span style="color: black; font-size: 104%;"><br /></span>
<span style="color: black; font-size: 104%;"><b>5.</b> अमूमन अमेरिका सरकार किसी भी छोटी सी भूल अथवा किसी छोटी सी इन्फोर्मेशन कि कमी के कारण भी वीजा देने से इनकार कर देती है. मसलन अगर आप दसवीं कि अंक सूची संलग्न करना भूल गए हों मगर आपने PHd. तक कि जानकारी दे रखी है फिर भी वे वीजा रिजेक्ट कर देते हैं. मगर भारत में सुनीता पर और उसके पति के ऊपर केस चलने के बावजूद वह उन्हें वीजा के लिए उपयुक्त मानते हुए वीजा कैसे प्रदान कर दी?</span><br />
<span style="color: black; font-size: 104%;"><br />जो भी इस मामले को इतनी तूल दिए जाने के विरोध में बातें कर रहे हैं उन्हें यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि यह भार कि प्रतिष्ठा से जुड़ा प्रश्न पहले है और भारत के लिए किसी भारतीय नागरिक के पक्ष में खड़ा होते दिखाना बाद में. वैसे भी हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि एक पश्चिमी देश जितना अधिक अपने नागरिकों के विदेश में सुरक्षा के प्रश्न पर उनके साथ होता है उतनी तत्परता भारत जैसे विकासशील देश यदा-कदा ही दिखता हैं.</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-44533458749409727522013-12-09T22:19:00.000+05:302013-12-09T22:19:21.176+05:30हम लड़ेंगे साथीआज बस एक पुरानी कविता आपके सामने -<br />
<br />
<u><span style="font-size: large;"><b>हम लड़ेंगे साथी</b></span></u><br /> <br /> हम लड़ेंगे साथी,उदास मौसम के लिए<br /> हम लड़ेंगे साथी,गुलाम इच्छाओं के लिए<br /> हम चुनेंगे साथी,जिन्दगी के टुकड़े<span class="text_exposed_show"><br /> <br /> हथौड़ा अब भी चलता है,उदास निहाई पर<br /> हल अब भी बहते हैं चीखती धरती पर<br /> यह काम हमारा नहीं बनता,प्रश्न नाचता है<br /> प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर<br /> हम लड़ेंगे साथी<br /> <br /> कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर<br /> बुझी हुई नजरों की कसम खाकर<br /> हम लड़ेगे साथी<br /> हम लड़ेंगे तब तक<br /> जब तक वीरू बकरिहा<br /> बकरियों का मूत पीता है<br /> खिले हुए सरसों के फूल को<br /> जब तक बोने वाले खुद नहीं सूँघते<br /> कि सूजी आँखो वाली<br /> गाँव की अध्यापिका का पति जब तक<br /> युद्ध से लौट नहीं आता<br /> जब तक पुलिस के सिपाही<br /> अपने ही भाइयों का गला घोंटने को मजबूर हैं<br /> कि दफ्तर के बाबू<br /> जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर....<br /> हम लड़ेंगे जब तक<br /> दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है....<br /> जब बन्दुक न हुई,तब तलवार होगी<br /> <br /> जब तलवार न हुई,लड़ने की लगन होगी<br /> कहने का ढंग न हुआ,लड़ने की जरूरत होगी<br /> और हम लड़ेंगे साथी....<br /> <br /> हम लड़ेंगे<br /> कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता<br /> हम लड़ेंगे<br /> कि अब तक लड़े क्यों नहीं<br /> हम लड़ेंगे<br /> अपनी सजा कबूलने के लिए<br /> लड़ते हुए जो मर गए<br /> उनकी याद जिन्दा रखने के लिए<br /> हम लड़ेंगे साथी.....<br /> <br /> - पाश</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-81414791891800883792013-10-15T14:37:00.003+05:302013-10-15T15:48:00.424+05:30बाथे नरसंहार के ठीक बादजिस रात यह घटना घटी उससे एक दिन बाद ही मुझे PMCH के इमरजेंसी वार्ड में एक डाक्टर से मिलना तय हुआ था. सोलह-सत्रह साल की उम्र थी मेरी. सुबह जब PMCH के लिए निकला था तब तक मुझे इस घटना की जानकारी नहीं हुई थी. अस्पताल पहुँच कर मुझे पता था की इमरजेंसी वार्ड में किस डाक्टर से और कहाँ मिलना है. मगर वहां पहुँच कर एक डर सा मन में बैठ गया. हर तरफ सैकड़ों की संख्या में पुलिस थी. पुलिस से मुझे कभी वैसा भय नहीं रहा है जैसा भय आम जनों के बीच घुला मिला है. कारण शायद यह हो सकता है की घर में पापा की नौकरी की वजह से पुलिस का आना-जाना और उनकी सुरक्षा व्यवस्था में लगी पुलिस का होना. मगर वहां इतनी अधिक पुलिस देख कर मन में भय समां गया. फिर भी हिम्मत करके इमरजेंसी वार्ड के दरवाजे पर गया तो पाया की वहां दरवाजे पर भी भारी सुरक्षा व्यवस्था थी. और किसी को भी अंदर नहीं जाने दे रही थी. मैं किसी तरह उन डाक्टर का नाम लेकर और कुछ और बहाने बना कर अंदर जा घुसा. मेरे साथ आये पापा के स्टाफ को पुलिस ने अंदर नहीं जाने दिया. शायद मैं लगभग बच्चा ही था इसलिए मुझे जाने दिया हो. अंदर पहुँचते ही सबसे पहले हॉल आता है, वहीं कम से कम तीस-चालीस लाशें रखी हुई थी. मुझमें आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं थी फिर भी यह सोच कर की जब यहाँ आया ही हूँ तो उस डाक्टर से मिल ही लूँ, और उनके कमरे की तरफ आगे बढ़ गया. उनके कमरे की तरफ जाते हुए कई लोग बिस्तर पर बेसुध हुए दिखे जो जिन्दा तो थे, मगर गोलियों से छलनी, और इलाज के लिए अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे. शायद इतने लोगों का एक साथ इलाज संभव नहीं रहा हो उस वक़्त. आगे बढ़ने की हिम्मत भी टूट चुकी थी. किसी तरह बाहर वापस आया और घर चला गया. मगर कई सालों तक वह भयावह दृश्य आँखों के सामने घूमता रहा.<br />
<br />
अभी जिस दिन सभी अपराधियों को हाईकोर्ट द्वारा बरी करने की खबर आई थी तो यह सब आँखों के सामने घूम गया. साथ ही यह भी भरोसा हो चला की उन्हें किसी ने गोली नहीं मारी. वे तो आसमान से बरसती गोलियों के शिकार हुए थे. उनका हत्यारा कोई नहीं.<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDAhW8KJ3UF5GDLAaWptKt4cyqFUrgnGIB-wT-5DunXRmoVTGWgpOu0N2xE54z-gad0wmFWz1_inwJfu5UnfQpXrVlF3ihXEDdJ86_j-6DGF-1qgWQFthvhoB40Hc7iNapToqjYWyAncg/s1600/Lakshanapur+Bathe.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="267" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDAhW8KJ3UF5GDLAaWptKt4cyqFUrgnGIB-wT-5DunXRmoVTGWgpOu0N2xE54z-gad0wmFWz1_inwJfu5UnfQpXrVlF3ihXEDdJ86_j-6DGF-1qgWQFthvhoB40Hc7iNapToqjYWyAncg/s400/Lakshanapur+Bathe.jpg" width="400" /></a></div>
PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-55024768607718186232013-05-28T17:09:00.005+05:302013-05-28T17:09:59.034+05:30ज्वलंत समय में लिखना प्रेम कविता<span style="color:#000000;font-size:104%;"><b>1.</b><br />
जब देश उबल रहा था<br />
माओवादी हिंसा एवं<br />
आदिवासियों पर हुए अत्याचार पर<br />
<br />
मैं सोच रहा था कि लिखूँ<br />
एक नितांत प्रेम में डूबी कविता!!<br />
<br />
<b>2.</b><br />
बुद्धिजीवियों के विमर्श का शीर्ष बिंदू<br />
जब थी सामाजिक समस्याएँ<br />
<br />
तब मैं सोच रहा था लिखूँ<br />
कुछ ऐसा जो छू ले तुम्हारे अंतर्मन को<br />
<br />
<b>3.</b><br />
तथाकथित बुद्धिजीवी<br />
जब लगे थे इस जुगत में<br />
की कैसे साधा जाए अर्थ संबंधी <br />
अपना नितांत स्वार्थ<br />
<br />
मैं सोच रहा था लिखूँ कुछ ऐसा<br />
कि तुम हो जाओ मेरी<br />
<br />
<b>4.</b><br />
उस क्षण जब<br />
आदिवासियों को माओवादी<br />
और<br />
माओवादियों को राजनितिज्ञ करार दिया गया था<br />
<br />
मैं डूबा था<br />
तुम्हारे प्रेम की बातों में<br />
<br />
<b>5.</b><br />
उस वक़्त जब लोग प्रयत्नरत थे<br />
बन्दूक की नाल से सत्ता की ओर<br />
<br />
मैं प्रयत्नरत था प्रेम की ओर<br />
और तोड़ने में वे सभी हिंसक<br />
मानसिक हथियार<br />
<br />
</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-78285528966730361142013-05-17T16:36:00.000+05:302013-05-17T17:17:55.346+05:30बयार परिवर्तन की<span style="color: black; font-size: 104%;">बिहार की राजनीति में रैलियों का हमेशा से महत्व रहा है और अधिकांश रैलियों में सत्ता+पैसा का घिनौना नाच एवं गरीबी का मजाक भी होता रहा. इस बार आया "परिवर्तन रैली". <br />
<br />
आईये जानते हैं कि परिवर्तन किसे कहते हैं?<br />
<b>१. </b>लालू-नितीश ने साथ-साथ ही राजनीति कि शुरुवात की थी. जब जे.पी. इसी गांधी मैदान जन को संबोधित करते हुए में इंदिरा गांधी को तानाशाह कहते थे तब ये दोनों साथ-साथ तालियाँ भी बजाते थे. और अभी पिछले कई सालों से सत्ता के पीछे भागते हुए एक दूसरे के विरोध में राजनीति कर रहे हैं. यह है परिवर्तन!<br />
<br />
<b>२. </b>इंदिरा कि तानाशाही के खिलाफ जिन्होंने अपनी राजनीति शुरू की, वही तानाशाही इन्होंने सत्ता में आने के बाद अपनाई. इसी तानाशाही ने इंदिरा को डुबाया. फिर लालू को. अब समय नितीश के इन्तजार में है. यह है परिवर्तन!<br />
<br />
<b>३.</b> कर्पूरी ठाकुर के समय में भाई-भतिजाबाद के खिलाफ राजनीति करने वाले लालू आज ख़म ठोक कर अपने बेटे को राजनीति में पेश करते हैं और नितीश से भी गरजकर पूछते हैं कि "तुम्हारा बेटा क्या कर रहा है आजकल?" यह है परिवर्तन!<br />
<br />
<b>४.</b> जिस कांग्रेस के खिलाफ इन दोनों ने अपनी राजनीति शुरू की थी, काफी समय तक उसी कांग्रेस के साथ सत्ता का सुख लालू भोग चुके हैं और अब नितीश इन्तजार में हैं, कि भाजपा से अगर मोदी की वजहों से अलग होना पड़े तो कांग्रेस की नाव पर सवार हो सकें. यह है परिवर्तन!<br />
<br />
<b>५.</b> ये वही लालू हैं जो बिहार में अभी गुंडा राज बता रहे हैं और सहाबुद्दीन कि बड़ी सी तस्वीर अपने हर होर्डिंग पर लगा रखे हैं. ना तो लालू अपने समय के गुंडाराज में झाँकने को तैयार हैं और ना नितीश आँख खोल कर देखने को तैयार हैं अभी के लौ-एंड-आर्डर की परिस्थियों को. यह है परिवर्तन!<br />
<br />
ऐसे जाने कितने प्रश्न हैं जो समय इनसे पूछेगा, और ये दोनों बेशर्मी से खींसें निपोरेंगे. ये बिहार का दुर्भाग्य है जो उसकी जनता के पास इनसे बेहतर कोई विकल्प नहीं है.<br />
<br />
आखिर कहा भी गया है, एकमात्र परिवर्तन ही अपरिवर्तनीय है!!<br />
<br />
मैं तो कहता हूँ लखनऊ की तर्ज पर पटना में भी एक परिवर्तन चौक बना ही दिया जाए, ठीक हड़ताली चौक के आस-पास, सचिवालय के निकट. जहाँ से ऐसे झूठे परिवर्तन की बयार बहाने में इन्हें मदद मिल सके. एक हड़ताली चौक तो है ही पहले से. जनता वहां सही-गलत मुद्दे पर हड़ताल करेगी, और ये लोग वहां से परिवर्तन की बयार बहा सकेंगे.<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFQQ-KeNpGMUHYRmmKXYF6ZMzXsJrBq8vTlhzLrP1aviVGZp0FjaNMzjux6fxMm1IR5aeX1NHB8RbomLD_Iyr5VsTLG77UDq9FuUKqLe3H0ON-hQDkP_37tdZlLd_fxhNetBURDFStnY8/s1600/parivartan+rally.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFQQ-KeNpGMUHYRmmKXYF6ZMzXsJrBq8vTlhzLrP1aviVGZp0FjaNMzjux6fxMm1IR5aeX1NHB8RbomLD_Iyr5VsTLG77UDq9FuUKqLe3H0ON-hQDkP_37tdZlLd_fxhNetBURDFStnY8/s320/parivartan+rally.jpg" /></a><br />
यह तस्वीर <a href="https://www.facebook.com/rakesh.k.singh.52">राकेश कुमार सिंह</a> जी के फेसबुक प्रोफाईल से ली गई है. उन्होंने यह तस्वीर इस रैली के समय पटना में रहते हुए ली थी. वहां इस तस्वीर के साथ वह कहते हैं - <blockquote><b>"ई बाला होरडिंग देख के बहुत खटका मन में. जो अदमी सज़ायाफता मुजरिम है. लूट और मडर जैसन अभियोग में जेल में बंद है, उ समूचा पटना में टंगाए मिले. देखिए चच्चा तनि ई होरडिंगबा को. हाथ में लालटेन लिए, बुरखा वाली औरत! माने मुसलमान भोटर के रिझावे खातिर एतना खेल! पूछे नेता लोग से त कुछ छोटका सब त अलबला आ तिलमिला गए. बाकी, एक ठो जिम्मेदार नेताजी आफ द रिकाड कहे कि गलती हो गया. आगे से धेयान रखा जाएगा. "</b></blockquote></span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-40026273579469233242013-04-04T17:41:00.002+05:302013-04-04T18:17:49.878+05:30अतीतजीवी<span style="color:#000000;font-size:104%;">ख़्वाब देखा था, ख़्वाब ही होगा शायद. अक्सर ख़्वाबों में कई दफ़े देखा है उनको अपने पास. बेहद क़रीब. इतना जैसे कि हाथ बढ़ाओ और उन्हें छू लो.<br />
<br />
वो आये और आकर चले गए. ऐसे जैसे आये ही ना हों. मगर वो आये थे, इसका गवाह मेरे घर में बसे उनकी खुश्बू दे रहा है. ढेर सारे आशीर्वाद और ममत्व की खुश्बू. कुछ जूठे बर्तन, कुछ चाय के लिए लाया दूध, चायपत्ती कि एक डिब्बी जो अमूमन मेरे घर में नहीं रहती है, उनकी लायी कुछ मिठाइयाँ, चंद तस्वीरें जो मेरे कैमरे में बंद है, जाते समय उनके चेहरे कि मायूसी, जाते वक्त कि उनकी डबडबाई आँखें, पापा का लाल वाला चप्पल जो मेरे लिए छोड़ गए, उनके बिस्तर कि सिलवटें, घर में मौजूद मम्मी के कुछ लम्बे बाल....<br />
<br />
कुछ कहते हुए पापा के चेहरे पर ख़ुशी बेसुमार थी. मुझे नहीं पता कि क्या कह रहे थे, मैं तो सिर्फ उनके चेहरे पर चढ़ते-उतरते भाव को ही देख रहा था. उनकी आँखें कभी छोटी, कभी बड़ी हो रही थी. हल्के झुर्रियों वाले चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे. अकचका कर अचानक वो मुझसे पूछते हैं, क्या देख रहे हो? मुझे खुद नहीं पता कि मैं क्या देख रहा था. बस मुस्कुरा भर दिया. <b><i>होली का पर्व तो बीत चुका था, उल्लास का पर्व अब मनाया जा रहा था.</i></b> देखा कि उनके गले के पास वाला वो काला मस्सा अभी भी वैसा ही है.<br />
<br />
मम्मी के बालों को देखा, जो सामने से अब लम्बे हो गए थे. चेहरे पर कि मांसपेशियां जो पहले तनी रहती थी, अब ढुलक चुकी हैं. पहले तनाव में हमेशा दिखने वाले चेहरे पर अब हमेशा सौम्य सी मुस्कान दिखती रही. अभी बीते कुछ दिनों में अपने कुछ करीबी मित्रों की माँओं से मिलने का मौका मिला था, उन सबके बारे में सोचता हूँ. सब एक सी ही लगती प्रतीत होती हैं. लगता है जैसे एक उम्र के बाद सभी माँओं कि शक्लें एक सी ही हो जाती है. वही वात्सल्य भाव से सराबोर.<br />
<br />
पहली रात खाना खाने के बाद पापा/मम्मी को किचेन के सिंक कि ओर बढ़ते देख चिल्लाता हूँ, ऐसे ही रख दीजिये, मैं साफ़ कर दूंगा. वे भी सिर्फ "हूँ" कहकर सिंक में छोड़ दिए. अगली सुबह उनसे थोड़ी देर से जगा तो पाया कि सारे बर्तन साफ़ हैं. अगली रात सारे बर्तन साफ़ करके सोया.<br />
<br />
पहली सुबह पापा के फोन से नींद खुली, पता चला कि कहीं गए थे सुबह-सुबह और रास्ता भटक गए. मैं और मम्मी देर तक इस पर हँसते रहे. वापस घर आकर पापा भी हँसते रहे. लगा जैसे पूरा घर खुश है, दीवार और खिड़की पर टंगे परदे भी हंस रहे थे. लगा जैसे घर मुझे घूर रहा है, इतने कहकहे उसने अभी तक एक साथ नहीं देखे थे कभी.<br />
<br />
शाम में पापा को लेकर बैंगलोर कि कुछ गलियाँ, कुछ मौसम, कुछ फैशन दिखलाता रहा. उन्हें मेरी बाईक पर बैठने में डर लगता है, पीछे का सीट कुछ ऊंचा है किसी भी स्पोर्ट्स बाईक की तरह इसलिए. फिर भी बिना ना-नुकुर किये मेरे साथ भटकते रहे, इस भरोसे के साथ कि बेटे के साथ हूँ तो क्या डर? और मैं सोच रहा था बचपन से लेकर अभी तक मैं भी तो अपने हर डर पर उनके साथ इसी तरह काबू पाना सीखा हूँ. घर आया तो देखा घर कुछ अधिक व्यवस्थित है, मम्मी काफी कुछ ठीक कर रखी थी.<br />
<br />
सोमवार कि सुबह साढ़े आठ बजे तब वे जा चुके थे. पीछे छोड़ गए थे ढेर साडी हिदायतें. ऐसी हिदायतें जिनकी या तो जरूरत नहीं थी, या फिर वे भी जानते थे कि मैं वे सब चीजें पहले से ही करता हूँ, और जो नहीं करता वो आगे भी नहीं करूँगा. मैं उन्हें टैक्सी में बिठा कर वापस आकर घर के हॉल में लगे कुर्सी पर बैठ निर्वात में ताकता रहा. साढ़े नौ बजे अपने तक उसी अवस्था में बैठा सोचता रहा कि क्या वे वाकई यहाँ थे? फिर उठा बेमन से और वापस किसी यांत्रिक मानव कि तरह सारे कार्य करने लगा.</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-69854245584784375862013-03-27T12:25:00.004+05:302013-03-27T12:25:57.261+05:30सलाहें<span style="color: black; font-size: 104%;">"कहाँ घर लिए हो?"<br />
"जे.पी.नगर में."<br />
"कितने में?"<br />
"1BHK है, नौ हजार में"<br />
"तुमको ठग लिया"<br />
सामने से स्माइल पर मन ही मन गाली देते हुए, "साले, जब घर ढूंढ रहा था तब तेरी सलाह कहाँ गई थी? इतना ही है तो अभी भी इससे कम में उसी आस-पास में ढूंढ कर दे दो. मेरा क्या है, मेरा तो पैसा ही बचेगा"<br />
<br />
<b>फिर से -</b><br />
"कहाँ घर लिए हो?"<br />
"जे.पी.नगर में."<br />
"कितने में?"<br />
"1BHK है, नौ हजार में"<br />
"अकेले रहते हो तो इतना पैसा क्यों बर्बाद कर रहे हो? किसी PG में क्यों नहीं ढूंढ लेते हो?"<br />
फिर से मन में गाली देते हुए, "पैसा मैं कमाता हूँ, घर में मैं रहता हूँ, घर का किराया मैं देता हूँ, तो तुम्हें क्या दिक्कत है हज़रत? कोई PG चलाते हो क्या? या किस PG वाले कि एजेंट हो?"<br />
<br />
<b>फिर से -</b><br />
"कहाँ घर लिए हो?"<br />
"जे.पी.नगर में."<br />
"कितने में?"<br />
"1BHK है, नौ हजार में"<br />
"और ऑफिस कहाँ है?"<br />
"वहीं पास में, घर से आधे किलोमीटर पर"<br />
"चार किलोमीटर दूर ले लेते तो दो हजार कम लगता"<br />
फिर से मन में सोचते हुए, "और उसके साथ दो घंटे के ट्रैफिक का धुवाँ और धूल भी मुफ़्त में ही मिलता + दो घंटे बर्बाद अलग से, आपको आपकी अपनी धूल मुबारक़, हमें अपना बचा हुआ समय मुबारक़."<br />
<br />
<b>फिर से -</b><br />
"कहाँ घर लिए हो?"<br />
"जे.पी.नगर में."<br />
"कितने में?"<br />
"1BHK है, नौ हजार में"<br />
"कितना अडवांस लिया?"<br />
"साठ"<br />
"थोडा और निगोसिएट करना चाहिए था तुमको"<br />
मन में सोचते हुए, "जब घर ले रहा था तब भी तुम सबको पता था. जब इतनी ही चिंता थी तो तभी आकर खुद निगोसिएट करके कम में अडवांस तय करवा देते"<br />
<br />
दोस्तों को मेरी सलाह है, मुफ़्त की सलाह अपने ही पास रखें. मुझे पता है कि मैं क्या कर रहा हूँ.<br />
PS : पिछले दो महीनों में ऐसी कितनी ही बातें सुन-सुन कर पक चुका हूँ. अगर आप मदद कर सकते हैं तो सलाह दें, वरना अपनी सलाह अपने मुंह में ही रखें.</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com41tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-77420611960161770872013-03-15T15:21:00.003+05:302013-03-15T15:21:42.850+05:30ज़िन्दगी जैसे अलिफ़लैला के किस्से<span style="color: black; font-size: 104%;">अभी तक इस शहर से दोस्ती नहीं हुई. कभी मैं और कभी ये शहर मुझे अजीब निगाह से घूरते हैं, मानो एक दुसरे से पूछ रहे हों उसका पता. सडकों से गुजरते हुए कुछ भी अपना सा नहीं लगता. पहचान होगी, धीरे-धीरे, समय लगेगा यह तय है.<br />
<br />
चेन्नई को समझने के लिए कभी इतना समय नहीं मिला. ज़िन्दगी बेहद मसरूफ़ थी और मन में भी पहले से बैठे कई पूर्वाग्रह थे, और वे सभी पूर्वाग्रह मिल कर एक ऐसा कोलाज तैयार कर चुके थे जिसमें दोस्ती का कोई सवाल ही ना था. मन में यही था कि जब तक यहाँ रहना है तब तक समय गुजार लो. फिर कौन देखने आया है? यूँ भी अपनी-अपनी जड़ों से कट कर यायावरों सी ही ज़िन्दगी तो गुजार रहे हैं हम जैसे सभी लोग, जो नौकरी कि तलाश में घर से निकल आये थे कभी! अब तो ना अपनी जगह अपनी सी लगती है और ना ही वो जगह जहाँ उस वक़्त हम होते हैं. अपनी जड़ों से कटने कि भी सजा तय है मानो, उम्र कैद!!! ताउम्र ऐसे ही भटकने कि सजा.<br />
<br />
मगर यह भ्रम तब टूटा जब चेन्नई छूट रहा था. फेसबुक पर भैया मुझे टैग करके लिखे थे "प्रशान्त का हाल बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए वाला है". लगा कि हमारी दोस्ती तो हो चुकी थी. कब कैसे ये कुछ पता नहीं. २५ जनवरी को दफ्तर में आखिरी दिन था और एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म मेरे पास २४ को ही आ चुके थे. जैसे ही मेरे दफ्तर के ईमेल अकाउंट में एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म आया वैसे ही लगा जैसे कुछ छूट रहा हो. मन मानने को तैयार नहीं कि जिस शहर से मैं बस भाग जाना चाहता था उस शहर के छूटने पर तकलीफ भी हो सकती थी, मगर यही सच था. वो शहर जिसने मुझे कभी दुत्कारा नहीं, हमेशा लाड-प्यार से रखा. मगर बदले में मुझसे घृणा ही पाया. <br />
<br />
शुरू के छः महीने, या ये कहें कि पांच महीने चेन्नई में सिर्फ नाम मात्र को हम(शिवेंद्र और मैं) होते थे. ऑफिस के दिनों में मैन्सन से ऑफिस और ऑफिस से मैन्सन. बस. और जैसे ही साप्ताहांत आया वैसे ही चेन्नई से वेल्लोर. वहां शिवेंद्र होस्टल में ना रह कर बाहर एक कमरा ले रखा था, जो बाद में उसका कमरा कम और हम दोस्तों का ऐशगाह ज्यादा बना रहा. तो चेन्नईसे वेल्लोर जाने के बाद हम वहीं ठहरते थे.<br />
<br />
अमूमन हम जब भी चेन्नई से वेल्लोर जाते थे तब शायद ही कभी हमारी टिकट चेक हुआ हो. मगर एक बार कि घटना है, हम टिकट के लिए लाइन में लगे हुए थे, और ट्रेन बस खुलने ही वाली थी. हमने देखा कि ट्रेन खुल रही है, बस उसी वक़्त हमने तय किया कि टिकट तो वैसे भी कोई चेक करता नहीं है, सो पकड़ लो, वरना अगली गाडी तीन घंटे बाद है. जीवन में सिर्फ एक ही दफे बिना टिकट यात्रा करते पकड़ा भी गया था. इन्टर्न करने वाले और उससे मिलने वाले स्टाइपेंड के पैसे से जीने वाले के पास पैसे आमतौर पर नहीं हो होते हैं, मगर संयोग से पास में पैसे थे नहीं तो खुदा ही मालिक होता.<br />
<br />
मैं ठहरा सामिष, और शिवेंद्र निरामिष. अब इसी नॉन-वेज को लेकर भी उसी पांच महीने में दो मजेदार घटनाएं घटी. पहली घटना तब जब हमारे कुछ मित्र किसी इंटरव्यू के लिए चेन्नई आये हुए थे, और उनके जाते समय हम उन्हें छोड़ने चेन्नई सेन्ट्रल पर आये. रात के साढ़े आठ या नौ बज रहे थे. मुझे छोड़ सभी भूखे भी थे और ट्रेन खुलने में कुछ समय भी था. मैं दफ्तर के पास ही शाम में कुछ खाया था. वहीं पास के एक बिरयानी स्टाल से सभी ने अपनी-अपनी सुविधानुसार बिरयानी लिए, कोई अंडा बिरयानी तो कोई चिकेन बिरयानी और कुछ वेज बिरयानी. उन्हें देने के बाद वो स्टाल भी बंद हो गया. शिवेंद्र ने एक चम्मच ही खाया और मुझे जबरदस्ती बहुत अधिक इंसिस्ट करते हुए खाने के लिए कहा. बोला कि बहुत शानदार बिरयानी है, थोडा टेस्ट कर लो. मैंने जैसे ही टेस्ट किया मुझे चिकेन का टेस्ट आया, समझ गया कि वेज बिरयानी में चिकेन ग्रेवी डाला गया है. मैं जबरदस्ती उससे छीन कर सारा खा गया, मगर उसे कुछ बताया नहीं. इस बाबत उसकी गालियाँ मुझे तब तक सुननी पड़ी जब तक मैंने उसे सारा हाल नहीं बताया. उसे इस बात को लेकर मैं अभी तक चिढाता हूँ.<br />
<br />
दूसरी घटना उस जगह कि थी जहाँ हम रोज रात में खाना खाने जाते थे. वहीं पास में स्टेडियम था जहाँ अक्सरहां क्रिकेट मैच हुआ करता है. हम जहाँ खाते थे वो छोटा सा होटल एक पंजाबी दम्पति का था. बाद में उन्होंने ने ही बताया कि वो निःसंतान भी थे, सो ढेर सारे पैसे का कोई मोह नहीं था और इसलिए वो सिर्फ रात में ही होटल खोलते थे. वर्ना उनका होटल हम जैसे उत्तर भारत से आये लड़कों कि वजह से खूब चलता था. वहां फुल्के वाली रोटी तीन रुपये कि थी और कोई भी दाल या सब्जी पंद्रह रुपये की. लगभग एक समय का भोजन तीस रुपये में अच्छे से हो जाता था. नॉन-वेज के नाम पर वो सिर्फ अंडाकड़ी रखते थे. वो तीस रुपये में दो अंडे के साथ मिलता था. वो शायद २००७ का अप्रैल का महिना था. हमें एक-डेढ़ महीने में ही अपना इन्टरन का प्रोजेक्ट ख़त्म करके वापस घर जाना था और फिर जून में वापस आना था. शिवेंद्र बहुत तृप्त होकर मुझसे कहता है, "अंकल-आंटी के खाने का एक और फायदा है, ये लोग साफ़-सफाई पर बहुत ध्यान देते हैं. वेज और नॉन-वेज को कभी मिक्स नहीं करते हैं." उस दिन मैंने खुद के लिए अंडाकड़ी मंगाया था. हमारे ठीक सामने अंकल सब्जी और अंडाकड़ी निकाल रहे थे और आंटी रोटी बना रही थी. अंकल ने पहले अंडाकड़ी निकाला और फिर उसी चम्मच से सब्जी भी निकाल कर सामने रख दिए..बेचारा शिवेंद्र कहे तो क्या कहे? बस अंकल को बोला सब्जी दुसरे चम्मच से निकाल कर दो. मगर यह भी समझ गया कि पता नहीं कितनी बार वो ऐसे ही खा चुका होगा.<br />
<br />
खैर, ज़िन्दगी के ये किस्से भी तो अलिफ़लैला के किस्सों से अलग नहीं ही होते हैं. हर दिन हम गर गौर से देखें तो एक नया किस्सा निकल आता है. फिलवक्त के लिए अलविदा.</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-75519144093339362182013-03-13T15:55:00.002+05:302013-03-13T17:19:37.848+05:30शहर<span style="color: black; font-size: 104%;">बैंगलोर कि सड़कों पर पहले भी अनगिनत बार भटक चुका हूँ. यह शहर अपनी चकाचौंध के कारण आकर्षित तो करता रहा मगर अपना कभी नहीं लगा. लगता भी कैसे? रहने का मौका भी तो कभी नहीं मिला था. २००५ में पहली दफे इस शहर में आया था, शायद जुलाई का महिना था वह. और लगभग साढ़े सात साल बाद बसने कि नियत से इस साल जनवरी में आया.<br />
<br />
अभी भी लगता है जैसे कल कि ही बात थी. कालेज के दिनों में पहली बार अपने दो दोस्तों के साथ यहाँ आया था, इरादा कुछ तफरी करने का था. वेल्लोर से बैंगलोर. जब २००५ जुलाई कल कि बात लग सकती है तो २००७ जनवरी तो उससे भी अधिक नजदीक का मामला है. २००६ दिसंबर में जयपुर दीदी के घर गया था, ठीक ३१ दिसंबर को रेल से चेन्नई उतरा. कहने को तो उससे पहले भी चेन्नई से होकर गुजरने का मौका मिला था, मगर रेल से होकर ही निकल लेता था. हाँ, जब पहली दफे वेल्लोर जा रहा था कालेज में एडमिशन के लिए तब चेन्नई एयरपोर्ट से चेन्नई सेन्ट्रल तक का रास्ता टैक्सी में तय किया था. मगर तब घबराहट रास्तों को और उस शहर को देखने अधिक थी.<br />
<br />
जब भी चेन्नई होते हुए वेल्लोर जाता था तब सिर्फ इतना ही समझ में आया था, कि जिस स्टेशन पर गाड़ी के रुकते ही पसीने से तर-ब-तर हो जाओ, वही चेन्नई है.<br />
<br />
३१ दिसंबर को चेन्नई उतरने के बाद शिवेंद्र का इन्तजार थोड़ी देर किया. वह वेल्लोर से चेन्नई आया था. २ जनवरी को हमें अपनी पहली नौकरी ज्वाइन करनी थी चेन्नई में, मगर उससे पहले रहने का ठिकाना भी तलाश करना था. फिर तो हमारे लिए बेहद अजीबोगरीब नामों का सिलसिला ही निकल पड़ा, जिसमें सबसे पहला नाम "चुलाईमेदू" था. एक सीनियर ने हमें बताया था कि वहीं रहते हैं, और उनके ही मैन्सन में हमारा भी इंतजाम हो जाएगा, जो कि ना हो सका. और फिर उसके बाद तो एक झड़ी सी लग गई ऐसे नामों की. जैसे कोयम्बेदू, त्यागराया(जिसे अंग्रेजी में Thyagaraya लिखते हैं और हम उत्तर भारत के लोग उसे "थ्यागराया" पढ़ते हैं, टी नगर में टी का मतलब यही है), ट्रिप्लिकेन, वरासलावक्कम, नुगमबक्कम, केलाबक्कम, पैरिस, थोरईपक्कम.. खैर हमें इतना ही समझ आया कि चेन्नई में जगहों का नाम कुछ "अक्कम-बक्कम" टाईप होता है और बैंगलोर में "हल्ली-पल्ली" टाईप.<br />
<br />
एक और नई बात पता चली कि यहाँ PG को लोग मैन्सन कहते हैं. सच कहूँ तो मुझे उस वक़्त तक पता नहीं था कि मैन्सन का मतलब क्या होता है? मुझे बाद में शब्दकोष का सहारा लेना पड़ा था. खैर!! जब चुलाईमेदू में ना मिला तो फिर कुछ ने सलाह दी कि टी नगर में ढूंढो, वहां मिल जाएगा. खैर वहां भी ना मिला, मगर वहां ढूँढने के चक्कर में चेन्नई के एक ऐसे इलाके का पता चला जिसे देख कर हम दंग रह गए थे. हम कोडम्बक्कम से लोकल लेकर माम्बलम में उतरे, जो कि टी नगर का लोकल स्टेशन है, और जैसे ही स्टेशन से बाहर निकलने वाली गली में घुसे, लगा जैसे ग़दर मचा हुआ हो. एक लम्बी से गली, उसमें जितने दूकान, उन सब का नाम सर्वणा स्टोर, और लोग ऐसे धक्कम धक्का मचाये हुए जैसे आज ना लिए तो कल कुछ नहीं मिलेगा. जैसे कर्फ्यू लगने के बाद थोड़े समय कि ढील दी गई हो लोगों को खरीददारी करने के लिए. हम पहली बार चेन्नई कि गर्मी को देख रहे थे, उसमें भी ऐसी जगह आ गए थे. वह तो बाद में पता चला कि सालों भर उस जगह का यही हाल रहता था.<br />
<br />
फिर वहीं किसी ने कहा कि ट्रिप्लिकेन चले जाओ, वहां जरूर मिल जाएगा. वहां मिल भी गया. और वो भी मुश्किल से दस-पंद्रह मिनट के मशक्कत में ही. वहां जाने पर ऐसा लगा जैसे दिल्ली के मुनिरका या कठबरियासराय-जियासराय वाले इलाके में आ गए हों. माहौल वैसा ही, सिर्फ एक ही भाषाई अंतर मिला, अलबत्ता सब एक बराबर. हाँ, यहाँ कि सड़के कठबरियासराय-जियासराय से अधिक चौड़ी थी. मेरा यह यकीन और पुख्ता हो चला कि सारे शहर का मिज़ाज एक सा ही होता है, बाहर से चमचमाती दिखती महानगर अंदर से ऐसे ही इलाकों में गरीबी में गिजगिजाती है, जहाँ अधिकांश नौकरी करने वाले अथवा पढने के लिए बड़े शहर में आने वाले युवा रहते हैं. शहर के अभिजात्य वर्ग ऐसे इलाकों को नफ़रत से देखती है, मगर शहरें संभली होती हैं ऐसे ही बिगड़े हुए इलाकों से.</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-22102720518236619832013-02-05T13:19:00.000+05:302013-02-05T13:19:16.431+05:30बोंसाई<div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhPySs7e9dYiLKmX7SUhxGPLZzwDzXcrDVW02cYRQdlWiTXmQmvX2DyCoHzzsU7CpetAIsa-eB0amZQIkEiMkrfsxLc58VgEW5QHEBvf7Kpu3NGaq2BvjRBcLQafcDhI5bWDR_NHQsSoI/s1600/bonsai.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="248" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhPySs7e9dYiLKmX7SUhxGPLZzwDzXcrDVW02cYRQdlWiTXmQmvX2DyCoHzzsU7CpetAIsa-eB0amZQIkEiMkrfsxLc58VgEW5QHEBvf7Kpu3NGaq2BvjRBcLQafcDhI5bWDR_NHQsSoI/s320/bonsai.jpg" width="320" /> </a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">
<br /></div>
<span class="userContent">दमनकारी चक्र के तहत<br /> जड़ो एवं तनों-पत्तियों को काट-छांट कर<br /> बहाकर उन मासूम पौधों का खून<br /> तमाशा देखते लोग<br /> हर पौधे पे वाह-वाह का शोर<br /> <br /> दमनकारी चक्र के तहत<br /> हमारी जड़ों एवं प्रतिभाओं को काट-छांट कर<br /><span class="text_exposed_show"> बहाकर प्रतिभाओं का खून<br /> तमाशा देखते लोग<br /> हर व्यक्ति पे वाह-वाह का शोर!!!</span></span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-33065828589567330412012-11-07T14:47:00.000+05:302012-11-07T14:47:15.107+05:30श्रेणियां<span style="color:#000000;font-size:104%;">सिगरेट<br />
शराब<br />
भाँग<br />
अफीम<br />
गांजा<br />
अन्य कोई भी ड्रग<br />
...<br />
...<br />
प्यार फिर<br />
जिंदगी.<br />
-- नशे को श्रेणीबद्ध करने पर निकला परिणाम<br />
<br />
<blockquote>कुछ दिन पहले ऐसे ही आये ख्याल</blockquote></span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-60034628715866279652012-10-05T20:10:00.000+05:302013-04-15T12:37:32.766+05:30प्रतीक्षानुभूति<span style="color:#000000;font-size:104%;">वे दोनों मिले, एक फीके मुस्कान के साथ. फीकापन क्या होता है वह उस समय उसे देखते हुए समझने की कोशिश कर रहा था, ना समझ पाने कि झुंझलाहट भी उसके चेहरे पर थी. वह सोच रहा था वो क्या सोच रही होगी अभी?<br />
"पास में ही एक कैंटीन है, चलो उधर ही चल कर बैठते हैं." जाने किन ख्यालों में गुम थी वो.<br />
"चलो"<br />
कॉफी पीते हुए वह बरबस ही पूछ बैठी, "इतने दिनों बाद आये हो, कैसा लग रहा है यहाँ?" और बेहद लापरवाही के साथ वह बोल गया "तुम्हारे पास होने से यह शहर भी हसीन लगने लगा है" बोल चुकने के बाद वह सोचने लगा "शहर तो सारे एक से ही होते हैं, बेतरतीब से. यह हसीन शहर कैसा होता होगा?" और खुद अपनी कही बातों पर भी एक फीकी मुस्कान दे बैठा.<br />
<br />
वहाँ भीड़ बढती जा रही थी. उन्होंने वहाँ से उठना पसंद किया. बाहर निकल कर अब कहाँ जाया जाए? पास के एक चबूतरे पर बैठ गए, जहाँ लड़के को बैठने में कोई परेशानी नहीं थी वहीं लड़की नाक-भौं सिकोर रही थी.<br />
<br />
"क्या समय हुआ है?" अब से पहले तक जो औपचारिकता और फीकापन दोनों के चेहरे पर था वह छंट चुका था. "मुझे साढ़े पांच बजे तक घर के लिए चले जाना होगा."<br />
"दो बज कर पच्चीस मिनट" उसने कलाई घडी पर समय देखते हुए बताया.<br />
<br />
"तुम अपनी झुल्फों को हमेशा को तो हमेशा अपनी तर्जनी में फंसा कर लपेटती रहती हो? मगर आज तो यह हवा में लहरा रहे हैं?"<br />
ठिठक कर अपनी जुल्फों को तर्जनी से पकड़ कर इठलाती हुई अपने कानो में खोंसती हुई वह जैसे सफाई दे रही हो, अपने उस झूठ की जो उसने पिछले दफे कही थी, "जब बिना मांग के बाल संवारती हूँ तब बालों को अँगुलियों में लपेटती हूँ, वर्ना यूँ ही कानो में खोंस लेती हूँ."<br />
<br />
"अच्छा अब समय क्या हुआ?" एक लम्बी खमोशी के बाद उसने पूछा.<br />
"दो बज कर पैतीस मिनट"<br />
<br />
वह उसकी तरफ देख रहा था, एकटक.. अचानक वह चीख उठी, उसके साथ वह भी चिहुंक उठा. "क्या हुआ?" लड़की ने सामने इशारा किया, एक गाय कहीं से घास चरते हुए उधर ही आ रही थी. वह हडबडा कर उठा, गाय को डरा कर भगाने की कोशिश किया. फिर वापस आकर बैठ गया. मन ही मन खुद पर हँसते हुए. वह गाय खुद ही जब तक चरते हुए वहां से नहीं चली गई तब तक लड़की उसके हाथों को पकड़ कर बैठी रही और वह उसके डरे हुए चेहरे को देख कर मुस्कुराता रहा..<br />
<br />
अब कितने बजे? लड़का चिढ कर बोला, "जाने कि इतनी ही जल्दी है तो अभी चली जाओ."<br />
"अरे, टाईम तो बताओ?"<br />
"नहीं बताता! तुम जाओ. अभी." इतना सुनते उसने लड़के का हाथ पकड़ कर घड़ी में समय देख लिया.<br />
<br />
लड़की ने एक कहानी को याद किया, जिसमें नायक-नायिका इसी प्रकार मिलते हैं. घंटो साथ बैठने के बाद भी एक-दूसरे से एक फीट की दूरी बनाए हुए थे. फिर उन दोनों ने उस कहानी को याद किया. <br />
"क्या किसी दूसरे की कहानी को जीने के लिए हम अभिसप्त हैं?" कहकर वह मुस्कुराया और खिसक कर जरा पास बैठ गया और वह भी झिझक कर दूसरी दिशा में खिसक गई. यह देख वह वापस अपनी जगह पुनः आ बैठा. किसी अपराधबोध से वह मुस्कान अब तक विलुप्त हो चुकी थी. यह देख वो मुस्कुराई और उसके पास उसके बाहों को पकड़ कर बैठ गई और फिर शरारत से पूछ बैठी, "समय क्या हुआ"? इस दफ़े वह चिढा नहीं, उसके हाथ को इस तरह पकड़ कर बैठा रहा जैसे जिंदगी को मुट्ठी में बंद करना चाह रहा हो!<br />
<br />
शाम ढलने को थी, दोनों थके हुए से कदमों से टेम्पो स्टैण्ड की ओर बढ़ रहे थे. भविष्य की कोई चिंता किये बिना.<br />
<br />
<i>मरा हुआ प्रेम अक्सर पेड़ पर बैठे प्रेत की तरह होता है, आप चाहे कितना भी दुनिया से कह लें की बात बीत चुकी है, अब आप याद नहीं करते उन बातों को, मगर आप अपनी अंतरात्मा के वेताल से वही शब्द नहीं कह पाते हैं, अगर कहेंगे तो आपके सर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे, और यदि सच कहेंगे तो वह वेताल पुनः उसी पेड़ पर जा बैठेगा!</i> - गीत चतुर्वेदी जी से उत्प्रेरित यह पंक्ति.<br />
<br />
=============<br />
<br />
<i>हमारा प्यार बहुत-कुछ हमारी ज़िन्दगी की तरह है. आदमी जानता है कि वह बुरी तरह ख़त्म होगी, काफी जल्दी ख़त्म होगी, वह हमेशा रह सकेगी, इसकी उसे रत्तीभर उम्मीद नहीं है, फिर भी, सब जानते हुए भी- वह जिये चला जाता है. प्यार भी वह इसी तरह करता है, इस आकांक्षा में कि वह स्थायी रहेगा, हालांकि उसके 'स्थायित्व' में उसे ज़रा भी विश्वास नहीं है. वह आँखें मूंदकर प्यार करता है...एक अनिश्चित आशंका को मन में दबाकर- ऐसी आशंका, जिसमें सुख धीरे-धीरे छनता रहता है और वह इसके बारे में सोचता भी नहीं.<br />
- आखिरी पंक्ति "ईवान क्लिमा" की लिखी हुई</i><br />
<br />
</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-30416378121841535602012-08-15T14:55:00.001+05:302012-08-15T16:40:06.541+05:30लोनलिनेस इज द बेस्ट फ्रेंड ऑफ़ ओनली ह्युमनस<span style="color:#000000;font-size:104%;">हम हों चाहे किसी जलसे में<br />
अकेलापन का साथी <br />
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा<br />
<br />
हम हों चाहे प्रेमिका के बाहों में<br />
अकेलापन का साथी <br />
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा<br />
<br />
हम पा लिए हों चाहे मनुष्यता का शिरोबिंदु<br />
अकेलापन का साथी <br />
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा<br />
<br />
हम बैठे हों किसी प्रयाग में<br />
अकेलापन का साथी <br />
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा<br />
<br />
बुद्ध ने भी ज्ञान प्राप्त किया था<br />
अकेलेपन में ही<br />
हिटलर ने की थी आत्महत्या<br />
अकेलेपन में ही<br />
बड़ी वैज्ञानिक खोजे भी होती हैं<br />
अकेलेपन में ही<br />
<br />
जाने क्यों <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Lemming">लेमिंग</a> करता है<br />
सामूहिक आत्महत्या?<br />
<br />
मेरी समझ में तो<br />
लोनलिनेस इज द बेस्ट फ्रेंड ऑफ़ ओनली ह्युमनस<br />
<br />
</span>PDhttp://www.blogger.com/profile/17633631138207427889noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1364552172608471144.post-46357834195870837782012-08-01T00:22:00.000+05:302012-08-01T00:24:45.524+05:30अतीत का समय यात्री<span style="color:#000000;font-size:104%;">हम मिले. पुराने दिनों को याद किया. मैंने उसके बेटे कि तस्वीरें देखी, उसने मेरे वर्तमान कि पूछ-ताछ की. सात-आठ मिनटों में हमने पिछले छः-सात सालों को समेटने की नाकाम कोशिश की.<br />
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- तुम मोटी हो गई हो!<br />
- मम्मी जैसी हो गई हूँ ना? मम्मी बन भी तो गई हूँ.<br />
और एक बेतक्कलुफ़ सी हंसी...<br />
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- तुम शादी कब कर रहे हो? बूढ़े हो जाओगे तब कोई शादी भी नहीं करेगी तुमसे..<br />
मैं बस मुस्कुरा भर दिया... चार साल पहले कि हमारी बात याद आ गई, जब उसने यही सवाल पूछा था और मेरे यह कहने पर की "थोड़े पैसे तो जमा कर लूं" के जवाब में वह पलट कर बोली थी "बोल तो ऐसे रहे हो जैसे दुल्हन खरीदनी है तुम्हें"<br />
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हमें जनकपुरी मेट्रो स्टेशन में बैठने के लिए कोई जगह नहीं मिली थी, सो हम सीढियों पर ही बैठ गए थे...और वहाँ से गुजरने वाले मुसाफिरों की आँखों में चुभ भी रहे थे. कुछ हमारे बगल से बुदबुदाते हुए भी, हमें कोसते हुए, वहाँ से गुजरे....और हम बेपरवाह अपनी ही बातों में मगन.<br />
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- कैसा मेट्रो बनाई हो तुमलोग? देखो सीढी हिल रहा है!<br />
लोगों के वहाँ से गुजरने से सीढियों में होने वाले कंपन को महसूस करते हुए मैंने उसे उलाहना दिया, सनद रहे की मेरी मित्र दिल्ली मेट्रो में ही उच्च पद पर आसीन है.<br />
- अब क्या करें, ऐसा ही है..<br />
आँखें नचाते हुए उसने ऐसे जवाब दिया कि मैं हंसने लगा..<br />
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- समय कैसे गुजर जाता है, लगता है कल की ही बात है और हम सीतामढ़ी में अपनी कॉलोनी में हंगामा मचाते फिरते थे..<br />
- हाँ, और मैं तुमको एक रूपया दिया था...चुकिया वाली गुल्लक लाने के लिए.. जो तुम्हारे स्कूल वाले रास्ते में बिकता था.<br />
- और मैं ले ली थी?<br />
विस्मयकारी भाव चेहरे पर लाते हुए उसने पूछा<br />
- हाँ...<br />
- मैं भी ना..पता नहीं कैसे ले ली थी?<br />
- लेकिन अगले दिन वापस कर दी थी..शायद आंटी डांटी होगी..<br />
इस दफे दोनों ही साथ-साथ हँसे...<br />
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- पता है? मैं भी कार चलाना सीख ली..लेकिन अभी स्टेशन से घर तक पहुँचते-पहुँचते मैं पसीने से भींग जाती हूँ..<br />
- कार में एसी नहीं है क्या?<br />
- है ना...लेकिन सीसा चढा रहेगा तो हाथ निकाल कर <b>"हटो-हटो"</b> कैसे चिल्लायेंगे?<br />
<b>"हटो-हटो"</b> कहते समय उसका हाथ भी ऐसे ही हिल रहा था जैसे सामने वाले कार को हटने के लिए बोल रही हो...<br />
- साफ़-साफ़ बोल दो ना कि मेरे घर के आस-पास मत दिखना नहीं तो तुम्हारे एक्सीडेंट के जिम्मेदार हम नहीं होंगे.. इशारों में क्यों धमका रही हो?<br />
फिर से एक हंसी..दोनों कि ही साथ-साथ..<br />
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फिर वो अपने घर के लिए निकल ली.. कुछ देर बार उसका एस.एम.एस. आया, <b>"इतने दिनों बाद मिलकर लगा कि कुछ रिश्ते कभी नहीं बदलते. लगा कि तुम पूछोगे की इंस्टीट्यूट जाना है क्या? ऐसे ही रहना."</b> मुझे सहसा याद हो आया, जब पटना में किन्हीं वजहों से लगभग सात-आठ महीने उसे रोजाना एल.एन.मिश्रा इंस्टीट्यूट उसे छोड़ने जाता था.. भले ही मुझे कितना भी जरूरी काम क्यों ना रहा हो, उसकी प्राथमिकता को बाद में रखकर.. मैंने जवाब में लिखा <b>"कुछ चीजों को नहीं ही बदलना चाहिए"</b><br />
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<i>कुछ लोगों से मिलते वक्त हम अपना चोंगा उतार कर मिलते हैं.. मगर ऐसे लोग जिंदगी में कम ही होते हैं... जिंदगी कि भी अपनी ही रफ़्तार होती है.. सामने देखो तो वक्त कटता नहीं रहता है, पीछे देखो तो वक्त मानो लाईट-स्पीड को भी मात देती दिखती है.. जनकपुरी पश्चिम मेट्रो स्टेशन से हम दोनों की ही मेट्रो अलग दिशाओं में भागती चली जा रही थी...</i><br />
<blockquote>"27-July-2012"</blockquote><br />
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