खैर आज का दिन तो निकल गया.. कहीं जाने कि इच्छा नहीं थी सो सारा दिन मित्रों के साथ ही बिताया.. अब कल क्या करता हूं पता नहीं.. वैसे अभी से कोई प्लान भी नहीं..
चलते-चलते कुछ लाईन भी लिखते जाता हूं.. मुझे नहीं पता कि मैं यह किसी कि पंक्तियों से प्रेरित होकर लिखा या यूं ही मन में आ गया हो.. खैर जब आ ही गया है तो आप इसे पढ़ कर मुझे बता भी दें कि क्या इस तरह कि कुछ पंक्तियां आपने पहले पढ़ी हैं क्या?
यादों के चेहरे पर झुर्रियां नहीं परती..
वो ताश के महलों सी नहीं होती जो छूते ही बिखर जाये..
कहते हैं कुछ यादों कि उम्र बहुत लम्बी होती है..
अंत में - ज्ञान जी, क्या आप बता सकते हैं कि यह पोस्ट कि कौन सी कैटोगरी में आती है? सुबुकतावादी या अंट-संटात्मक? :)
यह शास्त्रीय ब्लागरी पोस्ट है, न मानें तो शास्त्री जी से पूछ देखें।
ReplyDeleteहम भी सालोँ पहले बेँगलुरु गये थे,उसके बाद आज तक मौका नही मिला.आपने याद ताज़ा कर दी उस दौरे की.
ReplyDeleteनीरज भी रहे थे बंगलौर दो साल,
ReplyDeleteबहुत पुराने यादें ताजा हो गयी बंगलौर के नाम से, अगली बार जाना तो भारतीय़ विज्ञान संस्थान (टाटा इंस्ट्टीट्यूट) जरूर देख कर आना ।
इस पोस्ट का क्लासिफ़िकेशन तो शास्त्रीजी ही बतायेंगे ।
मै कभी भी बेंगलूर नही गया, ओर कभी समय ही ही मिला, सुना है की बेंगलूर का मोसम बहुत ही सुंदर होता है,आप के साथी सही कहते है.
ReplyDeleteधन्वाद
कुछ बैंगलूरु की तस्वीरें तो लगाओ.
ReplyDeleteदो ही केटेगरी लिखी: सुबुकवादी और टेंशनात्मक? तीसरी केटेगरी कहाँ है वो दो कौड़ी वाली?? :)
बहुत बढिया रही भाई ये .............वादी पोस्ट ! :)
ReplyDeleteHahahaha........
ReplyDeleteandaaj pasand aya.
mastwaadi post.
ALOK SINGH "SAHIL"
मस्त रहो.
ReplyDeleteबढ़िया सुबुकशण्टात्मक!
ReplyDeleteएन्जॉय किया जाय :-)
ReplyDeleteयादों की उम्र बहुत लंबी होती है... सही कहा प्रशान्त..
ReplyDeleteयादों के चेहरे पर झुर्रियां नहीं परती..
ReplyDeleteवो ताश के महलों सी नहीं होती जो छूते ही बिखर जाये..
कहते हैं कुछ यादों कि उम्र बहुत लम्बी होती है..
सुन्दर भाव, खूबसूरत अभिव्यक्ति।
पोस्ट का क्लासिफिकेशन तो ज्ञान जी ही करेंगे. हम तो बस बधाई ही दे सकते हैं.
ReplyDeleteबैचलर भावों की सुंदर अभिव्यक्ति.