मानचित्र में जो मिलता है, नहीं देश भारत है,
भू पर नहीं, मनों में ही, बस, कहीं शेष भारत है।
भारत एक स्वप्न भू को ऊपर ले जानेवाला,
भारत एक विचार, स्वर्ग को भू पर लानेवाला।
भारत एक भाव, जिसको पाकर मनुष्य जगता है,
भारत एक जलज, जिस पर जल का न दाग लगता है।
भारत है संज्ञा विराग की, उज्ज्वल आत्म उदय की,
भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की,
भारत है भावना दाह जग-जीवन का हरने की,
भारत है कल्पना मनुज को राग-मुक्त करने की।
जहां कहीं एकता अखण्डित जहां प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खड़ा वहां भारत जीवित, भास्वर है।
भारत वहां जहां जीवन-साधना नहीं है भ्रम में,
धाराओं को समाधान है मिला हुआ संगम में।
जहां त्याग माधुर्यपूर्ण हो, जहां भोग निष्काम,
समरस हो कामना, वहीं भारत को करो प्रणाम।
वृथा मत लो भारत का नाम।
दिनकर जी द्वारा लिखा हुआ
हां अब भारत कुछ मनो मे ही शेष है।
ReplyDeleteसुबह-सुबह अच्छी कवि्ता पढ़्ने को मिली.. धन्यवाद
ReplyDeleteयही हमारा भी सपना है.
ReplyDeleteदिनकर जी की यह कविता बहुत ही समीचीन है। इसे फिर एक बार पढकर प्रसन्नता हुई।
ReplyDeletesahi samay par padhwayi hai ye kavita..
ReplyDeleteजहां त्याग माधुर्यपूर्ण हो, जहां भोग निष्काम,
ReplyDeleteसमरस हो कामना, वहीं भारत को करो प्रणाम।
इसके लिए बहुत आभार आपका !
रामराम !
सुंदर कविता प्रशांत जी,
ReplyDeleteसमय की मांग यही है की देश के वास्तविक स्वरूप को समझा जाय. जनजागरूकता ऐसे ही फैलेगी.
बहुत सुन्दर बन्धुवर।
ReplyDeleteबहुत सामयिक प्रस्तुति है। भारत को नीचा दिखाने वालों को धिक्कारती हुई।
ReplyDeleteअच्छी कविता पढवाई। शुक्रिया।
ReplyDeletemain leta hun isi Bharat ka naam kyonki yahi to mere sapnon ka Jahan... bahut bahut dhanyawad iis Kavita ke liye
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