Saturday, January 31, 2009

हौले से चढ़ता सा एक नशा

यह नशा कुछ वैसा ही है जो धीरे से चढ़ता है मगर जब चढ़ जाता है तो सर चढ़ कर बोलता है.. अमूमन होता यह था कि मैं जानबूझकर अपना मोबाईल घर में छोड़ आता था मगर कल मैं गलती से अपना मोबाईल घर में ही भूल गया.. घर से कोई फोन तो नहीं आया मगर दोस्तों के मिस्ड कॉल पड़े हुये थे..

सबसे ज्यादा गार्गी के.. शायद छः.. मैं सोच में आ गया कि आमतौर पर यह लड़की बस एक छोटा सा कॉल करके फोन करने को कहती है या फिर मिस्ड कॉल देकर छोड़ देती है और मेरे फोन का इंतजार करती है.. आज क्या बात हो गई जो इसने इतने सारे मिस्ड कॉल दे डाले? थोड़ी चिंता भी हुई कि ऐसी क्या बात हो गई, मगर रात बहुत हो जाने के कारण पलट कर फोन नहीं किया..

सोने से पहले शिवेन्द्र आकर पूछ गया की गार्गी की शादी तय हो गई है, तुम्हे पता है? मुझे यह सुनकर यकायक पहली जनवरी का दिन याद आ गया जब गार्गी के मुंह से गलती से निकल गया था कि शायद अप्रैल तक वह शादी करेगी, सो अपनी छुट्टी बचा कर रखना.. मैंने शिव को कहा कि यह तो पता था कि शादी होने जा रही है मगर तारीख नहीं पता था.. लगे हाथों शिव ने तारीख भी बता दिया..


गार्गी और नीरज, हमारे एम.सी.ए. फेयरवेल वाले दिन

बिलकुल अनमने भाव से मैंने सुना और सोने की कोशिश करने लगा.. मगर मेरे लिये यह खबर किसी अच्छे विदेशी शराब के नशे से कम नहीं है जो बहुत धीरे-धीरे चढ़ता है मगर जब चढ़ता है तो सर चढ़ कर बोलता है.. एक एक करके कालेज के वे सारे दिन याद आ गये जब मैं एम.सी.ए. करने वेल्लोर इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलोजी पहूंचा था और पहली बार गार्गी से कालेज में मुलाकात हुई थी.. कुछ दिनों बाद नीरज(जी हां यही महाशय हैं जिनसे शादी होने जा रही है) भी आकर एडमिशन ले लिया था.. गार्गी और नीरज दोनों ग्रैजुएशन के समय से ही मित्र थे.. जिस दिन नीरज ने इसे प्रोपोज किया था उस दिन कैसे अपनी खुशी मुझे जता रही थी, जैसे हवाओं में अपने ठिकाने को तलाश रही थी.. गार्गी के चलते नीरज से भी अच्छी मित्रता हो गयी.. जाने कितनी ही बार इन दोनों के झगड़े को मैंने और विकास ने सुलझाने की कोशिश कि जो हमेशा सफल ही होती थी..

कक्षा में मैं और गार्गी लगभग हमेशा साथ ही बैठते थे, इसे नीरज के साथ बैठने से ज्यादा पसंद मेरे साथ बैठना था.. क्योंकि नीरज तो पढ़ने-लिखने में मस्त रहता था और मैं और गार्गी पूरी कक्षा में बदमाशी करते थे.. :) कभी किसी को चॉक से मारना, तो कभी चीट लिख कर एक दूसरे को पास करना.. आखिर परीक्षा के समय नोट्स के लिये नीरज होता ही था.. मोतियों जैसे सुंदर अक्षर और उसमें भी लिखने की रफ्तार ऐसी कि शिक्षक के मुंह से निकला एक-एक शब्द उसके कॉपी में होता था.. बस उसका फोटोकॉपी करालो और हो गई परीक्षा.. ;)


नीरज, मैं और गार्गी(बायें से), पॉंडीचेरी में

घर आने के समय ट्रेन में सफ़र करते हुये रास्ते भर चुहलबाजी और हंसी-मजाक का दौर.. कौक्रोच को देखकर गार्गी का डर से हालत खराब होना.. कई बार छोटी-छोटी बातों पर भी इतना झगड़ा हो जाना कि कई दिनों तक बात भी ना होना, मगर फिर जब बात शुरू हो तो ऐसे कि कभी कुछ हुआ ही ना हो.. पांचवे सेमेस्टर के मध्य में मेरे कुछ निजी परेशानी की वजह से गार्गी से कुछ दूरी सी आ गई थी.. मैं उन दिनों बहुत चिड़चिड़ा हो गया था.. और यह दूरी छठे सेमेस्टर में भी रही.. मगर कालेज खत्म होने के बाद और गार्गी के चेन्नई आने के बाद सब कुछ पूर्ववत हो गया..

क्या-क्या गिनाऊं? बहुत यादें हैं याद करने को.. ढ़ेर सारी खट्टी-मीठी यादें जिसे याद करके खुशियां ही मिलती है.. कभी नीरज पुराण भी सुनाऊंगा आप लोगों को.. आज गार्गी पुराण से ही काम चला लिजिये.. फिलहाल तो मैं सोच रहा हूं की इनके शादी में छुट्टियां लेकर अपने घर जाना और इनकी शादी में शामिल होना, यह दोनों मैनेज कैसे करूंगा? इनकी शादी सप्ताह के मध्य में जो है.. खैर उस समय का उस समय देखा जायेगा.. :) वैसे आज दफ़्तर में काम कम होने के चलते गार्गी से खूब बातें की मगर फिर भी बातें कम हो गई.. अब कल फिर फोन करता हूं..

Friday, January 30, 2009

सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना

मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी, लोभ की मुट्ठी
सबसे खतरनाक नहीं होती

बैठे बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होती

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

-पाश

Tuesday, January 27, 2009

बंबई से आया मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो

लगभग 6 महीने पहले की बात है.. एक दिन सुबह 8.30 में सो कर उठा और नीचे चला गया अखबार लाने.. वापस घर आया तो देखता हूं कि वाणी आयी हुई है.. ठीक है, कोई आश्चर्य नहीं, वो तो आती ही रहती है.. नींद भी ठीक से खुली नहीं थी, भदेस भाषा में कहें तो दिमाग भकुवाया हुआ था.. तभी संजीव भी अंदर कमरे से निकला.. मन में ख्याल आया कि अच्छा संजीव आया है.. तभी दिमाग में किसी ने जोर से चिल्लाया, "अबे संजीव आया है.." कुछ अता-पता नहीं और मुंबई से यहां कैसे टपक गया? और फिर जब तक 2-3 लात नहीं मार लिया तब तक चैन नहीं आया.. उस दिन यह महाशय बस वाणी को बताये थे कि मैं चेन्नई आ रहा हूं.. किसी और को इस खबर की भनक तक नहीं लगी थी..

तो ऐसे हैं हमारे लाल साहब(इनका पूरा नाम संजीव नारायण लाल है, जो कब बदल कर लाल साहब में तब्दील हो गया पता भी नहीं चला..) हर समय अति-उत्साहित, और कहते हैं ना कि अति हर चीज कि बुरी होती है.. मेरा यह भी मानना है कि अति का उत्तर हमेशा अति ही होता है.. जैसे तूफान से पहले की शांति या तूफान के बाद की शांति.. अतिउत्साह में किसी भी प्रकार के एडवेंचर करने को तैयार रहते हैं, और इसमें इनके साथ अधिकतर कुछ ना कुछ गड़बड़ होती ही रहती है.. मगर इसका ना तो इन्हें कोई गिला होता है और ना कोई असर, यह तो बस धूनी रमाये किसी साधू कि तरह हैं जो हमेशा मस्त रहते हैं.. योजनायें बनाते हैं ऐसी-ऐसी, कि बड़े-बड़े महारथी ढ़ेर हो जायें.. मगर इन्हें उन महारथी का भी ख्याल आ जाता है तभी तो उन योजनाओं को कभी पूरा नहीं करते हैं..

खैर, हमारे यह पुरातन झारखंढी और नवीनतम मुंबईया मित्र 23 जनवरी को हमारे घर पधारे.. मुंबई से बैंगलोर और फिर वहां से वेल्लोर होते हुये इनके चरण चेन्नई की पवित्र धरती को भ्रष्ट की.. रात लगभग 10-11 बजे के आसपास विकास निकला घर से बोलकर कि संजीव यहां सिग्नल के पास आ गया है वहां से उसे लेकर आते हैं.. उस सिग्नल से हमारा घर लगभग 200-300 मीटर है.. लगभग 5-10 मिनट के बाद दरवाजे से संजीव को और साथ ही अपने फोन पर विकास का नंबर आते देखा.. विकास सिग्नल पर संजीव को खोज रहा था और लाल साहब हमारे घर पर थे.. यहां भी एक्साईटमेंट का मोह खत्म नहीं हुआ इनका.. वाणी भी दफ़्तर के थका देने वाले समय सारणी को पूरी तरह निभा कर संजीव से मिलने आयी थी..

उतनी रात में अचानक से तय हुआ कि कुछ खाने के लिये लाया जाये.. मैं, संजीव और वाणी निकल गये कुछ खाने का सामान ढ़ूंढ़ने.. उससे एक दिन पहले ही मेरी नई गाड़ी आयी थी.. मैंने अभी तक गाड़ी के कागजों का फोटोकॉपी भी नहीं कराया था.. समय ही नहीं मिला था.. उन कागजों को वाणी को देते हुये कहा कि अपने स्कूटी में इसे रख लो, वापस आकर ले लूंगा.. कुछ मिटाईयां खरीद कर वापस आये.. वाणी बहुत थकी हुई थी सो उससे उस समय पेपर नहीं मांगा.. सोचा कि जायेगा कहां, इसके स्कूटी में ही तो है..

अब अगले दिन दोपहर में जब पेपर लेने गया तो वो स्कूटी में नहीं था.. मन में पहला ख्याल यही आया कि संजीव और वाणी अकेले ही कुछ भी गड़बड़ करने के लिये काफी हैं तो जब दोनों साथ में हों तो क्या कुछ नहीं कर सकते हैं? और ऊपर से साथ में मैं भी!! वो मशहूर कहावत तो आपने सुनी ही होगी, "तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा.." वाणी से पूछा तो बोली कि उसे बस इतना याद है कि मैंने उसे कुछ दिया था रखने को, मगर उसे यह भी याद है कि वो रखी नहीं थी.. मुझे इतना ही समझ में आया कि यह खो चुका है.. फिर भी अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिये अपार्टमेंट के सुरक्षा कर्मी से पूछा, मगर किसी ने उसे वह पेपर नहीं दिया था..

अब मैं, विकास और वाणी तीनों मिलकर क्या किया जाये और क्या किया जा सकता है इस पर विचार करने लगे.. फिर शोरूम वाले को फोन किया और उसने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, सब पेपर दुबारा मिल जायेगा मंगलवार को.. मैं सोच रहा था कि मिलने को तो मिल जायेगा मगर कितना एम्ब्रेसिंग सिचुवेशन होगा? सोचेगा की दो दिन भी संभाल कर नहीं रख पाया, और खो दिया.. खैर चिंता तो खत्म हो गई थी..

अब आते हैं परसो(यानी रविवार) शाम में.. विकास को गार्ड ने बुलाया यह कह कर की अपार्टमेंट के सेक्रेटरी आपको बुला रहे हैं.. विकास गया.. उसके जाने पर सेक्रेटरी ने उसे डांट पिलाई कि तुम युवा लोग जिम्मेदारियों को समझते नहीं हो.. इतना महत्वपूर्ण कागज यूं ही कहीं छोड़ देते हो.. इत्यादी, इत्यादी.. और उसे पेपर दे दिया.. उसने बताया की उसे यह मिला और उसने उसे गार्ड को ना देकर खुद रख लिया..

विकास बेचारा घर आकर हमें बोल रहा है कि गलती करो तुम दोनों और डांट हमें सुनना पड़ता है.. और हमने विकास को अच्छे दोस्त का तमगा दे डाला जिससे ऐसे ही भविष्य में भी हमारी गलतियों का ठीकरा उसी के सर फूटता रहे.. :) इस घटना से सबक सीख कर मैंने सबसे पहले उन कागजों का फोटो-कॉपी कराया और असली कागज को संभाल कर रख लिया..

कहते हैं ना, अंत भला तो सब भला.. :)

Monday, January 26, 2009

पीडी सुसुप्तावस्था में

मैं आजकल सुसुप्तावस्था में हूँ.. पढता लगभग सभी को हूँ, मगर टिपियाता शायद ही किसी को.. लिखने को भी बहुत कुछ मशाला है, मगर लिखने कि इच्छा ही नहीं.. मन हर समय अलसाया सा लगता है.. देखिये कब इससे बाहर आता हूँ?


अंत में -
"अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम..
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम.."
अब अगर ऐसे में अजगर ठंढ के मौसम में सुसुप्तावस्था में चला जाये तो कुछ-कुछ ऐसा ही होगा कि एक तो करेला ऊपर से नीम चढा.. ;)

Friday, January 23, 2009

एण्ड ब्लू डेविल एट माई एक्साईटमेंट

कई साल इसने इंतजार करवाया.. यूं तो मैं बहुत पैसे वाले परिवार से नहीं आता हूं मगर मुझे खाते-पीते परिवार का तो कह ही सकते हैं.. जब बड़ा हुआ और ड्राईविंग लाईसेंस बना तभी से मुझे चलाने को स्कूटर मिल गया.. एक तरह से संपूर्ण अधिकार के साथ.. पापा पटना में बहुत कम होते थे और होते भी थे तो स्कूटर कम ही चलाते थे, उनकी सवारी चार-पहिया ही होती थी.. और जहां तक भैया की बात है तो वो अपने पढ़ाई के चलते लगभग हमेशा अपने कॉलेज में ही रहते थे और जब आते भी थे तो स्कूटर चलाने में आत्मविश्वास की कमी के चलते लगभग नहीं के बराबर ही चलाते थे.. उस स्कूटर का सारा कर्ता-धर्ता एक तरह से मैं ही था.. मुझे यह भी पता था कि मुझे एक अदद स्कूटर भी मिला है नहीं तो अधिकतर मेरी उम्र के लड़कों को यह भी नसीब नहीं होता है.. फिर भी नये स्टाईलिस और शक्तिशाली इंजन वाले बाईक को देखकर दिल ललचाया जरूर करता था.. सोचता था कि कब मेरे पास मेरी अपनी और मेरे पसंद की बाईक होगी.. भैया जब एवेंजर खरीदे थे तब उस पर भी पूर्ण स्वामित्व कि भावना से ही बैठता था और बैठूंगा भी, मगर शत्-प्रतिशत स्वामित्व की भावना नहीं आई(भैया अगर आप पढ़ रहे हैं तो बुरा मत मानियेगा.. आप जानते ही हैं कि आपका छोटे भाई में यह बुराई है कि वह सोचता कुछ ज्यादा ही है..)

कल मैंने यह बाईक शोरूम से उठा कर ले आया.. मगर मुझे समझ में नहीं आ रहा था की जब मैं शोरूम जा रहा था तब भी कोई उत्साह नहीं लग रहा था और जब लेकर आ गया तब भी नहीं.. ऐसा लगता है सारे उत्साह को मैंने इसके बूकिंग के समय ही खर्च कर डाले हैं.. नौकरी जबसे करनी शुरू की तब से ना जाने कितनी ही बार कितने ही छोटी-बड़ी जरूरतों को अनदेखा करके पैसे बचाये काफी पैसे भैया ने भी दिये और इसे खरीदा.. मगर फिर भी.....

मन में कुछ खटक सा रहा है.. कहीं कुछ कमी सी लग रही है.. सोच रहा हूं किसके लिये इसे लिया हूं? किसके सामने प्रदर्शन के लिये इतने तड़क-भड़क वाली गाड़ी खरीदा हूं? मानसिक मंथन चल रहा है मगर कोई उत्तर नहीं मिल रहा है और मुझे लगता भी नहीं है कि उत्तर मिलेगा.. कहीं कुछ कमी जरूर है.. क्या? पता नहीं...

मैं कभी लोन पर नहीं लेना चाहता था, क्योंकि आजकल के बाजार का पता है.. पता नहीं कब सड़कों पर आ जाऊं.. बेरोजगारी के धक्के भी खाने को मिले.. सो उधारी से जितना बच सको उतना बच लो.. कई मित्र सलाह देते थे कि लोन पर उठा लो, मगर इसके लिये ना तो मैं तैयार था और ना ही पापा-मम्मी.. खैर इसके लिये जितना इंतजार करना पड़ा सो ठीक है लेकीन आज किसी बैंक पर अपनी उधारी तो नहीं चढ़ी है..


चलते-चलते -
मैंने पल्सर 200 खरीदा है.. जिसका रंग नीला है.. पल्सर 220, एवेंजर 200 और करिज्मा यह तीनों ही बाईक मशीनी ताकत के मामले में इसी के आस-पड़ोस के हैं.. लेकीन फिर भी पल्सर 200 लेने के पीछे कुछ कारण थे..
1. एवेंजर मुझे बहुत पसंद है लेकीन घर में पहले से ही यह है.. अगर घर में यह नहीं होता तो शायद मैं वही लेता..
2. पल्सर 220 और पल्सर 200 में बस 20CC के इंजन का अंतर है मगर दाम में लगभग 16,000 का अंतर है.. सो बस 20CC के लिये मैं 16,000 ज्यादा खर्च करना अनुचित समझा..
3. करिज्मा ना लेने का सबसे बड़ा कारण इसका हेडलाईट था जो इसके बॉडी से ही ही जुड़ा हुआ है.. अगर इसका हेड लाईट इसके हैंडल से जुड़ा होता तो शायद यह तगड़ा दावेदार होता..

बाद में पता चला कि पल्सर 220 में भी हेडलाईट के साथ यही समस्या है..

यामहा के नये मॉडल FZ-15/16 के साथ ना जाने के पीछे कारण इसका सही रीव्यू उपलब्ध ना होना था.. नेट पर जितने भी रीव्यू मैंने पढ़े उसे पढ़कर मेरे लिये भ्रामक स्थिति बन रही थी.. कुछ शंका भी मन में उत्पन्न हो रहा था.. जैसे कम CC के इंजन से जितने मात्रा में पॉवर उतपन्न हो रहा है उससे आगे चलकर इसके इंजन पर तो कोई असर नहीं पड़ेगा? कुल मिला कर मेरे लिये बजट कोई समस्या नहीं थी, अगर होता भी तो मैं कुछ दिन और इंतजार कर लेता मगर लेता वही जो मुझे पसंद होता.. जैसे इतने दिन इंतजार किया वैसे ही..

एक बार बहुत पहले, सन् 2001 में, मुझसे किसी ने कहा था कि तुम्हारे भीतर पेशेन्स बिलकुल नहीं है.. क्या इससे भी ज्यादा पेशेन्स की उम्मीद उसे थी? अगर यह ना होती तो कभी का ही लोन पर ले चुका होता..

Tuesday, January 20, 2009

हर तरफ बस तू ही तू

उस मोड़ पर खड़ा था मैं फिर.. ये किसी जीवन के मोड़ कि तरह नहीं थी जो अनायास ही कहीं भी और कभी भी पूरी जिंदगी को ही घुमाव दे जाती है.. ये तो निर्जीव सड़क थी, जहां आकर मुझे अपनी आत्मा के निर्जीव होने का अनुभव सा होने लगता है.. जैसे वो था या है या ऐसा ही कुछ भी.. मगर यह सड़क हमेशा मुझे जीवंत यादों में ढ़केलता रहा है..

तुम्हें आखिरी बार आते हुये भी और जाते हुये भी यहीं से देखा था.. सफेद सूट धूप में चमक रहा था.. इतना कि दूर से नजर आ जाए.. बाल खुले थे या बंधे हुये, लंबे थे या छोटे, जब तुम चलती थी तब आवाज आती थी या नहीं, तुम हंसते या रोते समय कैसी दिखती थी, इन सबका मेरे लिये कोई अर्थ नहीं था.. तब बस तुम्हारे होना ही मेरे लिये एक अर्थ रखता था और अब तुम्हारा नहीं होना..

आखिरी बार जब हम साथ थे और खुश थे, ये वही जगह थी.. उस दिन भी बरसात हो रही थी और आज भी.. अंतर बस यह रह गया है कि उस दिन कि बरसात रूमानियत भर जाती थी और आज कि बरसात विरह.. यूं ही खड़ा भींग रहा था लेकिन मन जैसे रीता ही रह गया..

जब भी इस शहर में आता हूं तो एक बेचैनी साथ लिये जाता हूं.. मन में एक हूक सी उठती रहती है.. कभी-कभी सोचता हूं कि अपनी इस भावना कि हत्या भी कर डालूं.. ठीक उसी गीत कि तरह जो मुझे हमेशा तुम्हारी याद दिलाती थी और उसे मैं नहीं सुनता था.. एक दफे दिन-रात कई दिनों तक मैं उसी गीत को सुनता रहा, इतनी बार कि उसे लेकर मन में जो भी भाव अपनी छाप छोड़ जाते थे, वे सभी खत्म हो गये.. उसी तर्ज पर उस शहर में, उन जगहों के इतने चक्कर लगा डालो कि उनको लेकर भावनाशून्य हो जाऊं.. कोई तड़प दिल में बाकी ना रहे.. कोई कसक दिल में बाकी ना रहे.. पथराती आंखों से मैं वहां से गुजरूं, बिना कोई भाव मन में लाये..

कई बार कोशिश भी कि की तुम्हारी यादों को मिटा डालूं.. कई बार जलाने कि भी कोशिश हुई और जला भी डाला.. मगर इस शहर के रूमानियत से वह अहसास फिनिक्स कि तरह राख के ढ़ेर से फिर से जी उठता है.. जैसे लगता है कि मेरी रूह में समा चुकी हो तुम..

मेरी प्रीत भी तू,
मेरी गीत भी तू,
मेरी रीत भी तू,
संगीत भी तू..

मेरी नींद भी तू,
मेरा ख्वाब भी तू,
मेरी धूप भी तू,
माहताब भी तू..

मेरी खामोशी भी तू,
मेरी गूंज भी तू,
मेरी बूंद भी तू,
समुंद भी तू..

मेरी सांस भी तू,
मेरी प्यास भी तू,
मेरी आस भी तू,
रास भी तू..

मेरा नक़्स भी तू,
मेरी हूक भी तू,
मेरा अक्स भी तू,
मेरी रूह भी तू..

मेरा मान भी तू,
मेरा ज्ञान भी तू,
मेरा ध्यान भी तू,
मेरी जान भी तू..

मेरा रंग भी तू,
ये उमंग भी तू,
मेरा अंग भी तू,
ये तरंग भी तू..

मेरे जिगर के सरखे-सरखे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..

मेरे लहू के कतरे-कतरे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..

क्यों चली गयी तुम? कहां चली गयी तुम? जाना ही था तो आयी क्यों थी? किसी को दिलासा दिलाकर छोड़ जाना अच्छा नहीं होता.. आ जाओ तुम, कहीं से भी.. बस उड़कर.. देखो तुम्हारे बिना मैं कितना अकेला हूं, कितना उदास हूं..

Monday, January 19, 2009

प्रेम करने वाली लड़की जिसके पास एक डायरी थी

उसके पास भी एक डायरी थी.. जिसे वह हर किसी से छुपा कर रखती थी.. जब वह कालेज जाती थी तब वह डायरी उसके कालेज बैग का एक हिस्सा होती थी.. और घर पहूंचने पर उसकी आलमीरा का एक हिस्सा.. अगर कालेज बैग साथ में ना हो तो उसके हाथों कि शोभा बढ़ाती थी वह डायरी.. जो भी उसे करीब से जानता था उसके लिये वह डायरी चंद्रकांता के तिलिस्म से कम नहीं होता था.. कालेज खत्म होने के बाद वही डायरी अक्सर उसके पर्स का एक हिस्सा बन जाया करती है.. साल दर साल बीतते जाते हैं, मगर उसकी डायरी कभी नहीं बदलती है.. हर दिन उसे उसी डायरी के साथ देखने की भी एक आदत सी हो जाती है..

- क्या है इस डायरी में?

- मैं नहीं बताऊंगी..

- मुझे भी नहीं बताओगी?

- नहीं..

- तुम तो कहती थी कि तुमसे कुछ भी नहीं छुपाती हूं मैं.. फिर इसे क्यों छुपा रही हो? क्या वो बातें भूल गई हो?

- नहीं यार! ऐसी कोई बात नहीं है.. कुछ छुपा नहीं रही हूं.. इसमें कुछ है ही नहीं..

- कुछ नहीं है तो मुझे दो देखने के लिये..

- नाह.. नहीं दे सकती..

- तो मैं छीन लूंगा..

- तुम नहीं छीन पाओगे..

- लो मैंने तुम्हारा बैग ले लिया.. इसी में वह डायरी है न?

- मेरा बैग मुझे दे दो..

- मुझे बैग से क्या लेना देना.. ये लो.. लेकीन डायरी ना दूंगा..

.......थोड़ी देर शांति........

- अरे यार!! इतना उदास क्यों हो रही हो? जाओ नहीं पढ़ता तुम्हारी डायरी.. मगर तुम्हे उदास नहीं देख सकता..

- दे दो ना मेरी डायरी.. प्लीज..

- लो.. मगर अब तो मुस्कुरा दो..

- मैं जानती थी कि तुम मुझे दे दोगे.. ये सब तो नाटक था.. डायरी वापस लेने का..

- सोचो, तुम्हे नाटक में भी उदास नहीं देख सकता.. सच में उदास हो जाओगी फिर मेरा क्या होगा?

- देखो आईसक्रीम वाला जा रहा है.. एक आईसक्रीम दिला दो ना..

- इतनी ठंढ में? नहीं.. आज नहीं..

- नहीं मुझे चाहिये.. दिला दो ना.. प्लीज..

- कितनी जिद्दी हो तुम.. चलो..


ऐसा क्यों अक्सर होता है! हर प्रेम करने वाली लड़की के पास एक डायरी होती है.. जिसे वह छिपा कर रखती है.. यहां तक कि अपने प्रेमी से भी.. क्या सच में उस डायरी में कुछ लिखा होता है? या फिर सिर्फ एक गल्प कथा बनाने के लिये ही वह डायरी उसके पास होती है? जिससे सभी को भरमाया जा सके..

Saturday, January 17, 2009

शिव जी का लैप-टॉप और मेरा सर

कल अचानक लवली का फोन उसके कोलकाता वाले नंबर से आया, फोन उठाते ही उसने कहा, "भैया पता है अभी मैं घर्रर्रर्र..(टेलीफोन की घरघराहट)"
"क्या? किनके साथ हो?" मैंने छूतते ही पूछा..
"शिव कुमार मिश्रा!!"
"अरे वाह.." हम किसी तरह अपनी आवाज में खुशी घोलते हुये कहे.. अब हम बैठे ही इत्ते दूर हैं कि किसी की खुशी देखते ही दुखी हो जाते हैं.. खासतौर से जब से शिव जी ने धमकियाने के अंदाज में कमेंट लिखने वाला पोस्ट हत्या करने के कैसे-कैसे बहाने.... लिखा है तब से उनके साथ कोई पंगा हम नहीं लेने वाले हैं.. क्या पता पहला निशाना उनके लैपटॉप का मेरा सर ही हो?
आगे लवली बोली, "लिजिये इनसे बात किजिये.." कहकर उन्हें फोन पकड़ा दी..

हम तो ठहरे सीधे-साधे बेचारे टाईप प्राणी.. ई फोनवा भी बहुत बुरी चीज होती है ससुरी, लोग चाहे जो बोलें मगर चेहरे का भाव नहीं बता पाती है.. अगर बता पाती तो शिव जी तो मेरी हालत देख कर ही खुश हो लेते..

खैर हम कांपते हाथों से फोन पर उनसे हाल-चाल पूछे.. शिव जी बहुत खुश लग रहे थे.. आखिर क्यों ना हों, लवली के साथ जो बैठ गप्पे जो हांक रहे थे.. ज्यादा लम्बी बात नहीं हुई, मगर छोटी सी ही बात-चीत में उन्होंने कहा, "प्रशान्त! तुम कलकत्ता आ ही जाओ.. मैं तुम्हें लैपटॉप उठाकर नहीं मारूंगा.."

मैंने थोड़ा और आश्वस्त होने के इरादे से पूछा, "कहीं आप डेस्कटॉप से मारने का इरादा तो नहीं बना रहे हैं?"
उनका कहना था, "मेरे पास डेस्कटॉप है ही नहीं.."

अब जाकर मेरी छोटी बुद्धि में यह बात आयी.. वो मेरी तलाश क्यों कर रहे हैं.. अपने लैपटॉप की मजबूती जानने के लिये मुझे खोज रहे हैं.. "लैपटॉप से नहीं मारूंगा" वाली बात तो बहलाने के लिये कहा था उन्होंने.. अब वैसे भी एक ऐसे व्यक्ति पर कैसे भरोसा कैसे किया जा सकता है जो कभी दुर्योधन कि डायरी चुरा लाते हैं तो कभी किसी उद्योगपति कि डायरी.. जो जगह सी.बी.आई. वालों के लिये भी अगम्य मानी जाती है वहां से भी बातें उड़ा लाते हैं..

फिर उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें बाद में फोन करता हूं.. मेरा कहना था कि मैं ही आपको फोन कर लूंगा.. मन ही मन सोचते हुये कि "पहले थोड़ी हिम्मत तो जुटा लूं".. बहाना बना दिया कि "आजकल अतिव्यस्त चल रहा हूं, सो पता नहीं जब आप फोन करें उस समय मैं व्यस्त रहूं और ठीक से बात ना हो पाये?" काश वो मेरे चेहरे के भाव देख सकते और कम से कम खुश तो हो ही लेते कि चलो मुझसे डर ही गया है, सो इसे अपने लैपटॉप से नहीं मारूंगा.. वैसे भी भय ज्यादा कारक होता है.. वो फिल्मी मार्का डायलॉग सुने ही होंगे, "अपने सारे पत्ते कभी नहीं खोलना चाहिये"..

मन में डर भी लग रहा था कि आज लवली का क्या होगा? क्या उसका सर बचेगा? शाम में लवली का फिर से फोन आया.. उससे बातें हुयी और जानकर अच्छा लगा कि उसका सर सही सलामत है.. मैंने इस पर खूब सोचा कि ये बचकर कैसे आ गयी? कुछ बातें दिमाग में आई जिसे नीचे लिख रहा हूं..
1. शायद लवली उनके हर पोस्ट पर टिपिया आई होगी.. मगर इसकी पुष्टी करनी होगी.. अगर यह कारण ना हो तो, तो उसके बचने का दूसरा कारण दूसरे प्वाईंट में है..
2. महिला ब्लौगर होने का फायदा उसे मिल गया होगा.. शिव जी भी चाहे जिससे भी पंगा ले लें मगर महिला ब्लौगर से पंगा नहीं लेंगे इसका मुझे पूरा भरोसा है.. इतनी समझ तो उन्हें होगी ही कि उनसे पंगा लेने पर कल को कोई उनके खिलाफ मोर्चा खोल दे.. "यह पुरूष ब्लौगर पितृसत्ता समाज का अगुवा है.. चुन-चुन कर महिला ब्लौगर पर हमला कर रहा है.. महिला को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहता है.. कुछ दिन पहले लवली का नाम राजस्थान के एक अखबार में छपा था इसी कारण उसकी बढ़ती लोकप्रियता से चिढ़कर उस पर हमला किया गया है.. इत्यादी इत्यादी.."
3. जब से प्रत्यक्षा जी ने उन्हें जेंटलमैन का खिताब दिया है, तब से वे अपने खिताब को बचाये हुये हैं और इसे आगे भी बचाये रखना चाहते होंगे..

चलिये अब मैं अपनी सुरक्षा व्यवस्था बताता हूं जिससे उनके लैपटॉप से अपने सर को बचाया जा सके..
1. अतिव्यस्तता के कारण मैं उनका पिछला 2-3 पोस्ट पढ़कर नहीं टिपिया पाया हूं, सो समय मिलते ही सबसे पहले उसी पर टिपियाऊंगा..
2. मुझे उनका 26 जनवरी वाला किस्सा हमें कल शाम में पता चला.. अब हम जब चाहे उन्हें काला-पुरूष(ब्लैक मेल) कर सकते हैं.. या नहीं तो वो खुद ही अपना किस्सा हमें पूरे मजे के साथ सुना दें.. हम भी बहुत चाव से सुनने को तैयार हैं.. :)
3. एक हेल्मेट पहन कर ही उनके पास जाऊं, पूछने पर कहना कि हम भी आपके ही तरह क्रिकेट के दीवाने हैं, क्या पता भारतीय क्रिकेट टीम से कब बुलावा आ जाये.. आखिर उनकी क्रिकेट मैनिया के बारे में पता है तो कुछ लाभ भी उठाना चाहिये.. :)

Friday, January 16, 2009

बेटा हो जा जवान तेरी शादी करूंगा

कुछ दिन पहले इरफ़ान भाई ने यह गीत अपने चिट्ठे पर लगाया था.. तभी से यह गीत जुबान पर चढ़ा हुआ है.. तो सोचा क्यों ना आज अपने बिटवा के बारे में लिखा जाये? वैसे भी बहुत दिनों से अपने बिटवा के बारे में कुछ लिखा नहीं हूं.. आज यह कुल 4 महीना और 26 दिन का हो गया है.. भैया-भाभी से पता चलता रहता है कि आजकर कैसे बोलने लगा है.. बात-बात पर "हां-गै" जैसी आवाजें भी निकालने लगा है.. ठंढ़ का मौसम होने के कारण जैसे ही इसे टोपी पहनाओ वैसे ही यह आपको टोपी पहनाने के चक्कर में आ जायेगा.. मतलब, अब इसे घूमाने कहीं बाहर ले जाओ.. :)

बात-बात पर अपनी बात से पलटी मार जाना तो हमारे देश के नेताओं की आदत हो चुकी है, तो भला इसने पलटी मार कर क्या बुरा किया? जी हां, आजकल हमारे बिटवा जी खूब पलटी भी मारने लगे हैं.. इन्होंने पहली बार करवट बदल कर पलटी 26 दिसम्बर को अपने दादाजी के साठवें जन्मदिन पर मारा था.. जब भी इससे बात करने के लिये फोन करता हूं, यह चुप हो जाता है.. आखिर शैतानी के मामले में अपने बाप पर नहीं जायेगा तो किस पर जायेगा.. भैया कि तरह थोड़ा बड़ा होकर शैतानी करेगा फिर जाकर भैया को पता चलेगा कि उनकी शैतानी से पापा-मम्मी को कितनी परेशानी होती होगी.. ;) और साथ में छोटे पापा तो हैं ही इसे बिगाड़ने को.. :)

इस चित्र में हमारे लाट साहब "शाश्वत प्रियदर्शी" अपने दादा जी के गोद में ठाठ से बैठे हुये धूप की गरमाहट के मजे ले रहे हैं.. यह तस्वीर लगभग एक माह पहले ली गई थी, अब तो और भी बदलाव आ गये होंगे..


चलते-चलते यह गीत भी सुनते जाईये जिसे मैंने अपने पोस्ट का शीर्षक बना रखा है.. इस गीत जे दो बोल भी लिखता जा रहा हूं.. मैंने इसे इरफ़ान भाई के चिट्ठे से ही लिया है, जिसके लिये उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद.. अगर उन्हें कोई आपत्ति हो तो बताते जायें, मैं पॉडकास्ट को यहां से हटा दूंगा..

मैं अपने खजाने को खाली करूंगा,
बेटा हो जा जवान तेरी शादी करूंगा..


इस पोस्ट को पढ़कर मेरे पापाजी क्या सोच रहे होंगे? कि मैं अपने बेटे कि शादी के बारे में सोचता हूँ और वो तैयार नहीं होता है और ये अभी से ही अपने बेटे कि शादी के बारे में सोच रहा है.. :D

Monday, January 12, 2009

पैर पर पैर रखिये, सॉरी कहिये, आगे बढिए

"पैर पर पैर रखिये, सॉरी कहिये, आगे बढिए"..
"आउच.. देख कर नहीं चल सकते हो क्या? मेरे पैर पर चढ़ते चले आ रहे हो.."
"अब क्या करून बहन जी, इतनी भीड़ है.. और कंडक्टर भी तो कह रहा है, पैर पर पैर रखिये, सॉरी कहिये, आगे बढिए.. चलिए मैं भी सॉरी बोल देता हूँ.."

पिछली बार जब मैंने दिल्ली के बस में सफ़र किया था तो वहां बस के भीतर के हालत कुछ ऐसे ही थे.. वैसे तो चेन्नई में भी बसों के हालत कुछ अच्छे नहीं हैं मगर उस दिन दिल्ली में जम कर बारिश हो रही थी, मैं पूरा भींगा हुआ था और मेरे साथ मेरा भारी बैग भी था.. मुझे तो इस तरह के हालत देख कर जाने क्यों एक अलग सा सुकून मिल रहा था.. शायद यह तसल्ली हो रही थी कि उनकी बाते समझ में तो आ रही हैं.. यहाँ चेन्नई में कौन क्या कह रहा है, सब ऊपर से निकल जाता है..

डी.टी.सी. और ब्लू लाइन बस के किस्से तो आपने खूब सुने होंगे, आज चेन्नई के एक बस कि तस्वीर भी देख लीजिये..

इस तस्वीर को मेरे एक मित्र विशाल ने लिया था.. एक बस से दूसरे बस कि.. मैं काफी दिनों तक संभल कर रखा था इस तस्वीर को, ताकि कभी आप लोगों के सामने इसे ला सकूं.. :)

यह नजारा सुबह के समय का है.. चेन्नई में सुबह-सुबह बस में स्कूली बच्चों कि भीड़ होती है.. दिन चढ़ने के साथ ऑफिस जाने वालों कि भीड़ बढती जाती है जो तक़रीबन ११ साढ़े ११ बजे तक रहती है.. उसके बाद कालेज जाने वालों कि भीड़ का समय होता है.. फिर १-२ बजे के आस-पास सड़क थोडी खाली मिलती है जो ३-४ बजे तक रहता है.. फिर वैसे ही लौटने वालों का हुजूम आता है.. पहले स्कूली बच्चे, फिर कालेज वाले फिर ऑफिस से आने वाले.. भीड़ रात के ९ बजे जाकर कुछ थमती है.. मगर अफ़सोस मेरे रूट में यह रात के १० साढ़े १० बजे जाकर भीड़ कम होती है.. चलिए बहुत बता दिया चेन्नई के बसों के बारे में.. अब कभी भी चेन्नई आने का इरादा हो तो मेरे इस पोस्ट को पढना ना भूलें.. :)

एक कला और सिखला दो

सपने बुनने कि कला,
तुमसे सीखा था मैंने..
मगर यह ना सोचा,
सपने मालाओं जैसे होते हैं..
एक धागा टूटने से
बिखर जाते हैं सारे..
बिलकुल मोतियों जैसे..
वो धागा टूट गया या तोड़ा गया?
पता नहीं!!
लेकिन सपने सारे बिखर गये..
बिखरे सपनो को फिर कैसे सजाऊं,
तुमने यह नहीं बताया था..
खुद से इस कला को कैसे सीखूं?
आ जाओ तुम,
सिर्फ एक बार..
एक कला और सीखनी है तुमसे..

Sunday, January 11, 2009

तमिल और संस्कृत भाषा का मेलजोल

तमिल-परंपरा के अनुसार संस्कृत और द्रविड़ भाषाएँ एक ही उद्गम से निकली हैं.. इधर भाषा-तत्त्वज्ञों ने यह भी प्रमाणित किया है कि आर्यों की मूल भाषा यूरोप और एशिया के प्रत्येक भूखंड की स्थानीय विशिष्टताओं के प्रभाव में आकर परिवर्तित हो गयी, उसकी ध्वनियां बदल गयी, उच्चारण बदल गए और उसके भंडार में आर्येतर शब्दों का समावेश हो गया..

भारत में संस्कृत का उच्चारण तमिल प्रभाव से बदला है, यह बात अब कितने ही विद्वान मानने लगे हैं.. तमिल में र को ल और ल को र कर देने का रिवाज है.. यह रीती संस्कृत में भी 'राल्योभेदः' के नियम से चलती है.. काडवेल(Coldwell) का कहना है की संस्कृत ने यह पद्धति तमिल से ग्रहण की है..

बहुत प्राचीन काल में भी तमिल और संस्कृत के बीच शब्दों का आदान-प्रदान काफी अधिक मात्र में हुआ है, इसके प्रमाण यथेष्ट संख्या में उपलब्ध हैं.. किटेल ने अपनी कन्नड़-इंगलिश-डिक्शनरी में ऐसे कितने शब्द गिनाये है, जो तमिल-भंडार से निकल कर संस्कृत में पहुँचे थे.. बदले में संस्कृत ने भी तमिल को प्रभावित किया.. संस्कृत के कितने ही शब्द तो तमिल में तत्सम रूप में ही मौजूद हैं.. किन्तु, कितने ही शब्द ऐसे भी हैं, जिनके तत्सम रूप तक पहुँच पाना बीहड़ भाषा-तत्त्वज्ञों का ही काम है.. डा.सुनीतिकुमार चटर्जी ने बताया है की तमिल का 'आयरम' शब्द संस्कृत के 'सहस्त्रम' का रूपांतरण है.. इसी प्रकार, संस्कृत के स्नेह शब्द को तमिल भाषा ने केवल 'ने'(घी) बनाकर तथा संस्कृत के कृष्ण को 'किरूत्तिनन' बनाकर अपना लिया है.. तमिल भाषा में उच्चारण के अपने नियम हैं.. इन नियमो के कारण बाहर से आये हुए शब्दों को शुद्ध तमिल प्रकृति धारण कर लेनी पड़ती है..

दिनकर जी द्वारा लिखा 'संस्कृति के चार अध्याय' से लिया हुआ.. पृष्ठ संख्या ३७..

Saturday, January 10, 2009

एक माईक्रो पोस्ट- मेरी नई बाईक

आज मैंने अपनी नयी बाईक कि बुकिंग कि है.. मैं नीले रंग कि मोटरसाइकिल खरीदना चाह रहा था जो मोटरसाइकिल डीलर के पास नहीं था और उसने बताया कि ट्रांसपोर्टरों कि हड़ताल के चलते मुझे वह मशीन मिलने में 15 दिनों तक का समय भी लग सकता है.. अभी मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं बताऊंगा, मगर इतना भी जरूर बताते जाऊँगा कि यह बाईक किसी भारतीय कंपनी द्वारा बनाये गए सबसे उन्नत बाईकों में से है.. एक बार मुझे यह मिल जाने दीजिये फिर मैं इसके बारे में विस्तार से बताता हूँ.. :)

नोट - युनुस जी और अमित से आग्रह है कि अगर वह यह पढ़ रहे हैं तो कृपया राज न खोलें.. (हिंदी ब्लौग जगत में बस यही दो व्यक्ति हैं जिन्हें यह बात पता है.. :)) :D

Friday, January 09, 2009

महंगाई दर घटने और तेल कि कमी की असमानतायें

आज के गूगल समाचार से ली गई यह तस्वीर देखिये जिसमें एक तरफ तो महंगाई दर घटने कि बात की जा रही है और वहीं दूसरे समाचार में तेल कि कमी से आम जीवन में प्रयोग में लायी जाने वाली चीजों को लेकर हाहाकार कि भी बात हो रही है.. अब ऐसे में भला महंगाई दर घटने से आम लोगों को क्या फायदा? मेरी समझ में तो यह साधारण सा मनोविज्ञान है जिसे सरकार भुनाना चाह रही है..



अब आपको पढ़ाता हूं एक और खबर जो इस तेल कि कीमतों को लेकर ही है..
"समाचार एजेंसियों के अनुसार राजधानी दिल्ली में 85 प्रतिशत पेट्रोल पंपों पर पेट्रोल और डीज़ल का भंडार ख़त्म हो चुका है, जबकि व्यावसायिक राजधानी मुंबई में 60 प्रतिशत पेट्रोल पंपों पर 'स्टॉक नहीं है' का बोर्ड टंग चुका था.

इसी तरह कोलकाता में 30 प्रतिशत पेट्रोल पंप बंद हो गए थे तो चंडीगढ़ में सिर्फ़ 10 प्रतिशत पंपों पर पेट्रोल-डीज़ल उपलब्ध था. भोपाल में 75 में से 60 पेट्रोल पंप बंद थे तो पटना में आधे से अधिक पेट्रोल पंप बंद हो चुके हैं.

मुंबई में सीएनजी और पाइपों के ज़रिए पहुँचने वाली रसोई गैस की आपूर्ति में भी बाधा पहुँची है. हालांकि दिल्ली में सीएनजी की आपूर्ति जारी है. लेकिन इन दोनों ही शहरों में शुक्रवार के बाद से सीएनजी आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है."


यह खबर आपको पढ़ाने का मेरा उद्देश्य बस इतना ही है कि मैं आप लोगों तक यह संदेश पहूंचा सकूं कि जब उत्तर भारत के लोग दक्षिण भारत को महत्व नहीं देंगे फिर यह उत्तर-दक्षिण भारत के बीच कि खाई कैसे कम होगी? इस खबर में किसी भी दक्षिण भारत कि खबर नहीं है.. जैसे दक्षिण भारत पर इसका कुछ असर पड़ा ही ना हो..

खैर यह तो रही समाचार पत्रों कि बातें.. कुछ अपने आस-पास कि बातें करें तो, मेरे घर के ठीक सामने, सड़क के उस पार, एक सेल का पेट्रोल पंप है.. कल सुबह और आज सुबह उस पर बेतरह भीड़ थी.. लम्बी कतारें लगी हुई थी और सारा यातायात अस्त-व्यस्त.. सामान्यतः मैं 11 बजे कार्यालय के लिये घर से निकलता हूं और कार्यालय पहूंचने में मुझे लगभग एक घंटे का समय लगता है.. मार आज इस पेट्रोल के लिये मारा-मारी और अस्त-व्यस्त यातायात के कारण लगभग एक घंटे और पैंतालिस मिनट में ऑफिस पहूंचा.. क्योंकि जहां कहीं भी पेट्रोल पंप खुला था वहां के हालात तकरीबन यही थे.. कल आधे दिन में ही सारे पेट्रोल पंप का तेल खत्म हो चुका था और उसके बाद से वे बंद थे और सड़कें सुनसान थी.. आज के हालात भी कल जैसे ही दिखाई दे रहे हैं..

Tuesday, January 06, 2009

जाने क्यों हर शय कुछ याद दिला जाती है

पिछले कुछ दिनों से नींद कुछ कम ही आ रही है.. कल रात भी देर से नींद आयी और आज सुबह जल्दी खुल भी गयी.. मगर बिस्तर छोड़कर नहीं उठा.. बिस्तर पर ही लेटा रहा चादर को आंखों पर खींच कर औंधा ही पड़ा रहा.. घर की याद हो आयी.. सोचने लगा कि कैसे जाड़े के मौसम में सुबह-सुबह पापा अपने ठंढ़े हाथों को मेरे गालों से सटा कर मेरी नींद तोड़ते थे और मैं भी वैसे ही नखरे मारता हुआ रजाई में और अंदर घुस जाता था.. यहां ना वो ठंढ़ है, ना पापा और ना ही वो ठंढ़े हाथों का प्यार भड़ा स्पर्श..

नौ बजे सोकर उठा, चाय-कॉफी मैं साधारणतया नहीं पीता हूं मगर आज कुछ चाय जैसी कुछ चीज पीने की इच्छा हो रही थी.. पापा कि एक शिक्षा याद हो आयी जिसका पालन कभी नहीं किया.. वो कहते थे, "आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है.." मगर मैंने तो उस शत्रु के साथ दोस्ती गांठ ली है.. कुछ दिन पहले कॉफी लेकर आया था मगर बनाया बस एक बार ही.. आज भी पीने कि इच्छा होते हुये भी नहीं बनाया.. जब छोटा था तब चाय पीने की बात भी जुबान पर लाने से किसी पाप कि तरह होता था, मगर अब कभी घर जाता हूं तो बार-बार पूछा जाता है कि चाय पियोगे या नहीं? बार बार मना करने के बाद भी.. शायद अब पापा-मम्मी को कोई साथ देने वाला चाहिये होता है इसलिये.. थोड़ी देर घर में चहलकदमी करने के बाद एक सिगरेट जलाया.. तीन-चार कश मार कर आधे में ही फेंक दिया.. आज उसे पीने कि इच्छा भी नहीं हो रही थी..

थोड़ी देर कंप्यूटर पर किटर-पिटर करने के बाद तैयार होकर ऑफिस के लिये निकला.. याद आया कि जब घर में था तब कहीं बाहर जाने से पहले पापा-मम्मी का पैर छूकर, आशीर्वाद लेकर निकलता था.. एक रूटीन सा बन चुका था यह जिसका भैया अभी तक पालन कर रहे हैं पटना में.. होस्टल में था तो कमरे की मेज पर पापा-मम्मी की तस्वीर रखे हुआ था, और कालेज जाने से पहले उसी तस्वीर से आशीर्वाद लेकर कमरे से निकलता था.. यहां तो वो भी मैंने अपने ऑफिस के क्यूबिकल में लगा रखा है..

ऑफिस के लिये घर से निकलते ही सड़क को पार करते अपने ही उम्र के एक लड़के-लड़की को देखा.. मुझे उस लड़की कि याद हो आयी.. वो जब मेरे साथ होती थी तो सड़क पार करते समय कसकर मेरा हाथ पकर लेती थी, एक तरह से मेरी ओट में छुप सी जाती थी डरकर और सड़क पार करते ही अपनी झेंप छुपाने के लिये मुझसे लड़ने लगती.. "तुम्हें ठीक से सड़क पार करना भी नहीं आता.. वो कार.. वो ऑटो.. वो साईकिल.. वो बाईक.." और भी ना जाने क्या-क्या.. उसे सड़क पर चलती गाड़ियों से बहुत डर जो लगता था..

रास्ते में एक कालेज के सामने से गुजरते हुये कुछ लड़के आपस में चुहलबाजी करते हुये मिले.. अपने कालेज के दिन याद हो आये.. कैसे बिना बात के एक दूसरे कि टांग खिंचाई होती थी.. रात के दो बजे कैसे मैगी खाने कि लड़ाई होती थी.. कैसे दोस्तों कि खातिर प्रोफेसर तक से बिना आगा-पीछा सोचे बहस करते थे.. कभी किसी दोस्त को किसी नयी लड़की से बात करते देख कर ही हफ्तों तक खिंचाई होती थी, अब भले ही वो उस लड़की को कोई पता ही क्यों ना बता रहा हो.. किसी मित्र को उदास देखकर उसकी उदासी दूर करने को क्या-क्या जतन नहीं होता था.. किसी पेपर में खराब नंबर आने पर घरवालों से ज्यादा मानसिक सहयोग कैसे दोस्तों से मिलता था.. खैर, अब ये भी यादों का ही एक हिस्सा बना रहेगा..

ऑफिस पहूंच कर अपने सामानों को व्यस्त करने के बाद पापा-मम्मी कि तस्वीर देखी और याद आया कि बचपन में पापाजी के ऑफिस जाकर कितना खुश होते थे.. किसी राजकुमार कि भांति पूरे ऑफिस में घूमते थे.. पापाजी की मेज पर शुरू से ही मां सरस्वती कि एक तस्वीर होती है और पापाजी का तबादला जहां-जहां होता रहा वहां सबसे पहले पापाजी उस चित्र को ही स्थापित करते रहे हैं.. भगवान जैसी चीजों पर से आस्था खत्म होने के बाद मेरे लिये तो पापा-मम्मी कि यह तस्वीर ही हमेशा मेरे कार्यस्थल पर लगी रहेगी..

जाने यादों का यह कारवां आज कहां जाकर रूकने वाला है..

Monday, January 05, 2009

ताऊ का डॉगी भी ताऊगिरी में कम नहीं

कुत्ते को कुत्ता कहना जैसे कुत्ते को गाली देना है सो मैं उसे डॉगी कह रहा हूं.. बात यह है कि जब वही बात अंग्रेजी में कहते हैं तो लगता है जैसे अमृत वर्षा हो रही हो.. ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे किसी अंधे को अंधा नहीं कहकर आजकल हम ब्लाईंड परसन तो लगता ही नहीं है कि हम कुछ बुरा कह रहे हैं.. कुछ गालियां भी ऐसी ही है, जिन्हें अगर हम हिंदी में कहें तो अक्षम्य हो जाये मगर अंग्रेजी में तो सब क्षम्य होता है.. ये कुछ ऐसा ही है जैसे पंछियों में राज हंस की बोली और आदमियों में गोरों की.. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में कहूं तो, "जिसकी प्रशंसा हंस भी करे वह जरूर बड़ा तत्वज्ञानी होगा.. यह बात बहुत-कुछ ऐसी ही थी जैसे आजकल घटित हो रही है.. जिसकी प्रशंसा श्वेतकाय अंग्रेज कर दे उसे आज भी महान तत्वज्ञानी मान लिया जाता है.."

मैं आया था ताऊ के डॉगी के किस्से सुनाने और ना जाने क्या बक-बक करने लग गया.. क्या करें ब्लौगरी जो ना सिखाये.. कभी तिल का ताड़ बना डालते हैं तो कभी बिना बात के जाने क्या-क्या लिख जाते हैं.. तो चलिये सुनते हैं ताऊ के डॉगी के किस्से..

अब वह ताऊ का डॉगी था तो कुछ ताऊगिरी उसने भी सीख ली थी.. एक बार वह और ताऊ जंगल से जा रहे थे.. ताऊ अपने लठ्ठ के साथ मगन थे और चले जा रहे थे, तभी उनके डॉगी को खुजली होने लगी.. बस क्या था, लगा कभी कान खुजाने तो कभी मुंह खुजाने.. ताऊ को पता भी ना चला कि कब डॉगी उनसे बिछड़ गया.. ताऊ को तो पता ना चला मगर डॉगी बेचारा कभी इधर भागता तो कभी उधर.. उसे समझ में ही ना आया कि जाऊं तो किस दिशा में?

तभी एक शेर को आते देखा उसने.. शेर को देख डॉगी डर के मारे कांपने लगा थर-थर और सोचने लगा कि बेटा आज तेरा हो गया राम नाम सत्त.. तभी डॉगी को वहीं पड़ी हुई कुछ हड्डियां दिखी.. उसके दिमाग की बत्ती जली.. वह लगा उस हड्डी को बड़े चाव से चबाने और साथ ही जोर से बोलने लगा, "वाह आज तो बस मजा आ गया इस शेर का शिकार करके.. अब बस एक शेर और मिल जाये तो दावत ही हो जाये.." शेर ने जैसे ही ये बात सुनी, उसका दिमाग ठनका.. सोचने लगा कि अरे ये कुत्ता तो बड़ा कमीना निकला, ये तो शेर का शिकार करता है.. और वह शेर वहां से दुम दबा कर चंपत हो गया..

वहीं पेड़ पर बैठा एक बंदर यह तमाशा देख रहा था.. उसने सोचा कि जाकर शेर को सब बात बता देता हूं.. इसी बहाने शेर से भी दोस्ती हो जायेगी और जीवन भर के लिये जान का खतरा भी खत्म हो जायेगा.. बंदर उछलता कूदता पहूंचा शेर के पास और कह डाली सब बात.. शेर गुस्से में दहाड़ा और बंदर को बोला, "तू बैठ मेरी पीठ पर, मैं अभी उस कुत्ते को कच्चा चबा जाता हूं.."

उधर डॉगी जी(क्या करें इत्ता चालाक डॉगी और उपर से ताऊ का, तो इज्जत से बात करनी ही पड़ती है) बंदर को जाते हुये सोच रहे थे कि जरूर कुछ गड़बड़झाला है.. तभी शेर की पीठ पर् बंदर को आते देख वो सब समझ गया और सोच में पर गया कि अब क्या किया जाये? फिर से उसके दिमाग कि बत्ती जली और फिर से वह शेर कि ओर पीठ करके बैठ गया और जोर-जोर से बोलने लगा, "इस बंदर को भेजे इतनी देर हो गई, साला बंदर एक शेर तक को फांस कर नहीं ला सकता.."

इतना सुनना था कि शेर बंदर को वहीं पटक कर सर पर पांव रख भाग गया.. तब तक ताऊ भी वहां अपने डॉगी को खोजते हुये पहूंच गये और दोनों खुशी-खुशी अपनी राह चल दिये..

Saturday, January 03, 2009

ई आर.के.लछमन कउन चिड़िया के नाम है जी?

इधर रविश वाले कस्बा जी.. अर्रर्रर्र.. माफ किजियेगा, कस्बा वाले रविश जी हल्ला मचईले थे कि पवनवा ही उत्तर भारत का आर.के.लछमन है, और अभीये एक पोस्ट से पता चला कि नहीं ई त कौनो इरफ़ान भैया हैं.. हम त पूरे कंफूजिया गये हैं.. केकरा के बात मानल जाई? इनका बात माने तब दिक्कत, उनका बात माने तब दिक्कत.. हमरा अपना बिचार त ईहे है कि जो जैसन है ओकरा के वैसने रहने दिया जाये.. झूट्ठे के हल्ला करे से का मिली? कंपरीजन करे से कुच्छो मिलेगा थोड़े ही ना? आप ही कहिये? आप तो हियां ऊ दून्नू का कार्टून देखिये.. दून्नू में टैलेंट बहुते है..

पहले पवन भैया का तीनों कार्टून जो रविश भैया छापे थे -




रविश भैया के चिट्ठवा से उड़ईले हैं ई.. ;)

और ई इरफ़ान भैया का कार्टून -



विरोध से उड़ाये हैं.. ;)

हम अपना पर्सनल बात किसी को बताते तो नहीं हैं, लेकिन यार-दोस्त से का छुपाना? पवन भैया से मिले हैं 3-4 बार.. मुन्ना भैया के साथ घर पर आते थे.. और 1-2 बार शायद प्रभात खबर(पटना बला) के ऑफिसवा में.. शायद एसप्लेंडर से.. देख के लगता नहीं था कि कहियो मुंह-कान धोते थे, दाढ़ीयो नहीं बना होता था.. लेकिन बात त खूब मजेदार करते थे.. अब ऊ समय बच्चा थे सो हमसे तो बच्चे जैसा बात करते थे.. और रही बात इरफ़ान भैया कि तो कहियो मौका मिला तो इरफ़ान भैयो से जरूर मिलेंगे.. :)

Friday, January 02, 2009

आज जाने मैं क्या चाहता हूं

कुछ तमन्नाओं पे उम्र गुजारना चाहता हूं..
जैसे मैं तेरा कोई कर्ज उतारना चाहता हूं..

उम्र गुजरी हैं तेरी याद में इस कदर तन्हा..
तन्हाईयों को अब गले लगाना चाहता हूं..

एक तस्वीर छुपाये रखी थी बटुवे में कहीं..
आज फिर तेरी नजर उतारना चाहता हूं..

हिज्र की रात कुछ यूं हुई लम्बी..
अंधेरों में मैं भी सिमट जाना चाहता हूं..

धुवें में घिर आयी हैं तेरी परछाईयां..
दिल ही दिल में आज मैं जाने क्या चाहता हूं..

Thursday, January 01, 2009

एक शीर्षक हीन पोस्ट

नया साल
नयी सुबह
नया जोश
नयी उमंग
नये लोग
नये चेहरे
नये सपने
नयी उदासी
नये कहकहे
नयी खामोशी
नयी खबरें
नया एकाकीपन
हर चीज नया
मानों जिंदगी फिर मजाक उड़ा गई हो..