Monday, December 26, 2011

हैप्पी बर्थडे पापाजी

कुछ साल पहले आपको एक खत लिखा था, आपको याद है पापा? ई-मेल किया था आपको? आपने कहा था की इसका जवाब आप मुझे डाक से भेजेंगे.. लगभग तीन साल होने आ रहे हैं, अभी भी इन्तजार कर रहा हूँ उस खत का.. शायद आपको याद भी नहीं हो!!

दसवीं में खराब अंक लाने के बाद भी जब नहीं पढता था तब आपने कहा था, "जितना इस मकान का किराया देता हूँ, उतना भी अगर तुम महीने में कमा लोगे, इसकी उम्मीद नहीं है मुझे.." आपकी उस बात ने मुझे हौसले और आत्म-सम्मान की शिक्षा दी.. मैं जानता हूँ की आपको वह भी याद नहीं!!

छोटे में आप जान बूझ कर मुझसे हर खेल में हार जाते थे और मैं बहुत खुश.. बहुत बाद में ये समझ में आया की आप जान कर हारते थे.. मैं ये भी जानता हूँ कि आपके लिए शायद यह सब उतने महत्व का विषय नहीं होगा जिसे क्रमवार याद रखा जाए, मगर मुझे याद है पापाजी.. कह सकता हूँ की वे सब घटनाएं लगभग क्रमवार याद हैं मुझे.. याद है पापाजी, आप क्रिकेट में बौलिंग करते समय थ्रो फेकते थे? ठीक विकेट को निशाना बना कर?

मैं जानता हूँ कि आप समझते हैं और भरोसा भी करते हैं की मैं झूठ नहीं बोलता हूँ, भले ही कितना भी गलत काम किया रहूँ या फिर उसकी सजा कुछ भी हो.. भले ही सच भी ना कहूँ, मगर झूठ नहीं बोलता हूँ.. बहुत अपराधबोध के साथ कह रहा हूँ, आप गलत थे.. लगभग बीस-बाईस साल पहले, डुमरा वाले घर में, सोफे के गद्दे पर कलम से मैंने ही लिखा था पापा और नकार दिया था की मैंने वह नहीं लिखा है.. बाद में भैया को मेरे बदले डांट मिली थी.. देखिये, आप ये भी भूल गए हैं ना? शायद भैया को भी याद नहीं होगा.. सौरी भैया!!

उन्नीस सौ सतासी-अठासी की बात होगी शायद, आपसे झूठ बोल कर कुछ कॉपी(नोटबुक) खरीदवाया था कि मुझे जरूरत है, और उसे अपने मित्र जितेन्द्र को दे दिया था, जिसके पास कॉपी खरीदने के पैसे नहीं थे.. पहली या दूसरी कक्षा में था तब.. मैं हर उस रात को झूठ बोलता रहा हूँ जिस रात पैसे की कमी के कारण या साधनों की कमी के कारण खाना नहीं खाया.. जानता था कि आपको तकलीफ होगी.. अब आगे से मेरी कही हर बात पर भरोसा मत कीजियेगा पापा!! मैं भी झूठ बोल सकता हूँ..

मेरी सबसे बड़ी कमजोरी यही रही है कि मैं कुछ भूलता नहीं हूँ..

मैं जानता हूँ, आपके तीनों बच्चों में सबसे नालायक और नकारा संतान हूँ मैं.. रेशम की चादर में टाट का पैबंद सा.. मैं भी अपनी जिंदगी की एक तिहाई से अधिक उम्र गुजार चुका हूँ, फिर भी एक भी क्षण ऐसा याद नहीं आता है जिस पर आप अपने उन दोनों बच्चों से भी अधिक गर्व का अनुभव किये होंगे. इन सब के बावजूद मैं जानता हूँ, आप कहें ना कहें, आपने सबसे अधिक प्यार मुझ पर ही लुटाया है.. कई लोगों से सुना है कि बच्चों में जो सबसे मजबूत होता है उसे बाप का प्यार अधिक मिलता है और जो कमजोर उसे माँ का, उनसे कुछ कहता नहीं हूँ, जमाने से बेमतलब की बातों पर बहस क्या करना? मगर अपने अनुभव से मैं कह सकता हूँ की वे झूठ कहते हैं..

कुछ साल पहले किसी बात पर मैंने कहा था कि आज अगर मेरी आखिरी इच्छा पूछी जाए तो वह यही होगी की मेरे पापा मुझे एक बार गले लगा लें.. साल-दर-साल बीतने के बाद आज भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है पापा!!

समय बीतने के साथ कुछ अधिक ही विद्रोही स्वभाव का होता जा रहा हूँ.. बाहरी संसार के लिए शायद थोड़ा कठोर भी हूँ.. मगर मैं जानता हूँ की आपकी मुझे पहले भी जरूरत थी और आज भी है और हमेशा रहेगी.. आठ साल से अधिक हो चुके हैं घर से निकले हुए मुझे, ऐसा लगता है जैसे बड़ा हो कर कोई पाप कर दिया हूँ, आपलोगों ने ऐसे ही छोड़ रखा है, कभी देखने भी नहीं आते हैं की वो बेटा जिसे पलकों पर बिठाए रखते थे, वो कैसे रह रहा है. अपनी जिंदगी कैसे जी रहा है? आई मिस यू टू मच पापा.. प्लीज आ जाईये ना.. प्लीज!!! ऐसा कौन सा जरूरी काम है आपके लिए जो मुझसे अधिक महत्वपूर्ण है!! बस एक बार आ जाईये ना..... प्लीज!!!!!!!

Saturday, November 12, 2011

लफ्ज़ों से छन कर आती आवाजें

१ -
वो काजल भी लगाती थी, और गर कभी उसका कजरा घुलने लगता तो उसकी कालिख उसके भीतर कहीं जमा होने लगती.. इस बदरा के मौसम में उस प्यारी की याद उसे बहुत सताने लगती है.. काश के मेघ कभी नीचे उतर कर किवाड़ से अंदर भी झांक जाता.. ये गीत लिखने वाले भी ना!!
(कहाँ से आये बदरा गीत के सन्दर्भ में)

२ -
समय बदल गया है, जमाना बदल गया है,
एक हमहीं हैं जो सदियों पुराने से लगते हैं..

३ -
तुम अब भी, यात्रारत मेरी प्यारी,
अब भी वही इन दस सालों बाद,
धंसी हुई हो मेरी बग़ल में, किसी भाले की तरह..
(मुझे याद नहीं, मेरी ही लिखी हुई या फिर कहीं का पढ़ा याद आ गया हो)

४ -
मैं उस असीम क्षण को पाना चाहता हूँ जब इस दुनिया का एक-एक इंसान यह भूल जाए की मेरा कोई अस्तित्व भी है.. और अवसाद के उस पराकाष्ठा को महसूस करना चाहता हूँ...

५ -
लेकिन वह दोपहर ऐसी न थी कि केवल चाहने भर से कोई मर जाता..
[निर्मल वर्मा कि एक कहानी से]

६ -
होश से कह दो, कभी होश आने ना पाए.
एक मदहोशी का आलम बना है अभी अभी...

७ -
लगता है जैसे एक सपना सा बीता था या कोई फ्लैश सा चमका हो.. मैं भी तो अभी फ्लैश बैक में ही जी रहा हूँ! एक अकथ पीड़ा जैसी कुछ!! जीवन में अचानक से ही अनेक घटनाएं घट जाने पर उसी तरह उन सभी बातों का मूल्यांकन कर रहा हूँ जिसका कोई मूल्य निर्धारित ना किया जा सके, सभी चीजें वैसी ही दिख रही है जिस तरह अचानक किसी निर्वात में हवा के भरते समय सनसनाहट की सी आवाज होती है.. या फिर किसी घटना से आश्चर्यचकित सा होकर कोई उन सारे घटनाओं से परे हटकर, किनारे पर बैठ कर जैसे माझी को नाव खेते हुए देखता हो..

८ -
कई दिनों से इन्द्रधनुष की तलाश में हूँ. सुना है उसके दोनों छोर, जहाँ से वह धरती से मिलता है, वहाँ खुशियाँ ही खुशियाँ पायी जाती है.. यह मूवा इन्द्रधनुष भी तो यहाँ निकलता नहीं है..

९ -
गुमे हुए लोगों की उम्र कभी बढती नहीं है, वे हमेशा वैसे ही होते हैं जैसा उन्हें आखिरी दफ़े देखा गया होता है..
आपकी यादों में...

१० -
कभी-कभी सोचता हूँ कि अपनी लिखी डायरी को एक दिन नष्ट कर दूँ, नहीं तो अगर किसी दिन वह दुनिया के हाथ लग गई तो सारी दुनिया जान जाएगी की मैं किस हद तक का नीच, कायर और डरपोक इंसान था, एक ऐसा इंसान जो खुद को धोखे में रखने कि बीमारी से ग्रसित था..

११ -
वह एक ऐसा शहर था जिसका अँधेरा मुझे कभी भयभीत नहीं करता था. उसकी भीड़-भाड़ कभी मन को विचलित नहीं करती थी. उसके बारे में मैं वैसे ही सुना करता था जैसे बचपन में दादी-नानी से बच्चे भूत-प्रेत, राजा-रानी और परियों की कहानियां सुनते हैं, पूरी बेचैनी के साथ, पूरी श्रद्धा के साथ.

उस शहर में रहने वाले लोगों से अक्सर मुझे रश्क होता आया है, मेरे लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा की उस शहर में रहने वाले लोग किसी दूसरे शहर, कस्बे अथवा गाँव के बारे में ठीक वैसा ही सोचते होंगे, जैसा मैं उस शहर के बारे में. और वे भी ऐसे ही इर्ष्या करने को मजबूर कर दिए गए होंगे उन जगहों में रहने वालों के बारे में..

१२ -
वो भी ठीक ऐसी ही रात थी.. सुबह चार बजे तक जगा हुआ था, और आज भी ढाई बज चुके हैं.. बस उस दिन "मौसम" जैसी कोई सिनेमा साथ नहीं थी...

देखो ना, देखते ही देखते पूरे दस साल गुजर गए. मगर लगता है ऐसे जैसे कल ही की तो बात थी, फिर खुशगंवार पांच साल और अवसाद के पांच साल भी तो आज साथ हैं सुबह के चार बजाने को......

१३ -
अतीत कभी आपका पीछा नहीं छोड़ती है. आप कितना भी बच कर निकलना चाहें, मगर यह पलट कर वापस आती है और पिछले हमले से अधिक जोरदार हमला करती है. अवसाद के पहले चरण की शुरुवात यहीं से होती है, और अंत का कहीं पता नहीं..

१४ -
कुछ यादें हैं, धुंधली सी.. जैसे कोई भुला हुआ गीत, जिसके सुर तो याद हों, मगर बोल याद नहीं.. जैसे कोई भुला हुआ स्वर, जिसकी आवाज याद हैं, मगर बोलने वाले का चेहरा याद नहीं.. जैसे कोई प्रमेय, जिसका हल तो याद हैं, मगर प्रश्न नहीं.. जैसे कोई खंडहर, जिसके दरख़्त तो याद हैं, मगर उसका पता याद नहीं... यादें जो आती हैं, खो जाती हैं... अधूरी यादें.. यादों को कभी अधूरा नहीं रहना चाहिए, तुम्हारे प्यार की तरह.. उसका भी एक अंत होना चाहिए, मेरे प्यार की तरह..


पिछले कुछ महीनों में फेसबुक पर अलग-अलग मूड में लिखे गए अपडेट्स का लेखा-जोखा.

Sunday, November 06, 2011

कहाँ जाईयेगा सsर? - भाग ३

दिनांक २३-११-२०११

सबसे पहले - मैंने गिने-चुने लोगों को ही बताया था कि मैं घर, पटना जा रहा हूँ.. घर वालों के लिए पूरी तरह सरप्राईज विजिट.. अब आगे -

मेरे ठीक बगल में एक लड़का, जिसकी दाढ़ी के बाल भी अभी ठीक से नहीं निकले थे, बैठा हुआ था.. वो काफी देर से मेरे DELL Streak को बालसुलभता से देख रहा था.. मगर बात नहीं कर रहा था.. अजनबियों से बात ना करने की सीख सबसे अधिक फ्लाईट में ही निभाई जाती है, जिसकी वजह से ही मुझे फ्लाईट की यात्रा सबसे उबाऊ यात्रा लगती है.. खैर, मैं ही बात शुरू की, और बात शुरू होने पर सबसे पहले उसने मेरे मोबाईल के बारे में ही पूछा.. बात आगे बढ़ने पर पता चला की वह दिल्ली के किसी स्कूल में बारहवीं का छात्र है और दिवाली कि छुट्टियाँ मनाने बिहारसरीफ जा रहा है.. मैंने आश्चर्य से पूछा की इतनी रात गए तुम पटना से बिहारसरीफ कैसे जाओगे तो उसने बताया की मम्मी आई हुई है उसे लेने के लिए.. उस वक्त मैं सोच रहा था कि 16-17 साल का यह लड़का दिल्ली से पटना कि यात्रा फ्लाईट से पूरी कर रहा है, और वह भी दिवाली के वक्त जब दिल्ली से पटना की फ्लाईट दस हजार से ऊपर चल रही है.. अधिक वक्त नहीं बीता है, बामुश्किल दस-पन्द्रह साल.. मगर हमारे समय में मैंने अपने किसी भी मित्र को थर्ड एसी में भी यात्रा करते नहीं देखा था उस उम्र तक..

किन्ही वजहों से फ्लाईट कुछ देर हो चुकी थी और शायद रनवे खाली ना होने के कारण से लगभग आधे घंटे और तक रात के समय पटना देखने का मौका मिलता रहा.. कुछ देर में ही पटना में फ्लाईट लैंड कर चुकी थी.. मैं अपना सामान लेकर बाहर निकल रहा था तभी अभिषेक का फोन आया, मैं उससे बाते करते हुए बाहर आया और सारे टैक्सी-ऑटो वाले मेरे कानों के पास आकर चिल्लाने लगे "कहाँ चलिएगा सsर?" पहली बार उन्हें इशारों से बताया की रुको, अभी फोन पर बात कर रहा हूँ.. वे चुप नहीं हुए तब दुबारा बताया.. फिर भी वे चुप नहीं हुए तो खीज कर अभिषेक को होल्ड पर रख कर लगभग उन पर चिल्लाने ही जा रहा था कि अंतरआत्मा से आवाज आई "शांत गदाधारी भीम, शांत" और उनसे पूछा, "पहले फोन पर बात तो खत्म करने दो दोस्त".. वे भी एक अच्छे दोस्त की तरह बात एक बार में ही मान गए.. :)

अभिषेक से बात करके मूड फ्रेश हो चुका था.. अब उन ऑटो-टैक्सी वालों से बात करने की बारी थी..
- कहाँ जाईयेगा सsर? चलिए ना टैक्सी में ले जायेंगे..
- नहीं-नहीं.. टैक्सी नहीं, ऑटो नहीं है क्या?

यह सुनते ही दो बंदे बीच में कूद पड़े और पहला वाला निराश हो कर दूसरे ग्राहक की तलाश में निकल लिया..
- हाँ हाँ, चलिए ना..
- तुम क्या ले जाओगे, सsर हमरे साथ चलेंगे.. कहाँ जाईयेगा?
- लाल बाबू मार्केट, शास्त्रीनगर..
- चलिए ना..
"चलिए ना"
बोलकर मेरा सामान पकड़ने लगा.. मैंने रोककर पूछा "कितना लोगे?" और साथ ही इस शहर से अनजान बनने का नाटक करते हुए अगला सवाल भी रख दिया "कितनी दूर है? जादे है का?"
- साढ़े तीन सौ..
उसका कहना था और मेरी हंसी छूट गई..
- साढ़े तीन किलोमीटर का साढ़े तीन सौ..
- सsर, जब जानते हैं त काहे पूछते हैं?

झेंपते हुए वो बोला.. खैर, खूब मोल-मोलाई(मोल-भाव) हुआ और पचास रूपया में वह तैयार हो गया.. :)

Saturday, November 05, 2011

यह लठंतपना शायद कुछ शहरों की ही बपौती है - भाग २

जब कभी भी इन रास्तों से सफ़र करने का मौका मिला हर दफ़े एक अजब सा लठंतपने को देखने का मौका भी मिला, मगर उसी लठंतपना का ही असर बाकी है जो मुझे पटना की ओर खींचता है.. चेन्नई से देल्ली तक का सफ़र वही आराम से और सुकून भरा था, मगर देल्ली से!! सुभानल्लाह.. दिल्ली उतर कर मुझे दूसरी फ्लाईट पकडनी थी.. दिल्ली में फ्लाईट डोमेस्टिक एयरपोर्ट पर लैंड किया, और मुझे वहाँ से टर्मिनल 3 पर जाना था.. समय पास में लगभग तीन घंटे का था.. एयरपोर्ट बस सर्विस का लाभ उठाया और पहुँच गया वहाँ.. टिकट लेने से लेकर चेक-इन तक हर काम समय पर और ठीक तरीके से मुकम्मल हुआ.. अब समय था उस लठंतपने का सामना करने का.. जिस दरवाजे से फ्लाईट पकड़ने था वहाँ कतार का कोई अत पता नहीं था.. फिर मैंने ध्यान दिया तो पाया की कुछ शहरों के लिए जाने वाली उड़ान के लिए कतारों का कोई मतलब ही नहीं था, मानों हम सब इन बातों से ऊपर उठ चुके हों.. :) उन शहरों का नाम नहीं लूँगा, मगर यह जरूर बताना चाहूँगा की उनमें हर एक नाम उत्तर भारत का ही है..

एक मजेदार घटना, जो ठीक अभी अभी घटी.. "एक जानकारी - हवाई जहाज के उड़ान भरते समय सभी सीटों को सीधा कर लेने के लिए कहते हैं.." अब घटना - मेरे ठीक पीछे वाले महाशय को एयर होस्टेज दो दफ़े समझा कर गई की अपनी सीट सीधी कर लें.. तीसरी बार का मौका उन्होंने नहीं दिया और खुद ही सीट सीधा कर लिया.. अब जब हमारा जहाज उड़ान भर चुका था तब मैंने अपनी सीट को हल्का पीछे की ओर झुका लिया.. ओ भाईसाब!! मत पूछिए, किसी स्कूली बच्चे की तरह उनका व्यवहार हुआ.. तुरंत टीचर को, मेरा मतलब एयर होस्टेज को बुलाकर शिकायत की गई.. तब उसने उन्हें कहा की आप भी अपनी सीट अब झुका सकते हैं.. भाईसाहब ने कुछ कहा तो नहीं, मगर उनका चेहरा देखने लायक ही होगा, चूँकि वो मेरे ठीक पीछे बैठे थे सो मैंने पीछे मुड कर उनका चेहरा देखना मुनासिब नहीं समझा..

शीघ्र ही पटना की सीमा रेखा को भी हवाई जहाज छूने लगा.. पटना की सडकों की रोशनी को देखते ही लगभग चीख पड़े वह "पटना में ढुक गए".. उनके बगल में बैठे उनके साथ के लोग उन्हें शांत कराये की भाई, इतना एक्जाईटेड(एक्साईटेड) क्यों हो रहे हैं!! शुक्र मना रहा हूँ की वे इसे नहीं पढ़ रहे हो.. वो मेरे ठीक पीछे बैठे हैं.. :)

खैर उतरते समय मैंने उनका शक्ल देखा तो पाया की सत्तर के आस-पास की उम्र रही होगी उनकी..

Friday, November 04, 2011

एक सफ़र और जिंदगी में - भाग १

दिनांक २३-११-२०११



अभी चेन्नई से दिल्ली जाने वाली हवाई जहाज में बैठा ये सोच रहा हूँ की दस महीने होने को आये हैं घर गए हुए और आज जाकर वह मौका मिला है जब बिना किसी को बताए जा रहा हूँ.. मगर जाने क्यों मन बेहद उदास सा हुआ जा रहा है.. इस उदासी की वज़ह भी पता नहीं.. हाँ यह तो यक़ीनन कह सकता हूँ की अवसाद कि कोई रेखा मन में कहीं नहीं है, मगर जितना उत्साह जरूरी है वह नहीं आ पा रहा है.. फिलहाल गाना सुनते हुए यह टाईप कर रहा हूँ जिसमें एक पंक्ति जो अभी चल रही है - "देखूं, चाहे जिसको, कुछ-कुछ तुझ सा दिखता क्यों है.. जानू, जानू ना मैं, तेरा मेरा रिश्ता क्यों है.. कैसे कहूँ, कितना बेचैन है दिल मेरा तेरे बिना.." शायद पिछले पांच-छः दिनों से ठीक से नींद पूरी नहीं कर पाया था इसलिए मन और शरीर दोनों ही थका हुआ सा है.. यही हो तो अधिक अच्छा हो.. खैर.. अभी तो सफ़र की शुरुवात हुई है, उम्मीद है यह जिंदगी के सफ़र सा मायूस सफ़र ना साबित हो.. आमीन!!!!!

Wednesday, September 28, 2011

हार-जीत : निज़ार कब्बानी

आजकल निज़ार कब्बानी जी की कविताओं में डूबा हुआ हूँ. अब उर्दू-अरबी तो आती नहीं है, सो उनकी अनुवादित कविताओं का ही लुत्फ़ उठा रहा हूँ जो यहाँ-वहाँ अंतरजाल पर बिखरी हुई है. उनकी अधिकांश कवितायें अंग्रेजी में अंतरजाल पर ढूंढ कर पढ़ी और कुछ कविताओं का हिंदी अनुवादित संस्करण सिद्धेश्वर जी के कर्मनाशा एवं कबाड़खाना पर पढ़ने को मिली. एक प्रयास मैंने भी किया अनुवाद करने का, यह संभव है की यह पहले से ही अनुवादित हो हिंदी में, मगर ढूँढने पर भी मेरी नजर में नहीं आया. फिलहाल आप सब से इसे साझा कर रहा हूँ. यहाँ शीर्षक भी मेरा ही दिया हुआ है. मूल कविता का शीर्षक I conquer the world था. अगर कहीं कुछ खोट हो तो आप विद्वजनों से सुधार की उम्मीद भी करता हूँ.

हार-जीत

मैंने जीता है दुनिया को
अपने शब्दों से
जीता है अपनी मातृभाषा को
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण एवं वाक्यविन्यासो से.
मैंने मिटा दिया अस्तित्व
उन शुरुवाती क्षणों का
और धारण किया शरीर, एक नई भाषा का
जिसमें सम्मिलित हैं -
जल-संगीत एवं अग्नि का दस्तावेज
मैंने प्रकाशित किया है, अगली पीढ़ी को
और रोक दिया है समय को उन आँखों में
और मिटा दिए हैं उन सब लकीरों को,
जो हमें जुदा ना कर सकें
आज, इसी क्षण से...

Tuesday, September 06, 2011

दादू बन्तल, दादू बन्तल, छू

पापा ने करीब ३ महीने पहले केशू को एक खेल सिखाया बच्चों वाला जिससे वो किसी भी चीज़ को गायब कर सकता था और उसे फिर वापिस भी ला सकता था, बस उसके लिए उसे आँख बंद करके और हाथों की अँगुलियो को शक्तिमान के स्टाईल में घुमाते हुए ये बोलना था..."गायब करने के लिए 'जादू मंतर जादू मंतर blah blah गायब', और फिर उसे वापिस लाने के लिए 'जादू मंतर जादू मंतर blah blah आ जाओ'"|

उसके भोले मन और विश्वास का एक और उदाहरण कल देखने को मिला, जब वो shoe rack पर अपने जूते ढूँढ रहा था तो उसके एक पैर का जूता उसे मिल गया और दूसरे का नहीं मिला तो उसने कहा

"दादू बन्तल दादू बन्तल केतू का दूता आ दा"

मगर जूता वहाँ होता तब तो आता तो उसने कहा

"अले नहीं आया",

फिर उसने वही दोहराया

"दादू बन्तल दादू बन्तल केतू का दूता आ दा",

फिर जब नहीं आया तो उसने फिर से कहा

"अले नहीं आया"

३ बार बोलने के बाद भी जब जूता उसका नहीं आया तो वो मेरे पास आकर बोला,

"डाईडी केतू का दादू नहीं हो लहा है"

मुझे उसकी मासूमियत पर बहुत प्यार आया और मैंने कहा,

"केशू ने जरूर आँख बंद नहीं किया होगा"

अबकी बार केशू ने पूरे विश्वास से आँख बंद करके कहा

"दादू बन्तल दादू बन्तल केतू का दूता आ दा"

और आँख खुलते ही सामने जूता दिखा, तो वो बहुत खुश हुआ और बोला

"डाईडी केतू का दूता आ गया"

(मैंने चुपके से उसका जूता वहाँ ला कर रख दिया था, आखिर उसके मासूमियत से भरे भरोसे को कैसे टूटने देता).................................


भैया की कलम से


Sunday, August 28, 2011

महुवा घटवारन से ठीक पहले

बचपन से 'बाढ़' शब्द सुनते ही विगलित होने और बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में जाकर काम करने की अदम्य प्रवृति के पीछे - 'सावन-भादों' नामक एक करुण ग्राम्य गीत है, जिसे मेरी बड़ी बहिन अपनी सहेलियों के साथ सावन-भादों के महीने में गाया करती थी । आषाढ़ चढ़ते ही - ससुराल में नयी बसनेवाली बेटी को नैहर बुला लिया जाता है । मेरा अनुमान है कि सारे उत्तर बिहार में नव-विवाहिता बेटियों को 'सावन-भादों' के समय नैहर से बुलावा आ जाता है...और जिसको कोई लिवाने नहीं जाता वह बिचारी दिन-भर वर्षा के पानी-कीचड़ में भीगती हुई गृहकार्य संपन्न करने के बाद नैहर की याद में आँसुओं की वर्षा में भीगती रहती है । 'सावन-भादों' गीत ऐसी ही, ससुराल में नयी बसने वाली कन्या की करुण कहानी है :

"कासी फूटल कसामल रे दैबा
बाबा मोरा सुधियो न लेल,
बाबा भेल निरमोहिया रे दैबा
भैया के भेजियो न देल,
भैया भेल कचहरिया रे दैबा
भउजी बिसरी कइसे गेल...?"
(अब तो चारों और कास भी फूल गए यानि वर्षा का मौसम बीतने को है । पिछली बार तो बाबा खुद आये थे । इस बार बाबा ने सुधि नहीं ली । बाबा अब निर्मोही हो गए हैं । भैया को 'जमीन-जगह' के मामले में हमेशा कचहरी में रहना पड़ता है । लेकिन, मेरी प्यारी भाभी मुझे कैसे भूल गई?)

भाभी भूली नहीं थी, उसने अपने पति को ताने देकर बुलाने के लिए भेजा । भाई अपनी बहिन को लिवाने गया...इसके बाद गीत की धुन बदल जाती है । कल तक रोनेवाली बहुरिया प्रसन्न होकर ननदों और सहेलियों से कहती है :
"हाँ रे सुन सखिया ! सावन-भादव केर उमड़ल नदिया
भैया अईले बहिनी बोलावे ले - सुन सखिया..."
ओ ननद-सखी ! सावन भादों की नदी उमड़ी हुई है । फिर भी मेरे भैया मुझे बुलाने आये हैं । तुम जरा सासजी से पैरवी कर दो कि मुझे जल्दी विदा कर दें...सास कहती है, मैं नहीं जानती अपने ससुर से कहो । ससुर ताने देकर कहता है कि नदिवाले इलाके में बेटी की शादी के बाद दहेज में नाव क्यों नहीं दिया । अंत में, पतिदेव कुछ शर्तों के साथ विदा करने को राजी होते हैं । ससुराल की दुखिया-दुलहिन हंसी-खुशी से भाई के साथ मायके की और विदा होती है । लेकिन, नदी के घाट पर आकर देखा - कहीं कोई नाव नहीं । अब क्या करें ! भाई ने हिम्मत से काम लिया । कास-कुश काटकर, मूँज की डोरी बनाकर और केले के पौधों के ताने का एक 'बेड़ा' बनाया और उस पर सवार होकर भाई-बहिन उमड़ी हुई कोशी की धरा को पार करने लगे । बेड़ा डगमग करने लगा । और, आखिर :
"कटि गेल कासी-कुशी छितरी गेल थम्हवा
खुलि गेल मूँज केर डोरिया - रे सुन सखिया !
...बीचहि नादिया में अइले हिलोरवा
छुटि गेलै भैया केर बहियाँ - रे सुन सखिया !
...डूबी गेलै भैया केर बेडवा - रे सुन सखिया !!"
(नदी के उत्ताल तरंगों और घूर्णिचक्र में फंसकर बेड़ा टूट गया । भाई का हाथ छूट गया । और, भाई का बेड़ा डूब गया । भाई ने तैरकर बहिन को बचाने की चेष्टा की, किन्तु, तेज धरा में असफल रहा । डूबती हुई बहिन ने अपना अंतिम संदेशा दिया - माँ के नाम, बाप के नाम...फिर किसी बेटी को सावन-भादों के समय नैहर बुलाने में कभी कोई देरी नहीं करे । और देरी हो जाए तो जामुन का पेड़ कटवाकर नाव बनवाए, और तभी लड़की को लिवाने भेजे !)

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फणीश्वर नाथ 'रेणु' जी की किताब "ऋणजल धनजल" से लिया हुआ ।



Wednesday, August 24, 2011

दरवाजा

कुछ दिनों पहले एक अजीब सा वाकया हुआ.रक्षा बंधन के दिन कि बात है.. मेरे घर पे मेरे भाइयों का जमावड़ा लगा था.. उनमे मुन्ना भैया और मुक्ता भाभी भी थे.. सबने खाना खाया.. लगभग रात के साढ़े दस या एग्यारह बजे भैया और भाभी अपने घर जाने को निकले.. नीचे तक छोड़ने के लिए मैं भी साथ निकली और मेरे साथ मेरी दोनों बेटियां भी.. मैंने देखा हमारे पडोसी का ड्राईवर अपने पूरे परिवार के साथ सीढ़ी चढ रहा था.. गौर से देखा, उसकी पत्नी ने एक हैण्ड बैग भी टांग रखा था और दो लड़कियां और एक छोटा सा लड़का भी था..

उस ड्राईवर को मैं प्रतिदिन गाड़ी कि सफाई करते तो घर का सामान लाते और यहाँ तक कि उनके कुत्ते को घुमाते भी देखा था.. वो इतने लगन से गाडी कि सफाई करता है कि मैंने अपनी गाडी को साफ़ करने के लिए भी उससे पूछ लिया था, जिससे उसने नम्रतापूर्वक इनकार भी कर दिया था.. कुल मिला कर ये तो मैं जानती हूँ कि वो बरसों से उनके घर पे काम करता है..
हाँ तो अब अपनी बात पे आती हूँ.. नीचे भैया भाभी को विदा करते हुए लगभग दस पन्द्रह मिनट लग गए.. बच्चे भी खेलने के मूड में थे.. भैया कि बेटी सुर को जाने नहीं देना चाहते थे.. कुल मिला कर काफी वक्त बाद हम ऊपर अपने घर कि ओर वापस आये..

मैं हैरान रह गयी जब देखा कि इतनी देर बाद भी उन पडोसी का दरवाजा नहीं खुला था.. वो अब बेल बजाना छोड़ कर हलकी आवाज़ लगाने लगा..'मैडम...मैडम'...उसकी पत्नी और बच्चे थोड़े परेशान हो रहे थे.. अंदर से उनके कुत्ते के भौंकने कि आवाज़ भी आ रही थी.. यानी उस जानवर को भी समझ में आ गया था कि बाहर कोई है..

मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी.. मेरे पति शेखर भी दफ्तर के काम से मुंबई गए थे.. एक बार उनसे पूछने को हुई कि क्या बात है.. फिर डर गयी कि मैं तो अभी अकेली हूँ बच्चों के साथ.. फिर सोचा कि शायद अंकल-आंटी दरवाज़ा खोल ही दे.. इसी दुविधा में अपने घर के अंदर आ गई..

अब तक रात काफी हो चुकी थी, साढ़े ग्यारह से ऊपर हो चुका था.. बच्चों को सोने के लिए कहा.. काफी देर बाद पानी पीने रसोई गयी.. अभी भी वो आवाज़ लगा रहा था.. बच्चों के पास वापस आई ! काफी देर तक सो नहीं पायी ! एक ही सवाल मन में उठ रहा था कि क्या कोई अपने घरेलू नौकरों के प्रति इतना निर्दयी हो सकता है ? कम से कम दरवाज़ा खोल के उसका हाल तो ले ही सकते थे..

अपने ऊपर भी गुस्सा आया.. क्यों नहीं मैंने भी उससे इतनी रात गए सपरिवार यहाँ आने कि वज़ह पूछा.. पर मैं तो उसे ठीक से जानती भी नही..
शायद उस रात उन लोगो ने दरवाज़ा नहीं खोला था और उसे वापस जाना पड़ा था.. अब भी वो हर दिन उसी लगन से सारे काम करता दीखता है.. लेकिन मैं नहीं पूछ पाती कि उस रात क्या हुआ था..

दीदी(रश्मि प्रिया) की कलम से

दीदी से बिना पूछे ही उनके बज्ज से उठा कर छाप रहा हूँ.. सोच रहा हूँ की वो जो कुछ भी लिखे, जो मुझे अच्छा लगे, वो इधर तब-तक छापूंगा जब-तक की वो खुद ही इसे सोशल नेट्वर्किंग साईट्स से हटाकर किसी ब्लॉग पर लिखना शुरू ना कर दे..


आज शाम एक खबर सुनी, सहसा विश्वास ना हो सका.. डा.अमर कुमार जी अब हमारे बीच नहीं रहे.. क्या संयोग है, दीदी के बज्ज पर किये गए इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मैं आज ही कुछ साल पहले दीदी के ऊपर लिखी गई एक पोस्ट को देख रहा था, जिस पर डा.अमर जी ने बेहद भावुक होकर एक कविता कमेन्ट में लिखी थी.. मैंने उससे पहले कभी भी उन्हें भावुक होते नहीं देखा था.. उसी पोस्ट के बाद पहली दफ़े उनसे बातें करने का मौका भी मिला था.. फिलहाल मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं.. मुझे शब्दों में किसी का दुःख बांटना नहीं आता है, सो मूक श्रद्धांजलि ही सही.. उन पर लिखे गए यह शब्द उनके ही अंदाज में तिरछे...



Thursday, August 18, 2011

एक सौ सोलह, चाँद की रातें

ये आर्चीज़ वाले जान बूझ कर सेंटीमेंटल और यादगार गीत बजाते हैं. ये चाहते हैं की फ़साने चलते रहें. रिया ने यही सोचते हुए अपनी गिफ्ट में मिली स्टील घडी को कलाई पर कसा और आर्चीज़ वाले को बोला - भैया, ये विंड चाइम्स, वो चोकलेट, और सोनू निगम की 'जान' सी. डी. एक साथ वो वाले रंगीन कवर में पैक कर दो. पैकिंग के दौरान प्लेयर पर टेप गिर गया... नेक्स्ट गाना : मेरा वो सामन लौटा दो....

रिया ब-मुश्किल ही गाली रोक पायी. %#$@%

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जैसे जिंदगी वैसा ही बातों में विरोधाभास... कहना, काटना फिर वही कहना.. नाटक के दो जुदा पात्र अपने ही अन्दर. झगडा तो ता-उम्र चलता रहा... चलते फिरते उस रंगमच से आप काफी कुछ सीख सकते हैं. अव्वल तो ये की वैसा दूसरा ना होगा ये मानते हुए उससे नफरत करना और दूरी बना कर रखना. आवाज़ कभी यूँ की जैसे सरौते से सुपारी काट रहे हों और कशिश यूँ कि कोहरे के पीछे हल्का दीखता चेहरा.... औंधे पड़े हुए कहीं डीप कट ब्लाउज वाली स्त्री ... अधिकार हुआ तो क्या हुआ ... जिसे चूमने जा रहे हों रहे हों उसे पहले कम से कम बता तो दो...
आधी रात को जब भी खवाब महके हाथ पर कुछ पेशानी से यूँ ही कुछ ठंढी बूंदे गिरती जाती थी.

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उसने पेड़ की डाल पकड़ के आमिर खान की तरह 'पहला नशा, पहला खुमार' गाना था लेकिन उसने सेनोरिटा को चुना... स्पेनिश बोलने में जुबान लड़खड़ा जाती थी लेकिन भरपूर कोशिश की. चाहत के दो पल भी मिल पाए पर विशेष जोर देता (ये व्यक्तिगत रूप से अभिव्यक्त की गयी सामूहिक गान था) डाल पर झूमने के बजाय मेट्रो के नीचे लेट कर गाने लगा... कलाई से खून जब फव्वारे की तरह फूटा तो ग्लास में लाल पानी का चढ़ता नज़र आया. मेट्रो जब गुज़र चुकी वह फिर उठ खड़ा हुआ उसे गुमान था नायिका अपने सहेली को कविता सुना रही होगा - सखी वो मुझसे कह कर जाते... उधर लड़की ने भी गीत बदल लिया था "उसने जब मेरी तरफ प्यार से देखा होगा, मेरे बारे में बड़े गौर से सोचा होगा:
गति सम्बन्धी कुछ नियम भौतिकी के सत्य हुए थे. बस ज़रा दोनों ने अपने अपने युग बदल लिए थे.

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ऑरकुट पर नहीं वो नहीं मिला तो लड़की ने फेसबुक पर उसे खोजना शुरू किया. थोड़ी मुश्किल हुई लेकिन मिल गया. प्रोफाइल में चेहरा उभरा तो दिल धक् से रह गया. ह्म्म्म... ! तो आँखें अभी भी फरेबी हैं और दिल सुख़नसाज... तस्वीर में खुश ही लग रहा है.
उधर तस्वीर भी अपनी पलक बिना गिराए पूछ रहा था - हमसे ना पूछो हिज्र के किस्से, अपनी कहो अब तुम कैसे हो ?

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लड़की ने बादलों से घिरे दिन को देख को झूले पर झूलते हुए लड़के को देखा. उसका दिल रीझ आया. गाना शुरू किया - तेरे नाम से शुरू तेरे नाम पे ख़तम... लड़का खुश हुआ, बोला - ओ सात घाट की रानी, कह्नानी- जवानी - कहानी.. बेसाख्ता निकले ये शब्द! तब कहाँ पता था की गीत के बीच में थोड़ी देर के लिए बिजली गयी थी और इसी में घोटाला हो गया बोले तो हंगामा हो गया...
बरसों बाद दोनों फिर मिले और अबकी कह्नानी- बुढ़ापा - कहानी थी. स्मृति भी साथ छोड़ देती थी.

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लेखक: सागर शेख
संकलनकर्ता: पूजा
प्रस्तुतकर्ता: प्रशान्त


Sunday, August 07, 2011

दो बजिया बैराग्य - एक और भाग

अगर गौर से सोचें तो सुबह उठना हर व्यक्ति के लिए अपने आप में एक इतिहास की तरह ही होता है, और इतिहास अच्छा, बुरा अथवा तटस्थ, कुछ भी हो सकता है और एक साथ सब कुछ भी.. जब तक घर में रहा तब तक मैं भले ही कितनी ही सुबह उठ जाऊं, पापा या मम्मी या फिर दोनों को ही जगा हुआ पाया हूँ.. पता नहीं माता-पिता इतनी जल्दी कैसे उठ जाया करते हैं?

बहुत बचपन की एक याद बाकि है अभी भी, हर सुबह पापा गोद में उठा कर सारे घर में घूमते थे.. कुछ वैसे ही जैसे अपने पिछले पटना प्रवास के दौरान केसू को घुमते देखा था उन्हें(इस बाबत सीन तीन पढ़ें इस पोस्ट का).. और मैं उनके कंधे पर सोया हुआ रहता था, बीच-बीच में आँखें मीचते हुए..

कुछ साल बाद की भी बात याद है.. हम तीनों भाई-बहन का एक ही कमरा हुआ करता था, जिसमें दो बिस्तर लगे रहते थे.. एक दीदी का और दूसरा बड़ा वाला हम दोनों भाइयों का.. यहाँ मैं अपनी बात करने आया हूँ तो सिर्फ अपनी ही बात करूँगा, भैया दीदी की नहीं, स्वार्थी हूँ इस मायने में.. अगर जाड़े की सुबह हुई हो तो पापा अपने ठंढे हाथों को मेरे गालों से छुवा देते थे, साथ में कोई गीत भी हुआ करती थी, कोई सा भी गीत, ऐसा गीत जिसमें एक चिढाने का तत्व जरूर होता था.. फिर भी अगर नहीं उठा तो रजाई भी धीरे से नीचे सरक जाती थी.. धीरे से उठ कर या फिर नखरे के साथ उठ कर मैं उनसे चिपक कर उनके ओढ़े हुए चादर में सिमटने की कोशिश करने लगता जहाँ वह या तो चाय पीते रहते थे या फिर चाय पीने के बाद अखबारों में खबरें ढूंढते फिरते थे.. वहीं अगर गर्मियों का मौसम हुआ तो कई दफे उनके हाथों से टपकते हुए पानी के माथे पर बूँद-बूँद गिरने से.. कई दफे ऐसे भी सुबह जगा हूँ जग तेज आंधी-तूफ़ान में पापा या मम्मी खिड़कियों को बंद करने की मसक्कत कर रहे हों..

आज भी हर रोज सुबह होती है.. आज भी रोज सुबह उठता हूँ.. अगर पटना में हुआ तो भी अब कोई उठाता नहीं है, ये कह कर की इस लड़के को नींद बहुत कम आती है, सो जितने दिन घर पर है उतने दिन इसे जी भर कर सोने दिया जाए.. नौ-साढ़े नौ बजे पापा उठाते हैं और मुंह हाथ धोए बिना ही जबरदस्ती अपने साथ नाश्ते पर बिठा देते हैं.. फिलहाल तो चेन्नई में हूँ और जिंदगी का अधिक समय इसी शहर में गुजर रहा है.. सुबह साढ़े आठ बजे मोबाईल का अलार्म बजता है.. हाथ यंत्रवत आँख मून्दे में ही टच स्क्रीन को सही जगह छूकर अलार्म को बंद कर देता है.. फिर साढ़े नौ अथवा दस बजे तक खुद ही उठता हूँ.. फिर दफ्तर जाने की मारा-मारी, और अगर साप्ताहांत हुआ तो मोबाईल पर ही मेल चेक करने के बाद फिर सो जाना..

जिंदगी के तीस बसंत गुजर चुके हैं.. अगर आज भी घर पर होता तो सुबह उठ कर आशीर्वाद लेने से पहले ही पापा सीने से लगा लेते और मम्मी माथे को चूम लेती.. जो किसी आशीर्वाद से कहीं बेहतर रहता आया है मेरे लिए.. एक आत्मिक संतोष जैसा कुछ.. जन्मदिन की सुबह तो यक़ीनन ऐसी ही होती.. आज फिर पापा के सीने से लगने की इच्छा हो रही है.. सोचता हूँ की मम्मी के अपने माथे को चूमने के एवज में शायद मैं उनके गाल को चूम लेता.. मैं उन्हें अक्सर छेड़ने के लिए उनका गाल चूम लेता हूँ और वो मुस्कुरा कर एक थप्पड़ सर पर लगा देती है, शायद तब भी ऐसा ही करती.. पापा को सीने से लगाने के बाद मैं उन्हें नहीं छोड़ता हूँ तब वह अक्सर पेट में गुदगुदी लगाने लगते हैं, तब भी शायद ऐसा ही करते..

फिलहाल तो मोबाईल को बंद करके बैठा हूँ.. किसी से कोई बात करने की इच्छा नहीं है.. एक अवसाद में घिरा हुआ हूँ.. अवसाद क्यों? कुछ पता नहीं.. जीवन के लक्ष्य का कुछ पता नहीं.. जीने की वजहों को इतने साल बीतने के बाद भी नहीं जान पाया हूँ.. हर महीने तनख्वाह की रकम मिलना, उसमें से कुछ बचाना एक अनिश्चित भविष्य के लिए, कुछ खर्च करना निश्चित वर्तमान के लिए, और बीते भूत के लिए कभी खुश होना और कभी खुद को कोसना, यूँ ही पूरा महीना निकलते जाना, साल-दर-साल.. क्या ऐसे ही मानव जीवन को लोग अमूल्य मानते हैं? मुझे तो नहीं लगता.. कहने को तो मैं भी अच्छा ख़ासा दर्शन कह सकता हूँ, मगर उससे क्या? क्या मेरी यह दिनचर्या बदल जायेगी? नहीं!! जिंदगी वहीं की वहीं रहेगी, रेत के एक-एक दाने की तरह फिसलती हुई.. साल-दर-साल यूँ ही गुजरते हुए कई सालों के बाद एक दिन मैं भी गुजर जाऊँगा.. बदलेगा कुछ नहीं.. जिंदगी भर यूँ ही माया के पीछे भागता ही रहूँगा..

बहुत बेचैन हुआ जा रहा हूँ, मन बहुत विचलित है.. फिलहाल जहाँ हूँ वहाँ होने की इच्छा नहीं है.. कल दिन भर शायद भागता फिरूँगा, ये भागना किसी और से नहीं, खुद से ही है.. क्यों? कुछ पता नहीं.. अभी जो पता है वह यह की I am missing my Mummy-Papa.......मगर साथ ही एक और बात सच है की मैं फिलहाल अकेले रहना चाहता हूँ.. किसी का भी साथ नहीं चाहता हूँ, मम्मी-पापा का भी नहीं.....किसी ऐसे जगह पर घंटों चुपचाप बैठना चाहता हूँ जहाँ घोर सन्नाटा हो.. इतना सन्नाटा की खामोशी कि वह आवाज कानों के परदे को फाड डाले......

Tuesday, August 02, 2011

पहली कसम

किसी बच्चे
को कभी देखा है कंचे के साथ? जब किसी बच्चे से पहली बार उसका एकलौता कंचा गुमा हो तब उसे बहुत तकलीफ़ हुई होगी.. फूट-फूट कर रोया होगा सारी रात, कभी छिड़ीयाया होगा सारी रात, कभी भोकार पाड़ लार रोया होगा.. कभी माँ ने तो कभी पिता ने उसे तरह-तरह से उसे बहलाया होगा.. चन्द्र खिलौना ला दूँगा.. मगर बच्चे का गम उस चन्द्र खिलौने के नाम से भी कम नहीं होगा..

उसी बच्चे को जब वही कंचा पहली बार मिला होगा तब उस बच्चे के मुताबिक उससे अधिक खुश कोई ना रहा होगा.. सारा दिन अपनी छोटी सी मुट्ठी में कंचे को दबाये फिरता रहा होगा.. मुट्ठी कस कर बंद, के कहीं कोई देख ना ले.. दुनिया से छिप-छिपाकर अपनी मुट्ठी को जरा सा ढीला छोड़कर उसमें झांकता होगा, और फिर से मुट्ठी वैसे ही कस कर बंद.. रात के अँधेरे और लालटेन की हल्की रौशनी में सबसे छुपाकर, आँखों में उस कंचे को लगाकर, लालटेन कि रौशनी में देख-देख कर खुश होता रहा होगा.. वह उसे दिन में सूरज की रौशनी में उसकी चमक देखना चाहता होगा, मगर कहीं सारी दुनिया ही ना देख ले इसे, इस डर से कभी उसने कोशिश भी ना की होगी..

कुछ दिन बाद उसे एक और कंचा मिला जिसे कुछ दिन बाद उसने फिर गुमा दिया लेकिन वह फिर से उसी दुःख से नहीं गुजरा, एक ही टूटे पुल से कोई बार-बार गुजरता है भला? हिचक-हिचक कर रोने से बेहतर वह अकेले गुमसुम बैठा रहा.. रात को लालटेन बुझा कर.. यक़ीनन दुःख तो हुआ ही होगा, क्योंकि अगली बार जब उसे एक और कंचा मिला तब वह जानकर उसे नहीं उठाया, एक भय से, कि वह फिर गुम होना ही है, तो एक और तीसरे कंचे का दुःख क्यों पाले भला?

Monday, August 01, 2011

प्रलाप

एक अरसा हुआ कुछ लिखे हुए.. कई लोग मेल करके पूछ चुके हैं कि कई दिन हुए ! क्यों नहीं लिखता हूँ इसका जवाब जानता हूँ.. जो भी लिखूंगा वह कुछ भला सा नहीं होगा.. वह कुछ ऐसा ही प्रलाप होगा जैसे कोई पागल बीच चौराहे अपने कपड़े फाड़-फाड़ कर अर्धनग्नावस्था में घूमता है, और उसे देखकर या तो लोग बगल हट जाते हैं या तो 'च्च च्च' की आवाज देते हैं या तो कोई डबल रोटी का एक टुकड़ा फ़ेंक जाता है या तो कोई सहानुभूति जताता है, मगर अपनाने को कोई आगे नहीं आता.. और अंततः हर सहानुभूति, हर डबल रोटी का टुकड़ा और हर 'च्च च्च' की आवाज किसी आधुनिक समाज के प्रपंच से अधिक नजर नहीं आता है.. अरे मैं उन सब भावों में घृणा का भाव तो भूल ही गया था.. वह पागल पता नहीं क्या समझता होगा और क्या नहीं, मगर मैं उन दीन भावों को नहीं सह सकता..

Saturday, June 11, 2011

एकालाप

किसी के कमेन्ट का इच्छुक नहीं हूँ, सो कमेन्ट ऑप्शन हटा रहा हूँ.. मेरे करीबी मित्र अथवा कोई भी, कृपया इस बाबत फोन या ईमेल करके भी ना ही पूछें तो बेहतर होगा.. इसे एकालाप मान कर ही चलें, जिसमें किसी के दखल कि कोई आवश्यकता नहीं है मुझे.. हर किसी को अपना स्पेस चाहिए होता है, और हर किसी में मैं भी आता हूँ..

शनिवार का दिन है, दफ्तर में अकेला बैठा हुआ हूँ.. कोई मजबूरी नहीं, बहुत अधिक काम नहीं.. अगले हफ्ते शुक्रवार की छुट्टियों के इंतजामात करने के लिए आज दफ्तर में हूँ.. एक डिफेक्ट है, बहुत आसान सा, मगर उस पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा हूँ.. उसे ऐसे ही छोड़ रखा है, पता है कि कितना भी दिमाग खराब करूँ, अब आज नहीं होने वाला है तो नहीं ही होगा, बाद में देखा जायेगा इसे.. घर जाने की भी इच्छा नहीं हो रही है..

चेन्नई एक ऐसा शहर है जहाँ आप कहीं भी चुपचाप अकेले बैठ कर समय गुजारने के बारे में नहीं सोच सकते हैं, हर जगह लोगों की रेलमपेल इतनी अधिक होती है और साथ में इतनी गर्मी की अगर वहाँ पंखा ना हो तो आप एक जगह टिक ही नहीं सकते, खासतौर से जब अकेले हों.. कुल मिलाकर एक ही जगह बचती है, समुद्र तट, और वहाँ भी जाने की इच्छा नहीं है.. घर जाना नहीं चाह रहा हूँ क्योंकि अभी किसी मित्र के साथ का इच्छुक नहीं हूँ..

चश्मे की दूकान पर जाना है, चश्मे का नया फ्रेम बनवाना है, पुराना इतनी बुरी तरह खराब हो गया है की आप उसकी तुलना किसी एंटीक पीस से कर सकते हैं, और ऊपर से बहुत सारे स्क्रैचेज चश्मे के शीशे पर.. बहुत दिनों से टाल रहा था, मगर आज सुबह घर से ठान कर निकला था की लौटते हुए आज नये के लिए ऑर्डर दे ही दूँगा.. मगर अब लग रहा है आज भी यह टल जायेगा.. दफ्तर से निकल कर उस चश्मे की दूकान के अलावा एक दो जगह और भी जाना था, मगर वहाँ जाने की भी इच्छा अब नहीं हो रही है.. तब जबकि जरूरी सभी कुछ है.. घडी की बैटरी खत्म हो गई है.. लैपटॉप की दूकान पर जाकर कुछ पूछताछ करनी है.. कुछ सामान किसी शौपिंग मॉल से जाकर लानी है.. ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह..

कुछ दिन पहले एक अच्छी खबर पर मन इतना खुश था की कोई बेहद अजीज पास होता तो गले से लगाकर खुशी जाहिर कर देता.. चाहे घर के लोग या दोस्त.. कुछ लोगों को फोर करके खुशी बांटी, मगर आस पास कोई नहीं.. पिछले सात-आठ साल से अकेला रहने की वजह से अकेला रहने की इस कदर आदत हो चुकी है कि किसी का लगातार साथ मुझे घबरा सा देता है.. इस व्यवहार में कुछ बदलाव तब आया था जब अभी ढाई महीने घर पर लगातार रहा.. मगर फिर चार-पाँच महीने में वैसा ही होता जा रहा हूँ.. कई महीनों बाद सिगरेट पीने की बेवजह तलब सी लग रही है.. मन में आ रहा है की बीस सिगरेट वाला डब्बा खरीद कर एक ही बार में सारा पी जाऊं.. यू नो, चेन स्मोकिंग? आगे देखता हूँ तो लगता है कि समय कि रफ़्तार कितनी धीमी है, मगर पीछे मुड कर देखता हूँ तो लगता है कि इसकी रफ़्तार सी तेज कुछ भी नहीं, प्रकाश कि गति को भी ये मात दे दे.. हर वह बात जो बस कल की ही लगती है, दरअसल बरसों पुरानी बात हो चुकी होती है..

अभी दफ्तर से बाहर निकलूंगा भी तो ट्रैफिक इतनी अधिक होगी कि गाड़ी चलानी मुश्किल.. हद्द है, सडकों पर भी चैन नहीं.. ऊपर से T.Nagar से आने-जाने का रास्ता!! लोग ऐसे लुधके होंगे दुकानों में जैसे आज नहीं लेंगे तो सारा सामान हमेशा के लिए खत्म ही हो जायेगा..


ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह..



Tuesday, May 31, 2011

मैं तुम में होना चाहता हूँ

कुछ समय इन खिड़कियों से झांकना चाहता हूँ,
इस इन्तजार में कि शायद तुम उस रास्ते से गुजरो अपनी उसी काली छतरी के साथ..

मैं उन रास्तों पे चलना चाहता हूँ,
इस यकीन के साथ के कि कल तुम यही से गुजरी थी..
और कल फिर गुजरोगी,
उसी नीले कपड़े में या शायद गुलाबी..

मैं वह पहाड़ हो जाना चाहता हूँ,
इस विश्वास के साथ के कभी
तुम जरूर अपनी उन छुट्टियों को जाया करने
यहाँ मुझसे मिलने जरूर आओगी..

मैं वह पहाड़ी नदी हो जाना चाहता हूँ,
इस उम्मीद के साथ के तुम
इसकी कल-कल सुनते हुए अपने नंगे पाँव इसमें रख कर
अपनी थकान जरूर भूल जाओगी..

मैं वह छोटा बच्चा हो जाना चाहता हूँ,
जिसे देख तुम मुस्कुरा उठो
थोड़ी देर के लिए खेलते हुए अपने गम भूल जाओ..

मैं वह हवाई जहाज हो जाना चाहता हूँ,
जिसे देखते हुए तुम सर ऊंचा करती हो..
वह ऊंचा सर,
गर्व सा ऊंचा सर सा ही कुछ दीखता है..

मैं वह तन्हा शहर हो जाना चाहता हूँ,
जिसमें भटकते हुए तुम्हे मंजिल ना मिले,
वह भटकाव अनंत हो ताकि अनंत समय तक तुम मुझमें रहो..

मैं वह मुस्कान बन जाना चाहता हूँ,
जो तुम्हारे होठों से हमेशा लगा रहे,
तुम्हारा ही एक हिस्सा बन कर..
तुम मुस्कुराओ तो मैं भी मुस्कुरा सकूँ..

मैं वह छोटा तुलसी पौधा हो जाना चाहता हूँ,
जिसे सींचते हुए एक नमी मेरे-तुम्हारे बीच हमेशा बनी रहे..
एक पवित्र बंधन जैसा ही..

मैं वह किताब हो जाना चाहता हूँ,
जिसकी कहानियां तुम रोज रात पढते-पढते सो जाया करती हो,
अपने सीने पर रखकर और उनके पात्र बनकर
मैं तुम्हारे ख्वाबगाह में बेखटक भटकना चाहता हूँ..

मैं बस तुम में हो जाना चाहता हूँ, कि कभी तुमसे जुदा ना हो पाऊं..

Tuesday, May 17, 2011

Space Complexity बनाम वो लड़की

Space Complexity का संगणक अभियांत्रिकी(अब कंप्यूटर इंजीनियरिंग का इससे अच्छा अनुवाद मैं नहीं कर सकता, आपको यही पढ़ना होगा.. समझे?) में बहुत महत्त्व है.. वैसे तो Time Complexity को आप Space Complexity का बड़ा भाई मान सकते हैं क्योंकि Time Complexity के पीछे-पीछे ही Space Complexity भी दौड़ा चला आता है.. बीच के उस युग को याद कर रहा हूँ, जी हाँ, यकीन मानिए जनाब, कंप्यूटर में एक साल को भी आप एक युग मान कर चल सकते हैं, जब मोबाईल तकनीक बाजार में अपने वजूद को लेकर संघर्ष में थी और कंप्यूटर के हार्ड डिस्क में इतनी जगह रहने लगी थी की 1GB का साफ्टवेयर भी इंस्टाल करने से पहले दुबारा सोचना नहीं पड़ता था.. उस युग में Space Complexity भी अपनी इज्जत खोकर कहीं सड़क किनारे भिखारी के से हालात में थी.. फिर Embedded Technology जैसे-जैसे जेबों में मोबाईल की शक्ल में समाने लगी वैसे-वैसे Space Complexity साफ्टवेयर के बाजार में फिर से पूरी इज्जत के साथ छाने लगी..



साधारण भाषा में Space Complexity किसी भी प्रोग्राम के कार्यान्वयन होते समय RAM में छेकने वाले कम से कम जगह लेने वाली प्रक्रिया को कार्यान्वयन करने वाले वाले कलन विधि(Algorithm) को कहते हैं.. रुकिए-रुकिए.. मैं मजाक में "साधारण भाषा" शब्द का प्रयोग नहीं किया हूँ.. दरअसल मैं इससे सरल भाषा में इसे नहीं लिख सकता, हाँ कभी आमने-सामने मुलाक़ात हो तो बोल कर जरूर समझा सकता हूँ.. ;)

अगर जरा अधिक अंदर घुसते हुए देखें तो किसी कलन विधि(पहले बताया था ना Alogorithm, अब दुबारा मत पूछना) T और इनपुट x के लिए DSPACE(T,x) बताता है डिस्क सेल की संख्या को जो अभिकलन(Computation) T(x) के दौरान होता है..
नोट - DSPACE (T) = O(f (n)) if DSPACE (T, x) = O(f (n)) with n = |x | (length of x).
नोट - DSPACE (T) अपरिभाषित है जब कभी T(x) हाल्ट नहीं करता..
(अब 'O' के बारे में सवाल जवाब ना ही किये जाएँ तो अच्छा है.. मैं यहाँ Time Complexity के बारे में लिखने नहीं बैठा हूँ..)


अब जरा इसके उदाहरण के ऊपर आते हैं.. पहले ही कहे देता हूँ कि ये मुक्तकछंद कविता सी दिखने वाली चीज मैंने गूगल से सर्च करके निकाला है.. मुझे C अथवा C++ का कोई भी प्रोग्राम किसी मुक्तकछंद से कम नहीं दिखता है.. कभी प्रेम रस में सराबोर तो कभी वीर रस में.. कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे for loop मानो ऐसा कह रहा हो जैसे for you.. जन्म-जन्मांतर का साथ हो.. continue के कार्यान्वित होने भर से ही एक उल्लास सा छा जाता है, कि यह कोड अभी छोड़ कर नहीं गया है, पुनः कार्यान्वित होगा.. break शब्द के आने मात्र से दिल टूटने का अहसास होने लगता है.. वहीं Stack Overflow हो कर प्रोग्राम के क्रैश होने की तुलना मैं मृत्यु से करना चाहूँगा..

उफ़.. मैं भी क्या बक-बक करने लगा.. फिलहाल तो आप यह मुक्तकछंद कविता के रूप में Space Complexity का एक उदाहरण पर गौर फरमाएं..
// note: x is an unsorted array
int findMin(int[] x) {
int k = 0; int n = x.length;
for (int i = 1; i < n; i++) { if (x[i] < x[k]) { k = i; }// IF END }// FOR LOOP END return k; }


क्या हुआ? इतनी अच्छी कविता है, कम से कम तारीफ़ के एक बोल-बचन तो बनते हैं यार!!

समझ सकता हूँ की आप अब तक बोर हो चुके होंगे.. तो कुछ और बात करें? Space Complexity से बात चली थी, सो उसी की बात करूँगा.. आप आगे पढ़ें..


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रात के बारह बज कर सैतालिस मिनट पर मोबाइल हल्का सा वाइब्रेट करता है, सोचता हूँ की शायद किसी ने GTalk पर पिंग किया होगा.. मोबाइल उठा कर देखता हूँ, एक SMS है..
swd

कुछ दिनों पहले तक ऐसे ही मैसेज "Swt drm" की शक्ल लिए होता था, चलो कुछ और जगह बची!!
सोचता हूँ कि "ये लड़की रातों की नींद खराब करके Sweet Dreams का मैसेज भेज रही है.." ख्यालों का घोडा कुछ और दौडाने पर ये पाता हूँ की "बड़का ना खुद IT Professional बनता फिरता हूँ.. Space Complexity का सही उपयोग तो यहाँ किया जा रहा है, वो भी एक Arts विषय की लड़की के द्वारा.. तिस पर भी बिना किसी Algorithm के.."


Note - हर कहानी में सच्चाई की तलाश अच्छी नहीं होती मित्र.. कहानी अक्सर सच एवं कल्पना के मिश्रण से ही तैयार होता है.. ;-)

Saturday, April 23, 2011

ये सिस्टम जो हमें भ्रष्ट होने पर मजबूर करता है

इस पोस्ट को पढ़ने से पहले आप इस लिंक को देख सकते हैं अगर आपने फेसबुक पर अपना कोई अकाउंट खोल रखा है तो.. इस लिंक को पढ़ने के बाद आप इस पोस्ट को अच्छे से समझ सकेंगे..

अभी कल ही की बात है, अजित अंजुम जी ने अपने फेसबुक पर Absolute Honesty कि बात की थी.. उनका सवाल कुछ यूँ था :
वहाँ मैंने लिखा था :
Prashant Priyadarshi मैं कहूँगा.. आपने जितनी बातें लिखी हैं कम से कम उस पर अभी तक तो खड़ा उतर ही रहा हूँ.

Prashant Priyadarshi मैं फिलहाल डंके की चोट पर यह कह रहा हूँ क्योंकि मेरी तनख्वाह अभी उतनी तो है ही कि मुझे वह सब करने की जरूरत पड़े.. और मौके भी मिले हैं.. मगर अभी तक तो मैंने किसी तरह का Tax नहीं मारा है और ना ही कोई फर्जी बिल दिखा कर पैसे निकाले हैं.



हो सकता है कि अजित जी के कुछ पैमाने रहे हों Absolute Honesty की, मगर मेरी समझ में उनके मुताबिक मैं भले ही Absolute Honesty की कसौटियों पर खड़ा उतर रहा हूँ मगर खुद अपनी ही नजर में नहीं.. मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ कि किस-किस समय मुझे यह सिस्टम एवं समाज भ्रष्ट होने पर मजबूर किया था..

पहली घटना - एक दफे बैंगलोर में MG Road के पास मैं अपने दोस्त की मोटरसायकिल से गुजर रहा था, जब ट्रैफिक पुलिस ने मुझे हाथ देकर रोका.. पुरे दल-बल के साथ कम से कम 25-30 पुलिस वाले रहे होंगे.. जिसने मुझे हाथ देकर रोका था उसने मुझसे वाहन संबंधित सारे कागजात मांगे, जो मेरे पास थे और मैंने दिखाया.. उसे देखने के बाद उसने बोलना शुरू किया की "तुमने रेड लाईट तोडा(जबकि वहाँ कोई लाल बत्ती नहीं थी), तुम्हारी गाडी हाई स्पीड पर थी(मैं उस समय 30-35 से अधिक गति से नहीं जा रहा था), वन वे में उलटे तरफ से जा रहे थे(मैं सही था).." कुल मिलाकर लगभग ढाई हजार के जुर्माने कि बात की उसने.. उसने कहा की जाकर मजिस्ट्रेट से मिल लो(सनद रहे, कि सभी वहाँ मौजूद थे और सभी मिले हुए थे).. मजिस्ट्रेट का कहना था कि पहले थाने जाना होगा, इत्यादि-इत्यादि.. फिर एक पुलिस ने मुझे साईड ले जाकर मुझे कहा की 500 दे दो, तो तुम्हारे ढाई हजार बच जायेंगे और झंझट भी नहीं होगा.. मेरी चेन्नई जाने वाली बस छूट ना जाए इस कारण मैंने जो भी मेरे पास उस समय था वह ले दे कर वहाँ से पीछा छुडाना ही पसंद किया.. मैंने उस दिन 300 रूपये घूस दिए, जो अकारण ही थे.. यह लगभग ढाई साल पहले की घटना है..

दूसरी घटना - चेन्नई रेलवे स्टेशन के ठीक सामने वाले सिग्नल पर यू टर्न(U Tern) लेने की आज्ञा है.. लगभग साल भर पहले की घटना है.. U Tern लेने के लिए हरी बत्ती जल रही थी और मैंने U Tern लिया.. उसी वक्त मेरी गाड़ी बंद हो गई, और वापस शुरू करने में लगे 1-2 सेकेण्ड में ही ट्रैफिक पुलिस ने आकर मेरी गाड़ी की चाभी निकाल ली.. और फिर से वही सब शुरू हो गया जो बैंगलोर में हो चुका था.. तब भी मेरे पास सारे कागज़ थे, मगर पिछले बार के अनुभव से जो मैंने सीखा था वह यह की सीधा सौ की पत्ती पकड़ा दो, कम से कम दो सौ बचेंगे..

तीसरी घटना जो कई दफे घट चुकी है - अब जब कभी ट्रैफिक पुलिस हाथ देती है रोकने के लिए तो बिना रुके वहाँ से आगे बढ़ जाता हूँ, ऐसे दिखाते हुए की मैंने देखा ही नहीं कि उसने रूकने के लिए कहा था.. क्योंकि अंजाम मुझे पता है.. दीगर बात यह है कि मैं अपने सारे कागजात अब भी साथ रखता हूँ..

चौथी घटना - लगभग दस साल पहले कलकत्ता से दुर्गापुर जाते समय बिना टिकट यात्रा की थी.. वह यात्रा भी मजबूरीवश करनी पड़ी थी.. मुझे जल्द से जल्द दुर्गापुर पहुंचना था, और सबसे पहले आने वाली ट्रेन "कालका मेल" थी जिसका यात्री स्टेशन दुर्गापुर नहीं था, वह ट्रेन वहाँ अपने कर्मचारी बदलने के लिए रूकती थी.. जब मैंने कलकत्ता के टिकट खिडकी पर 'मेल' ट्रेन के लिए दुर्गापुर तक का टिकट माँगा तो उसने कहा कि आज सिर्फ एक ही 'मेल' ट्रेन वहाँ से होकर जाती है, मगर उसका स्टेशन वहाँ का नहीं है.. तुम्हें आगे तक का टिकट लेना होगा.. मेरे पास आगे के स्टेशन तक के देने के लिए पैसे नहीं थे, सो मैंने बहुत आग्रह किया की जनरल टिकट पर तो ट्रेन का नाम नहीं होता है.. आप कृपया टिकट दे दें.. अंततः टिकट नहीं मिलने की स्थिति में मैं बेटिकट यात्रा किया..

फिलहाल अपने इतने ही कुकर्म याद आ रहे हैं जब मैंने कानूनी रूप से कुछ गलत कार्य किया था.. कुछ किस्से हर किसी पास होंगे, यहाँ बांचे कि कब आपने मजबूरीवश कोई क़ानून तोडा हो अथवा भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया हो!!


Wednesday, April 20, 2011

नम्मा चेन्नई!!!!

मुझे कई लोग मिले हैं जो मुझे चेन्नई शहर से प्रेम करते देख मुझे ऐसे देखते हैं जैसे कोई अहमक हूँ मैं.. बहस करने वाले भी कई मिले हैं जो यह गिनाने को आतुर रहते हैं कि चेन्नई में क्या-क्या खराबियां हैं.. मेरे पास उनसे अधिक वजहें होती हैं इससे इश्क में डूबने के बजाये इसके की मैं इससे नफरत करूँ.. वैसे भी मुझे यह समझ में नहीं आता है कि कोई किसी शहर से नफरत कैसे कर सकता है? आप किसी शहर के उन लोगों से नफरत कर सकते हैं जो आपके लिए बुरें रहे हों.. आप शहर की गन्दगी से नफरत कर सकते हैं.. किसी शहर की गर्मी से नफरत कर सकते हैं.. मगर पूरे शहर से ही नफरत!! आश्चर्यजनक!! मेरे लिए भी कुछ शहर ऐसे हैं जहाँ की यादें हमेशा मुझे उदास ही करती हैं और अवसाद में धकेलने की कोशिश करती है, मगर फिर भी उन शहरों से नफरत तो कभी ना कर सका मैं.. हाँ कुछ उदासीन जरूर हो चुका हूँ उन शहरों से!!

चेन्नई एक ऐसा शहर है जिसने मुझे जिंदगी की पहली कमाई की पहली रोटी का बंदोबस्त किया, अब इतने बड़े अहसान को मैं भूल जाऊं, इतना अहसानफरामोश नहीं हो सकता हूँ मैं.. पटना मेरे रगों में रचा-बसा है, धीरे-धीरे यह शहर भी रगों में दौड़ने का अहसास जगाने लगा है.. पटना शहर की तरह इस शहर में उस लड़की का कोई निशान नहीं, यह भी एक अलग सुकून देता है, इस शहर में जिन्दा रहने को..

कई तरह के संघर्षों का साक्षी यह शहर, इसका नशा इतनी जल्दी नहीं उतरने वाला है.. अंतर्द्वंदों से लेकर ज़माने की लड़ाई तक.. यूँ तो जमाने से लड़ने का जज्बा पटना शहर से ही सीख कर चला था मगर खुद से लड़ने का तरीका इसी शहर के एकाकीपन ने सिखाया.. अकेले घर में बैठे-ठाले अचानक से बाईक उठाकर रात के तीन बजे माउंट रोड पर बिना मतलब का 30-40 km का चक्कर लगाना, सुनसान सड़क पर 90+ की रफ़्तार से भागना और अचानक से 20-25 की गति पकड़ कर चलना.. बिना किसी डर भय के की कुछ बुरा घट सकता है मेरे साथ.. सुरक्षा की यह भावना किसी और शहर में कभी नहीं मिली.. सिटी बसों को उन पतली गलियों से निकलते हुए भी आज तक कभी किसी बड़े दुर्घटना का गवाह बनते नहीं देखा.. हमारे घर वाली लगभग अनजान सी गली(गूगल मैप में जो एक पतली सी रेखा में अंकित है) में भी सुबह-सुबह नगरपालिका के कर्मचारियों को सफाई करते देखने का मौका उनकी कर्मठता को ही दर्शाता है..


मेरे रहने की जगह लाल लकीर में

कुछ बुरे अनुभव भी हुए हैं यहाँ मगर वह उन सारे अच्छे अनुभवों के सामने बहुत कम अनुपात में है.. वैसे भी बुरे अनुभव तो हर शहर के हैं, जहाँ कहीं मैं गया हूँ.. आजकल चेन्नई अपनी प्रसिद्द गर्मी के उफान पर है, ज्यों-ज्यों उमस वाली गर्मी बढती जा रही है, इसका नशा भी सर चढ़कर बोलने लगता है..



नोट : आज अचानक से इस वीडियो पर पहुँच गया, इसे देखते हुए जो ख्याल मन में आये उसे यहाँ लिख भी दिया..

Wednesday, April 06, 2011

जब लोग आपको भूलने लगें

अमरत्व प्राप्त किये व्यक्तियों को लोग भूलते नहीं हैं
सदियों तक जेहन में बसाये रखते हैं
समय की गर्द भी उसे
अनश्वर बनाये रखती है
जैसे
मुहम्मद इब्न 'अब्दुल्लाह
गौतम बुद्ध, राम अथवा महावीर इत्यादि

लोग आपको भूलने लगें उसके कुछ लक्षण
आप अचानक से अदृश्य हो जाते हैं
आपकी आवाज भी मौन हो जाती है
लोग गोष्ठियों में किसी को बुलाना भूलते हैं,
तो अक्सर वह आप ही होते हैं
आप अचानक से स्मृतिपटल से मिट गए होते हैं
स्पष्ट शब्दों में आप नकारे गए होते हैं

जब आप खुद को भी भूलने लगे
तभी समझें की हुआ है
आपका नवजन्म
कुछ नया करने को
समय चक्र को चीर कर, आगे बढ़ने को
आपने आज धारण किया है यह अनश्वर शरीर!!


Monday, April 04, 2011

विश्व कप के बाद, भारतीय टीम, सट्टाबाजार शिवसेना और पूनम पांडे

केवल भारतीय टीम के लिए ही न्यूड होगी पूनम पांडे.. यह सुनते ही शिवसेना एवं अन्य भारतीय संगठनों में गुस्सा व्याप्त हो गया.. विश्वसनीय सूत्रों से पता चला है की वे इसलिए कुपित हैं की सिर्फ भारतीय टीम ही क्यों? टीम ऐसे ही नहीं जीतती, जिताना पड़ता है, और इस तरह हर भारतीय भी उतना ही हकदार है इस कप का.. वे बार-बार यही सवाल पूछ रहे हैं की सिर्फ भारतीय टीम ही क्यों? वहीं यह खबर सुनते ही भारतीय टीम में खुशी व्याप्त हो गई है.. "द मोस्ट एलिजिबल बैचलरों" से सजी भारतीय टीम अभी से ही पास के एक ठर्रे से पाउच मंगवा चुकी है ऐसा सुनने में आया है..

लोग युवराज सिंह के कहे उस बात पर भी कयास लगा रहे हैं जब उन्होंने रवि शास्त्री के एक सवाल के जवाब में कहा था "I wish I could tell you, how we are going to celebrate." कहीं उनका इशारा पूनम पांडे की ओर तो नहीं था? उनके चेहरे कि सौम्य मुस्कान को भी लोग अब कुटिल साबित करने का प्लान बना रहे हैं.. वहीं वे खिलाड़ी जिनकी शादी हो चुकी हैं वे अपनी पत्नियों की चिरौरी कर रहे हैं की वे उन्हें भी उस समारोह में जाने दे..

सहवाग अपना रिलायंस फोन बंद रखने की योजना बनाये हुए हैं, उनका सोचना है की अगर ठीक उसी बक्त पर उनकी माँ का फोन आ गया तो? उनके पास तो वीडियो कॉल की सुविधा भी है जिस पर मैदान से वह अपनी माँ से आशीर्वाद लेते हैं.. वहीं सचिन परेशान हैं कि अपने बच्चों को क्या कह कर समझायेंगे? उनके लिए पत्नी से बड़ी समस्या अपने बच्चों की है.. धोनी ने कुछ भी कहने से साफ़ मन करते हुए कहा "No comments please."

श्रीसंत को हरभजन ने पहले प्यार से समझाया कि वहाँ बच्चों का आना मना है, और उनके ना मानने पर एक थप्पड़ फिर से जड़ दिया.. चूंकि यह सब परदे के पीछे की घटना है, सो श्रीसंत भी परदे के पीछे जा-जा कर अपने आंसू पोछ रहे हैं.. कोहली अपना वह क्रीम बार-बार मल रहे हैं जो उन्हें गोरा बनाती है.. कोहली इस बात से परेशान हैं की महीने भर लगातार मैदान पर खेलने की वजह से वह काले हो गए हैं.. उन्होंने BCCI के समक्ष यह बात उठाई है की सारे मैच रात में ही खेले जाएँ..

वहीं सट्टा बाजार में इस बात पर करोड़ों के सट्टे लग चुके हैं की पूनम पांडे कपड़े उतारेंगी या नहीं!! गोपनीय सूत्रों से पता चला है की सट्टा बाजार का भाव 0.57 का है की पूनम पांडे अपना वादा याद रखेंगी.. 1.83 का भाव इस पर है की वे भारत में ही ऐसा करेंगी.. वहीं 2.32 का भाव इस पर है की वे पेरिस में ऐसा करेंगी.. 5.18 का भाव इस पर है की वह किसी तीसरे देश में ऐसा करेंगी.. सट्टा बाजार के कुछ सटोरिये तो इस बात पर भी सट्टा लगाने को तैयार थे की कोई और ही यह कारनामा अंजाम ना दे दे, मगर पाकिस्तानी टीम की सलाह पर वे इस बात पर सट्टा नहीं लगाया गया..

Wednesday, March 30, 2011

क्रिकेट, फेसबुक और दीवाने लोग

पिछले एक-दो सालों से तुलना करने पर ब्लॉग पर लिखना आजकल बहुत कम हो गया है.. एक तरह से मेरे लिए इसका स्थान फेसबुक ने ले लिया है.. वहाँ ब्लॉग की तुलना में लोगों से वार्तालाप भी बेहद आसान है, और मेरे लिए किसी माइक्रो ब्लोगिंग से कम नहीं.. फिलहाल तो आज की इस जीत पर मेरे दोस्तों के जो कुछ अपडेट्स आये हैं उन्हें आपलोगों से बांटता हूँ.. कुछ मजेदार है, कुछ समझदार हैं और बाक़ी जीत की खुशी में बौराये हुए हैं.. :)

सबसे पहले शुरुवात करते हैं इस तस्वीर से जो सचिन फैन ग्रुप का स्क्रीनशॉट है.. इसका अपडेट खुद ही पढ़ें और यह ध्यान दें की सिर्फ 58 मिनट में इसे कितने लोगों ने लाईक(पसंद) किया है और कितने लोगों ने टिपियाया है..




अब आगे बढते हैं कुछ चुनिन्दा अपडेट्स की ओर :

Shakhon se toot jayen, wo patte nahi hai hum,
aadhiyon se keh do AUQAT mein rahein..

अफ़रीदी नें ११ बुरके मांगे हैं.....
बोल रहा है की हमको सरकारी बस में ही भिजवा दो.......

कोई मदद का हाथ आगे आए..... बेचारे को बुरका सप्लाई करो ना....

एक नस्लवादी टिप्पणी- पठार ने पठान को हरा दिया। इसे कोई भी न्यूज़ चैनल यूझ कर सकता है। फ्री में।


मेरा तो पटाखा भी फुस्स निकल गया इतना महँगा खरीदा था :(


यहाँ तो जश्न का माहौल है...दिवाली जैसा कुछ लग रहा है,अलग ही नज़ारा है....रात के साढ़े इग्यारह बजे ऐसा माहौल...मस्त है.. वैसे, आपके शहर का क्या हाल है?? :) :)

इस खुशी में कल आजतक, इंडिया टीवी, स्टार न्यूज़,आईबीएन सेवन, न्यूज़. सहारा समय, एनडीटीवी इंडिया बंद रहेगा। मित्रों ने आज काफी मेहनत की है। पूरे दिन किसी ने न्यूज़ चैनल नहीं देखा फिर भी लगे रहे। इसलिए बिना किसी से पूछे रवीश की रिपोर्ट के लेटरपैड पर इस छुट्टी का एलान करता हूं। इंग्लिश चैनल वाले अपना फैसला खुद करें
भारतीय भारत में हों या लन्दन में जीतने के बाद पगला ही जाते हैं :) यहाँ लोग कार में तिरंगा लगाकर नाच रहे हैं रोड पर


अब शनिवार को लंका दहन और सचिन के शतकों का सैकडा ...दोनों के साथ ..इस बार का विश्व कप अपना हुआ .....


Natraj phir champion !! Chak de !!!


What a Victory, What a Game. Superb


इंडियंस मुबारक हो.. पाकिस्तान मुंह बाहर रखो.


‎5 out of 5 teams India met Pak in WC, India have won...most occasions at the 50 over mark, people had backed Pakistan to win...every time India fought like tigers

Sachin is dancing like a sixteen year old boy at Mohali! #HumJeetGay


I forgive the Paki Team, I forgive the Paki fans, I forgive Ashish nehra, I forgive the umpires... I forgive them all,, I feel like Sachin Tendulkarr,,,,

yeyyyy....India ko gariyaana kaam aaya....jeet gaye...!!...fir se karna hoga final me :P
WC finals....yo baby...what a feeling!

bhaiyon koi inko wagah border chhor aao please....


The best one was :
Shiney Ahuja has been sentenced 7 years of Prison for a rape case,,,, God knows what will happen to Sehwag for what he did to Umar Gul...:P

अब एक सीरियस अपडेट भी इस खेल को लेकर जो भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने नहीं, बाजार और राजनीति के खिलाडियों ने खेला! यह भाईसाब मेरे मित्रों कि सूची में तो नहीं हैं मगर इनका यह अपडेट मुझे बहुत पसंद आया.

आज एक टी वी चैनल पर अयोध्या से भारत पाकिस्तान के मैच पर जनता का रुख जानने की न्यूज़ चल रही थी. यहाँ साधू संतो की बाईट चल रही थी, और ऊपर के तरफ यह फलैश चल रहा था, की संतो ने मुस्लिम भाइयों के साथ मैच देखा. अब हमारे समझ में यह नहीं आता की चैनल क्या कहना चाह रहा था. कहीं यह तो नहीं की कि अयोध्या के मुसलमान इस मैच में भारत के अलावा किसी और का समर्थन कर रहे हैं. यह है पत्रकारिता में दिमाग का स्तर.
और यह एक शानदार अपडेट मैच से पहले का मेरे मित्र द्वारा :

All support for India, sum encouragement for Pakistan team also:
I m the last ball at Sharjah. I invented the reverse swing. I mastered the multiple hat-trick.I am the Sultan of Swing. I am the Cornered Tiger. I am the fastest ball,the quickest hundred,the biggest six,the shattered stumps. I am the aggression,the passion,the unpredicta...