Saturday, July 31, 2010

Coorg - खुद से बातें Part 2

सूरज कि रौशनी मे बारिश होने पर इन्द्रधनुष निकलता है.. चाँद कि रौशनी मे बारिश होने पर भी वो निकलता होगा ना? हाँ!! जरूर निकलता होगा.. मगर रात कि कालिमा उसे उसी समय निगल जाती होगी.. बचपन मे किसी कहानी मे पढ़ा था, "जहाँ से इन्द्रधनुष निकलता था, वहाँ, उसके जड़ में खुशियाँ ही खुशियाँ होती हैं.. उस कहानी के किसी बच्चे को वहाँ जाकर ढेर सारी खुशियाँ मिली थी.." क्यों ना मैं भी कुछ खुशियाँ वहीं से बटोर लाऊं.. खुशियों कि बहुत जरूरत होती है कभी-कभी.. इत्मीनान से खर्च करूँगा.. मगर चाँद की रौशनी में निकलता हुआ इन्द्रधनुष की जड़ में भी क्या खुशियाँ ही होगी?

इन पहाड़ियों के ये पेड़ क्यों इतने मतवाले होकर झूम रहे हैं? इनकी तुलना किसी से भी की जा सकती है.. कोई चाहे तो मतवाला हाथी कह दे.. कोई किसी चीज के लिए मचलता हुआ नटखट बच्चा.. कोई विरह से तडपता हुआ प्रेमी.. भूत-प्रेत मानने वाले उसमे उसे भी देख सकते हैं.. कोई इसे प्रकृति कि एक और छटा मान कर यूँ ही चलता कर दे.. रात के लगभग दो बज चुके हैं.. 6-7 डिग्री सेल्सियस के तापमान में हल्की बूंदा-बांदी में बाहर भींगते हुए मैं भी ये क्या बकवास सोच रहा हूँ.. अब मुझे जाकर सो जाना चाहिए..

इन लोगों को पीने में इतना आनंद क्यों आता है, ये मेरी समझ के बाहर है.. कुछ दफे मैंने भी पीकर नशे को महसूस किया है.. जब नशा उतरता है तो सर भारी रहता है, दिन एक अलग सा ही आलस भरा होता है.. कुल मिलाकर पूरा दिन बरबाद.. खास करके अगर कोई 5 Large से अधिक ले ले तो.. मैंने जब भी लिया था, खुद को कष्ट पहुँचाने की नीयत से ही.. अब इतने हसीन मौसम में कोई क्यों अपना दिन बरबाद करना चाहता है, यह तो वही बताए..

यहाँ लोग कितने निश्चिन्त हैं.. कोई हड़बड़ी नहीं.. किसी चीज कि जल्दी नहीं.. हर काम आराम से.. मैं आराम से हूँ, इसका मतलब ये भी आराम से ही होंगे क्या? ये पहाड़ी लोग जो गीजर क्या होता है ये भी नहीं जानते हैं और सुबह-सबेरे छः बजे से ही भाग-भाग कर हर कमरे में गरम पानी दे रहे हैं.. भले बाहर बरसात ही क्यों ना हो रही हो!!

ये सुबह-सुबह पहाड़ी घूंघट ओढ़े क्या कर रही है? क्या किसी का इन्तजार? या फिर बस अपने सारे आंसूओं को बहाकर चुपके से कहीं और निकल जाने की फिराक में है? इस झरने का पानी सफेद क्यों दिखता है? लोग बताते हैं कि पानी का कोई रंग नहीं होता है.. यक़ीनन वे झूठ बोलते होंगे.. ये बादल भी सफेद, यह झरना भी सफेद.. दोनों ही खूबसूरत.. वो भी जब सफेद कपडे में होती थी तो बला कि खूबसूरत दिखती थी, कुछ-कुछ इसी झरने सा ही.. क्या पता, शायद अब भी वैसी ही होगी.. कई साल बीत चुके हैं अब, इस पर उतने यकीन से 'यक़ीनन' नहीं कह सकता हूँ जैसे ऊपर कह गया हूँ..

जारी...
भाग 1

Wednesday, July 28, 2010

Coorg - एक अनोखी यात्रा

दफ्तर से समय से बहुत पहले ही निकल गया.. टी.नगर बस स्टैंड के पास के लिए, जहाँ मेरा एक मित्र किसी लौज में रहता है, किसी छोटे से दूकान से पकौड़े और जलेबी खरीदा और अपने मित्र के कमरे में ही बैठ कर उसे निपटाया.. हम्म... जलेबी अच्छी थी, एक दफे फिर जाने का इरादा है.. अपने लिए कम, दोस्तों के लिए अधिक.. उन्हें भी वह जलेबी शायद अच्छा लगे.. दो मिनट के पैदल रस्ते पर माम्बलम लोकल रेलवे स्टेशन है उसके घर से, वहाँ से लोकल ट्रेन लेकर हम चेन्नई सेन्ट्रल भी पहुँच गए.. फिर कुछ खास नहीं हुआ, बस हम ट्रेन में सवार होकर मैसूर के लिए निकल लिए जहाँ से हमें कुर्ग के लिए बस लेनी थी.. हाँ, मगर सभी उत्साहित जरूर थे..

पहले रेलवे टिकट लोग टिकट खिडकी से ही लेते थे, और पूरे ग्रुप को एक साथ एक ही कूपे में टिकट मिल भी जाया करता था.. मगर अब जमाना इंटरनेट का है और लोग वहीं से टिकट भी लेते हैं.. नतीजा यह हुआ था कि हम, कुल चालीस लोग, पूरे ट्रेन में छितराए से हुए थे.. लगभग पांच-छः कूपे में हम सभी सवार थे.. आधे लोग सिर्फ और सिर्फ पीने के ही उद्देश्य से आये थे, और पी कर उल-जलूल बातें भी कर रहे थे.. कुछ लोग ऐसे भी थे जो पीने के बाद भी संभले हुए थे, और कुछ लोग वहाँ पहुँच कर पीने की चाह पाले हुए थे.. बाकी बचे आधे लोग इन आधे लोगों कि दबे जुबान बुराई करते हुए अपनी-अपनी तरह के बातों में लगे हुए थे.. कुछ मेरे जैसे भी थे जो कुछ समय इन आधों के साथ बैठते थे, और कुछ समय उन आधों के साथ.. पीने वालों के साथ बैठने में कोई हर्ज नहीं होने के साथ-साथ ना पीने का काम्बिनेशन होने का कुछ तो फायदा होना ही चाहिए था.. *

ग्रुप में बैठ कर शोर-शराबा करना, हंसी मजाक करना मुझे भी बहुत भाता है.. मगर एक हद तक ही, उसके बाद कुछ समय अकेले बैठने की इच्छा होने लगती है.. मुझे मेरे व्यावसायिक दोस्तों ने इसका मौका भी खूब दिया.. मेरे कूपे का टिकट मुझे सौंप कर वे सभी दूसरे कूपे कि और निकल लिए.. मैं सामान कि रखवाली के साथ-साथ कभी खिडकी से बाहर झांकता तो कभी अपने हाथ में पकडे कमलेश्वर कि बातें पढता.. कमलेश्वर को जिसने पढ़ा है वही इसमें डूबने के आनंद को जान सकता है..

रात गहरा चुकी थी और बाहर अँधेरा छाया हुआ था.. बगल में साथ चलते सड़क से कभी-कभी अचानक किसी गाड़ी की बत्ती चमक कर निकल जा रही थी.. किसी छोटे से स्टेशन से तेजी से निकलते हुए रेल के पटरियों के बदलने का शोर एक अलग ही संगीत पैदा करता है, उस संगीत को आत्मसात करने के लिए I-pod का हेडफोन मैं कान से निकालता हूँ और थोड़ी देर के लिए खो जाता हूँ.. यह संगीत सिर्फ और सिर्फ स्लीपर या जनरल डब्बे वालों को ही नसीब है, कृपया ए.सी. वाले यात्री मित्र इसके बारे में ना ही पूछे तो बेहतर! "Ticket Please" की आवाज से यथार्थ में वापस आना कुछ अच्छा नहीं लगा.. खैर, टिकट तो दिखाना ही था.. मैंने अपने टिकट का प्रिंट-आउट सामने करके अपना पर्स निकालना चाहा, जिसमे मेरा ID कार्ड था, मगर टीटी को उसमे कोई रुचि नहीं थी..

* - यह मुझे भी पता है कि रेल मे शराब पीना आपराधिक श्रेणी मे आता है.. मगर पी कर रेल मे सवार होना भी उसी श्रेणी मे आता है या नहीं, यह मुझे नहीं पता.. कृपया मेरे नैतिकतावादी मित्र मुझसे सवाल-जवाब ना करें.. वैसे भी मैं उन सभी कि जिम्मेवारी नहीं ले रखा था जो पी कर चढ़े हुए थे..

जारी...


नोट - वेल्लोरा नामक सीरीज को यहीं छोड़ कर इसे लिख रहा हूँ.. अभी यह दिमाग मे तरोताजा है, शायद बाद मे ना रहे.. इसके बाद उसे भी लिखूंगा..

Thursday, July 22, 2010

वेल्लोरा?

तमिल व्याकरण में किसी भी प्रश्न पूछने के लिए अंत में 'आ' का प्रयोग किया जाता है.. जैसे 'पुरंजिदा' का मतलब 'समझ गए?' होता है.. ठीक इसी तरह अंग्रेजी के शब्दों को भी लोग तमिल व्याकरण में ढाल कर लोग उच्चारण करते हैं, जैसे - "टूआ या थ्रीआ".. मतलब "क्या दो" या "क्या तीन".. वेल्लोरा का मतलब अब आप लोग उसी से लगा लें..

दरअसल का कल मैं वेल्लोर गया था.. इसे व्यस्तता तो नहीं कह सकते हैं, हाँ मगर परेशान जरूर था.. मेरे बेहद करीबी मित्रों में से एक 'चन्दन' के पिताजी का स्वर्गवास अप्रैल के महीने में CMC वेल्लोर में हो गया था और उन्ही का मृतक प्रमाण पत्र बनवाने के लिए मैं वेल्लोर गया था.. यूँ तो एक दफे पहले भी जा चुका था, मगर उस दिन काम नहीं हो पाया था.. मगर कल काम भी हो गया और मैं कालेज भी घूम आया..

कल का दिन वैसे भी कुछ खास था, अगर मैं कालेज के सन्दर्भ में बात करूँ तो.. कल के ही दिन, यानी 21 जुलाई 2006 को, मुझे अपनी पहली नौकरी का ऑफर लेटर मिला था.. और संयोग कुछ ऐसा बना कि वर्किंग डे होते हुए भी मुझे छुट्टी लेकर जाना पड़ा..

खैर, सुबह निकला अपनी गाडी लेकर.. हलकी बूंदा-बांदी हो रही थी.. आसमान के साफ़ होने का कोई इरादा भी नहीं दिख रहा था.. मैंने सोचा कि गाडी को बस स्टैंड के पार्किंग में लगा दूँगा और बस लेकर चला जाऊंगा.. मगर एक बार जब निकल गया तो मन में आया कि चल चलूँ इसी से.. पेट्रोल से टैंक फुल करवाया और निकल लिया.. कल जाने क्यों, ट्रैफिक भी कम थी अन्य दिनों की तुलना में..

चेन्नई-बैंगलोर हाईवे का तो मैं बस दीवाना हूँ.. कम से कम चार और अधिक से अधिक आठ लें कि सड़कें.. कहीं एक गड्ढा तक नहीं.. कोई सिग्नल नहीं.. हाइवे और फ्लाईओवर से पटी पड़ी सड़कें.. बीच में या तो फूलों कि क्यारियां लगी हुई हैं या फिर पीले रंग का बड़ा सा डिवाइडर, जिससे रात के समय सामने से आने वाली गाड़ियों कि बत्तियों से आँखे ना चौंधियाए.. चेन्नई से बाहर निकलते ही सबसे पहले श्रीपेरम्बूर(यह वही जगह है जहाँ राजिव गाँधी कि हत्या हुई थी, फिलहाल नेहरू परिवार के हर मृतक सदस्य के समान ही यहाँ भी सैकड़ों एकड़ कि जमीन इनके स्मारक कि भेंट चढा हुआ है) आता है.. हाँ, उससे पहले एक टोल गेट भी है.. शायद टोल गेट से पहले ही बारिश बन्द हो चुकी थी और मेरी रफ़्तार भी 50 से बढ़कर 75 पहुँच गया था.. उससे अधिक की रफ़्तार में चलना मुझे कल नहीं भा रहा था.. आराम से 75 कि रफ़्तार में बढे चलो..

जारी...

मैं कल कुर्ग नामक पहाड़ी इलाके में छुट्टियाँ मनाने जा रहा हूँ.. मंगलवार को वापस लौटूंगा, फिर आगे कि चर्चा करूँगा.. :)

Sunday, July 18, 2010

एक कलयुगी जातक कथा

इधर-उधर कि बात किये बिना मैं सीधे प्वाइंट पर मतलब कहानी पर आता हूँ..

एक धोबी के पास एक गधा और दो कुत्ते थे.. गधा गधामजूरी करता था और दोनों कुत्ते घर कि रखवाली.. गधा कपडे धोकर धोबी घाट ले जाता था, एक कुत्ता दिन में पहरेदारी करता और दूसरा कुत्ता रात में.. ये सालों से चला आ रहा था.. वे तीनो एज अ ट्रेनी ज्वाइन किये थे और कई सालों तक काम करके अब तक सीनियर हो चुके थे.. धोबी का एक्सपेक्टेशन भी बढता ही जा रहा था और उन तीनो जानवरों का भी..
अब कहानी भले ही कलयुग कि है मगर है तो जातक कथा ही.. सो जानवर भी इंसानों की तरह बात कर सकते हों, यह मान कर ही चलना चाहिए..

एक बार ऐसी नौबत आई की एक कुत्ता एक ही तरह के काम कर कर के परेशान हो गया और धोबी के पास गया.. बोला, "मालिक, रोज रात भर मुझे जग कर काम करना पड़ता है.. मुझे रात-रात भर काम करने से परेशानी नहीं है, मगर मैं एक ही तरह का काम करके बोर हो गया हूँ.. मुझे कुछ नए रेस्पोंसबिलिटी चाहिए.."

धोबी ने बोला, "ठीक है, इसके लिए प्लान तैयार करना होगा.. इसके लिए एक मीटिंग का अजेंडा तैयार करके मीटिंग के लिए कांफेरेंस रूम, अरे वही गधे का तबेला, बुक कर लो.. Invitee में मुझे 'एज अ चेयरपर्सन' और अपने दोनों साथियों को CC में डाल देना.."

फिर ठीक समय पर मीटिंग हुआ.. जहाँ सिर्फ धोबी बोला, दोनों कुत्ते बकरी की तरह मिमिया कर रह गए.. गधा तो खैर पहले से ही गधा था, बेचारा क्या बोलता.. धोबी लॉन्ग टर्म की बात सोचा.. सोचा कि आज इतने दिन इस एक कुत्ते को प्रॉब्लम आ गई है तो कल को गधे और दूसरे कुत्ते को भी प्रॉब्लम आ जायेगी.. सो सारे प्रॉब्लम एक साथ ही निबटा लो.. और उसने नया रोल तीनो को Assign कर दिया.. गधा चूंकि तीनो में सबसे अधिक मेहनती था, सो दिन-रात कि पहरेदारी उसे दे दी गई..दोनों कुत्तों को धोबीघाट तक कपडे ढोने का काम दे दिया गया जिससे पहले से अधिक कपडे ढोया जा सके..

पहले दिन दोनों कुत्ते कम कपडे ढो सके, और गधा के पहरे पर रहते हुए भी धोबी के घर में चोरी हो गई.. धोबी सोचा कि शायद पहला दिन है इसलिए ऐसा हो गया.. आगे से सब ठीक हो जायेगा.. एक-एक दिन करके एक हफ्ते गुजर गए.. कुछ सुधार तो नहीं आया, अलबत्ता दोनों कुत्तों के कमर में दर्द रहने लगा और गधा चुपचाप अकेला बैठा-बैठा डिप्रेशन में आ गया.. धोबी ने सोचा कि कुछ Motivate किया जाए इन्हें, सो उसने एक और मीटिंग बुलाया और बोला :
"आप सभी के पास नए Opportunity आये हैं.. आपको चाहिए कि उसे हाथो-हाथ लें.. कुछ नया सीखें.. कम ही Employee को इतने कम Experience में इस तरह के Opportunity मिलते हैं.. वी आर नॉट वर्किंग फॉर मनी.. वी आर वर्किंग फॉर अ न्यू चैलेन्ज.."

और इस दफे दोनों कुत्ते मिमियाए भी नहीं.. तीनो सोच रहे थे कि कैसे जॉब स्विच मारा जाए..

सबक - अब इससे किसे क्या सबक मिलता है ये मैं पाठक गण पर ही छोड़ता हूँ.. फिलहाल के लिए अलविदा..

Thursday, July 15, 2010

"एक शहर जो हर शहर में बसता है" और बिहार

2003 में पहली बार घर से बाहर पाँव रखा और दिल्ली कि और निकल पड़ा.. मुनिरका में अपना आसरा बनाया.. हर शहर में एक ही शहर बसता है.. मैंने पाया कि हर शहर में एक ही जैसे मोहल्ले, विद्यार्थियों और बैचलर के रहने के लिए एक ही जैसे गाँव जो अब शहर में तब्दील हो गए हैं, एक ही जैसे शौपिंग मॉल, एक ही जैसे नए और पुराने शहरों का मिश्रण पाया जाता है.. फिर चाहे वो दिल्ली हो, मुंबई हो, चेन्नई हो या कोलकाता.. भाषाएँ बदलती हैं, लोग बदलते हैं, रंग बदलते हैं.. मगर शहर का मिजाज नहीं बदलता.. एक शहर के उन पुराने शहरों में जाने पर वैसी ही खुरपेंच गलियां, वही गंदगी और कमोबेश वही अपराध भी देखने को मिलते हैं.. आप चाहे किसी भी शहर को चुन लें..

दिल्ली जाने पर मुनिरका ने सहारा दिया और चेन्नई आने पर ट्रिप्लीकेन ने.. दोनों ही जगहों का मिजाज एक सा ही.. अंतर सिर्फ इतना मिला कि दिल्ली में बिहारी होने कि पहचान थी और यहाँ उत्तर भारतीय होने की.. घृणा का स्तर भी लगभग एक सा ही.. दिल्ली में एक फायदा मिल सकता था, जो मैंने कभी नहीं लिया.. वह यह की मैं आसानी से अपने बिहारी होने कि पहचान छुपा सकता था.. बोलने में वैसे भी बिहारीपन कम ही झलकता था और बात करने के तरीके में जरा सा बदलाव लाने पर कोई पहचान भी नहीं पाता कि मैं बिहार का हूँ, फिर चाहे खुद को यूपी या एमपी का बता देता.. मगर मन में ख्याल आता कि अगर मेरे जैसे लोग ही खुद को बिहार का मानने से इनकार कर देंगे तो लोग जाने कब मेरी जन्मभूमि का सम्मान करना सीख पायेंगे.. हाँ, चेन्नई में यह पहचान छुपाने का कोई उपाय नहीं था कि मैं खुद को उत्तर भारतीय मानने से इनकार कर दूँ..

उधर मुनिरका में सबसे पहले एक बरसाती टाइप के घर में कुछ दिन रहा, बाद में नीचे एक कमरा खाली होने पर उसमे चला गया.. जहाँ दो या तीन मंजिला से अधिक ऊंचा मकान बनाने का परमिशन नहीं मिल सकता है वहां लोग खुलेआम पांच-छः मंजिल बना कर जिंदगी आराम से निठल्ले होकर काट रहे हैं.. किराया इतना अधिक आ रहा है कि कुछ करने की जरूरत ही नहीं है.. उसी किराए के पैसे से शराब पी-पी कर अपने मकान मालिक को लगभग मरणासन्न स्थिति में भी देख चुका हूँ..

मकान मालिक का एक बेटा था, शायद 10-12 साल का रहा होगा उस समय.. पास के साइबर कैफे में हमने उसे कई बार पोर्न देखते पाया भी था.. लोग उसे कुछ भी गाली दे दें, उसे रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता था.. मगर कोई उसे बिहारी ना बोले.. उसके लिए बिहारी होना दुनिया की सबसे बड़ी गाली थी, और उसके लिए जान परान देने को भी तैयार रहता था.. खुद उसके जबान पर भैन**-माँ** चढा रहता था, मगर कभी गलती से हमें भी उसने बिहारी नहीं कहा..

वह स्थिति मुझे कुछ-कुछ वैसा ही महसूस कराती थी जैसे आज हमें चमार, डोम, दुसाद इत्यादि बोलने का अधिकार नहीं है अथवा हम नहीं बोलते हैं.. कहीं सामने वाले के अहम को ठेस ना लग जाए.. अथवा हम किसी आपराधिक श्रेणी में ना आ जाएँ..

आज मेरे जितने भी मित्र बिहार से हैं वो गर्व से खुद को बिहारी कहलाना पसंद करते हैं.. कारण मुझे सिर्फ इतना समझ में आता है कि वे सफल हैं.. किसी भी तरह की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.. कुछ हफ्ते पहले NDTV पर रवीश की रिपोर्ट में देखा कि कैसे पंजाब के कुछ हिस्से में चमार जाति के लोग खुद को चमार ही कहलाना पसंद करने लगे हैं.. क्योंकि अब वे सक्षम हैं, अमीर हैं और हीन भावना से ग्रस्त भी नहीं हैं..

चलते-चलते : यहाँ के मेरे कई मित्र अक्सर मुझसे पूछते हैं कि बिहार से इतनी अधिक मात्रा में IAS और IIT के लिए या फिर किसी भी अन्य सरकारी नौकरी में कैसे निकलते हैं, जबकि बिहार में साक्षरता दर भी बेहद कम है? अपनी समझ से उन्हें मैं इतना ही बता पाता हूँ कि बिहार में चूंकि कोई बड़ी इंडस्ट्री नहीं है, और इसी वजह से बच्चों को लोग बचपन से ही घुट्टी पिलाते हैं कि बेटा तुम्हे जब सरकारी नौकरी ही करनी है तो IAS ही क्यों ना बनो.. लोग अपने बच्चों को Engineer या Doctor बनाने से कम पर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहते हैं.. चाहे इस दौड़ में उनके अपने बच्चों के सपने टूट कर चकनाचूर ही क्यों ना हो जाए.. एक लाल बत्ती तो हर घर के आगे होना ही चाहिए..

Sunday, July 04, 2010

धोनी की घोड़ी, पहली बार सिर्फ इस ब्लॉग पर

आज मैं लेकर आया हूँ उस घोड़ी को जिस पर धोनी सवार होकर मंडप तक गए!! एक्सक्लूसिव, सिर्फ और सिर्फ, इसी ब्लॉग पर!! हमारे संवाददाता लगातार बने हुए हैं देहरादून से.. तो चलिए चलते हैं वहां..

संवाददाता : आप ही वह घोड़ी हैं जो धोनी को लेकर मंडप तक गई थी, तो बताईये कैसा महसूस हो रहा है?

घोड़ी : हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् !!!!

संवाददाता : तो आप देख रहे हैं, यह घोड़ी कितनी उत्साहित है!! उत्साह इतना कि समेटे ना समेटा जा सके.. मुंह से बोल तक नहीं फूट पा रहे हैं..
घोड़ी से, "सुना है कि रैना आपके आगे-आगे नाच रहे थे?"

घोड़ी : हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् !!!!

संवाददाता : तो आप देख ही रहे हैं कि यह घोड़ी, कितनी खुश है धोनी को मंडप तक पहुंचा कर.. हिन् हिन् बोलते वक्त कैसे इसके सरे दाँत दिख रहे थे, मानो खुशी से पागल हुई जा रही हो यह घोड़ी.. कैसी सजी-धजी घोड़ी है, यह आप देख ही रहे हैं..
घोड़ी से, "क्या आप बता सकती हैं कि धोनी ने उस वक्त किस तरह के कपडे पहन रखे थे?"

घोड़ी : हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् !!!!

संवाददाता : देख कर तो ऐसा लग रहा है जैसे यह घोड़ी भी नाचना चाह रही हो..
घोड़ी से, "क्या आप बता सकती हैं कि इस शादी का धोनी पर दवाब था या नहीं? उनका वजन अधिक था या कम?"

घोड़ी : हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् हिन् !!!!

संवाददाता : तो आप देख रहे हैं कि इस घोड़ी को धोनी का वजन अधिक था या कम, इससे कोई मतलब नहीं है.. वह तो खुश है कि धोनी को अपनी पीठ पर बिठा कर मंडप तक ले गई.. सीधे घोड़ी के पास से मैं संवाददाता अंट-संट "मेरी छोटी सी दुनिया के लिए..

तो आपने देखा, कैसे हमारे संवाददाता ने यह एक्सक्लूसिव खबर सीधे घोड़ी के पास से लाकर दी है.. बाकी खबरनबीस तो घोड़ी के मालिक या लौंड्री के मालिक के पास ही भटक कर रह गए, मगर यह उससे बेखबर रह गए जिसे धोनी को छूने का, अपने ऊपर सवारी कराने का मौका मिला था..

तबे एकला चलो रे।

यह लड़ाई किससे है? कैसा है यह अंतर्द्वंद? लग रहा है जैसे हारी हुई बाजी को सजा रहा हूँ फिर से हारने के लिए । अंतर्द्वंद में कोई भी मैच टाई नहीं होता है, खुद ही हारता भी हूँ और खुद ही जीतता भी! अक्सर हम जीती हुई बाजी को याद करने के बजाये हारी हुई बाजी को याद करते हैं और उसकी कसक मन के किन्ही परतों के नीचे दबी हुई सी होती है । वह हमारे मन को कुरेदती है । कई दफे उससे कुछ रिसने का आभास भी होता है जो अंदर तक तकलीफ पहुंचाती है । खुद को ही तर्कों से हरा कर या जीता कर कुछ भी हाशिल होता नहीं दिखता है । किसी लक्ष्य के पीछे भागना(अगर वह हो तो) एक तरह कि मृग-मरीचिका जैसी लगने लगती है.. जिससे कुछ भी हाथ नहीं आता ।
यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।

एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!

यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!

यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!

बाद में जोड़ा गया :
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जब वे तुम्हारी पुकार ना सुनें,
एकला चलो रे!

जब कोई तुमसे कुछ ना कहे, अरे अभागे,
जब सब तुमसे मुंह फेर लें सब भयभीत हों --
तब अपने अन्दर झांको
अरे अपने मुंह से अपनी बात एकला बोलो रे.

जब सब दूर चले जाएँ, अरे अभागे,
जब कंटीले पथ पर कोई तुम्हारा साथ ना दे --
तब अपने पथ पर
काँटों को अकेले ही पद-दलित करो रे.

जब कोई प्रकाश न करे, अरे अभागे,
जब रात काली और तूफानी हो --
तब अपने ह्रदय की पीड़ा के आवेश में
अकेले जलो रे.
एकला चलो! एकला चलो! एकला चलो रे!


Thursday, July 01, 2010

"परती : परिकथा" से लिया गया - अंतिम भाग

गतांक से आगे :

गुनमन्ती और जोगमन्ती दोनों बहिनियाँ अपने ही गुन की आग में जल मरीं ।...सास महारानी झमाकर काली हो गयी !

उजाला हुआ । कोसी मैया दौड़कर दुलारीदाय से जा लिपटी । फिर तो...आँ-आँ-रे-ए...
दूनू रे बहिनियाँ रामा गला जोड़ी बिखलय,
नयना से ढरे झर-झर लोर !

हिचकियां लेती हुई बोली दुलारीदाय--"दीदी, जरा उलट कर के देख । धरती की कैसी दुर्दशा कर दी है तुम लोगों ने मिलकर । गाँव-के-गाँव उजड़ गये, हजारों-हजार लोग मर गये । अर्ध-मृतकों की आह-कराह से आसमान काँप रहा है ।"

"मरें, मरें ! सब मरें ! मेरे पिता के टुकड़े पर पलनेवाले ऐसे आत्मीय सम्बन्धियों का न जीना ही अच्छा । जो अपने वंश की एक अभागिन कन्या की पुकार पर अपने घर का खिड़की भी न खोल सकें । धरती का भार हल्का हुआ---वे मरें !"

"धरती कहाँ है दीदी ! अब तो धरती की लाश है । सफ़ेद बालूचरों के कफ़न से ढकी धरती की लाश !"...इस इलाके में सबसे छोटी बहन को बड़े प्यार से दाय कहकर संबोधित करते हैं । दुलारीदाय बहनों में सबसे छोटी--सो भी सौतेली । बड़ी प्यारी बहन ! शील-सुभाव इतना अच्छा कि...।

"दीदी अब भी समय है । उलटकर देखो । क्रोध त्यागो । दुनिया क्या कहेगी?"

कोसी मैया ने उलटकर देखा--सिकियो न डोले ! कहीं हरियाली की एक रेखा भी न बची थी । सिहर पड़ी मैया भी ! बोली--"नहीं, धरती नहीं मरेगी । जहाँ-जहाँ बैठकर मैं रोई हूँ, आंसू की उन धाराओं के आस-पास धरती का प्राण सिमटा रहेगा ।...हर वर्ष पौष-पूर्णिमा के दिन उन धाराओं में स्नान करने से पाप धुलेगा । युग-युग के बाद, एक-एक प्राणी पाप से मुक्त होगा । तब, फिर सारी धरती पर हरियाली छा जायेगी ।...धाराओं के आस-पास सिमटे हुए प्राण नए-नए रंगों में उभरेंगे ।"

दुलारीदाय ने चरण-धुली ली और मुस्कुराकर खड़ी हो गई । कोसी मैया खिलखिलाकर हँस पड़ी---"पगली ! दुलारी ! ...हँसती क्यों है ?" मैया हंसी---दुलारी के आँचल में नौ मन हीरे झरे । हाँ, कोसी मैया हँसे तो नौ मन हीरे झरे और रोये तो नौ मन मोती ! दुलारीदाय को वरदान मिला--"युग-युग तक तुम्हारा नाम रहे । तुम्हारे इलाके का एक प्राणी न भूख से मरेगा, न दुःख से रोयेगा । न खेती जरेगी और न असमय अन्न झरेंगे । गुनी-मानी लोग तुम्हारे आँगन में जन्मेंगे । कछुवा-पीठा जमीन पर तंत्र-साधना करके तुम्हारा मान बढाएगी तुम्हारी संतान ।"

प्रथम भाग
द्वितीय भाग
तृतीय भाग