मुझे अपने गांव से कोई प्यार नहीं है.. मैं अपने गांव भी कभी जाना नहीं चाहता हूं.. क्यों जाउं? मैं कभी वहां रहा नहीं सो मुझे उससे लगाव का कोई कारण भी नहीं है.. मेरे लिये तो मेरा गांव, शहर, कस्बा सभी कुछ पटना ही है.. कई लोगों को मेरी इस बात से परेशानी हो सकती है मगर मुझे उससे कोई फर्क नहीं परता.. कई बार मुझे उनकी दलील भी सुननी परती है, मगर मुझे अपनी किसी बात से सहमत कराना इतना आसान नहीं है.. पटना से मुझे हमेशा अच्छी चीजें ही मिली.. लोगों को पहचानने की व्यवहारिकता भी पटना के लोगों ने ही सिखाया.. कुछ पाने के लिये मेहनत करना भी पटना में ही सिखा.. वो पहला प्यार जिसके बारे में लोगों की मान्यता है कि पहला प्यार भुलाये नहीं भुली जाती, पटना में ही हुआ.. खराब चीजें तो बाहर आने पर जमाने ने सिखा दिया.. पापाजी की नौकरी ऐसी थी की लगभग पूरा बिहार(पुराना बिहार जिसमें झारखंड भी शामिल है) घूमने का मौका मिल गया.. मगर दसवीं के बाद से ग्रैजुएसन तक पटना में ही रहा, जो किसी भी मनुष्य के विकास का सबसे अहम दौर होता है.. मेरा वो समय पटना में ही बीता है.. पटना शहर... कह सकते हैं कि मेरे सपनों का शहर है.. अभी मैं जितना भी यहां कमा रहा हूं अगर उसका आधा भी वहां कमा पाउं तो मैं सब छोड़-छाड़ कर वापस चला जाउंगा.. और अभी इस हालत में नहीं हूं की अपने लिये खुद से वहां रोजगार के अवसर पैदा कर सकूं..
9 मर्च को मैं पटना पहूंचा और उसी दिन मेरी मित्र डा.तनुजा वर्मा की शादी थी.. मैंने पहूंचते ही उसे फोन किया.. थोड़ी देर इधर-उधर की बातें होती रही, थोड़ा मैंने उसे उसकी शादी को लेकर चिढाया.. मैंने उससे कहा की अगर मैं तुम्हारी शादी में आज रात आता हूं तो मेरे पास चुपचाप खाना खाकर जाने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा क्योंकि मैं वहां बस दो लोगों को ही जानता हूं और वो दोनो ही आपस में शादी कर रहें हैं.. ये कैसी विडंबना है.. :) और चूकि दोनों ही शादी कर रहे हैं तो उनसे बात भी हो पाना कठीन ही लगता है.. उसने भी मेरी हालत समझते हुये पूरी उदारता दिखाते हुये कहा की तुम्हारे हालात मैं समझ सकती हूं तुम सही कह रहे हो, कोई बात नहीं कल मेरी शादी के रिसेप्शन पर आ जाना.. आज ना भी आओ तो चलेगा.. फिर दिन में जाकर मैंने उसके लिये कुछ उपहार लिये और शाम में भैया-भाभी के साथ नाईट आउटिंग पर गया, बिलकुल लफंगों जैसा हुलिया बना कर.. :D
अगले दिन मैं उसके रिसेप्शन पर गया और उससे जैसे ही मिला मेरे मुंह से पहला वाक्य जो निकला वो ये था "अरे, तू जब लास्ट टाईम मिली थी तो पक्का इडियट दिख रही थी.. मगर आज बड़ी अच्छी दिख रही है.. :D" उसने कहा तुम्हे उस दिन दिखाई नहीं दिया होगा.. उस दिन मूंछे बढा कर आये थे ना दिल्ली में.. सो मूंछों में सब ढक गया होगा.. :)
तनुजा और धीरज
वहां तनुजा के पति के एक मित्र भी मिल गये थे.. उनका नाम डा.राजेश था.. उनसे बातों ही बातों में पता चला की उनकी एक छोटी सी बेटी है बस दो महीने की.. उसका फोटो भी उन्होंने दिखाया जो बहुत ही प्यारी सी थी.. मैंने उसका नाम पूछा जो बहुत ही अजीब सा उन्होंने बताया था.. मैंने उसका मतलब पूछा तो झेंप से गये और कहे की उन्हें उसका मतलब नहीं पता.. संयोग से वो भी मेरे घर के बगल में ही रहते हैं सो उन्हीं के साथ वापस घर आ गया.. मैं भी अपनी बाईक पर अकेला ही था और रात बहुत हो चुकी थी.. सो मैंने भी सोचा की एक से भले दो..
घर यात्रा की अंतिम कड़ी अगले अंक में..
बहुत ही अच्छा लिखा है.. जैसे दिल की बात कलम से उतार दी हो.. इस ब्लौग का अगर कोई सही प्रयोग कर रहा है तो वो हैं आप..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा,जहां वचपन बीता हो वो जगह सच मे स्वर्ग से भी प्यारी होती हे,जब भी नेट पर आता हू तुम्हारी पोस्ट जरुर पढता हु, फ़िर अपना समय याद आ जाता हे
ReplyDeleteहाँ भाई अब तो आप की पोस्टों से मुहब्बत हो चली है। ऐसे ही लिखते रहो।
ReplyDeleteहाँ भाई अब तो आप की पोस्टों से मुहब्बत हो चली है। ऐसे ही लिखते रहो।
ReplyDeleteयह फोटो दीखा कर आपने मेरे गांव की पूरानी यादे ताजा कर दी। बहुत याद आता है गांव का। मेरा गांव मेरे लीये मेरे जान ईतना प्यारा है। और सब को अपना गांव बहुत-२ अच्छा लगता है।
ReplyDeleteमै पीछ्ले साल ही पट्ना के पास "आरा" गया था।
पटना "आरा" के ईतना पास है की, वो आरा से दीख जाता है।
पट्ना भी गया हूं और रहा भी हूं।
लिखते रहें अपनी डायरी.
ReplyDeleteसही है। लिखते रहें। मूछों सहित फोटो दिखाया जाये।
ReplyDeletekamal hai aapne bat tab beech me chodi jab hame ras aane laga ....aaj dophar me hi likh daliye..
ReplyDeleteअब क्या कहूं.. आफिस में छोटी सी टिप्पणी तो लिख सकता हूं पर पूरी पोस्ट लिखना संभव नहीं होता है और उपर से कोई फोटो भी नहीं होता है.. :(
ReplyDeleteअच्छा लिखा........
ReplyDeleteसही है पी डी. बहुत फार्म मैं हो आजकल. बढ़िया लिख रहे हो. लगे रहो....बधाई.
ReplyDeleteलिखते बहूत अचा हो तुम प्रशांत...पर यी सोच तुम्हारी और उप्पेर कूच लिखी तुम्हारे मित्रो की है न की सभी लोगो की...हां तुमको अपनी किसी बात पर सहमत करना आसान नहीं है, पर मै अपनी बात जरूर बोलूंगा....और हां यी भी जनता हु मै की जो मै बोल रहा हु वो बिकूल सही है पर कूच लोग ऐसे होतें है की कसम खा लेतिएँ है की नहीं सुधारना है तो कोई भी कूच नहीं कर सकता है....आब आता हु मै अपनी बात पर...तुक्मो गाँव पसंद क्यों नहीं यी पूछू हुमसे क्यूंकि तुमको कूच सहूलियत नहीं मिलेंगी..अगर यही बात तुम अपने परिवार से पूछेगे तो तब बतायेंगी तुम्हारे माँ ओर्र पापा की क्यों वो आज भी गाँव ही अचा लगा है जबकि उन्होंने शायद अद्धी से ज्यादा जिंदगी अपनी पटना मै बिता दी होगी....उसकी बाद भी उन्हें गाँव ही अचा लगेगा....यार वहा की खेत खलिहान ही देख कर तुम्हारा दिल प्रसन हो जायेगा....वहा का खोऊला वातावरण देखो...सब कूच मंत्र मूंग्ध कर देने वाला......पटना मै क्या है तुमको जो बहूत अचा लगता है....बस बिजली पानी और चार दिवारी यही है ना पटना मै...अब यी मत बोलना की दोस्त भी है..दोस्त तो यहाँ भी है पर कितना मिलते हो उन् दोस्तों से... बस बचपन बिता देना की कारन नहीं है किसी चीज को पसंद करना या ना करना... या फिर तुमको हमेशा चार दिवाली अची लगाती होगी तभी तुमको पटना अचा लगता होगा...और रही दोस्तों की बात तो यार चेन्नई मै ही बता दो मेरे दोस्त की हम लोग कितना मिलते है....किसी को जानो या ना जानो पर अचा वाही लगेगा जहा कूच खुला पण हो नहीं चार दिवारी.....मुझे आज भी गाँव अचा लगता है...माँ कबी गाँव को नहीं भूल सकता....और नहीं तुम्हारे पापा और माँ....और tum १ सही कारण बता दो की तुमको पटना क्यों अचा लगता है गाँव से....तब मानते है तुम्हारी बात है.इस कारण को छोड़ कर बताना की तुम्हारा बचपन बिता को...यी कोई कारन नहीं होता किसी चीज को पसंद करने या ना पसंद करने का..
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