Wednesday, December 31, 2008

साल भर के ब्लौग पोस्ट और ब्लौगरों का कच्चा-चिट्ठा

इस साल मैंने कुल 296 लेख विभिन्न ब्लौग पर लिखे.. जिसमें से 227 पोस्ट मैंने मेरी छोटी सी दुनिया पर लिखी, 12 पोस्ट अपने तकनिकी चिट्ठे पर लिखी, 4 पोस्ट भड़ास के लिये लिखा, 1 पोस्ट मोहल्ला के लिये लिखा, 1 पोस्ट रेडियोनामा के लिये लिखा, 5 पोस्ट अपने चित्र कथा-A Pictorial Story नामक ब्लौग पर किये, 14 पोस्ट मैंने अपने नये कॉमिक्स चिट्ठे के लिये लिखा और 32 पोस्ट अपने निजी चिट्ठे के लिये लिखा.. और इन सब पर कुल मिला कर 40,000 से अधिक पाठक भी मिले..

इस साल कि शुरूवात मैंने एक तकनिकी चिट्ठे बनाने के साथ की थी.. पहले महीने बेहद जोश के साथ लिखता रहा, मगर बाद में कुछ अन्य कारणों से नहीं लिख पाया.. उम्मीद करता हूं कि इस साल उसे फिर से जीवंत कर सकूंगा..

इन सबके अलावा मैंने एक और चिट्ठा शुरू किया जिसका मैं लगभग दिवाना सा हूं.. जी हां, कामिक्स चिट्ठा.. अभी हाल-फिलहाल में इस पर लिखना भी काफी हद तक बंद है.. यह एक कम्यूनिटी चिट्ठा मैंने बनाया था.. जिस पर कोई भी अपने बचपन कि कामिक्स या कहानी की किताबों से जुड़ी यादें बांट सकता है.. यूं तो कई लोग इस चिट्ठे के सदस्य हैं मगर अभी तक मेरे अलावा बस आलोक जी ही इसके मुख्य लेखक में से हैं.. इनके लेख हमेशा जानकारी से भरे हुये होते हैं.. महीने में एक या दो पोस्ट ही करते हैं मगर काफी छानबीन करने के बाद इनका पोस्ट आता है..

कुछ चिट्ठाकार जिनसे इस साल संपर्क में आया -
इस साल कुछ चिट्ठाकार के व्यक्तिगत तौर पर संपर्क में भी आया.. इसमें सबसे प्रमुख नाम लवली, दिनेश जी, पंगेबाज जी, अजित वडनेकर जी, कुश, अभिषेक ओझा, पूजा उपाध्याय, अनिता जी, युनुस जी, विकास कुमार, शिव जी हैं.. चलिये एक एक करके इनके बारे में भी बताता हूं..

लवली - इससे कैसे बात होनी शुरू हुई मुझे याद नहीं, मगर यह मेरी नेट बहन है.. अब यह मत पुछियेगा कि नेट बहन क्या होता है.. असल में हुआ यह कि रक्षा बंधन से पहले इसने मुझसे मेरा पता मांगा, और चूंकी मैं उस समय घर(पटना) जा रहा था सो मैंने पटना का पता दे दिया.. मेरे घर पहूंचने से पहले इसकी राखी घर पहूंच गई थी.. मेरी मम्मी लवली को जानती नहीं थी, मैंने कभी चर्चा ही नहीं किया था, सो उन्होंने पूछा कि कौन है ये? मेरा उत्तर था कि नेट बहन है.. मम्मी बेचारी हैरान परेशान कि नेट फ्रेंड के बारे में तो सुना है, मगर नेट बहन क्या होता है? और तब मैंने लवली के बारे में मम्मी को बताया.. मैंने उन्हें बताया कि यही स्वभाव है हिंदी ब्लौगिंग का.. यहां बस नेट फ्रेंड ही नहीं नेट अंकल, नेट आंटी और नेट भाई-बहन भी बनते हैं.. :)
(एक बार लवली से उसकी अच्छी सी तस्वीर मांगी थी तो उसने यह तस्वीर दी.. यूं तो मेरे पास उसकी अच्छी वाली तस्वीर है मगर मैं यहां यही लगा रहा हूं..)

दिनेश जी - मुझे इनसे सबसे पहले हुई बात याद आती है जब मैंने इन्होंने वेताल कि कामिक्स के प्रति अपनी रूची प्रकट की थी और मैंने इन्हें वेताल कि एक कामिक्स मेल भी किया.. खैर तब कि बात है और आज कि बात है.. आज मुझे जब भी मार्गदर्शन की जरूरत होती है मैं इनसे जरूर संपर्क करता हूं और कभी निराश नहीं होना पड़ा है मुझे.. हमेशा एक अभिभावक कि तरह इन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया है..




पंगेबाज अरूण जी - इनसे जीमेल के चैट द्वारा बात शुरू हुई और 14 अगस्त को इनसे मुलाकात भी हुई.. उससे पहले बाकलमखुद में इनके बारे में पढ़कर इनकी जिजिवशा का मैं कायल पहले ही हो चुका था.. जब इनसे मुलाकात हुई तब इनके दिलखुश मिजाज और सेंस ऑफ ह्यूमर का भी मैं कायल हो गया..



अजित वडनेकर जी - इनसे पहले कभी बात नहीं हुई थी और कभी कोई मेल भी नहीं हुआ था.. मगर संयोग ऐसे ही तो बनता है.. जिस दिन(14 अगस्त) मुझे दिल्ली में ब्लौगवाणी के कार्यालय में जाना था उसी दिन इन्हें भी हरिद्वार जाने के लिये दिल्ली आना था और ब्लौगवाणी के कार्यालय में मुलाकात हो गई.. मगर उसके बाद जब भी फुरसत में होता हूं और इन्हें ऑनलाईन देखता हूं तो इन्हें जरूर परेशान करता हूं.. कभी-कभी इन्हीं के अंदाज में इन्हें "जै जै" कह कर इनका अभिवादन भी करता हूं.. :)

अनिता जी - ब्लौग दुनिया में सबसे पहले किसी से मेरी बात हुई थी तो वो अनिता जी ही थी.. इन्होंने मुझे कमेंट करके मुझसे मेरा ई-मेल पता मांगा था और कुछ मेरे बारे में जानना चाहती थी.. ये वो दौर था जब हिंदी में कुल मिलाकर 1000 के आस-पास चिट्ठे ही हुआ करते थे और मुझे अनिता जी जैसे बड़े लोगों के चिट्ठे पर कुछ भी लिखने में संकोच भी खूब होता था.. जब इनसे पहली बार बात हुई तो खूब मजे में बात हुई.. बहुत अच्छा लगा था उस दिन..

युनुस जी - इनका चिट्ठा रेडियोवाणी जब इन्होंने शुरू किया था तबसे ही पढ़ता रहा हूं, मगर पहला कमेंट किया लगभग एक साल के बाद.. फिर मेल का आदान-प्रदान चालू हुआ.. और बाद में बाते भी हुई.. जब पहली बार इनसे बात हुई थी तब इनसे बात करके इनके व्यक्तित्व का इतना अधिक प्रभाव पड़ा था कि मैंने 2-3 पोस्ट इनके नाम से ठेल दी थी.. युनुस जी के बारे में मैं बस इतना ही कहूंगा कि, इनके जैसे व्यतित्व से मैं अपने जीवन में कम ही मिला हूं..






अभिषेक ओझा - जबसे इसने अपना चिट्ठा शुरू किया है तभी से मैं इसका चिट्ठा पढ़ता आ रहा हूं.. मुझे अभी भी याद है जब मैंने इसके चिट्ठे पर कमेंट किया था और सलाह दी थी कि इतना लम्बा-लम्बा पोस्ट ना लिखे, छोटा पोस्ट लिखें और रोचक लिखें तो लोग बड़े चाव से पढ़ने आयेंगे.. इन्होंने सहृदय मेरी बात स्वीकार की थी.. धीरे-धिरे कब इनसे फोन पर भी बाते होने लगी कुछ याद नहीं.. चाहे जो भी कहें मगर इनसे बात करना मन को बहुत भाता है..



विकास कुमार - इनका ब्लौग पढ़कर उसपर कमेंट बहुत दिनों तक किया है मगर बात कि शुरूवात कुछ यूं हुई जब इन्होंने मुझे जीटॉक पर चैट रीक्वेस्ट भेजा और पूछा था कि क्या मैं इनके स्कूल का मित्र तो नहीं.. मैं नहीं था.. फिर बातों का सिलसिला चलता ही रहा.. इनकी लेखनी मुझे हद दर्जे तक पसंद है.. जो भी लिखते हैं, बस छा जाते हैं..



कुश - इनसे बात शुरू कैसे हुई यह भी एक मजेदार घटना है.. एक दिन लवली का फोन आया और उसने मुझसे एक नामी चिट्ठाकार का नाम लेते हुये पूछा कि क्या आपने उसे मेरा नंबर दिया है? मुझे वह फोन करके परेशान कर रहा है.. मैंने मना कर दिया और उससे वो नंबर ले लिया जिससे उसे फोन आ रहे थे.. उस नंबर पर मैंने फोन किया तो पता चला कि कुश महाराज लवली को अपने नये नंबर से तंग कर रहे थे.. बेहद खुशमिजाज हैं यह.. कभी इनसे बात करके खुद ही देख लें..




पूजा उपाध्याय - जब यह अपने लिये स्कूटी खरीदने का सोच रही थी उस समय कुछ जानकारी लेने के लिये इन्होंने मुझे मेल किया और फिर पत्रों का आदान-प्रदान चलता ही रहा.. फिर पत्र कब जीटॉक चैट में बदल गया कुछ पता ही नहीं चला.. जब भी हम फुरसत में ऑनलाईन होते हैं तो खूब बातें होती है.. कभी फोन पर बात करने की जरूरत नहीं हुई सो कभी फोन पर बातें भी नहीं हुई.. मगर इनसे बात बिलकुल वैसे ही होती है जैसे किसी अच्छे मित्र के साथ होती है.. थोड़ा हंसी-मजाक, थोड़ा चिढ़ाना..



शिव कुमार मिश्र जी - लास्ट बट नाट लीस्ट.. कई बार इनसे बातें करने की इच्छा होती थी मगर हर बार संकोच कर जाता था.. सोचता था इतने बड़े ब्लौगर हैं, कैसे बात करूंगा.. मगर जो होना होता है वही होता है.. एक दिन लवली से बातें करते हुये इन्हें पता चला कि लवली के पास मेरा नंबर है और इन्होंने बिना संकोच के उससे मेरा नंबर लेकर मुझे फोन लगा दिया.. कितनी खुशी हुई मुझे मैं वह बता नहीं सकता.. फिर हमारी बातें होती ही रही.. हर विषय पर.. इनसे बातें करते वक्त समय का पता ही नहीं चलता है..

अब जब सब के बारे में लिख ही दिया है तो कुछ और लोगों को कैसे छोड़ दूं?

जी.विश्वनाथ जी - इनसे जब मिला तब इन्हें देख कर मेरे मन में पहली बात यही आयी, "60 साल के बूढ़े या 60 साल के जवान.." जी हां, इनके भीतर की उर्जा को देखकर कोई भी यही कहेगा.. जितने प्यार और अपनापन से यह मुझसे मिले वो एक यादगार क्षण ही है मेरे लिये.. इनके बारे में मैं पहले भी 3 पोस्ट लिख चुका हूं, सो ज्यादा जानकारी के लिये यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं..

कुछ और भी हैं जिनका आशीर्वाद हमेशा मुझ पर बना रहता है, भले ही उनसे लगातार बातें हो या ना हो.. उनमें प्रमुख हैं मैथीली जी, मसिजीवी जी, शास्त्री जी और आलोक पुराणिक जी.. ताऊ जी का नंबर भी मुझे मिला है और मैं सोच रहा हूं कि नये साल में एक और मुलाकात आगे बढ़ाई जाये.. मतलब कल मैं उन्हें फोन करता हूं.. आखिर अगले साल के लिये भी तो कुछ चाहिये ना? :)
डा.प्रवीण चोपड़ा जी का नाम छूट गया था, सो क्षमापार्थी हूं..

चलिये आज का यह चिट्ठा बहुत लम्बा हो चुका है और मेरे पिछले पोस्ट से लेकर इस पोस्ट के बीच में मेरे चिट्ठे का मीटर भी 40,000 को पार कर गया है और मेरे इस पोस्ट को मिला कर पूरे 297 पोस्ट हो गये हैं.. चलते चलते ब्लौगवाणी के ऑफिस में लिया गया यह चित्र भी देखें..


आप सभी को नववर्ष कि ढ़ेर सारी शुभकामनायें.. :)

बड़ी शक्ति के साथ जिम्मेदारियां भी बड़ी हो जाती है

मैंने किसी चलताउ अंग्रेजी सिनेमा में एक डायलॉग सुना था, "बड़ी शक्ति के साथ जिम्मेदारियां भी बड़ी हो जाती है" जो मुझे बहुत सही भी लगा था.. मेरे पिछले लेख में मैंने जो कुछ भी लिखा वो सब एक जाने-माने साहित्यकार के बारे में लिखा था ना कि किसी साधारण व्यक्ति के बारे में.. हम हर दिन ना जाने कितने ही कानूनों को लोगों के द्वारा तोड़ते हुये देखते हैं.. क्या हम उन सभी को तवज्जो देते हैं? नहीं.. मगर जब वही काम किसी जाने माने प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा होते हुये देखते हैं तो तुरत पलट कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं.. कारण बस इतना ही है कि उनकी जिम्मेवारी भी बड़ी हो जाती है.. उन्हें समाज के सामने एक आदर्श के रूप में हम खोजने लगते हैं और जब वह हमे नहीं मिलता है तो क्षुब्ध भी होते हैं..

मेरे पिछले लेख पर कई लोगों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये.. कुछ निहायत ही डरपोक किस्म के व्यक्ति ने नकली प्रोफाईल के माध्यम से मुझपर व्यक्तिगत प्रहार भी किया.. जब मैं अपना वह लेख लिख रहा था तब मैंने अपने एक मित्र को कहा भी था कि देखना लोग कैसे अनाम बनकर या फिर नकली प्रोफाईल से मुझ पर व्यक्तिगत आरोप भी लगायेंगे.. हुआ भी बिलकुल वही.. आखिर इतने दिनो से हिंदी ब्लौगिंग में हूं तो इसकि नज्ब भी पहचानने लगा हूं..

अंत में कमेंट मॉडेशन के बारे में भी कुछ कहना चाहूंगा.. सुरेश चिपलूनकर जी और मुन्ना भैया(अविनाश दास जी) दोनों ही विचारों के मामले में दो अलग ध्रुव हैं, मगर फिर भी एक समानता है दोनों में कि दोनो ही चिट्ठों पर कमेंट मॉडेरेशन के पक्ष में नहीं हैं.. मैं इन दोनों के विचारों से शत-प्रतिशत सहमत कभी नहीं हुआ हूं, मगर शत-प्रतिशत असहमत भी कभी नहीं हुआ हूं.. मगर कमेंट मॉडेरेशन के मामले में मैं भी उसी विचार को मानता हूं जिससे यह दोनो ही सहमत हैं और मैंने भी मॉडेरेशन नहीं लगा रखा है.. अभी कुछ दिन पहले भी मेरे एक-दो पोस्ट पर बेहद घटिया टिप्पणी आयी थी, जिसका उत्तर तो मैंने वहां दे दिया था मगर उसे हटाया नहीं और ना ही कमेंट मॉडेरेशन लगाया.. मैंने अभी तक बस 2-3 कमेंट हटाया है जिसमें लिखे हुये शब्द मुझे किसी भी कीमत पर अस्वीकार है..

Tuesday, December 30, 2008

क्या यादव जी के चुरट सुलगाने को भी जायज कहेंगे आप?

हिन्द युग्म के वार्षिक उत्सव में क्या हुआ और क्या नहीं वो तो मुझे पता नहीं.. दिल्ली में नहीं हूं तो इस तरह के आयोजन मेरे लिये खबरों का एक हिस्सा ही बन कर रह गये हैं.. मगर मैं शायद दिल्ली में होता तो भी वहां नहीं जाता.. कारण ऐसी गोष्ठीयों से दूर रहने कि प्रकृति.. उन्होंने जो कुछ भी कहा उस पर मुझ जैसे बुद्धिहीन व्यक्ति(जो बुद्धिजीवी नहीं वह बुद्धिहीन ही हो सकता है) कुछ कहे तो वह अतिश्योक्ति से अधिक कुछ और नहीं होगा.. वैसे भी बुद्धिजीवी लोग बैठे हैं इस पर बाते करने को..

मुझ अदने से इंसान को कोई बस इतना समझा दे कि सभा में बैठ कर यादव जी द्वारा धूम्रपान करने को भी कोई जायज ठहरा सकता है? जैसा कि कुछ दिन हुये धूम्रपान को लेकर नये नियम बनाये गये हैं, उसमें किसी भी सार्वजनिक जगह पर धूम्रपान पर पाबंदी है.. इसमें सभागार भी आता है.. क्या राजेन्द्र यादव जी को नियम पता नहीं हैं? या फिर वह खुद को नियम से ऊपर समझ बैठे हैं? या फिर उनका सोचना यह है कि बुद्धिजीवियों कि बुद्धिमता सभा में सिगार पीने से बढ़ जाती है? अगर उन्हें धूम्रपान संबंधित नियमो का पता नहीं था तो उनके इस दुर्भाग्य पर आगे मुझे कुछ नहीं कहना है..

इस संदर्भ में ज्यादा जानकारी के लिये आप यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ें..

क्या महिलायें आतंकवादी नहीं होती हैं?

जैसा कि मैंने अपने पिछले पोस्ट में बताया था कि मुंबई हमले के बाद से मेरी कंपनी में भी सुरक्षा व्यवस्था कड़ी की गई है.. मेटल डिटेक्टर भी उसी सुरक्षा व्यवस्था का ही एक हिस्सा है.. जब मैं ऑफिस के अंदर घुसता हूं तो सबसे पहले मेरा बैग चेक किया जाता है.. फिर मेटल डिटेक्टर से मेरी जेबों को चेक किया जाता है.. यह जरूरी है कि जेबों में कुछ भी मेटल का नहीं होना चाहिये.. ना सिक्के और ना ही कोई चाभी..

एक-दो दिन मैं यही देखता रहा, जो भी कर रहे थे सही कर रहे थे.. जांच से होने वाली परेशानी से मुझे कोई दिक्कत नहीं थी.. मुझे दिक्कत इससे थी कि जब आपको यह काम दिया गया है तो सही तरीके से करो.. जैसे वो कभी मेटल डिटेक्टर से मेरे जूतों को सर्च नहीं करता था.. मैंने उसे एक बार इसे लेकर टोका भी मगर गार्ड का कहना था कि, "सब ठीक है आप जा सकते हैं.." और इसके साथ एक मुस्कुराहट.. फिर मैंने उसे सबक सिखाने के लिये अपना पेन ड्राईव ले गया अपने जूतों में छिपा कर.. जब उसने चेक करके कंफर्म कर लिया तब मैंने पेन ड्राईव निकाला और कहा कि इसे जमा कर लो.. गार्ड आश्चर्य से मेरा चेहरा देख रहा था.. मैंने उसे कहा कि कोई भी हथियार अपनी जेब में छिपा कर नहीं ले जाने वाला है, मानो कह रहा हो कि आओ और मुझे पकड़ लो.. खैर उसे नहीं सुधरना था सो अभी तक नहीं सुधरा है..

मुझे दुसरी शिकायत उससे यह है कि वह मेटल डिटेक्टर से सभी पुरूष कर्मचारियों को तो सर्च करता है मगर आज तक कभी उसे महिला कर्मचारियों को चेक करते नहीं देखा है.. मेरी जानकारी में तमिलनाडु ही वह राज्य है जिसने महिला आतंकवादी का सबसे बड़ा आघात भारत को दिया था, जब राजीव गांधी की हत्या हुई थी.. अब अगर ऐसे में यहीं के लोग यह मान कर चलने लगे कि महिला आतंकवादी नहीं हो सकती है तो इस देश के दुर्भाग्य पर और मैं क्या कह सकता हूं? मैंने सोचा है कि अगले एच.आर. मिटींग में यह मुद्दा उठाऊंगा.. देखिये आगे क्या होता है?

Monday, December 29, 2008

एक तमंचे कि जरूरत है, नहीं तो नौकरी पर खतरा

हर दिन ऑफिस आने से पहले दिल में एक धुकधुकी सी लगी रहती है कि आज जाने क्या होगा? आज ऑफिस के अंदर आने दिया जायेगा या नहीं? कहीं आज बाहर से ही ना विदाई हो जाये.. कारण बस यही कि मेरे पास पिस्तौल नहीं है..

असल में बात यह है कि कुछ दिन पहले मेरे ऑफिस में मुख्य द्वार पर एक बोर्ड लगा दिया गया है जिस पर कुछ आपत्तिजनक चीजों के चित्र हैं और साथ में लिखा हुआ है कि कृप्या इसे यहां जमा कर ही अंदर जायें.. उन चीजों में पेन ड्राईव, कैमरा, आई-पॉड, कैमरा मोबाईल, चाकू और पिस्तौल है.. अब मेरे पास सारी चीजें तो हैं, कमी है तो बस एक अदद पिस्तौल की..

अब जरा सोचिये कि क्या नजारा होगा जब एक-एक करके मेरे ब्रांच के सारे कर्मचारी अपनी-अपनी बंदूक निकाल कर काऊंटर पर जमा कराते जायेंगे.. किस तरह कि बातें होंगी..

'अ' कहेगा 'ब' से, "अरे आपकी कार्बाईन तो बहुत बढ़िया है.." मगर मन ही मन में सोचता रहेगा कि चलो इसी बहाने इसकी नजर मेरे अमेरिकन पिस्तौल पर तो पड़े..

'ब' उत्तर देगा, "कहां जी, आपकी पिस्तौल तो बिलकुल चमक रही है.. कहां से ली?"

'अ', "मेरा एक दोस्त ऑन साईट से लौट रहा था तो न्यूयार्क से उसने मेरे लिये खरीदी.. अब अमेरिकी वैसे भी यह सब बेचने में तो उस्ताद हैं ही.. चाहे तालिबान को देखिये या पाकिस्तान को, हर जगह उन्हीं का माल दिखेगा.."

तभी 'स' अपनी ए.के.56 लेकर अंदर आयेगा.. उसे देखकर गार्ड कहेगा, "सर, इतनी बड़ी बंदूक लेकर मत आया किजिये.. रखने मे बहुत जगह घेरता है.." 'स' कहेगा, "ये बस आज भर के लिये ही है.. कल से छोटा पिस्तौल लेकर आऊंगा.. आज ऑफिस के बाद एक बैंक लूटना है इसलिये इसकी जरूरत थी.. :)

खैर ये तो रही मजाक की बात.. अब अगर सच को सामने रख कर कल्पना करें कि कोई ऑफिस आया और उसने सच में अपना पिस्तौल जमा कराने कि कोशिश की तो सभी के चेहरे पर क्या भाव आयेंगे और उस गार्ड का क्या हाल होगा? मैंने गार्ड से पूछा था कि अगर कोई सच में अपना पिस्तौल जमा कराना चाहे तो वो क्या करेगा? उसका कहना था कि वो किसी भी अन्य सामान कि तरह उसकी जानकारी भी अपने रजिस्टर में दाखिल करेगा.. मैंने आगे पूछा कि क्या वो लाईसेंस चेक नहीं करेगा? सुनकर वो चौंक गया और बोला कि ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था.. जब गार्ड इतनी छोटी-छोटी लापरवाही दिखाये तो आगे क्या कहा जा सकता है?

हमारे गार्ड कि लापरवाही के किस्से अगले भाग में.. किस तरह उसके हाथ में मेटल डिटेक्टर होते हुये भी वो लापरवाही दिखाता है..

Sunday, December 28, 2008

क्यों अक्सर भाई बहनों के लिये लड़ते हैं?

कल भी किसी आम दिन कि तरह ही दीदी को फोन किया और बात चलते-चलते बहुत लम्बी खींच गई मगर फिर भी फोन रखने का मन नहीं कर रहा था.. आखिर बहुत दिनों बाद दीदी के साथ पुराने दिनों को याद करते हुये वर्तमान को जी रहे थे.. अक्सर दीदी को जब भी फोन करता था तो दीदी कि बेटी उनसे फोन छीन लेती थी और फिर उसी से बात होती रह जाती थी.. 4.5 साल कि है.. कल भी कुछ ऐसा ही हुआ और फोन लेने के चक्कर में ठुनकते हुये दीदी को तंग करने लगी.. मैंने उससे कहा कि मम्मी को तंग क्यों कर रही थी? सॉरी बोलो मम्मी को.. इस बात पर कुछ देर तक कुछ नहीं बोली और चुपचाप दीदी को फोन देकर भाग गई, मगर सॉरी नहीं बोली.. इसी बात पर हमारी बातें होने लगी.. दीदी बोल रही थी कि इस लड़की में बहुत अकड़ आती जा रही है और मेरा कहना था कि इसे उद्दंडता में मत बदलने दिजियेगा..

दीदी अपने मनोभावों को बताने लगी, कहने लगी कि वो बहुत खुश होती है जब इसे ऐसे देखती है.. दीदी को लगता है कि जैसी वो खुद थी और है वैसी उसकी बेटी नहीं है.. जहां वो हर बात चुपचाप मान लेती थी वहीं उसकी बेटी को जो पसंद होता है उसपर कोई समझौता नहीं करना चाहती है.. मगर मेरी इस बात से भी सहमत थी कि यह उद्दंडता में ना ही बदले तो अच्छा हो..

बातों ही बातों में पुरानी बात याद करने लगी.. एक बार दीदी कि मित्र दिपाली दीदी ने दीदी को अपने घर पर आमंत्रित किया था और चूंकि उनका घर हमारे घर से बहुत दूर था सो पापा-मम्मी इजाजत देने में हिचकिचा रहे थे.. इस बात पर दीदी ने कुछ नहीं कहा मगर मैं पापा-मम्मी से खूब बहस किया था कि मैं पूरे दिन बिना किसी काम के घर से बाहर रहता हूं.. दिन भर पटना के चक्कर लगाता हूं.. कभी मुझसे तो नहीं पूछा गया कि मैं कहां जाते हो? किस जगह बिना मतलब का पेट्रोल जलाता हूं.. और रही बात दिपाली दीदी के घर जाने कि तो मैं दीदी को ले जाने और ले आने को तैयार हूं ही.. फिर उस दिन मैं दीदी को लेकर गया था और दीदी को दिपाली दीदी के घर छोड़ कर अपनी एक मित्र के घर चला गया था जो वहीं पास में रहती थी.. राजेन्द्रनगर रोड नं-10 में..

मुझे अब कुछ भी याद नहीं था कि ऐसा कुछ हुआ भी था मगर दीदी नहीं भूली और उसने मुझे भी वो सब कुछ याद दिला दिया.. उसने यह भी याद दिलाया कि किस तरह हर दिन सुबह 6.30 में मैं उन्हें उनके कालेज छोड़ता था और यह क्रम पूरे दो सालों तक बना रहा.. गर्मी हो, बरसात हो या कड़कड़ाती ठंड.. हमारे बीच बहुत ज्यादा बहस हुआ हो या कोई झगड़ा हुआ हो.. मगर दीदी की अलार्म घड़ी भी मैं ही था और सुबह ठीक 5.30 में दीदी को जगाता था.. हमारे बीच बातचीत बंद हो तो भी सुबह उठकर दीदी को आवाज ना लगा कर दीदी के पलंग को हिला कर जगाता था.. :)


दीदी-पाहुनजी तस्वीरों में(हमारी भाषा मैथिली में जीजाजी को पाहुनजी कहते हैं)
शीर्षक में जो प्रश्न है वो कोई प्रश्न नहीं है, वो तो अपने आप में एक उत्तर है.. जिसे हम सभी जानते हैं.. आगे कुछ कहने कि जरूरत नहीं है.. बस कल रात बचपन के कुछ यादगार लम्हों को दीदी के साथ फिर जिया हूं..

Friday, December 26, 2008

हर्ष मनाऊं या शोक?

आज का दिन कुछ ऐसा है जिसने मुझे असमंजस में डाल रखा है कि मैं आज हर्ष मनाऊँ या शोक? मेरे पास दोनों ही के लिए उम्दा कारण भी हैं.. हर्ष मनाने का कारण आज मेरे पापाजी का जन्मदिन है और शोक का कारण आज के ही दिन तीन साल पहले आया सुनामी है जिसने लाखों लोगों कि इहलीला समाप्त कर दी थी और लाखों को पूरी तरह से उजाड़ कर रख दिया था..

शोक मनाने का कारण -
आज से ३ साल पहले मैं आज के दिन ट्रेन में था और अपने कालेज लौट रहा था.. सुबह सुबह उठ कर देखा तो समाचार पत्र पूरी तरह से इन सुनामी कि खबरों से भरे हुए थे.. उस समय इसकी तीव्रता का अनुमान मुझे नहीं हुआ था.. फिर घर से फोन आया और कुशल-मंगल पूछा गया.. उस सुनामी से चेन्नई में भी भारी तबाही हुई थी और मेरे ट्रेन को भी समुद्र तट के बगल से होते हुए चेन्नई से होकर गुजरना था.. चेन्नई आने से पहले ट्रेन से समुद्र का तट काफी दूर से दिखाई देता है, मगर मुझे याद है उस दिन ऐसा लग रहा था जैसे समुद्र के ऊपर पुल बना हुआ है और उससे होकर हमारी ट्रेन जा रही है.. फिर भी उसकी भयानकता का अनुमान हमने नहीं लगाया.. इसकी भयानकता का अनुमान तो एक-दो दिन बाद जाकर लगा जब हम कालेज सुरक्षित पहुँच गए थे..

हम मनुष्य सोचते हैं कि इस पानी, पत्थर, समुद्र, नाले, पर्वत, पहाड़ में प्राण नहीं होता है.. यह प्रकृति निर्जीव होती है और यह सोचकर प्रकृति को एक चुनौती समझ कर बांधने निकल चलते हैं.. मगर यही निर्जीव प्रकृति जब सजीव होकर अपना बदला लेने निकलती है तब उसके लिए सारी सीमा समाप्त हो जाती है.. शायद सुनामी ने यही साबित करने कि कोशिश कि थी..

हर्ष का कारण -
जब से होश संभाला और पता चला कि जन्मदिन बस बच्चो का ही नहीं होता वरन पापा-मम्मी का भी होता है तब से हर संभव प्रयास रहा कि उनका जन्मदिन भी उसी तरह से मनाया जाए जैसे हम बच्चो का मनाया जाता है.. आज २६ दिसम्बर को मेरे पापाजी का जन्मदिन है और जब हम घर पर होते थे तब बहुत धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाते थे.. अब इसा बार यह जिम्मेदारी सिर्फ भैया पर है क्योंकि अभी बस वही पापा-मम्मी के पास है.. उनके लिए केक लाना, कहीं बाहर डिनर पर निकलना.. पता नहीं भैया क्या कर रहे होंगे.. आज मुझे बहुत दुःख हुआ क्योंकि आज पापाजी हम सभी पर यह आरोप लगा रहे थे कि हम तीनो उनका जन्मदिन भूल गए हैं.. किसी ने उन्हें सुबह-सुबह बधाई नहीं दी..

कल रात बारह बजे मैं अपने मित्र को बता कर खुश हो रहा था कि आज मेरे पापाजी सठिया गए..:) उसने पूछा कि ऐसा क्यों बोल रहे हो, तो मैंने कहा कि आज मेरे पापाजी का जन्मदिन है और आज वो साठवे वर्ष में प्रवेश कर गए हैं.. उसने मुझसे पूछा कि फोन कर लिए और मैंने कहा कि सो गए होंगे.. अब मुझे ऐसा लग रहा है कि उनकी नींद तोड़कर उन्हें फोन कर ही देना चाहिए था कम से कम उन्हें यह तो नहीं लगता कि सभी उनका जन्मदिन भूल गए हैं.. खैर और क्या कहूँ.. थोडी देर में फोन करके पता करता हूँ कि आज दिन भर की क्या किये? दोपहर में तो बता रहे थे कि कोई प्लान नहीं है, मगर क्या पता कि भैया का कोई प्लान हो..

Thursday, December 25, 2008

मेरे नये i-Pod कि खूबियां जो किसी को भी चकाचौंध कर डाले

कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र अपने किसी काम से अमेरिका गई थी, वहां जाकर उसने मुझसे पूछा कि कुछ चाहिये क्या और मैंने उससे आई-पॉड मंगवा लिया.. मैंने उसे बस अपना बजट बताया और बाकी उसकी पसंद पर छोड़ दिया.. मुझे ज्यादा मेमोरी कि चाह नहीं थी, मुझे तो बस सबसे ज्यादा फंक्शन्स चाहिये थे और अर्चना कि पसंद में मुझे वो सब कुछ मिल गया.. यूं तो अर्चना काफी पहले भारत वापस लौट आयी थी मगर किसी अन्य कारणों से यह आई-पॉड मुझ तक पहूंचाने में उसे कुछ देरी हुई.. आखिर उसे मुंबई से चेन्नई यह आई-पॉड भेजना था..


फिर एक दिन पहले से बिना बताये हुये उसने मुझे यह आई-पॉड भेज दिया, मुझे सरप्राईज देने कि सोच ने उसे मुझे यह बात बताने से रोका.. मुझे सबसे अच्छा यह लगा कि पार्सल में उसका एक हस्तलिखित पत्र भी मिला.. सच कहूं तो आज के नेट युग में किसी का हस्तलिखित पत्र से बड़ा और क्या सरप्राईज हो सकता है? मैं सबसे पहले उसका पत्र पढ़ा और फिर जाकर अपने आई-पॉड को देखा.. :)


यहां मैं इस आई-पॉड के बारे में बताता हुआ दो विडियो लगा रहा हूं.. आप इसे अवश्य देखें, और मेरा दावा है कि आप इसे देखकर जरूर मुझसे ईर्ष्या करेंगे या फिर इसे खरीदने की इच्छा.. :) इसके कुछ प्रमुख खूबियों में से कुछ मैं आपको यहां लिख कर बता देता हूं.. गाने सुनना किसी भी आई-पॉड का पहला काम होता है सो मैं इसे इसकी खूबियों में नहीं जोड़ रहा हूं..

1. यह एक विडियो आई-पॉड है..
2. आप इसमें फोटो भी देख सकते हैं और किसी आई-फोन कि ही तरह छोटा-बड़ा भी कर सकते हैं..
3. आप इसके द्वारा वाई-फाई नेटवर्क से भी कनेक्ट हो सकते हैं..
4. इसमें कैलेंडर है जिसका इस्तेमाल आप अपने सेड्यूलिंग करने के लिये भी कर सकते हैं..
5. आप मेल और वेब साईट भी देख सकते हैं..
6. गूगल मैप का प्रयोग भी इसके द्वारा किया जा सकता है..
7. अगर आपको लगातार वाई-फाई नेटवर्क मिल रहा हो तो आप जीपीआरएस का भी प्रयोग कर रास्तों कि जानकारी ले सकते हैं..
8. अपने नोट्स बना सकते हैं..
9. कैलक्यूलेटर का प्रयोग कर सकते हैं..
10. अलग-अलग देशों के समय को बताती हुई घड़ी भी है इसमें..
11. स्टॉक मार्केट कि जानकारी भी इससे आप ले सकते हैं..
12. यूट्यूब से विडियो आप सीधे देख सकते हैं..
13. मौसम कि जानकारी भी आप ले सकते हैं..
14. नये-नये विडियो गेम भी आप खेल सकते हैं..

(अधिकतर सुविधायें वाई-फाई नेटवर्क कि उपलब्धिता पर निर्भर करता है..)

ये हैं इसके कुछ फीचर, वैसे इसमें इस तरह के कई फीचरों कि भरमार है जिसका मुझे अभी तक पता भी नहीं चला है क्योंकि मुझे अभी वाई-फाई नेटवर्क उपलब्ध नहीं है.. :(

ये पहला विडियो इसका रिव्यू देता हुआ है..


ये दूसरा विडियो इसके स्क्रैच फ्री होने के प्रयोग पर है.. जिसमें दिखाया गया है कि यह किस हद तक स्क्रैच को रोकता है..



मैंने अभी तक इस पर चार सिनेमा देखी है और इसमें लगभग 300 गाने स्टोर कर रखा हूं.. इसका उदघाटन मैंने मधुमती और प्यासा जैसी सिनेमाओं से किया और फिर दसविदानियां और गुलामी देखी.. :)

Saturday, December 20, 2008

हमारे भाईज़ान पर एक गज़ल

आप आये तो लगा जैसे,
गुलशन-ए-बहार आया..
जैसे बजते हुये किसी मीठी धुन में,
लेकर कोई 'गिटार' आया..

छम-छम सी चलती हुई कोई लड़की,
के हाथों में जैसे बिजली का तार आया..
खामोशियों के अफ़साने जहां बजते हों,
उस बस्ती को जैसे कोई उजाड़ आया..

मुरझाये हुये चेहरों पे जैसे,
खुशियों का अंबार आया..
बाकी लोग भी जल्दी आओ,
लगा जैसे कोई ऐसा पुकार आया..


ये हैं हमारे भाईज़ान अफ़रोज़ आलम

हमलोग कालेज के लगभग सभी मित्र हर दिन एक दूसरे को गुड मौर्निंग मेल करते हैं और सभी उसे रिप्लाई टू ऑल करते हैं.. कुछ इस तरह हम सभी एक दूसरे से कौंटैक्ट में भी रहते हैं और बातें भी होती रहती हैं.. आज शनिवार के दिन सबसे पहले मैं ऑफिस पहूंचा और मेल किया सबको, लगभग 2-3 बजे के आस अफ़रोज़ का मेल आया कि मैं हूं ऑफिस में और उनके स्वागत करते हुये मैंने उनके ऊपर एक व्यंगात्मक गज़ल दे मारी.. अब उन्हें कितना चोट लगा ये तो पता नहीं.. ;)

ये हमारे कालेज के मित्र हैं और अभी चेन्नई में ही हैं.. हम सभी इन्हें प्यार से भाईज़ान कहकर बुलाते हैं..

Friday, December 19, 2008

कबाड़ी के कबाड़ से निकला यादों का पुलिंदा

अभी कुछ दिन पहले कबाड़खाना पर कुछ गीतों का दौर चल रहा था.. जिसमें सबसे पहले "वो गाये तो आफ़त लाये है सुर ताल में लेवे जान निकाल" सुनने को मिला.. उसमें आये कुछ कमेंट के बाद सिद्धेश्वर जी ने "दिल सख़्त क़यामत पत्थर सा और बातें नर्म रसीली सी" नामक पोस्ट दे मारी.. मुझे भी कुछ जोश आया और मैंने भी एक पोस्ट गीतों के ऊपर ही लिख डाली "पिया बाज प्याला, पीया जाये ना"..

मैंने सिद्धेश्वर जी को एक ई-पत्र भी लिखा.. जिसे लिखते हुये मैं पटना की गलियों फिर से पहूंच गया.. जब मैंने इन गीतों को पहली बार सुना था उस समय मैं तुरंत ही मैट्रिक पास किया था.. कैसेट खरीदने का जिम्मा भैया के हाथों में होता था.. भैया मुझसे बस दो साल बड़े हैं, मगर उस छोटी उम्र में भी ना जाने कहां से अच्छे गीतों कि समझ उनमें पैदा हो गई थी, जबकी हमारे घर में किसी को गीतों कि शिक्षा मिली हो ऐसी कोई बात नहीं थी..

कहां-कहां से ढूंढ कर कभी हुश्न-ए-जाना तो कभी पैगाम-ए-मुहब्बत तो कभी नुसरत कि कव्वालिया तो कभी म्यूजिक टूडे पर आने वाले संगीतों कि श्रृखला खरीद कर लाते थे.. हम दोनो भाई जब भी बाजार जाते थे तो भैया कैसेट कि दूकान पर लपक लेते थे और मैं किताबों कि दुकान पर.. मैं 15 साल का था उस समय और भैया 17 साल के.. मगर शायद ही कभी ऐसा हुआ हो की भैया का खरीदा हुआ कोई कैसेट बेकार या फालतू निकला हो..

जब 12 साल का था तब मैं पहली बार नुसरत को सुना था.. उन दिनों चक्रधरपुर में रहते थे जो कि अब झारखंड में है.. उसे शहर कहना ठीक नहीं होगा, एक छोटा सा कस्बा था वह.. वहां मेरी मौसी नानी रहती थी और मैंने अपने मामा जी के पास नुसरता का वह एल्बम "उनकी गली में आना जाना" सुना और उनसे हमेशा के लिये मांग कर लेता आया.. मुझे याद है कि घर में नुसरत को सुनना उस समय किसी को पसंद नहीं था.. शायद ये 1994 कि घटना है.. उन्ही दिनों बैंडिट क्वीन सिनेमा आयी थी और हमारे उम्र के लड़कों के मुंह से उस सिनेमा कि चर्चा भी एक पाप जैसा समझा जाता था.. उन दिनों मैं विक्रमगंज में पापाजी के साथ था और भैय, दीदी और मम्मी पटना में थे.. एक बार जब मैं घर पहूंचा तब देखा कि भैया बैंडिट क्वीन का कैसेट खरीद रखे हैं और घर में बस नुसरत ही छाया हुआ है.. मैं तो उसका दिवाना इस कदर था कि मेरे मित्र मुझे नुसरत ही कहा करते थे.. अब भी उस जमाने के मित्र कहीं पटना की गलियों में टकरा जाते हैं तो आदाब नुसरत साहब कह कर ही अभिवादन होता है.. अब घर में भैया भी उसे खूब सुनने लगे थे और उनकी दिवानगी कुछ ऐसी हो चुकी थी कि नुसरत साहब की मॄत्यु पर 2-3 दिन तक भैया चुपचाप थे..

अब जबकी नुसरत भैया के हिटलिस्ट में था और कैसेट खरीदना भी उन्हीं के जिम्मे तो एक एक करके भारत में उपलब्ध नुसरत की सभी कव्वालियां और पाश्चात्य संगीत भैया ने घर में सजा दिये.. मुझे याद है कि एक कैसेट उन्हें नहीं मिला था जिसे मैं अब भी ढ़ूंढ़ता हूं.. "Dead Man Walking".. सोचता हूं कभी मिले तो भैया को गिफ्ट कर सकूं.. कुछ दिनों बाद मुन्ना भैया भी पटना आ गये और पत्रकारिता के शुरूवाती दिनों के संघर्ष में जुट गये.. अक्सर वो घर आते थे, और भैया और मुन्ना भैया के बीच गानों को लेकर खूब बाते होती थी.. एक तरफ कैरम और दूसरी तरफ अच्छे कर्णप्रिय गाने.. और मम्मी अपना सर पीटती थी कि पढ़ाई-लिखाई से इस सबको कोई मतलब ही नहीं है.. :)

बस यही कहना चाहूंगा, "काश कोई लौटा दे वो सुकून, चैन से भरे दिन.. गुनगुनी जाड़े की दूप, रविवार कि सुबह, जब हम सभी भाई-बहन और पापा-मम्मी साथ थे.. हर शाम कैरम का दौर चलता था.. जिसमें मैं अक्सर हारा करता था भैया से.. मगर उन्हें कैरम में डर भी मुझ से ही लगता था, क्योंकि कैरम में वो बस मुझ से ही कभी हारा करते थे.. मगर अब ये नहीं हो सकता है.. चिड़ियों के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं, अपना आशियां तलाशने को घर से उड़ चुके हैं.. मन में दुनिया को जितने का जज्बा लिये और सर पर पापा-मम्मी का आशीर्वाद लिये.."

तब तक के लिये आप बैंडिट क्वीन सिनेमा का नुसरत का यह गीत सुने..

सजना, सजना तेरे, तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।
काटूं कैसे तेरे बिना बड़ी रैना, तेरे बिना जिया नाहीं लागे ।

पलकों में बिरहा का गहना पहना
निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।

बूंदों की पायल बजी, सुनी किसी ने भी नहीं
खुद से कही जो कही, कही किसी से भी नहीं
भीगने को मन तरसेगा कब तक
चांदनी में आंसू चमकेगा कब तक
सावन आया ना ही बरसे और ना ही जाए
हो निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।

सरगम खिली प्‍यार की, खिलने लगी धुन कई
खुश्‍बू से 'पर' मांगकर उड़ चली हूं पी की गली
आंच घोले मेरी सांसों में पुरवा
डोल डोल जाए पल पल मनवा
रब जाने के ये सपने हैं या हैं साए
हो निंदिया काहे ऐसी अंखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ।।


गलती से नुसरत के गाये गाने के बजाये कुछ और पॉडकास्ट कर दिया था, मगर जो भी पॉडकास्ट हुआ था उसे भी मैं नहीं हटा रहा हूं क्योंकि वो भी शानदार गाया हुआ है.. वो सारेगामापा के किसी एपिसोड में किसी पाकिस्तानी गायक द्वारा गाया हुआ है.. फिलहाल आप दोनों ही गीतों के मजे लिजिये..
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Thursday, December 18, 2008

सौ में सौ से ज्यादा नंबर कैसे लायें?

मैंने कुछ दिन पहले अपने कालेज के दिनों का एक पोस्ट लिखा था कि कैसे साफ्टवेयर इंजिनियरिंग पेपर हमे परेशान कर रखा था.. खैर पहला इंटरनल निकल चुका था और उसमें हम सभी फेल हो चुके थे.. अब सुनते हैं आगे का किस्सा..


जब हमने अपनी-अपनी कॉपी देखना शुरू किया तब पता चला कि कॉपी चेक करने वाली मैम को हूबहू किताबी भाषा चाहिये थी और जिसने भी किताबी भाषा का प्रयोग बखूबी किया था बस वही पास हुआ था.. अब जबकी समझ में आ ही गया था तो हम सभी खुद को भरोसा दिला रहे थे, "बेटा तू भी रट्टा मार सकता है.. जो कभी नहीं किया उसे आज कर ही डालो.. मतलब रट्टा मारो.." विकास ने तो यहां तक एलान कर दिया कि दूसरे इंटरनल में जो भी 45 से ज्यादा नंबर ले आयेगा वो साला रट्टू तोता होगा.. वैसे हमने बाद में अपने बीच एक रट्टू तोता को भी पाया, जिसके बारे में मैं बाद में बताता हूं..

जिंदगी में पहली बार मुझे अपने भीतर छुपी इस कला का भी पता चला कि मैं भी रट्टा मार सकता हूं.. दूसरों का तो पता नहीं मगर मैं और विकास दूसरे इंटरनल के 15-20 दिन पहले से ही रट्टा मारना शुरू कर दिये.. हर दिन और कुछ पढ़े चाहे ना पढ़ें मगर एक-दो पन्ने की साफ्टवेयर इंजिनियरिंग जरूर हो जाया करती थी..


यूं ही करते-कराते दूसरा इंटरनल वाला दिन भी आ गया.. उस रात सभी की हालत पहले से भी खराब हो रही थी.. खासतौर पर शिवेन्द्र, रूपेश और संजीव की.. क्योंकि हम सभी रट्टा मारने में सबसे बड़े फिसड्डी थे सो जहां रट्टा मारने की बात आई वहां हालत खराब होनी ही थी.. कुल मिलाकर सबसे अच्छे हालत में विकास था और उसके बाद मैं.. अगली सुबह शिवेन्द्र ने परिक्षा हॉल जाने से मना कर दिया कि नहीं मैं नहीं जा रहा हूं, अगले सेमेस्टर में फिर से यह पेपर दे दूंगा.. उसकी हालत लगभग नर्वस सिस्टम फेल होने जैसी हो चुकी थी.. हम लोग किसी तरह समझा-बुझा कर उसे ले गये कि कुछ भी नंबर आये, मगर चलो और परिक्षा दे ही दो..

परिक्षा देते समय जितना कुछ पढ़ा था, लगा जैसे सब भूल गया हूं.. खैर कुछ दिन बाद नंबर भी आये और हममे सबसे ज्यादा विकास को ही आये.. पूरे 46, पचास में.. उसी ने कहा था कि जिसका 45 से ज्यादा आयेगा वो होगा पक्का रट्टू तोता और उसने खुद को रट्टू तोता साबित कर ही दिया.. मेरे आये थे 28 या 29.. रूपेश का याद नहीं है मगर शिवेन्द्र और संजीव फिर से पास नहीं कर पाये थे.. पास मार्क 25 था..


फिर सेमेस्टर परिक्षा ने भी दस्तक दे ही दिया.. साफ्टवेयर इंजिनियरिंग शायद अंतिम पेपर था.. जब मैं परिक्षा भवन से बाहर निकला तब मुझे पूरा भरोसा था कि मैं पास तो हो ही जाऊंगा, विकास को सोचना ही नहीं था कि पास होगा या नहीं.. उसे तो अच्छे नंबर की चिंता थी.. शिवेन्द्र और संजीव सोच रहे थे कि अगले सेमेस्टर में फिर से देने कि तैयारी करनी परेगी..


क्लास रूम कि एक तस्वीर, क्लास खत्म होने के बाद का

जब मैं परिक्षा दे कर बाहर आया था तब मुझे पूरा भरोसा था की मैं पास हो जाऊंगा मगर जैसे-जैसे मैं होस्टल की ओर बढ़ रहा था वैसे-वैसे मुझे पता चल रहा था कि मैंने इसका उत्तर गलत लिखा है, तो उसका उत्तर गलत लिखा है.. फिर जोड़-घटाव करके देखा तो पाया जितना मैंने सही लिखा है उसमें अगर पूरे नंबर मिल गये तभी पास होऊंगा, नहीं तो मुझे भी तैयारी शुरू करनी ही चाहिये..

अगले सेमेस्टर की नई सुबह.. रिजल्ट आने से पहले एक दिन मैं और विकास कालेज कैंपस में घूम रहे थे और आने वाले रिजल्ट के बारे में बात कर रहे थे.. ऐसे ही जोड़कर देखा तो पाया कि विकास को अगर पूरे सौ नंबर आते हैं तो उसका 'A' ग्रेड बनेगा और 'S' ग्रेड आने के लिये उसे 108 नंबर चाहिये.. और संयोग ऐसा कि उसी शाम रिजल्ट आया.. नेट पर हमने चेक किया तो पता चला कि विकास के 'S' ग्रेड हैं.. और जिसके पास होने की कोई उम्मीद नहीं थी वह भी पास कर गया है.. कुल मिलाकर हमने यही निष्कर्स निकाला की सभी को ग्रेस नंबर मिले हैं इसी कारण सिर्फ विकास ही नहीं और भी कुछ विद्यार्थियों के सौ से ज्यादा नंबर आये थे.. ऐसा ही कुछ सेकेण्ड सेमेस्टर में माईक्रोप्रोसेसर के पेपर में भी हुआ था..


क्लास के बाहर का गैलरी

तो ऐसे हमे सौ में सौ से ज्यादा नंबर भी मिलते थे.. मगर मुझे कभी नहीं मिला.. ;) जब विकास का नंबर देखा था तब मुझे बचपन में कही पापा की बाता याद हो आयी.. वो परिक्षा के समय आशीर्वाद देते थे कि ऐसा लिखना कि मास्टर बोले बेटा कमाल लिखा है सो इसे सौ में एक सौ आठ दे दूं.. :D

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मेरे पिछले पोस्ट पर मेरे कालेज के छोटे भाई क्षितिज ने कमेंट किया था और पूछा था की भैया आपको भी कहां से इस साफ्टवेयर इंजिनियरिंग कि याद आ गयी? उसका जवाब है, "क्या बताऊं भाई, कालेज में पीछा तो छूटा मगर उस दिन मुझे एक ट्रेनिंग लेने के लिये रिस्क एनालिसिस पढ़कर डाक्यूमेंट बनाना पर रहा था.. सो बरबस ही उसकी याद हो आयी.. अब समझ में आ गया है कि इससे जीवन भर पीछा नहीं छूटने वाला है..":)

आप कभी क्षितिज के ब्लौग पर जाईये और उसकी नज्में पढ़िये.. बहुत शानदार लिखता है.. मगर उसे ज्यादा पाठक कभी नहीं मिलते हैं.. सच कहूं तो इतना बढिया नज्म मैं लगातार कभी नहीं लिख सकता हूं..

Wednesday, December 17, 2008

पिया बाज प्याला, पीया जाये ना

मेरे मनपसंद गीतों में से एक..

पिया बाज प्याला,
पीया जाये ना..
पिया बाज यकतिल,
जिया जाए ना..

नहीं इश्क जिसे वो,
बड़ा ख़ूर है..
कभी उससे मिल,
बैसा जाए ना..

कुतुबशा ना दे मुझ,
दीवाने को पंद..
दीवाने को कुछ पंद,
दिया जाए ना..

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मुजफ्फर अली द्वारा कम्पोज किया हुआ..

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पोस्ट करते समय तो बस बेतरतीबी में पोस्ट कर डाला था मगर बाद में कमेंट पढ़ कर पता चला कि लोग इसके बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं.. मुझे जितनी जानकारी है इस गीत कि उतनी मैं यहां दे रहा हूं.. ज्यादा जानकारी के लिये किसी कबाड़ी से संपर्क करें.. मुझे यकीन है कि वहां से सारी जानकारी आपको मिल जायेगी..

एल्बम का नाम - हुश्न-ए-जाना 1997
संगीतकार - मुजफ्फर अली
गीत के रचयिता - कुली कुतुबशाह
स्वर - छाया गांगुली और इकबाल सिद्दीकी
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जैसा मैंने कहा था कि इस गीत के बारे में कोई कबाड़ी ही बता सकता है सो एक कबाड़ी सिद्धेश्वर जी आये और अपना कबाड़ पकड़ा गये.. :)
बहुत-बहुत धन्यवाद उन्हें.. उनके द्वारा दी गयी जानकारी से मैंने अपने इस पोस्ट की गलतियों को सही कर लिया है..

Sunday, December 14, 2008

इंद्रियां अभी जिंदा है मेरी

आज सबसे पहले मैं ये बता देता हूं कि आज के इस पोस्ट में मैं जिस हिंग्लिश में बात करता हूं वही भाषा आपको पढ़ने को मिलेगी.. शुद्ध हिंदी पढ़ने की चाह वाले इसे ना पढ़ें..

अक्सर मैं अपने दोस्तों को कहता था कि खाना मेरे लिये कभी फर्स्ट प्रायौरिटी नहीं है, यह हमेशा मेरे लिये सेकेण्ड ही रहेगा.. वो सभी यही समझने लगे कि इसे खाना में कोई इंटेरेस्ट ही नहीं है.. मगर मैं जो कहता था उसका रीयल मिनिंग नहीं समझ सके.. उसका मेरे लिये मतलब यही रहता था कि अगर अपने आत्म सम्मान को खुद से दूर हटा कर बस भौतिक सुख के पीछे भागूं तो मुझमे और जानवरों में क्या अंतर रह जायेगा? यहां खाना का मतलब सिर्फ खाना ही नहीं है, हर तरह के भौतिक सुख हैं.. भौतिक सुख की चाह किसे नहीं होती? जीभ है तो अच्छा खाना भी ढ़ूंढ़ेगा, निगाहें है तो अच्छे नजारें भी तलाशे जायेंगे.. इंद्रियां यूं ही नहीं मरती है किसी की.. मगर मेरे लिये आत्म सम्मान कि कीमत पर नहीं..

आज भैया लगभग डांटते हुये समझा रहे थे और साथ में पूछ भी रहे थे कि ठीक से खाना क्यों नहीं खाते हो? जब उन्होंने मुझसे यह बात कही तो अचानक मुझे यह बात याद हो आयी.. खैर इसे माईक्रो पोस्ट समझ कर ही पढ़ें.. कालेज के किस्से जिसे मैंने आधे पर ही छोड़ रखा है उसे कल पूरा करता हूं..

Thursday, December 11, 2008

हमारे अठारह, तेरे कितने?

पढ़ाई करो बस एक रात और उसमें भी चाहो कि नंबर आये अव्वल नंबर वाला.. ये कुछ इंसानों के लिये तो संभव है मगर मुझ जैसे साधारण प्राणियों के लिये असंभव.. मगर फिर भी ये आदत पूरे कालेज जीवन में नहीं बदली.. एक बार मैंने जोड़ा कि पूरे सेमेस्टर में कितने दिन मैं पढ़ाई करता था.. पांच जोड़ पांच, कुल जमा दस दिन दो इंटर्नल परीक्षा के लिये और दस दिन सेमेस्टर परीक्षा के लिये और चार दिन लैब परीक्षा के लिये.. सच कहूं तो लैब को छोड़कर बस उसी विषय पर दिल लगा कर पढ़ने कि कोशिश करता था जिसमें लटकने की कोई संभावना नजर आती थी, नहीं तो आराम से बैठे ठाले पिछहत्तर प्रतिशत से ज्यादा नंबर आ ही रहे हैं तो टेंशन काहे का? लैब भी इसलिये दिल लगाकर तैयारी करते थे क्योंकि बस प्रोग्रामिंग में ही तो दिल लगता था, और ऊपर से वो धीरे-धीरे प्रतिष्ठा का भी प्रश्न बन चुका था..

आज मैं आपके पास लेकर आया हूं कुछ कालेज के दिनों की कहानियां.. जिसमें मुझे सबसे पसंद है किस्सा-ए-साफ्टवेयर इंजिनियरिंग..

तीसरे सेमेस्टर में यह पेपर था.. जैसे किसी अन्य विषय कि तैयारी होती थी वैसे ही इसकी भी की गई.. परिक्षा से 3-4 दिन पहले से लेकर परीक्षा के दिन तक फोटो-कॉपी और नोट्स के लिये भागते रहे.. उस समय होस्टल में हम पांच मित्र इकट्ठे ही पढ़ाई किया करते थे.. विकास, शिवेन्द्र, रूपेश, संजीव और मैं.. साफ्टवेयर इंजिनियरिंग की पहली इंटर्नल परीक्षा से एक रात पहले लगे हुये थे सारे नोट्स को घोंट कर पी जाने में.. रात के 1-2 बजते-बजते सभी का बैटरी डाऊन होने लगा.. मगर विकास लगा हुआ था कि नहीं जब तक संतुष्टी ना हो तब तक पढ़ते रहना है..

"अरे यार तू और रूपेश क्यों चिंता करता है? तुम दोनों आज तक कभी फेल हुये हो क्या जो इस बार हो जाओगे? चिंता तो मुझे, संजीव और शिवेन्द्र को करना चाहिये.." मैंने उन दोनों से अपनी बात कही और खुद भी पढ़ने में जुट गया..


साफ्टवेयर इंजिनियरिंग वाली परीक्षा वाले दिन की गर्मी, रूपेश पस्त ;)

जैसे-जैसे रात गुजरती गई, वैसे-वैसे रोमांच और नींद अपनी चरम सीमा पर भी पहूंचता जा रहा था.. अंत में मैंने बस सारे फंडामेंटल बातों को ध्यान में रखा और सोने चला गया.. अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर कोई नास्ता करने भी नहीं गया और लग गये पढ़ाई में.. खैर ऐसे ही होते-होते परीक्षा का समय भी आ गया.. हम सभी भागे परीक्षा भवन कि ओर.. आम तौर पर मैं और विकास पहले ही निकल लेते थे क्योंकि शिवेन्द्र और संजीव हमेशा परीक्षा शुरू होने के 5-10 मिनट बाद ही आते थे.. उस दिन भी वैसा ही हुआ.. परिक्षा शुरू हुआ और खत्म भी हो गया.. मैंने जो भी उत्तर लिखा था वो बिलकुल गलत नहीं तो शत-प्रतिशत सही भी नहीं था.. मैं सोच रहा था की शायद घींच-घाच कर पास हो जाऊंगा.. बाद में पता चला कि शिवेन्द्र 1 घंटे 30 मिनट का पेपर बस 45 मिनट में ही करके बाहर आ गया था.. सभी परेशान कि शिवेन्द्र इतनी जल्दी कैसे अपना पेपर खत्म कर दिया और सीना तान कर बाहर आ रहा है, मगर असलियत तो बस वही जान रहा था.. रूपेश का चेहरा ऐसे सूखा हुआ था जैसे कोई मर गया हो और हम सभी होस्टल ना जाकर शमशान जा रहें हों..

3-4 दिन बाद नंबर भी आने शुरू हो गये.. एक दिन साफ्टवेयर इंजिनियरिंग का भी नंबर आ गया.. पता चला कि पूरे 180 विद्यार्थियों में से 6-7 ही पास हुये हैं.. मेरे और शिवेन्द्र के 'नौ' नंबर आये पूरे 50 में.. अपने क्लास से जैसे ही बाहर आया सामने अर्चना दिखी.. पूछा कि तेरा कितना आया? वो बताने से मना कर रही थी कि नहीं बहुत खराब है.. जब मैंने आश्वासन दिया कि कितना भी खराब हो मगर मुझसे ज्यादा ही होगा तब जाकर उसने बताया कि उसके 11 या 13(अब ठीक से याद नहीं है) आये हैं.. अब उसने पूछा कि तुम दोनों के कितने आये? हमने साथ उत्तर दिया हमारे अठारह नंबर आये(हम दोनों ने अपना नंबर जोड़ कर बताया :)).. हम दोनों ऐसे भी लगभग साथ ही रहते थे, सो जो भी मिलता और पूछता कि कितना आया, दोनों बोलते हमारे अठारह आये..

वापस जब होस्टल पहूंचा तो विकास और रूपेश अलग से गाली दे रहा था मुझे, कि तुम्ही ने कहा था कि "तुम दोनों आज तक कभी फेल हुये हो क्या जो इस बार हो जाओगे?" लो तेरे कारण इस बार फेल हो गये.. ;) रूपेश को शायद 15 आये थे और विकास को 20 आये थे.. हां मगर एक बात तो जरूर हुआ कि उसके बाद से मैं जिस किसी को भी ये कहता कि आजतक तुम कभी फेल थोड़े ही हुये हो जो इस बार हो जाओगे? तो सामने वाले का अगला प्रश्न होता कि दुवायें मांग रहे हो या मना रहे हो मेरे फेल होने का?(साथ में गालियां भी) :)

ये बहुत लंबा पोस्ट हो गया है सो, अगले भाग में रूपेश और शिव का नर्वस ब्रेक डाऊन दूसरे इंटर्नल परिक्षा से पहले.. :)


होस्टल में मस्ती के पल
इस चित्र में शक्ल रूपेश की और हाथ मेरा है.. :)

Wednesday, December 10, 2008

तेरी भाभी ने मुझे सॉरी बोला

"क्या कर रहा है भाई?" दोपहर के खाने के बाद मैंने सेमटाईम पर पिंग करते हुये पूछा.. सेमटाईम हमारे कार्यालय में इंट्रानेट पर आपस में चैट करने के लिये प्रयोग में लाया जाता है..

"काम.. काम.. और बस काम.. और क्या कर सकता हूं?"

"कित्ता काम करेगा भाई? चल छोड़ ये सब, पता है? कल तेरी भाभी मुझे सॉरी बोली.. :)"

"अच्छा!!"

"हां, अब ये मत पूछना कौन वाली? :D"

"ये कंफ्यूजन तो है ही कि कौन वाली?"

"अबे वही, जब तू इस ब्रांच में था तब मैं उस पर लाईन मारता था.."

"फिर भी कंफ्यूजन है, कि कौन वाली? अबे तू भी तो इतने सारे पर लाईन मारता था.."

"अबे घबरा मत तेरी एंजलीना जोली पर अभी भी लाईन नहीं मारता हूं.. बस कभी हाय-हेलो हो जाता है.."

"तो फिर कौन है?"

"अबे वो एच.आर. फोर्थ फ्लोर वाली.."

"क्या सच में? वो सॉरी बोली!! क्यों भाई??"

"यही तो सीक्रेट है.. मगर कल मुझे सॉरी बोली.."

"बता भी दे कि क्यों बोली?"

"ठीक है, घर आकर बताता हूं.. बड़ी लम्बी कहानी है.."

"ठीक है.. चल अब काम कर और मुझे भी करने दे.."

ये लम्बी कहानी शिवेन्द्र को रात में भी पता चले या ना चले, मगर आपको सुना देता हूं.. दरअसल लम्बी छोटी कहानी जैसी कुछ बात नहीं है, वो तो हुआ यूं कि मैं कल आफिस से घर जाने के लिये निकल रहा था.. मेरे ब्रांच में सबसे नीचे वाले फ्लोर पर रिसेप्सन के बगल में एच.डी.एफ.सी. का ए.टी.एम. मशीन है जिसमें दरवाजा ना होकर एक परदा टंगा हुआ है क्योंकि वो मशीन बस मेरी कंपनी के कर्मचारियों के लिये ही है.. और जिस लड़की के बारे में मैं बाता कर रहा था वो वहां पैसा निकाल कर परदे से बाहर निकल रही थी और गलती से उसने अपना पैर मेरे पैर पर डाल दिया.. फिर अकचकाकर सॉरी बोली और मैंने इट्स ओके कहा.. फिर वो अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते..

इसे दोस्त के साथ हुई एक चुहलबाजी समझ लें.. जिसके लिये मैंने बस यूं ही सस्पेंस बना डाला.. :)

Monday, December 08, 2008

जनता का ध्यान बटाने कि एक और कोशिश

नोट - मैंने यह पोस्ट तेल के दाम घटाये जाने से एक दिन पहले लिखा था, जिसे समयाभाव में समय पर पोस्ट नहीं कर सका था..

सबसे पहले मैं बता देना चाहता हूं कि मैं ना तो कोई आर्थिक विशेशज्ञ हूं और ना ही अर्थ व्यवस्था का बहुत बड़ा जानकार.. मैं यह लेख एक आम भारतीय नागरिक कि हैसियत से लिख रहा हूं.. जो वह हर दिन देखता समझता है और जो कुछ खबर उसे प्रिंट मिडिया या इलेक्ट्रोनिक मिडिया द्वारा पहुंचती है, उसमें अपनी समझ फेंट कर जो कुछ समझ सकता है वही मैं भी समझ रहा हूं और लिख रहा हूं..

आज सुबह यह खबर गूगल समाचार पर मैंने पढ़ी जिसका स्नैप शॉट मैं यहां नीचे लगा रहा हूं.. उसे साफ-साफ पढ़ने के लिये उस तस्वीर पर क्लिक करें..

कुछ बातें पहले मैं कहना चाहूंगा -
1. मुंबई पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला और पूरे भारत का अचानक नींद से जागना..
2. भारत के गृह मंत्री, महाराष्ट्र के गृह मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री को बली चढ़ा देना..
3. फिर अचानक से आतंकवाद एक समस्या ना बन कर नेता एक मुख्य समस्या बन जाना..
4. सारे पार्टियों के कुछ नेताओं द्वारा गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी.. एक नेता का यहां तक कहना कि जो उन नेताओं का विरोध कर रहे हैं वे भी अलगाववादी ही हैं..
5. और आज अचानक तेल की कीमत घटाने कि बात करना जबकी कल तक वही सरकार तेल कंपनियों के पैरोकार बने हुये थे और कहते फिर रहे थे कि किसी भी हालत में तेल कि कीमत नहीं घटायेंगे..


अब जहां तक मेरी समझ है ये सब करके कांग्रेस सरकार एक तीर से दो निशाने साधने कि तैयारी कर रही है.. पहला यह कि जनता का ध्यान मुंबई के बाद फैले आक्रोश से खिंचने कि कोशिश और दूसरा अगले चुनाव तक के लिये अपना डगर आसान बनाना.. वैसे भी जनता याददाश्त बहुत कमजोर होती है, एक बार तेल का दाम घटने भर से ही सभी खुश होकर नाचने लगेंगे और उनका ध्यान बट जायेगा.. मैं तो कहता हूं कि किसी भी तरह हाथ-पैर जोड़कर इंगलैंड को क्रिकेट मैच के लिये बुला लिजिये और उनको बुरी टरह हारने के लिये भी मना लिजिये, हमारी जनता ऐसे ही सब भूल जायेगी..

अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब तेल का दाम 62 डॉलर प्रति बैरल था और भारत सरकार का कहना था कि जब यह 60 से नीचे आ जायेगी तब दाम घटाने के बारे में सोचा जा सकता है.. उस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह अनुमान लगाया जा रहा था कि यह इससे नीचे नहीं जायेगा.. मगर कांग्रेस सरकार का दुर्भाग्य, यह उससे बहुत नीचे चला गया फिर भी सरकार यही रटा-रटाया जवाब देती रही कि अभी तेल कंपनियों का घाटा पूरा नहीं हुआ है.. मेरा प्रश्न है कि अचानक मुंबई घटना के बाद यह घाटा कैसे पूरा हो गया?

चलिये अब बात करते हैं कि भारत कि जनता बस 200 लोगों के मरने पर ही क्यों जागी? इससे पहले भी तो कई आतंकवादी घटनाऐं इस देश में हुई हैं, मगर कभी पूरा देश इस तरह क्यों नहीं जागा? ये फिल्मी सितारे और बड़ी-बड़ी हस्तियां क्यों रैलियों में शामिल होकर अपना रोष प्रकट कर रहीं हैं? अब करें भी क्या, पहली बार उनको यह लगने लगा कि अब उनके जैसी हस्तियां भी सुरक्षित नहीं हैं.. अब बड़ी हस्तियां किसी रैली में शामिल हो जाये तो लोगों की भीड़ तो यूं ही उमर परेगी..

हमें इसलिये लग रहा है कि यह देश जाग गया है क्योंकि अब वे लोग भी अपना रोष प्रकट कर रहे हैं जो इससे पहले चुपचाप तमाशा देखते थे और जिनकी बातों को मिडिया हाऊस भी तवज्जो देता है.. और जब मिडिया उनकी बात हम तक पहूंचायेगी तो हमें तो लगेगा ही कि शायद सारा देश जाग गया है.. मैं अपने आस-पास के लोगों को यहां देख रहा हूं और यही पाया है कि यहां के लोग हिंदी चैनल नहीं देखते हैं सो उन्हें कुछ भी नहीं पता कि देश जागा हुआ है या सोया हुआ है.. उनके लिये यह आतंकी घटना भी किसी अन्य घटना की तरह ही है जो हमेशा कहीं ना कहीं घटती है..

Saturday, December 06, 2008

क्या होगा इस देश का?

इस सप्ताह काम कर करके दिमाग खराब हो गया है.. हर दिन कम से कम 11 बजे घर पहूंचना चाहे जो भी जतन लगा लो.. अभी भी ऑफिस में ही हूं, पता नहीं कब घर जाऊंगा.. या जाऊंगा भी या नहीं.. मेरे जैसा योग्य युवक इस साधारण बग फिक्सिंग जैसे कार्यों में पहंसा हुआ है अब आप ही कहीये ऐसे में इस देश का क्या होगा? :D

ये लो, पोस्ट करने से पहले ही ए.सी. भी बंद कर दिया.. हद है भाई.. :(

Friday, December 05, 2008

वृथा मत लो भारत का नाम

वृथा मत लो भारत का नाम।

मानचित्र में जो मिलता है, नहीं देश भारत है,
भू पर नहीं, मनों में ही, बस, कहीं शेष भारत है।

भारत एक स्वप्न भू को ऊपर ले जानेवाला,
भारत एक विचार, स्वर्ग को भू पर लानेवाला।

भारत एक भाव, जिसको पाकर मनुष्य जगता है,
भारत एक जलज, जिस पर जल का न दाग लगता है।

भारत है संज्ञा विराग की, उज्ज्वल आत्म उदय की,
भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की,

भारत है भावना दाह जग-जीवन का हरने की,
भारत है कल्पना मनुज को राग-मुक्त करने की।

जहां कहीं एकता अखण्डित जहां प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खड़ा वहां भारत जीवित, भास्वर है।

भारत वहां जहां जीवन-साधना नहीं है भ्रम में,
धाराओं को समाधान है मिला हुआ संगम में।

जहां त्याग माधुर्यपूर्ण हो, जहां भोग निष्काम,
समरस हो कामना, वहीं भारत को करो प्रणाम।

वृथा मत लो भारत का नाम।

दिनकर जी द्वारा लिखा हुआ

Wednesday, December 03, 2008

हमारे पूर्वज नहीं हम बंदर हैं और नचाने वाला यह सिस्टम

आज कल जिसे देखो वही सिस्टम को गालियां दे रहा है.. मैं भी हूं उसी जमात में.. नेताओं को गाली, सिस्टम को गाली, पाकिस्तान को गाली.. खैर ये सब बातें बाद में करता हूं पहले आपको एक कहानी सुनाता हूं.. ये कहानी मैनेजमेंट कालेजों में बहुत प्रसिद्ध है..

एक बार 10 बंदर जंगल से पकड़े गये.. दसों को एक ही पिंजरे में रखा गया जिसके बीच में एक खंभा था और खंभे के ऊपर ढ़ेर सारे केले लटके हुये थे.. बंदरों ने जैसे ही वो केला देखा सारे के सारे एक साथ लपके उसे खाने को.. जैसे ही एक बंदर ने खंभे पर चढने कि कोशिश की वैसे ही सारे बंदरों पर बर्फ जैसा ठंढा पानी डाल दिया गया.. बंदर हैरान परेशान.. मगर फिर से हिम्मत दिखा कर केले लेने को लपके.. जैसे ही बंदर खंभे पर चढ़ने कि कोशिश की फिर से ठंढा पानी आ गिरा उनके ऊपर.. अब तो ये जैसे नियम बन गया.. कोई बंदर खंभे पर चढ़ने कि कोशिश करता और पानी उस पर आ गिरता..

यह सिलसिला कई दिनों तक चला.. अब बंदर समझ गये थे कि उस खंभे पर चढ़ने पर ही ठंढा पानी उनके ऊपर गिरता है सो कोई उस खंभे के पास भी नहीं फटकता.. केले खाने का लालच सभी के भीतर था मगर फिर भी कोई खंभे के पास फटकता भी नहीं था..

फिर एक दिन एक नया बंदर लाया गया और एक पुराने बंदर को निकाल लिया गया.. नये बंदर को कुछ भी पता नहीं कि उस खंभे पर चढ़ने पर ऊपर से ठंढा पानी गिरता है सो वह केले खाने के लिये खंभे कि ओर लपका.. जैसे ही वो केले खाने के लिये खंभे के पास पहूंचा तभी सभी बंदर ये सोच कर कि कहीं इसके खंभे पर चढ़ते ही ठंढा पानी ना गिरे, सो उसे खंभे पर चढ़ने से पहले ही पीट दिया.. वो बेचारा बंदर हक्का-बक्का कि उसे क्यों पीटा गया? मगर हिम्मत जुटा कर वो फिर से खंभे कि ओर गया.. फिर से पिटाई हो गई.. उसकी समझ में इतना ही आया कि जो खंभे पर चढ़ने जाता है उसकी पिटाई कि जाती है..

अब हर दिन एक नया बंदर लाया जाता और एक पुराने बंदर को बाहर निकाला जाता.. नया बंदर केले खाने को खंभे के पास जाता और उसकी पिटाई होती.. धीरे-धीरे सभी पुराने बंदर बाहर आ गये और नये बंदर अंदर.. किसी को पता नहीं कि खंभे के पास जाने से ऊपर से ठंढा पानी गिरता है, वो तो बस इतना जानते थे कि जो खंभे के पास जाता है उसकी पिटाई की जाती है.. क्यों? किसी को पता नहीं.. बस की जाती है तो बस की जाती है और इस तरह एक सिस्टम का निर्माण हो चुका था.. बस महीने भर में..


हमारा सिस्टम भी कुछ इतना ही खोखला है.. सभी को पता है कि क्या सही है और क्या गलत, मगर कभी कोई यह नहीं पूछता है कि ये गलत क्यों हो रहा है? अगर कोई सही गलत की बात भी करे तो सबसे पहेले लोग उसी कि हंसी उड़ाते हैं और बाद में सभी सिस्टम को गालियां देते हैं कि साला सिस्टम ही खराब है.. ये भ्रष्टाचारी सरकारी मुलाजिम हों या फिर कूड़े सी मानसिकता रखने वाले नेता(इन्हें राजनेता कहते मुझे शर्म आती है), ये सभी सिस्टम हैं और हम बंदर..

अगर आशावादी होकर लिखूं तो कह सकता हूं कि आओ संकल्प करें कि हमेशा सही बात पर ही सिस्टम का साथ देंगे और धीरे-धीरे ही तो सिस्टम बदलता है..

और अगर निराशावादी होकर लिखूं तो यही कहूंगा कि कुछ नहीं बदलने वाला है, सिस्टम को बदलने कि बात ही खोखली है.. साला सिस्टम ही खराब है.. अब यह आप पर छोड़ता हूं कि आप आशावादी हैं या निराशावादी?

अंत में - जैसा कि मैं पहले भी लिखता आया हूं कि मेरे घर में सभी मेरे चिट्ठे को पढ़ते हैं, मुझे नहीं पता कि मेरी पिछले पोस्ट को पढ़कर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी.. मगर इतना तो जानता हूं कि वो खुश नहीं होंगे.. खैर ये भी पता है कि अगले 3-4 दिनों तक वो इसे नहीं पढ़ने वाले हैं.. जो भी हो वो भी यह जानते हैं कि मैं अपनी हर सही-गलत बात उनसे साझा करता हूं, एक ये भी सही..

Sunday, November 30, 2008

जल्द ही भारत में सभी के पास नौकरी होगी और सभी लखपति होंगे

जल्द ही भारत में सभी के पास नौकरी होगी और सभी लखपति होंगे.. जी हां, लखपति होना वह सपना है जो हर मध्यमवर्गीय भारतीय देखता है और साथ में सरकारी नौकरी भी हो तो क्या कहना.. कौन कहता है अभी वाली सरकार हिजड़ों कि जमात है या पिछली वाली थी? सभी झूठे हैं, बकवास करते हैं.. सरकार सारे अच्छे थे, सभी लोगों को लखपति और रोजगार देने वाली थी और है.. ऊपर से कुछ भाग्यवान लोग तो अब कड़ोड़पति भी बनने लगे हैं.. अजी जितनी मौतें उतनी सरकारी नौकरी और हादसों के हिसाब से लाखों रूपया..

अब मौत चाहे बम फटने से हुई हो या फिर फिर नक्सलियों कि गोली से.. अपनी सरकार है ना.. कुछ हो चाहे ना हो मगर कागजों पर तो लखपति बन ही जाओगे साथ में एक अदद नौकरी भी.. बस जरूरत है, हर घर में एक लाश की.. शर्त यह कि वो किसी राष्ट्रीय स्तर कि घटना में मरा हो.. देखो सरकार भी दुखी है, 4817 लोगों कि जान जो बचा ली गयी है.. अब इतने लोग लखपति बनने से बच जो गये.. धन्य हो ऐसी सरकार..

अंत में - आज मेरा हिंदी ब्लौगिंग में दो साल पूरा हो गया है.. मैंने बहुत पहले इस पर कुछ पोस्ट लिखे थे और सोचा था कि आज के दिन पोस्ट करूंगा मगर मन नहीं कर रहा है अभी उसे पोस्ट करने का.. फिर कभी पोस्ट करता हूं उसे..

Saturday, November 29, 2008

सबसे बुरी चीज होती है संस्कार

अगर ढंग से जीना हो तो सबसे पहले संस्कार को त्यागना होगा.. हमारा संस्कार ही किसी भी कार्य को करने में सबसे बड़ी बाधा बनती है.. कुछ उदाहरण मैं देना चाहूंगा, मैं अपने कार्यालय में कई बार जितना काम करता हूं उसका दोगुना या ढेड़ गुना दिखाता हूं.. मन में बहुत तकलीफ होती है.. ऐसा लगता है कि मैं गलत कर रहा हूं.. मगर अगर ऐसा ना करूं तो सबसे बड़ी समस्या पैदा हो जायेगी.. ढ़ंग से जीना भी हराम हो जायेगा.. मगर मन की तकलीफ का क्या करूं? वो तो हर पल सालता रहता है..

घर के दिये संस्कार हर पल बीच में आते रहते हैं.. कुछ भी गलत करने जाओ, बस मन के भीतर एक दूसरा मन रोकता है.. बताता है कि ये गलत है.. और बस हो गया, तरक्की का एक रास्ता बंद.. लेकिन एक बात तो जरूर है कि बाद में उसी फैसले पर गर्व सा महसूस होता है.. मगर आगे बढ़ने का रास्ता बंद..

ये क्षणिक विचार आये हैं मन में, मुझे पता है कि कई भाई इससे सहमत नहीं होंगे, मगर क्या करूं अभी यही विचार मन में आ रहे हैं.. खैर तब तक आप ये गीत सुने, ये पोस्ट लिखते हुये मैं यही गीत सुन रहा हूं..

कोई सागर दिल को बहलाता नहीं..
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दिन ढ़ल जाये हाये, रात ना जाये..
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यहां किसे फिकर है मुंबई की?

यहां किसे फिकर है मुंबई की? इसे आप व्यंग्य कि तरह लें या फिर सच्चाई कि तरह, मगर आज चेन्नई में यही हो भी रहा है.. यहां लोगों का जीवन चेन्नई में आयी इस प्राकृतिक आपदा से जूझने में ही लगा हुआ है.. किसी के लिये भी सबसे बड़ी जरूरत अपना और अपनों के प्राणों कि रक्षा करनी होती है, और लोग यही कर भी रहे हैं..

यहां जब मैं पहली बार आया था तब मेरे भीतर काफी आक्रोश था कि यहां के लोग उत्तर भारतियों के प्रति रूखा व्यवहार करते हैं.. मगर इतने दिनों से यहां रहते हुये मुझे भी अब समझ में आने लगा है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है.. अगर किसी ऐसे राजनितिक घटना को छोड़ दें जो सीधा देश की राजनिति पर असर डालता हो तो यहां के किसी भी घटना या दुर्घटना राष्ट्रीय स्तर पर कहीं कोई खबर नहीं बनती है.. मुझे पता नहीं कि अंडा पहले या मुर्गी? हां मगर एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि पहले जितना वैमनष्य उत्तर-दक्षिण को लेकर अब नहीं है यहां पर और यह दिनों दिन कम होता जा रहा है..

मेरे घर के तरफ बिजली-पानी कि समस्या अभी तक नहीं हुयी है, पांचवी मंजिल पर होने के कारण घर में पानी घुसने का खतरा भी नहीं है.. मगर अपने मित्रों से पता चला है कि ना जाने कितनों के घरों में कमर से ऊपर तक पानी भरा हुआ है.. कई जगहों पर पिछले 36 घंटों से बिजली-पानी नहीं है.. हमारे घर कि भी बिजली कभी भी जा सकती है..

आप इन तस्वीरों से अंदाजा लगा सकते हैं कि चेन्नई कि जिंदगी कितनी भयावह स्थिति में है अभी..

चेन्नई सेंट्रल


'12 बी' बस, जिससे हर रोज मेरा आना जाना होता है.


आर्कट रोड जो चेन्नई-बैंगलोर हाईवे पर जाकर मिलता है.



ये दोनों तस्वीरें है टी.नगर के पास वाले सबवे कि जो लबालब पानी से भरा हुआ है.. ये चेन्नई के सबसे व्यस्त सड़कों में से है..

अंत में मुंबई आतंकी हमलों में मारे गये सभी लोगों को श्रद्धांजली.. ध्यान रहे, मैं यहां लोगों कि बात कर रहा हूं.. भेड़ियों कि नहीं..

Friday, November 28, 2008

निशा अपना निशान छोड़ गई, चेन्नई अस्त-व्यस्त

आज सुबह अपने ऑफिस के एक मित्र के फोन से नींद खुली.. उन्होंने मुझे इससे पहले भी दो एस.एम.एस.भेज कर ऑफिस ना आने कि बात कही थी.. मगर मेरी तरफ से कोई उत्तर ना पाकर उन्होंने फोन किया.. उनसे पता चला कि आज ऑफिस को बंद कर दिया गया है.. पूरी टीम को ऑफिस आने से मना कर दिया गया है.. इसके बदले हमें किसी और दिन शनिवार या रविवार को काम करना परेगा.. तकनिकी भाषा में इसे कॉम्प ऑफ या कंपेन्सेशन ऑफ कहा जाता है..

हुआ ये कि पिछले शुक्रवार से हुई लगातार तेज वर्षा ने पूरे तमिलनाडु को अस्त-व्यस्त कर रखा है.. पूरे तमिलनाडु में अब तक 60 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और दक्षिण कि ओर जाने वाली अधिकतर रेलों को भी बंद कर दिया गया है.. मुख्यमंत्री करूणानिधि ने 100 करोड़ रूपये राहत कार्य में देने कि घोषणा भी कर रखी है.. तमिलनाडु में आये इस तूफान का नाम निशा रखा गया है.. मेरे कुछ तमिलनाडु के मित्र मुझसे पूछ रहे थे कि निशा का मतलब क्या है.. कितनी अजीब बात है ना, जहां तूफान आया हो वहीं के लोग उस तूफान के नाम का मतलब नहीं जानते हैं.. क्योंकि यह शुद्ध हिंदी शब्द है..

कल जब मैं ऑफिस से लौट रहा था उसी समय सोच रहा था कि कल ऑफिस जाते समय बहुत परेशानी का सामना करना परेगा.. अच्छी बात यह कि ऑफिस ही बंद कर दिया गया.. मुझे आज रात बैंगलोर के लिये निकलना था, मगर अब सोच रहा हूं कि कैसे जाऊं..



यह सेटेलाईट से लिये गये कुछ चित्र हैं जिसमें आप साफ देख सकते हैं कि किस तरह और किस आकार का यह चक्रवात था..

Thursday, November 27, 2008

मेरे अपने सब ठीक हैं मुंबई में, और मैं खुश


"बरसात बहुत जोर से हो रही है.. न्यूज में पढ़ा था कि पूरे तमिलनाडु में 30 के लगभग लोग मर गये हैं.." बाईक चलाते हुये उसने मुझसे कहा.. मैं पीछे बैठा हुआ था..

ट्रैफिक बहुत था और चारों ओर घुटने से थोड़ा कम ही पानी जमा हुआ था.. लोग बिना शोर किये, हार्न बजाये बिना बस चुपचाप खड़े ट्रैफिक के ख्त्म होने का इंतजार कर रहे थे.. एक भाईसाहब बाईक पर ही इत्मिनान से छतरी खोल कर बैठे हुये थे.. जैसे उन्हें पता हो कि अगले 10-15 मिनट तक ट्रैफिक नहीं खुलने वाला हो..

"हां.." मैंने बात आगे बढ़ाते हुये कहा.. इस ट्रैफिक के कारण बात करने का मौका मिल गया था.. "3-4 दिनों से खूब बरसात हो रही है.. वैसे आपने आज कि खबर पढ़ी?" मैंने उड़ता हुआ सवाल उनकी ओर फेका..

"हां.. जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ.." पल भर को चिंता उनके चेहरे पर दिखने लगी जो क्षण भर में ही गायब हो गयी.. थोड़ी खुशी के साथ आगे उन्होंने कहा "एक अच्छी बात यह है कि मेरे जान पहचान में से मुंबई में कोई भी नहीं है.. सो मैं निश्चिंत हूं.. वैसे भी चेन्नई में बम नहीं फूटता है कभी.."

"क्यों? चेन्नई में क्यों नहीं फूटता?" मैंने अगला सवाल किया..

"देखो मैं तमिलनाडु का ही रहने वाला हूं, मैं यहां के लोगों को अच्छे से जानता हूं.. यहां के अधिकतर लोग तमिल को धर्म से भी ऊपर रखते हैं.. उनके लिये पहले मैं तमिल हूं फिर जाकर हिंदू या मुसलमान.. तमिल होना उनका पहला धर्म है, तब जाकर कुछ और.." इतने दिनों से यहां रहते हुये मैं भी अब यह समझने लगा हूं.. मुझे उनकी बातों में सच्चाई लगी..

ट्रैफिक खुल चुकी थी और वो बाईक चलाने में व्यस्त हो चुके थे.. मैं भी सोचने लगा था.. "कल रात मैंने भी क्या किया? अपने सभी जान-पहचान के लोगों कि खबर ले ली और सुबह ऑफिस जाना है सोचकर चैन से सो गया, सोचा कि होगी कोई छोटी सी घटना और ऐसी घटना तो रोज ही घटती है.. एक भैया जो कोलावा में नेवी क्वाटर में रहते हैं, कुछ कालेज के दोस्त और ब्लौग जगत के मित्र.. सभी कुशल से हैं, और मैं भी निश्चिन्त.. क्या हम सभी के लिये ये आम घटना नहीं थी.. आज जिसे देखो उसका खून खौल रहा है इस पर.. 10 दिनों बाद न्यूज चैनलों के लिये ये कोई खबर भी नहीं रहेगी.. फिर आने वाले चुनाव में इसे खूब भुनाया जायेगा.. आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलने लगेगा.. जो आतंकवादी पकड़ा गया है उसका धर्म देखा जायेगा.. 10 साल बाद जब कोर्ट उसे मौत कि सजा सुनायेगी तब कुछ बेहद गिरे हुये नेता उसके बचाव में आ खड़े होंगे, उस पर भी राजनीति करेगें.. इस बीच कुछ और बम धमाके.. कुछ और आतंकवादी हमला.. बस हम और हमारे लोग ठीक हैं, हम इसी गुमान में जीते रहेंगे.."

Tuesday, November 25, 2008

क्रिकेट कि दिवानगी, बरसात और बैंगलोर/बैंगलूरू

रविवार का दिन, सुबह आसमान साफ था.. मैं बैंगलोर में बेलांदुर नामक जगह पर अपने कालेज के मित्रों के घर पर रुका हुआ था.. वहां से चंदन के घर जाना था.. चंदन भी साथ में ही था.. रात काफी देर से सोये थे, रात भर गप्पों और ताश का दौर चलता रहा था.. छोटे से रूम में ही क्रिकेट भी चला था.. शनिवार शाम जब मैं और चंदन वहां पहुंचे थे तब बत्ती गुल थी और फ्लड लाईट में ही क्रिकेट चल रहा था.. टेनिस कि गेंद और बल्ला, साथ में शू स्टैंड विकेट.. दो तरफ से इमरजेंसी लाईट जल रही थी.. अब सामने कंप्यूटर का मानिटर रखा हो या कुछ भी, उससे कोई फर्क नहीं परने वाला था.. बस दे दनादन क्रिकेट चालू..

सच कहूं तो बहुत दिनों से भूल सा गया था कि क्रिकेट में दिवानगी भी होती है.. बहुत दिनों बाद इसे महसूस किया.. जब तक क्रिकेट के मतवालों का झुंड ना मिले तब तक इसे महसूस नहीं किया जा सकता है.. पुराने दिन याद आ गये जब मैं पटना में रहता था और पढ़ाई के लिये घर से बाहर नहीं निकला था.. भारत का मैच आने पर चाहता था कि आज बरसात ना हो और अगर भारत हार रहा हो तो तुरत पलटी मार कर मनाने लगता था कि इतनी बरसात हो कि डकवर्थ लुईस रूल भी काम में ना आ सके..

बैंगलोर में भी मेरे दोस्तों के बीच स्थिती कुछ वैसी ही थी.. चंदन को 10 बजे कहीं जाना था सो सुबह 8.30 में बेलांदुर से निकला और उसके घर 9 बजे के लगभग पहूंच गया.. फिर चंदन निकल गया बोल कर कि 2 बजे तक आता हूं.. अब घर में बस मैं और विशाल थे जो कि मेरे कालेज का ही सहपाठी है.. वो हर आधे घंटे पर बाहर आसमान को झांक आता था और मना रहा था कि आज बरसात ना हो और मुझे गालियां दे रहा था कि शनिवार से पहले बरसात नहीं हो रही थी, तुम चेन्नई से बादल भी साथ लेते आये.. इसी बीच पार्थो भी घर पर आ गया जो कि मेरे ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन दोनो ही का मित्र है..

खैर मैच अपने नियत समय पर शुरू हुआ.. सहवाग और सचिन खेलना चालू किये, सचिन आऊट भी हो गया.. तभी हमारे घर के तरफ(जहां मैं ठहरा हुआ था) जोरदार बरसात शुरू हो गई.. और लगे सभी बरसात को कोसने कि अभी थोड़ी देर बाद स्टेडियम में भी बरसात होगी और जितने वेग से बरसात हो रही थी उसे देखकर लग रहा था कि मैच कहीं धुल ना जाये.. ठीक 10-15 मिनट बाद स्टेडियम में भी बरसात शुरू हो गई..

मैच शुरू होने के थोड़ी देर पहले चंदन के ऑफिस का एक मित्र भी घर पर आया था, खासतौर से मैच देखने.. अब सभी निराश.. लगभग 1 घंटे के बाद इधर बरसात रूकी और फिर सभी जुट गये कि मैच कब शुरू होता है? बीच-बीच में स्टेडियम में बैठे कुछ मित्रों से मैदान कि भी खबर ली जा रही थी.. उधर मैदान को सुखा कर मैच के लिये तैयार किया गया और इधर हमारे घर तरफ फिर से बरसात चालू हो गई.. हमलोग फिर से इंतजार करने लगे कि कब वहां फिर से बरसात शुरू होती है..

लोग इधर बरसात के थमने का इंतजार मैच के लिये कर रहे थे और मैं इंतजार कर रहा था कि बरसात रूके तो मैं चेन्नई के लिये बस पकड़ने के लिये निकलूं.. थोड़ी चिंता यह भी थी कि चेन्नई जाने के लिये बस स्टैंड बदल गया है और शांतिनगर नामक बस टर्मिनल से चेन्नई के लिये बस खुलने लगी है.. अब वो जगह भी ढूंढना था.. बरसात के रूकते ही मैं और चंदन चल परे.. एम.जी.रोड के सामने से गुजरते हुये स्टेडियम का फ्लड लाईट भी दिखा, पता नहीं क्यों जब कभी भी फ्लड लाईट का नाम सुनता हूं तो स्कड मिसाईल का नाम दिमाग में घूमने लगता है.. शायद दोनो का उच्चारण एक समान है इसलिये.. :)

कुछ दूर आगे जाने पर हम लोग अनजाने में वन वे में घुस गये और ट्रैफिक पुलिश ने हमें पकर भी लिया.. खैर वहां से निकले तो मुझे रास्ता जाना पहचाना सा लगा, फिर याद आया कि ये सड़क विल्सन गार्डेन कि ओर जाता है.. बी.एम.टी.सी. बस स्टैंड पहूंचने के बाद हम दोनों को समझ में आया कि यही शांतिनगर बस टर्मिनल है.. कुछ यादें जुड़ी है इस जगह से, इसे कैसे भूल जाता..

अब हमारा लक्ष्य था कि चेन्नई जाने वाली कोई सी भी बस में बैठ कर निकल लो.. जो पहली बस में टिकट मिला उसी में बैठकर मैं चल पड़ा और चंदन भी अपने घर चला गया.. रात भर ना जाने किन ख्यालों में डूबा रहा और नींद नहीं आयी.. सुबह घर ठीक 5.30 में पहूंच गया और टी.वी.खोलकर समाचार देखा तो पता चला मैच बरसात से धुला नहीं और भारत ने वो मैच डकवर्थ लुईस नियम से जीत लिया.. खैर क्या फर्क परता है, फिर से ऑफिस कि भागदौर में जिंदगी कटने वाली है सोचकर सोने कि कोशिश करने लगा.. सोमवार कि सुबह हो चुकी थी..

Saturday, November 22, 2008

यादों कि उम्र और बैंगलोर/बैंगलूरू

आज सुबह बैंगलोर पहूंचा.. बरसात कि रिमझिम बूंदों ने मेरा स्वागत बखूबी किया.. कल रात जब ऑफिस से चला तब चेन्नई में मूसलाधार बरसात हो रही थी.. बरसात इतनी तेज थी कि मैं सोच में पर गया था, जाऊं या ना जाऊं? मगर घर समय पर पहूंच गया और जल्दी से सामान बांध कर निकल परा बस स्टैंड कि ओर.. ऑफिस से जब निकल रहा था तब मेरे साथ काम करने वाले मित्रों ने पूछा कि टिकट लिये हो या नहीं? मैंने कहा नहीं.. इस पर उनका कहना था कि यही तो मजा है बैचलर लाईफ का.. कहीं भी अचानक और कैसे भी जा सकते हैं और साथ में आहें भी भर रहे थे कि वो अब यह सब नहीं कर सकते हैं.. :)

खैर आज का दिन तो निकल गया.. कहीं जाने कि इच्छा नहीं थी सो सारा दिन मित्रों के साथ ही बिताया.. अब कल क्या करता हूं पता नहीं.. वैसे अभी से कोई प्लान भी नहीं..

चलते-चलते कुछ लाईन भी लिखते जाता हूं.. मुझे नहीं पता कि मैं यह किसी कि पंक्तियों से प्रेरित होकर लिखा या यूं ही मन में आ गया हो.. खैर जब आ ही गया है तो आप इसे पढ़ कर मुझे बता भी दें कि क्या इस तरह कि कुछ पंक्तियां आपने पहले पढ़ी हैं क्या?

यादों के चेहरे पर झुर्रियां नहीं परती..
वो ताश के महलों सी नहीं होती जो छूते ही बिखर जाये..
कहते हैं कुछ यादों कि उम्र बहुत लम्बी होती है..


अंत में - ज्ञान जी, क्या आप बता सकते हैं कि यह पोस्ट कि कौन सी कैटोगरी में आती है? सुबुकतावादी या अंट-संटात्मक? :)

Tuesday, November 18, 2008

क्या आवाज में भी नमी होती है

कल शाम एक चिट्ठा बनाया, उसे चारों तरफ से सुरक्षित करके सुकून से बैठ गया.. उसे बनाने का मकसद बस अपने मन कि बातों को, जिसे मैं किसी से कह नहीं सकता.. किसी से बांट नहीं सकता.. बिलकुल एक निजी डायरी कि तरह.. कोई उसे पढ़ नहीं सके.. उसमें बस मैं रहूं और मेरी बातें रहे..

अभी मम्मी का फोन आया.. पूछी कहां हो? घर पहूंच गये क्या? मैं तुरत घर पहूंच कर, कपड़े बदल कर कंप्यूटर चालू करके नेट चलाया ही था.. मम्मी बतायी कि कैसे आजकल मेरी बिटिया(भगीनी) बातें करती है.. मम्मी का फोन आते ही दौड़कर फोन उठाती है और कहती है, "आपको अपनी बेटी से बात करनी है क्या?" और मम्मी के हां कहते ही जोर से चिल्लाती है, "मम्मी! तेरी मम्मी का फोन आया है.."

"तुम्हारे पाहुनजी आज भिवाड़ी ज्वाईन कर लिये हैं.." मम्मी यह खबर सुनायी.. साथ ही यह भी जोड़ दी कि भिवाड़ी में क्या-क्या है घूमने के लिये.. हमारे यहां जीजाजी को पाहुनजी कहने का रिवाज है और हम जीजाजी को पाहुनजी ही बुलाते हैं.. यह फैसला मैं और मेरे भैया, हम दोनों का लिया हुआ है..

बातों ही बातों में मैंने उन्हें अपने इस चिट्ठे के बारे में बताया.. कुछ तकनिकी बातें भी बतायी कि मैंने इसे कैसे सुरक्षित किया है.. मुझे पता है कि उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है फिर भी.. फीड को बंद किया, परमिशन हटाया और भी ना जाने क्या-क्या.. मैंने बताया कि मैंने इसे क्यों बनाया? इसे अपनी निजी डायरी कि तरह प्रयोग में लाना चाहता हूं.. मम्मी ने कुछ भी इंटेरेस्ट नहीं दिखाया उसे पढ़ने के लिये..

आगे मैंने कहा कि कोई कुछ भी और कितना भी निजी क्यों ना हो मगर पापा-मम्मी के सामने मेरे लिये कुछ भी निजी नहीं है.. क्या आप सुनना चाहेंगी कि मैंने क्या लिखा है? मम्मी को शायद पता था कि मैं क्या लिख सकता हूं.. उधर से कोई आवाज नहीं आयी.. मैंने सुनाना शुरू किया.. पहला पोस्ट पढ़कर खत्म हुआ.. मम्मी बोली कि अब इस सबसे बाहर निकलो.. भूल जाओ इन सबको.. तब तक मैंने दूसरा पोस्ट पढ़ना शुरू कर दिया..

उसके खत्म होते-होते मम्मी बोली अब नींद आ रही है.. सोने जा रही हूं.. मगर उनके आवाज से एक नमी सी झलक कर मेरे सामने गिर सी गई और मैं उसे बटोरने कि कोशिश करता रह गया..

देखा है कई बार आंखों कि नमी को..
पोछा है उसे इन हाथों से..
मगर मां के आवाज कि नमी का क्या करूं?
इसे तो बस दिल से महसूस किया जा सकता है..

Sunday, November 16, 2008

कथनी और करनी का अंतर

मैं आज अपनी इस पोस्ट में अपने कुछ अनुभव को बांटते हुये अपनी कुछ बातों को साफ करना चाहूंगा क्योंकि मुझे लगता है कुछ लोग मेरे पिछले पोस्ट को दूसरे तरीके से ले लिये थे.. सबसे पहले बात करते हैं राजेश जी के कल के पोस्ट पर.. उनका कल का पोस्ट बहुत ही अनुकरणीय था और मेरा मानना है कि हर किसी को एक बार उनका पोस्ट जरूर पढ़ना चाहिये.. उन्होंने लिखा था -

"बांग्‍लादेश के ग्रामीण बैक की स्‍थापना मोहम्‍मद युनूस ने 1983 में रखी थी…नोबेल प्राईज उन्‍हें 2006 में मिला था.. एक हम हैं पोस्‍ट लिखते हैं और पेज रिफ्रेश कर तत्‍काल देखते हैं कि क्‍या कोई कमेंट आया है क्‍या?"

साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि

"2008 का नवबंर महीना, मैं पोस्‍ट लिख रहा हूं, कई लोग लिख रहे होंगे…लेकिन कई लोग ऐसा भी कुछ कर रहे होंगे जिनके बारे में 2012 में कहीं लिखा कहा जाएगा कि यह 2008 में फलां फलां कर रहे थे…"

कुछ विचार उन्होंने गांधी जी के बारे में भी दिये जिससे मैं पूर्णतः सहमत हूं.. उन्होंने लिखा था -

"आप सभी लोग उस इंसान के बारे सोचिए जिनके आप कद्रदान हैं…उनके बारे में सोचिए जिनके काम करने के तरीके का आप नकल उतारने की कोशिश करते हैं…उनमें भी कमी होगी…
मैं गांधी को संपूर्ण के करीब मानता हूं…संपूर्ण नहीं मानता क्‍योंकि गलतियां उन्‍होंने भी की है…हर कोई करता है. मैं, आप..हम सभी लोग.."


अब मैं अपने कल के पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स कि बात करता हूं फिर अपनी बात कहूंगा.. कल के पोस्ट पर अजित जी ने कहा -
"सही है। राजेश के वक्तव्य में कुछ हडबड़ी, जल्दबाजी के निष्कर्ष हैं,मगर गलत नहीं। तुमने सही संदर्भ दिया। अच्छा लगा। अपने प्रति ईमानदारी ज़रूरी है। किन्हीं मूल्यों के प्रति समर्पण भी होना चाहिए।"

ताऊ जी ने कहा -
"जीवन में कुछ लोग फोकट यथार्थवाद ढूंढ़ते हैं ! प्रसंशा की एक सैनिक को भी आवश्यकता होती है ! भले फोकट ही हो बिना प्रसंशा के आदमी में कुछ करने का जज्बा ही नही आ सकता !"

कुछ लोगों ने राजेश जी को भी सही ठहराया.. और अंत में डा.अनुराग जी का भी कमेंट आया -
"प्रिय प्रशांत
आपकी इस सदाशयता के लिए आभारी हूँ पर शायद कही न कही @राजेश रोशन के मर्म को समझने की भूल हुई है ..वे शायद इस समाज की असवेदंशीलता से त्रस्त है .....हमारे ब्लॉग में टिपियाने के तरीके को लेकर असहमत है......शायद वक़्त की कमी या शब्दों का सही चुनाव न होना ...कुछ भ्रम पैदा कर गया है...
इन साठ सालो की आज़ादी के बाद भी इस देश का केवल एक तबका " हाईटेक " हुआ है ....ये देश का दुर्भाग्य ही है ..यही अब्दुल कलाम जिनको पुरा देश नवाजता है जब राष्टपति पड़ के लिए दुबारा नामांकित होते है .तो राजनैतिक गलियों के गठजोड़ में उनकी सारी योग्यता अचानक गायब हो जाती है..आख़िर में चलते चलते कभी एक चिन्तक ओर विचारक रामचंद्र ओझा जी का एक लेख मैंने कही पढ़ा था जिसमे उन्होंने कहा था
"हम संवेदना से परहेज नही कर सकते क्यूंकि संवेदना हमारा मूल है ,हमारे सारे मूल्य ओर यहाँ तक की "लोजिक "की जननी भी संवेदना ही है ...बुद्दि-विवेक के साथ उत्तरदायित्व होना भी मनुष्य के लिए जरूरी है.."


अब आता हूं मैं अपनी बात पर.. सबसे पहले तो मैं यह बता देना चाहता हूं कि मैं राजेश जी कि बातों से असहमत नहीं था तो साथ ही पूर्णतया सहमती भी नहीं थी.. जैसा कि डा.अनुराग जी ने कहा, "शायद वक़्त की कमी या शब्दों का सही चुनाव न होना ...कुछ भ्रम पैदा कर गया है.." से मैं सहमत हूं.. अपने इस छोटे से जीवन में मेरा खुद का ढेरों ऐसे अनुभव हैं जिसमें मैंने पाया है कि कहने को तो लोग बरी बरी बातें करते हैं मगर जब करने कि बात आती है तो वही लोग पहले सबसे पिछले कतार में दिखते हैं और धीरे-धीरे खिसक लेते हैं.. मगर इसका मतलब यह नहीं कि जो कर रहे हैं उनके किये को भी हम सारे लोगों के साथ डाल दें..

हर व्यक्ति अपने जीवन को दो हिस्सों में जीता है.. पहला सामाजिक और दूसरा पारिवारिक.. अगर कहीं भी यह संतुलन खराब होता है तो बस वहीं से परेशानी कि शुरूवात हो जाती है.. एक उदाहरण के तौर पर मैं गांधी जी को ही लेता हूं(राजेश जी कि तर्ज पर ही).. उन्होंने अपना सामाजिक जीवन खूब जिया और उसमें बहुत सफल भी रहे, मगर मेरा प्रश्न यह है कि क्या वह अपने परिवार के लिये भी उदाहरण देने में सफल रहे? मैं तो सफल नहीं मानता, अगर मैं गलत हूं तो कृपया मुझे सही करें..

मेरा हाल का एक अनुभव-
अभी कुछ दिन पहले बिहार कोशी से जूझ रहा था, उस समय कई ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो बिहार के लिये कुछ करना चाहते थे.. सच बात तो यह है कि इससे पहले मैं कभी भी इस तरह के सामाजिक कार्यों से जुड़ा नहीं था.. पहली बार जुड़ा और पाया कि कुछ लोग सच में कुछ करने को तैयार हैं और वो भी पर्दे के पीछे रहकर.. तो साथ ही कुछ लोग बस बरी-बरी बातें करके चंपत हो लिये.. कुछ काम मैंने भी किये(जिनकी चर्चा मैं नहीं करना चाहता हूं) जो मेरे लिये बिलकुल नया अनुभव था, तो काफी कुछ सीखा भी.. पर्दे के पीछे रह कर काम करने वालों से भी मिला, जो बस अपना काम करना जानते हैं.. अब भले ही उनके किये हुये कार्यों का प्रचार हो या ना हो.. खासतौर पर मैं एक व्यक्ति "चंदन जी" के बारे में बताना चाहूंगा जो सब छोड़ कर पिछले तीन महिने से अभी तक जमीनी स्तर पर राहत कार्य में लगे हुये हैं.. मेरे लिये यह संभव नहीं था कि मैं भी सब छोड़कर वहां चला जाऊं और कार्य करूं मगर चेन्नई में रहते हुये जो सबसे उत्तम प्रबंध मैं कर सकता था वह मैंने किया..

मैं अपने इस पोस्ट से यह संदेश देना चाहता हूं कि सबसे जरूरी है कि सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बना कर चलना.. नहीं तो अगर हम बस सामाजिक कार्यों पर ही ध्यान देंगे तो हम अपना कार्य तो उचित तरीके से करेंगे, मगर अपने परिवार के अपनी अगली पीढ़ी के लिये ज्यादा कुछ नहीं दे पायेंगे.. हमें सारा समाज तो पूजेगा मगर अपने परिवार वालों के साथ वैसी स्तिथि नहीं होगी.. और इसके ठीक विपरीत अगर हम बस पारिवारिक जीवन में ही उलझ कर रह जाते हैं और समाज को कुछ भी नहीं देते हैं तो इस अपराध को कई नस्ल याद रखेगी..