Friday, April 11, 2008

आरक्षण से निकलते मेधावी छात्र

अगर ऐसे-ऐसे विद्या की अर्थी निकालने वाले विद्यार्थियों को आरक्षण का संरक्षण मिलता रहे तो भारत की अर्थी निकलते भी देर ना लगे..

मैं BCA करने के बाद किसी भी आम बिहारी लड़के की तरह दिल्ली जाकर विभिन्न सरकारी नौकरी कि तैयारी करने लगा था.. मगर मुझमें और दूसरे बिहारी लड़कों में, जो बिहार से निकल कर पहली बार दिल्ली जाते हैं, सबसे बड़ा फर्क ये था कि मेरी बोली से एक बार में ही कोई ये नहीं पकड़ सकता था कि मैं बिहार से हूं और आत्मविश्वास अपनी चरम सीमा पर था.. मेरा मुख्य ध्यान बैंक कि परीक्षा पर होता था.. उसी साल पहली बार MCA की संयुक्त परीक्षा का आयोजन IIT रूढकी के द्वारा आयोजित किया गया था, जिसका नाम AIMCET था.. वैसे तो मैं बैंक पर ज्यादा ध्यान दे रहा था मगर पापाजी के कहने पर मैंने MCA के लिये फार्म भरना भी जारी रखा और उस प्रवेश परीक्षा का भी फार्म भर रखा था..

अब चूंकि बैंक की परीक्षा में जो भी प्रश्न पूछे जाते हैं और MCA के लिये जो प्रश्न पूछे जाते हैं उसमें काफी कुछ समानता होती है बस MCA में गणित कुछ उपर के स्तर का होता है, सो बिना कुछ भी पढे-लिखे ही मेरा परिणाम मेरी उम्मीद से ज्यादा अच्छा आ गया था और मैंने सोचा कि अपना साल बरबाद करने से अच्छा है की कहीं प्रवेश ले ही लिया जाये.. मैंने कई जगह फार्म भर रखे थे, मगर 89 Percentile होते हुये भी किसी NIT में मुझे प्रवेश नहीं मिला और बाद में मुझे पता चला कि 0.04 Percentile वालों को भी NIT में प्रवेश मिल गया है, जिनका आल इंडिया रैंक लगभग 25,000 के आस-पास रहा होगा क्योंकि वो आरक्षित कोटे से आते थे.. अंततः मैंने VIT में प्रवेश ले लिया.. मेरे एक सीनीयर का कहना था कि मैंने अपनी MCA की पढाई पूरी तो की मगर इसमें मेरी कोई काबिलियत नहीं थी, वो तो मेरे माता-पिता इस काबिल थे जो मुझे 1.5 लाख सालाना + जेब खर्च अलग से, पर भी मुझे MCA VIT जैसे महंगे कालेज से पढा सके और मेरी उनकी इस बात से पूर्ण सहमती है.. मुझे VIT MCA के बैच में कई ऐसे विद्यार्थियों से मुलाकात हुई जिनके AIMCET में 95 Percentile थे मगर वे भी VIT में पढ रहे थे क्योंकि वे भी सवर्ण थे..

मुझे आपसे बस इतना पूछना है कि क्या ऐसे विद्यार्थी किसी भी देश का भला कर सकते हैं? मेरे ख्याल से तो अगर ऐसे-ऐसे विद्या की अर्थी निकालने वाले विद्यार्थियों को आरक्षण का संरक्षण मिलता रहे तो भारत की अर्थी निकलते भी देर नहीं लगने वाली है.. वैसे भी हम सभी मिल कर इसकी अर्थी निकालने का पूरा इंतजाम कर ही रहें हैं..



VIT का टेक्नालाजी टॉवर

7 comments:

  1. aapki bat bilkul sahi hai ,abhi tak hamare all india ki CBSE medical entrance me us vaqt koi reservation nahi tha ..par ab shayd vaqt badal gaya hai,mera manna hai ki jarurat mand aor vastav me pichde logo ko 12 tak muft shiksha di jaye aor koi aisa pustaklaya ya institute banaya jaye jahan yogya parantu jaruratmand logo ko entrance ke liye muft snasthan chalaye jaye.

    ReplyDelete
  2. प्रशांत भाई, सारी पढाई ही फ़्रि होनी चहिये,ओर बच्चो को किताबे भी फ़्रि मिलनी चाहिये,स्कुल कालेज इतने होने चहिये की,सभी बच्चे पढ सके.यह बात सपने मे नही इसी दुनिया मे होती हे,युरोप के ९९% देशो मे पढाई मुफ़्त हे ,किताबे मुफ़त हे,जहां विदेशी बच्चे भी इस का लाभ उठाते हे, तो हमारे जहा क्यो नही हो सकता ?

    ReplyDelete
  3. व्यवस्था को मरने दें। वह फीनिक्स की तरह फिर जी उठ्ठेगी! समाज जीने के तरीके खोज लेता है। अन्तत: काबलियत ही चलेगी। चाहे वह जिसमें हो।

    ReplyDelete
  4. आप का आलेख पढ़ा और टिप्पणियाँ भी। दलित, आदिवासी और पिछड़ों को उठाने की किसी भी सार्थक कोशिश से हम सहमत हैं। लेकिन वह सार्थक तो हो। आरक्षण अब सार्थक नहीं रह गया है। इस से इन वर्गों को ऊपर उठाने का काम बिलकुल नहीं हो रहा है। केवल वे ही लोग जो आजादी के बाद के कुछ सालों में आरक्षण पा कर अपनी अपनी जातियों में ऊपर उठ आए थे अब भी लाभ उठा रहे हैं। शेष वहीं के वहीं हैं और पूरी जाति को वहीं खड़ा रखते हैं। नतीजा यह है कि कोई लाभ नहीं हो रहा है। नुकसान यह हो रहा है कि जातियाँ और मजबूत हो कर सामने आ रही हैं। आपसी विद्वेष और फैल रहा है।
    इन मेधावी छात्रों को हम यहाँ कर्मक्षेत्र में भुगत रहे हैं। प्रशासनिक, न्यायिक, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सेवाओं में इन्हें जनता भुगत रही है।
    हम जब छोटे थे तो रेलें गिनती की थीं, पर लोग भी यात्रा कम करते थे कभी कभी परेशानी होती थी अन्यथा जनरल डब्बे में जगह मिलती थी। एलएलबी करने के समय मैं बाराँ से कोटा रोज यात्रा करता था। रोज मुझे सोने को जगह मिल जाती थी, जनरल डब्बे में। 1978 में बिना रिजर्वेशन के मुम्बई आने जाने की यात्रा की बिना रिजर्वेशन के बड़े मजे में। आज 90 दिन पहले रिजर्वेशन की चिंता लग जाती है। कारण एक ही है। साधन कम हैं। यहाँ भाटिया जी की बात का समर्थन करना होगा। हम साधनों का विकास उतना नहीं कर पाए जितनी आबादी का विस्तार किया। आज कोई भी आबादी को सीमित रखने की बात नहीं करता पिछले छह माह से हिन्दी ब्लॉगिंग में एक भी पोस्ट देखने को नहीं मिली आबादी नियन्त्रण पर। चीन ने कितनी खूबसूरती से अपनी आबादी पर नियन्त्रण पा लिया है। मेरी बेटी जहाँ पढ़ती थी और अब नौकरी में है उस इंस्टीट्यूट आईआईपीएस मुम्बई के द्वार के बाहर लगे आबादी दर्शाने वाले विशाल पट्ट पर नित्य ही आँकड़ो में जो वृद्धि हो रही है। वह दहलाने वाली है।
    भारतीय समाज को दोनों ही दिशाओं मे काम करना होगा। माँग घटानी होगी और पूर्ति में वृद्धि करनी होगी।
    अब तो सप्ताहांत हो गया। आप की पोस्ट फायरफॉक्स में सही दर्शन नहीं दे रही है। इसे ठीक करो। मेरे विचार में तो आप पोस्ट मेटेरियल को जस्टिफाई कर देते हैं इस से परेशानी है। नहीं तो टेम्पलेट बदल लो। कब तक एमएसवर्ड में ट्रांसफर करके पढ़ते रहेंगे।

    ReplyDelete
  5. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  6. भारत का दुर्भाग्य है कि अब तक आरक्षण जैसे मुद्दों में शिक्षा को उलझा रखा है.आरक्षण के नाम पर सिर्फ़ जाति वाद को बढावा दे रहे हैं और कुछ नहीं.
    क्यों आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं करते???
    दुःख होता है सरकार का जाति/क्षेत्र के नाम पर आरक्षण बढाने' जैसे ग़लत फैसलों पर.
    यही सब 'कुव्यवस्था 'देख कर कितना चाहो फ़िर भी भारत लौटने की हिम्मत नहीं होती न ही बच्चों को भेजने की.ईश्वर समाज के कथित ठेकेदारों को समय रहते सदबुद्धि दे.

    ReplyDelete
  7. हम यू ही तो २००० साल गुलाम नही रहे ना,पहले मुगलो,फ़िर अग्रेजो फ़िर इन गधो की गुलामी करमे को अभीशिप्त है हम लोग ,अगर इन्होने गये पचास सालो मे लोगो को पढाया होता तो आज ये ना होते इसी लिये ये सिर्फ़ द्वेश बडाने और अपनी कुर्सी पक्की करने के अलावा कुछ और नही कर रहे हा इन सालो मे इन्होने एक फ़ौज जरूर खडी की है वो है इन के सुर मे सुर मिलाने वाले वाम पंथी विचारो की ..:)

    ReplyDelete