Thursday, February 28, 2008

क्या मैं बदल रहा हूं?

मुझे ऐसा लगता है की मुझमें बदलाव आ गया है.. और ये बदलाव अच्छा तो नहीं है.. मुझे कुछ पता नहीं, पर कुछ लोगों ने मुझे अभी हाल के दिनों में मुझे ऐसा कुछ कहा है जिससे मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया हूं कि क्या मैं सच में बदल गया हूं?

कल जब मैं काफी पीने के लिये काफी मशीन की तरफ बढ रहा था तो मेरे कार्यालय काम करने वाले मेरे एक मित्र ने मुझे अकेला देख कर मुझे टोका, "What Prashant, everytime you are coming alone? I saw the same thing at lunch time also. Always alone!! Why it is like so?"

मैंने उससे कुछ कहा नहीं, बस एक बार मुस्कुरा भर दिया.. मगर उसकी इस बात ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया.. हां ये बात तो सच है की पहले जहां मैं कहीं भी राह चलते मित्र बना लिया करता था वहीं आज-कल अपने आस-पास अपने कार्यालय में देखता हूं की कोई नहीं है(शिवेन्द्र को छोड़ दें, उसकी तो मजबूरी है साथ रहने की).. और जहां तक घर की और पूराने दोस्तों की बात है तो वे सभी भी मजबूर हैं, इस रिश्ते को मेरे साथ ढोने की अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है.. वे सब हैं ही इतने अच्छे जो मुझ जैसे अख्खड़ आदमी का साथ भी निभाना जानते हैं..

मुझे नहीं पता की ऐसा सच में है या नहीं.. अब इसका उत्तर तो वही दे सकते हैं जो मेरे करीबी हैं और हमेशा मेरा ब्लौग पढकर किनारे से बिना कोई कमेंट किये ही निकल लेते हैं.. अगर कमेंट नहीं तो फोन पर या मेल से मुझे ये बात जरूर बताईयेगा..

Tuesday, February 26, 2008

बच्चों की कम्यूनिटी ब्लौग, चोखेरबाली

अगर आप किसी बच्चे से कहेंगे की, "अभी तुम बच्चे हो.."
तो आपको यकीनन यही जवाब मिलेगा, "नहीं मैं बच्चा नहीं हूं.."
यही अगर किसी बड़े को कहियेगा तो वो शालीनता से मुस्कुरा भर देगा..

उसे किसी अच्छे काम करने को कहियेगा, "ये काम करो तुम्हारे लिये अच्छा रहेगा.."
तो उसका जवाब यही होगा, "नहीं मैं ये काम नहीं करूंगा.." और मन ही मन सोचेगा की इनके कहने पर तो मैं ये नहीं करने वाला हूं, मगर अंत में वो वही काम करेगा..

अगर कहीं कुछ बच्चे खेल रहें हों और अगर आपको भी खेलने के लिये आमंत्रित करें तो आपका मन भी बच्चों के साथ खेलने के लिये लालायित जरूर होगा.. और अगर उन बच्चों को आपका खेल पसंद नहीं आया तो वो आपको बिना बताये बस ऐसे ही लतिया कर बाहर कर देंगे(जैसा की यसवंत जी के साथ हुआ है)..

मैं जब भी चोखेरबाली को देखता हूं तो मुझे ऐसा ही कुछ लगता है, पर उसी चोखेरबाली के सदस्य जब अपने ब्लौग पर कुछ भी लिखते हैं तो परिपक्वता से लिखते हैं.. और मैं उनमें से अधिकांश सदस्य का ब्लौग निरंतर पढता भी हूं.. इनमें से अधिकांश सदस्य मुझसे उम्र में बहुत बड़ी हैं और कुछ तो मेरी मां-चाची के भी उम्र की हो सकती हैं, फिर भी मुझे उनके बचपने से भड़ी हरकत को बचपना कहने में कोई संकोच नहीं है..

कुछ दिनों से अपनी व्यस्तता के कारण मैं चोखेरबाली और उससे जुड़े बहस को मूकदर्शक बन कर देखता रहा था और चाह कर भी उसमें हिस्सा नहीं ले पाया.. अब सोचता हूं की जो हुआ अच्छा ही हुआ..

Monday, February 25, 2008

पकवान का नाम है लंग कैंसर

"कहां हो?"

"किचेन में.."

"क्या कुछ पका रहे हो?"

"अभी तो बस जलाया हूं, देखो पकने में कितना समय लगता है?"

"...????"

"इसके पकने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है.."

कुछ समझ नहीं आ रहा है सोचते हुये, "क्या जलाये हो?"

"सिगरेट.."

"और पका क्या रहे हो ये भी बता दो?"

"पकवान का नाम है लंग कैंसर.."

कमी सी क्यों है

जाने क्यों चलते-चलते राह रुकी सी क्यों लगती है,
हर राह तुम्हारी गली सी क्यों लगती है?

तुम्हारे दिये उस सूखे गुलाब की बची खुश्बू,
मेरे हिस्से की बची हुई प्रेम की क्यों लगती है?

मुझे तुम याद नहीं आती हो ऐसा मैं सोचता हूं,
पर पलकों पर हमेशा ये नमी सी क्यों लगती है?

सोता कम हूं क्योंकि सपनों से डरता हूं,
पर इन आखों में टूटे सपनों की चुभन सी क्यों लगती है?

पता है मुझे की मेरे जीने-मरने से तुम्हें फर्क नहीं परता,
मगर मुझे तुम्हारे आहट का इंतजार सा क्यों है?

मुझे पता है सारे प्रश्नों के उत्तर,
मगर मेरे हर उत्तर में कुछ कमी सी क्यों है?


Thursday, February 21, 2008

एक डरा हुआ चेहरा, जिसे देखकर लोग मुस्कुरा देते हैं

ये बिना चित्र की कथा है

कल मैंने एक चेहरा देखा.. बहुत डरा हुआ.. मगर उसे देखकर मुझे उसपर बहुत प्यार आया.. शायद किसी छोटे शहर में होता तो थोड़ा दुलार भी कर देता.. अब बड़े शहरों में रहने की कीमत तो हम सभी किस्तों में जीवन भर चुकाते ही हैं सो चलो एक कीमत और सही..

कल घर लौटते समय बस में एक बच्चे को अपने पापा के गोद में देखा जो पुरूषों के बैठने वाले जगह में बैठे हुये थे और उसकी मां महिला वाली सीट पर थी.. जब उनके उतरने का समय हुआ तब पहले वो अपने पापा के साथ उतर गया.. मगर उसकी नजर बस के भीतर से उतरते अपनी मां पर ही था.. उसे लग रहा था की वो नहीं उतर पायेगी.. और जैसे ही उसके मन में ये ख्याल आया वैसे ही उसका रोना शुरू हो गया..

उसके पापा उसे समझाये जा रहें हैं, और वो रोये जा रहा है, और सारे लोग जो भी वहां थे वो उस बच्चे की मासूमियत पर मुस्कुराये जा रहे हैं.. मां के उतरने पर भी वो बड़ी कठिनाई से चुप हुआ.. और मुझे एक बहुत ही प्यारा सा और अच्छा सा अनुभव दे गया.. :)

मैंने शुरू में लिखा है ये बिना चित्र की कथा है.. इसका कारण ये है की लोग यहां ये समझ कर ना आये की कुछ मजेदार कार्टून यहां होगा जिसे देखकर बरबस ही मुस्कान आ जाये.. :)

अपना पोस्ट हिट करें, ब्लौगवाणी की सहायता से

क्या आप चाहते हैं की आपके किसी भी पोस्ट को लोग ज्यादा से ज्यादा देखें? आप अपनी ये इच्छा ब्लौगवाणी की सहायता से आसानी से पूरा कर सकते हैं.. कैसे? चलिये मैं ही बता देता हूं.. आपको करना कुछ नहीं है बस अपने शीर्षक में ब्लौगवाणी की चर्चा कर दें.. अगर बुराई कर सकते हैं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.. बस आपको इतना ही करना होगा और लोग दौड़े चले आयेंगे आपके पोस्ट पर.. मुझे पता है की लोग मेरे इस पोस्ट को पढने के लिये आयेंगे तो जरूर मगर गालीयां देते हुये जायेंगे.. :)
आज सुबह मेरे कंप्यूटर से ली हुई इस चित्र को एक नजर देखें..

यहां मैं किसी पर आरोप नहीं लगा रहा हूं.. ये मेरा अपना अनुभव भी है.. मैंने इससे पहले 2 पोस्ट ब्लौगवाणी के नाम से लिखे थे और उसे अन्य किसी पोस्ट से औसतन ज्यादा पाठक मिले..

एक नजर इस मजेदार चीज पर भी डालें.. ये महाशय 0 मित्रों को धन्यवाद कह रहें हैं.. चलो भाई, अगर कोई मेरे इस पोस्ट को नहीं पढता है तो भी उसे धन्यवाद दे ही देता हूं.. :)

मेरे पास आजकल समय ना होने के कारण मैं ये बकवास आज अपने ब्लौग पर किये जा रहा हूं.. अगर इसे पढकर आपके सर में दर्द हो जाये तो क्षमा चाहूंगा.. :)

Sunday, February 17, 2008

आपके शहर में साफ्टवेयर कंपनी होने के नुकसान

आजकल कौन सा शहर सबसे ज्यदा माडर्न है इसका फैसला आमतौर पर लोग इससे करते हैं की वहां कितनी साफ्टवेयर कंपनी के कार्यालय हैं.. तो चलिये मैं आपको कुछ नुकसान गिनाता हूं जो आपको भी नजर आयेगा जब आपके शहर में साफ्टवेयर कंपनी खुलेगी या फिर आपको भी नजर आता होगा अगर आप पहले से ही किसी ऐसे शहर में रहते हैं तो..

1. आपके शहर में अविवाहित युवाओं की फौज नजर आने लगेगी जिसे जो दुनिया की परवाह किये बिना अपनी दुनिया में ही मस्त रहते होंगे.. और जिसे आमतौर पर लोग सांस्कृतिक विनाश कहते हैं या फिर पाश्चात्य संस्कृति का दुस्प्रभाव..

2. आपको यकायक लगने लगेगा की आपके शहर में दोपहीये वाहनों की संख्या बहुत बढ गई है.. अब युवाओं को चार पहीये वाहनों के मुकाबले दोपहीये ज्यादा पसंद आते हैं.. और दो पहीये वाहन चारपहीये वाहनों की तुलना में सस्ते होते हैं इसलिये आसानी से इन युवाओं की पहूंच में होते हैं..

3. ट्रैफिक जैम और प्रदूशन जैसी समस्या आपको बढी हुई नजर आने लगेगी..

4. सुट्टाबाजों या कहें चेन स्मोकरों की भीड़ बहुत बढी हुई नजर आने लगेगी..

5. वाईन शाप और पब पहले से ज्यादा दिखने लगेंगे क्योंकि साप्ताहांत में अधिकांश युवा इसे लेने से परहेज नहीं करते हैं..

6. साफ्टवेयर कंपनी बनाने के लिये कई जगह आपको पेड़ कटे हुये नजर आने लगेंगे..

7. बड़े-बड़े शापिंग माल और मल्टीप्लेक्सेस आपको अपने शहर में दिखने लगेंगे..

अगर मुझसे कुछ छूट रहा हो तो आप उसे जोड़ सकते हैं.. अगले पोस्ट में आपके शहर में अगर साफ्टवेयर कंपनी हो तो उसके क्या फयदे हो सकते हैं, मैं इसे लेकर आऊंगा.. तब तक के लिये धन्यवाद.. :)

Saturday, February 16, 2008

रिश्ते की बात

जय : मौसी, लड़का इंफोटेक में काम करता है...
मौसी : हाये राम..! और कहीं ट्राई कर रहा है क्या??

जय : कहां मौसी 2 साल इंफोटेक में रहने के बाद कोई कंपनी लेती कहां है...
मौसी : हाये राम तो क्या 2 साल से इंफोटेक में ही है??

जय : हां सोचा था 2 साल में सैलेरी हाईक होगी ही. आजकल तो सैलेरी भी ज्यादा नहीं मिल रही है उसे..
मौसी : तो क्या सैलेरी भी कम मिलती है??

जय : अब अप्रैजल भी तो आसानी से कहां होटा है मौसी ..
मौसी : हाये हाये...!! ह्टो क्या अप्रैजल भी नही होता उसका??

जय : सीनियर से लड़ाई करने के बाद अप्रैसल में अच्छी रेटिंग तो नहीं मिलती है... मौसी ..
मौसी : तो क्या सीनियर से लड़ता भी है??

जय : अब 2 साल तक आनसाईट जाने को ना मिले तो हो जाटी है कभी कभी अन-बन..
मौसी : तो क्या अब तक एक बार भी आनसाईट नही गया??

जय : अब आउटडेटेड टेक्नोलोजी के डेवलपर की किस्मत में तो यही लिखा है मौसी ..
मौसी : क्या कहा लड़का आउटडेटेड टेक्नोलोजी में काम करता है..!!!

मौसी : चलो यही बता दो कौन से कालेज से पदाई की है??
जय : इसका पता लगते ही हुम आपको खबर कर देंगे!!

जय : तो मं रिश्ता पक्का समझू ना मौसी ?
मौसी : बेटा, कान खोल कर सुन ले... सगी मौसी हूं बसंती कि कोई सौतेली मां नही. भले ही हमारि बसंती काल सेंटर वाले कल्लू से शादी कर ले पर इंफोटेक के इंप्लायी से कतई नहीं करेगी..

और बात यहीं खत्म हो गई.. ये सच्ची घटना पर आधारित है.. इसे कोरी कल्पना ना समझें.. :D

Thursday, February 14, 2008

वेलेंटाईन डे पर मेरी अनोखी मित्र तनुजा का परिचय

मेरी एक मित्र हैं तनुजा.. उनका और वेलेंटाईन डे का रिश्ता तो जन्म जन्म का है.. आज के दिन जो कोई भी उन्हें बधाईयां देता है उसे वो खुले दिल से स्वीकार करती हैं.. किसी को भी कोई इंकार नहीं.. पता है क्यों? क्योंकि आज उनका जन्मदिन भी है.. :)

इनसे मेरी जान पहचान मेरी जिस मित्र के कारण हुआ था आज उनसे मेरा कोई संपर्क नहीं है पर मैं इनसे पहचान होने के बाद भी लगभग 5-6 सालों तक मिला नहीं था.. हमारी फोन पर ही बातें होती रही थी.. मैंने इन्हें कभी देखा भी नहीं था और ना ही इन्होने मुझे.. मगर हम जब भी फोन पर बातें करते थे तो कभी भी ऐसा नहीं लगा की हम कभी नहीं मिले.. लगता था जैसे हम बहुत ही अच्छे मित्र हैं..

इनसे मुलाकात
पिछले साल दिवाली की छुट्टियों में जब मैं घर जा रहा था तब इनसे मेरी मुलाकात दिल्ली में हुई थी.. अब चूंकी हम दोनों ही एक दूसरे को कभी देखे भी नहीं थे सो एक दूसरे को पहचानना बहुत ही कठिन था.. तनुजा ने मुझे कनाट प्लेस में कैफ़े काफ़ी डे के पास बोला रहने के लिये.. मुझे जो भी पहला कैफ़े काफ़ी डे दिखा, मैं बस वहीं खड़ा हो गया.. बाद में पता चला की वहां 3-3 कैफ़े काफ़ी डे है.. खैर इसी ने मुझे ढूंढा.. ये जब वहां आयी तो इनके साथ इनके मंगेतर भी थे जिनसे मिलना बहुत ही अच्छा लगा.. ये दोनों मार्च में शादी के बंधन में बंधने जा रहे हैं.. ये दोनों ही पेशे से डाक्टर हैं और दिल्ली के मुख्य रेलवे अस्पताल में कार्यरत हैं..

कुछ मजेदार बातें
लगभग 2-3 साल पहले की बात है.. मैं घर गया हुआ था.. मैंने अपने पापाजी के मोबाईल से इसे बस यूं ही तंग करने के लिये एक फ़्लर्टिंग वाला मैसेज भेज दिया और वो भी रात के 10 बजे के लगभग.. उस समय ये कालेज में हुआ करती थी.. वो मैसेज पढ कर ये बिलकुल हैरान परेशान की कौन है जो मुझे यूं तंग कर रहा है?

खैर इसने मेरे पापा के नंबर पर फोन किया लगभग रात के 11 बजे और बहुत ही कड़े लहजे में पूछा की आप कौन हैं और क्यों ऐसा मैसेज भेजे हैं.. मेरे पापा भी हक्के-बक्के.. मगर तुरंत समझ गये की ऐसी बदमाशी बस प्रशान्त ही कर सकता है और कोई नहीं.. फिर उन्होंने अपना परिचय दिया और कहा की रात बहुत हो चुकी है सुबह प्रशान्त से बात कर लेना.. पापा का परिचय सुनने के बाद तनुजा बहुत शर्मिंदा हुई और मुझसे बहुत दिनों तक लड़ाई की.. आज भी कभी इस बात की चर्चा होती है तो फिर से इसका लड़ना चालू हो जाता है.. :)

यही है इनकी और मेरी दोस्ती का किस्सा.. आप फिलहाल इन्हें इनके जन्मदिन की शुभकामनाऐं दिजीये और इनके जीवन के नये सफर के लिये दुवाऐं मांगिये..

तनुजा और उनके मंगेतर धीरज गांधी

Tuesday, February 12, 2008

तीन पोस्टों की एक पोस्ट

ब्लौग का नशा भी जब चढता है तो सर चढ कर बोलता है ये शत-प्रतिशत सही है.. मैं पिछले कुछ दिनों से बिलकुल भी समय नहीं निकाल पा रहा हूं किसी भी चीज के लिये.. चिट्ठों की तो बात ही छोड़ दिजीये.. पर ब्लौग का नशा जब चढ ही चुका है तो अब क्या किया जा सकता है? लिखना तो परेगा ही, सो लिख रहा हूं.. :)
कुछ बातें जो छूट गई हैं उसे एक साथ संक्षेप में ही लिख देता हूं तभी तो एक साथ 3-3 पोस्ट बन रही है..

भैया की शादी

कल यानी 11 फरवरी को मेरे भैया की शादी थी.. कहने को तो वो मेरे चचेरे भैया हैं पर मैं उनके नाम के आगे चचेरा लगाना उचित नहीं समझता हूं.. क्योंकि बचपन में वो हमलोगों के साथ ही रहते थे और मैं 7-8 साल तक समझता रहा की वो मेरे अपने भाई हैं, जब तक की मुझे बताया नहीं गया था.. भैया को हम लोग प्यार से बाउ भैया कहते हैं पर उनका नाम प्रभाष रंजन है.. अभी मुंबई में भारतीय जल सेवा में कार्यरत हैं..

कल उनकी शादी थी पर समय, छुट्टी और अर्थ, तीनों का कुछ ऐसा संगम बना की मैं नहीं जा सका.. शायद इसका अफसोस हमेशा ही रहेगा.. अभी तो फिलहाल आप लोग उनके विवाहित जीवन के लिये दुवाऐं देते जाईये..

मेरे पापा दूरदर्शन पर

कुछ दिन पहले मेरे पापाजी का एक प्रजेंटेशन दूरदर्शन पर आया था जिसका विषय था स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना.. मुझे वो देखने का मन तो बहुत था पर क्या करूं मेरे पास टेलीविशन नहीं है.. सही कहूं तो उसकी जरूरत तो महसूस होती है पर मुझे उससे थोड़ी चिढ भी है.. यही एक बहुत बड़ी वजह है मेरे पास उसका नहीं होना..

मेरे पापाजी ज्वाईंट सेक्रेटरी के पद पर ग्रामीण विकास विभाग, बिहार में कार्यरत हैं, और वो योजना भी इसी विभाग के अंदर में आता है..

अब मैं तो उसे नहीं देख पाया हूं, देखिये कब घर जाता हूं और मेरे हाथ वो विडीयो लगता है और मैं उसे देखता हूं.. फिलहाल के लिये इसे यहीं खत्म करता हूं.. :)

मेरी ट्रेनिंग

जैसा की मेरे पिछले पोस्ट में मैंने लिखा था की मुझे नया प्रोजेक्ट मिला है.. सो यह भी तय है की उस पर काम करने की ट्रेनिंग भी मिलनी चाहिये.. सो मैं आजकल ट्रेनिंग के मजे उठा रहा हूं..

टामिंग??
अब ये तो मत ही पूछिये.. सुबह 7-7:30 तक घर से निकलता हूं और रात में जब घर पहूंचता हूं तो हालत इतनी खराब रहती है की बस बिस्तर ही दिखाई देता है.. मेरी एक मित्र मेरे घर के पास वाले ही एक हास्पिटल में वायरल फीवर के कारण एडमिट थी, पर मैं कल उसे देखने नहीं गया.. कुछ ज्यादा ही थका महसूस कर रहा था.. जाने का मन तो बहुत था, पर हिम्मत बाकी नहीं बची थी.. मुझे तो भई बहुत डर लग रहा है कि वो बुरा ना मान जाये और सबसे बड़ी परेशानी ये है की उसे बुरा लगने पर भी वो कुछ नहीं बोलेगी.. नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है की हमारी दोस्ती औपचारिक है.. बात ये है की उसे अगर कुछ अच्छा लगता है फिर भी वो कुछ नहीं बोलती है.. क्या करें, उसका तो स्वभाव ही यही है.. वैसे एक मजेदार बात बताता चलूं.. उसका नाम प्रियदर्शीनी है और मेरा अंतिम नाम प्रियदर्शी है.. सो कालेज के दिनों में हम दोनों का ही नाम छोटा करके पीडी रख दिया गया.. और जब हमारे बीच अच्छी दोस्ती हो गई और हमदोनों साथ दिखने लग गये तो कोई पीछे से पीडी पुकारता था और हम दोनों ही मुड़कर देखते थे की किसे बुलाया जा रहा है.. :D

हां तो ट्रेनिंग मुझे मिल रही है ProvideX नाम के पैकेज की.. पता नहीं लोग ऐसे पैकेज क्यों प्रयोग में लाते हैं.. खैर मुझे तो अच्छा लग रहा है क्योंकि ट्रेनिंग देने वाले कोई और नहीं इस पैकेज को बानाने वाली टीम के मुख्य आर्किटेक्चर ही हमें ट्रेनिंग दे रहे हैं.. वो कनाडा से आये हैं और चेन्नई की गर्मी उन्हें बहुत भा रही है.. उनका नाम फ्रेड है..

अब आखिरी बात डा.प्रवीण चोपड़ा जी के लिये.. डा.साहब यदि आप ये पढ रहें हैं तो अपना ई-पता मुझे दिजीये.. मैं आपको उन सारे प्रश्नों का उत्तर देता हूं.. मेरा इ-पता है - prashant7aug@gmail.com..

Sunday, February 10, 2008

आज से मेरी छोटी सी दुनिया बंद

मैंने अपनी छोटी सी दुनिया से छुट्टी लेने का मन बना लिया है.. कारण ये नहीं की मैं इससे परेशान हो गया हूं या फिर इसे चलाना नहीं चाहता हूं.. भला कोई अपनी दुनिया से परेशान हो सकता है क्या? मैंने कुछ दिन पहले अपने एक पोस्ट में चीख चीख कर काम मांगा था और वही सबसे बड़ी वजह है इसे कुछ दिनों के लिये बंद करने का..

अभी मुझे एक नया प्रोजेक्ट मिला है और उस पर मैं अगले दो-तीन हफ्ते के लिये इतना अधिक व्यस्त रहूंगा की शायद मुझे समय ना मिले अपनी छोटी सी दुनिया को सवारने के लिये.. ऐसा तो अक्सर होता ही रहता है की आपको अपनी दुनिया को संवारने के लिये कभी कभी कुछ दुसरे कामों में भी उलझना होता है.. ये भी कुछ ऐसा ही है..

आप लोगों को एक अच्छी और मजेदार खबर भी सुनानी है.. मेरे प्रोजेक्ट मैनेजर मेरे ठीक पीछे बैठते थे और दिन भर मुझे ब्लौगिंग करते देखते रहते थे.. मुझे उन्होंने कभी इसके लिये रोका या टोका नहीं.. मगर मुझे हमेशा लगता था की मेरा इमेज उनके सामने अच्छा नहीं होगा.. वो जरूर सोचते होंगे की इस लड़के को और कुछ भी नहीं आता है ब्लौगिंग के अलावा.. मगर मुझे मेरे नये प्रोजेक्ट में डालने से पहले उन्होंने जो रिपोर्ट दी वो मेरे लिये आश्चर्यजनक था.. उन्होंने मेरा फ़ीडबैक बहुत ही अच्छ दिया.. और मुझे ऐसे टीम में डालने का फैसला किया जिसमें 2-3 साल के अनुभव वालों की जरूरत थी मगर मेरे पास अभी बस 7-8 महीने का ही अनुभव है..

मुझे जैसे ही समय मिलेगा वैसे ही मैं अपने नये विचारों के साथ आपके पास आऊंगा.. तब तक के लिये अलविदा.. :)

Saturday, February 09, 2008

पुरानी जींस और गिटार

पुरानी जींस और गिटार सूचक है कालेज के बीते हुये दिनों का और आज फिर से मुझे ना जाने क्यों कालेज के दिन याद आ रहे हैं। आज मैं आपको अपने कक्षा की एक घटना बताने जा रहा हूं जिसके पात्र हैं नीता, शिवेन्द्र और मैं।

नीता पढने लिखने को लेकर बहुत जागरूक रहती थी और अभी तक उस पर हमारी संगती का पूरा असर नहीं हुआ है और ये कमी उसमें कुछ कुछ अभी तक है। शिवेन्द्र में भी थोड़ी बहुत ये कमी थी जो समय के साथ दूर होता चला गया, मगर वो बस उसी विषय को पढता था जिसमें उसे रूचि होती थी बाकियों को तो परीक्षा के समय भी नहीं छूना चाहता था। और जहां तक मेरी बात है तो मैं शुरू से ही बिंदास किस्म का प्राणी रहा हूं और कक्षा में पढने का कीड़ा मुझे कभी भी नहीं काटा। :)

अब उस दिन किस विषय की कक्षा चल रही थी ये तो मुझे याद नहीं है पर मैं, नीता और शिव एक साथ बैठे हुये थे। सबसे बायें मैं बैठा हुआ था, फिर नीता बैठी हुई थी और उसके बगल में शिव। हमेशा की तरह मैं कापी कलम सभी कुछ बंद करके बस कुछ खुराफात सोच रहा था, मेरे बगल में नीत पूरी तन्मयता से पढाई में लगी हुई थी और कुछ कुछ अपने नोटबुक में नोट करती जा रही थी, उसके बगल में शिव भी गलती से कुछ लिख ले रहा था।

थोड़ी देर बाद शिव बोर हो गया फिर मैं और शिव कट्टम-कुट्टा(टिक-टैक-टो) वाला खेल खेलने लगे। नीता हम दोनों के बीच में बैठी हुई थी सो अब उसे धीरे धिरे पढाई करने में परेशानी होने लगी। अब उसका ध्यान कभी पढाई पर जाता और कभी इधर खेल में कौन जीत रहा है उस पर। लगभग 10 मिनट के बाद तो उससे रहा नहीं गया उसने भी अपनी कापी बंद कर ली और खेल के मैदान में उतर आई। उस दिन मुझे पूरा भरोसा हो गया अच्छाई हमेशा बुराई पर विजय प्राप्त करती है। ;) क्योंकि मैंने पहले शिव को और फिर नीता को पढाई जैसे बुराई के दलदल से बाहर निकाल लिया था। :D

मैं और नीता
खैर चलते चलते मैं नीता का भी परिचय देता चलूं। अव्वल दर्जे की बकबकिया, मीठा खाने की शौकीन, किसी से भी और किसी भी समय पार्टी मांगने के लिये बदनाम(ये बात और है की कोई उसे पार्टी देता नहीं था :)), कंजूसी में सबसे आगे(चमड़ी जाये पर दमड़ी ना जाये पर अमल करने वाली), पढाई को लेकर हमेशा उतावली और कितनी अच्छाईयां बता ऊं? चलिये कुछ बुराईयां भी गिना ही देता हूं। हमारे क्लास की सबसे ज्यादा चर्चे में रहने वाली लड़की होते हुये भी मैं कभी उसे टेंसन में नहीं देखा, हर किसी से खुले दिल से बात करने वाली, उसकी बक-बक में हमेशा एक अल्हड़पना सा झलकना। अगर एक वाक्य में मुझसे पूछें तो मेरे लिये एक बहुत प्यारी सी और अच्छी मित्र। :)

मेरे पूरे छात्र जीवन में मुझे दो बार निकनेम दिया गया है, एक तो PD जिसे मैं आज भी इस्तेमाल में ला रहा हूं जो की प्रियदर्शी से निकला हुआ है। और दुसरा DON जो नीता ने ही दिया था, अब आप सोच रहे होंगे की DON क्यों? तो आप मेरे इस गेट अप को देख लिजीये। :)

Thursday, February 07, 2008

ममता जी, घुघुती जी और अनिता जी का जिक्र एक प्रसिद्ध अंग्रेजी चिट्ठे पर

ममता जी, घुघुती जी और अनिता जी का जिक्र एक अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध चिट्ठे पर आज मैंने देखा है। उस अंग्रेजी चिट्ठे का नाम है वाटब्लौग और उसका लिंक यहां है। ये अंग्रेजी चिट्ठा कारपोरेट ब्लौगिंग के लिये प्रसिद्ध है और इसे चलाने वाले सभी युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह एक कम्पनी का रूप लिये हुये है और इस के CEO बस 22 वर्ष का एक युवक है। इसका मुख्य कार्यालय मुम्बई में है।

कल ही इकोनोमिक टाइम्स पर हिंदी महिला चिट्ठाकारों की चर्चा थी और आज वाटब्लौग पर। इसे देखकर ये कहा जा सकता है कि हिंदी चिट्ठों का स्वरूप धीरे धीरे बदल रहा है और हम इसे लेकर भविष्य में आशावान हो सकते हैं।

कुछ बातें ब्लौगवाणी की मेरी समझ से बाहर

मैंने कल "मोहल्ला" और "अपनी छोटी सी दुनिया" पर एक साथ एक पोस्ट डाला था, जिसका शीर्षक मोहल्ला पर "कौन शांति, किसकी हत्या, अमां छोड़ो यार!" था और मेरी छोटी सी दुनिया पर "शांति की हत्या का जिम्मेवार कौन?"

आज सुबह जब मैंने ब्लौगवाणी चेक किया तो पाया की मोहल्ला पर किये हुये पोस्ट को 13 लोगों ने पसंद किया है जबकी सिर्फ 11 लोग पढें हैं। मैं पहले भी इसे लेकर एक बार एक पोस्ट गिरा चुका हूं और जवाब में कमेंट के द्वारा मेरी शंका को दूर कर दिया गया था(मुझे तो एक ने पुलिस की साईबर क्राइम ब्रांच में होने जैसी बातें भी कही थी :D), सो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। पर आज 11 बजे के आस-पास मैंने पाया की वो पोस्ट आज की पसंद से गायब है, जबकि ऐसा शाम में 5 बजे के आस-पास होना चाहिये क्योंकि मैंने कल शाम 5 बजे के आस पास इसे पोस्ट किया था। और फिर थोड़ी देर के बाद वो बस एक पसंद के साथ फिर से दिखने लगा।

अब बात करता हूं मेरे अपने ब्लौग की। अभी लगभग 4:15 हो रहें हैं। मेरे ब्लौग पर किये गये उस पोस्ट को 5 लोगों ने पसंद किया है जो अभी भी दिखा रहा है। और उसे मेरे लिखने तक 36 बार ब्लौगवाणी के द्वारा पढा गया है। मगर वो आज सबसे ज्यादा पढे गये लिस्ट से नदारद है।

मेरा ब्लौगवाणी को चलाने वाले लोगों से एक प्रश्न है कि ऐसा किसी तकनीकी त्रुटि के कारण हो रहा है या फिर इस साइट के डिजाइन में ही गड़बड़ी है। क्या मुझे आप इस साइट को बनाने के पीछे कि प्रोग्रामिंग लाजिक की चर्चा मुझसे कर सकते हैं?

मैंने अभी इसे पोस्ट करने से पहले फिर से ब्लौगवाणी को रिफ्रेस किया तो मेरी वो पोस्टिंग वहां से गायब थी। मतलब मेरे ब्लौग के साथ ऐसी स्तिथि लगभग आधे घंटे तक बनी रही क्योंकि मुझे ये पोस्ट करते करते लगभग 4:40 हो चुका है।

मैं एक बार फिर से यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं की मेरे इस पोस्ट के पीछे ब्लौगवाणी की खिंचाई करने जैसा कुछ भी उद्देश्य नहीं है बल्कि मुझे यह साइट इतना अधिक पसंद है की मैं इसके बारीक से बारीक चीजों पर भी कुछ ज्यादा ही ध्यान दे देता हूं। सो इसे अन्यथा ना लिया जाये।

ब्रेकिंग न्यूज(सबसे तेज आजतक)

इस देश का क्या होगा?
नीचे दिये हुये आज के ब्रेकिंग न्यूज को देखिये। सच में गंभीर खबर है। पूरे देश को इसके लिये एकजुट होना परेगा।

ये मुझे एक फ़ारवाडेड मेल के द्वारा मुझे मिला, इस मेल का शीर्षक और जो कंटेंट था उससे मैंने कोई छेड़-छाड़ ना करते हुये बस अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया है। मैं टेलिविजन नहीं देखता हूं, सो मुझे पता नहीं की ये कब की बात है। चित्र से भी ये स्पष्ट नहीं होता है की ये आजतक पर ही आया हो। मगर एक बात तो स्पष्ट है कि ये किसी भारतीय न्यूज चैनल पर ही आया था। जिस देश के न्यूज चैनल का ब्रेकिंग न्यूज इस तरह की खबर हो सकती है उसका तो खुदा ही मालिक है।

Wednesday, February 06, 2008

शांति की हत्या का जिम्मेदार कौन??

रोज की छेड़खानी से बचने के लिए शांति ने आत्महत्या कर ली। वो बारहवीं में पढने वाली एक लड़की थी, जिसे कुछ लफंगे रोजाना स्कूल जाने वाले रास्ते में छेड़ा करते थे। 17 साल की शांति ने 5 फरवरी को कोयमवेदु (चेन्नई) स्थित अपने घर में खुद पर किरोसिन तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। खबर चेन्नई के अखबार में 2-4 लाइनों में छपी। इतनी कम जगह इ‍सलिए, क्‍योंकि वो कोई NRI नहीं थी। बड़े या पैसे वाले घर से नहीं आती थी। उम्‍मीद है ये मामला ख़बर की तरह ही कानून के कूड़ेदान में सड़ जाएगा। लफंगे छेड़खानी के लिए एक दूसरी शांति खोज लेंगे।

शांति एक आम भारतीय थी। छेड़खानी में कपड़े की खींचतान को बड़ी खबर बना देने वाला मीडिया भी इस मामले में कुछ नहीं करने वाला। क्योंकि शांति के उघड़े हुए जिस्म की तस्‍वीर अनखिंची रह गयी। ज़ाहिर है, इसे दिखाने या छपने से उनकी TRP या सर्कुलेशन नहीं बढने वाला है। मैं मानता हूं ये महज खुदकुशी नहीं, हत्‍या है। क्‍या आप मीडियावाले ये बता सकते हैं कि शांति की हत्‍या का जिम्मेदार कौन है?

Tuesday, February 05, 2008

नये भारत की नई तस्वीर

एक कंकाल सा शरीर जो सकुचाता हुआ कहीं बैठने की जुगत में लगा हुआ था और बगल में खड़े टिप-टाप लोग उसे ऐसे देख रहे थे जैसे किसी गली के जानवरों से भी गया गुजरा हो। वो बैठा वहां, उसके साथ में एक 1-2 साल का बच्चा भी था। बस एक चिथड़ा जैसा कुछ लपेटे हुये। वो आदमी जिसके चेहरे से ही लग रहा था की वो कई दिनों से नहाया नहीं होगा क्योंकि शायद नहाना या दाढी बनाना उसकी प्राथमिकता में नहीं था।

किसी तरह से जगह ढूंढ कर वो फुटपाथ पर बैठ गया और अपनी पोटली खोली। उसमें चावल और सांभर था जो एक ही जगह रहने से गड्ड-मड्ड सा हो गया था। दोनों ही बड़े भुखे लग रहे थे पर फिर भी उस आदमी ने पहले उस बच्चे को अच्छे से खिलाया और जब उसने और खाने से मना कर दिया तब जाकर वो खुद खाना शुरू किया। मुझे आज दिन का अपना खाना याद आ गया जो मैंने पूरा बस इसिलिये नहीं खाया था क्योंकि मुझे आज की सब्जी अच्छी नहीं लग रही थी। उस आदमी को देखकर मन अपराधग्रस्त सा लगने लगा था।

वहीं बगल खड़े या वहां से गुजरने वाला लगभग हर आदमी अच्छे कपड़ों में था जो 10 रुपये का कोक के लिये 15 रुपये में खरीदने में भी नहीं हिचक रहा था। सामने एक नारियल पानी वाला 10-13 रुपये वाला नारियल 15-20 रुपये में इसलिये बेच रहा था क्योंकि वो एक साफ्टवेयर कम्पनी के बाहर बेच रहा था और उसे पता था की इस दाम पर भी लोग उससे नारियल पानी खरीदेंगे ही।

कई लोगों के हाथों में 4 से लेकर 8 रुपये तक के सिगरेट नजर आ रहे थे। और सभी की निगाह बस उस आदमी पर टिकी हुई थी। कुछ लोग उपहास भड़ी नजरों से उसे देख रहे थे। कुछ लोग आपस में बातें कर रहे थे की इसकी इतनी हिम्मत कैसे जो यहां बैठ गया। मगर कोई उसे कुछ भी नहीं बोला। पहली बार लगा की शराफत का मुखौटा ओढने का कुछ फायदा भी होता है।

आज जब मैं दोपहर में अपना मूड फ्रेश करने अपने आफिस से बाहर गया तो वहां का कुछ ऐसा ही नजारा था। शायद यही है नये विकसित होते भारत की नई तस्वीर जिस पर हमें गर्व है।

मैं पागल हूं

कल रात सोने से पहले मुझे इस ब्रह्मज्ञान का पता चला की मैं पागल हूं और आज जब मैंने अपने ब्लौग पर टिप्पणीयां देखी तो मन खुश हो गया की चलो एक पागल के पागलपने से भरे हुये बातों को भी लोग पढते हैं और लगे हाथों टिप्पणीयां भी करते हैं। डा. साहब कि बातों को मान कर अपने तकनीक संवाद नामक ब्लौग को फिर से जीवंत करने की इच्छा हो गई जिसे मैं तब तक के लिये टालना चाह रहा था जब तक कि मैं घर पर नेट कनेक्सन ना ले लूं।

खैर चलिये आज पहले मेरी ये कविता पढिये और मुझे गरियाईये इतनी बेकार सी पागलपने से भरी कविता पढाने के लिये।

मैं पागल हूं,
क्योंकि मैं सोचता हूं..

मैं पागल हूं,
क्योंकि मैं पूरे समाज को,
एक चश्में से देखने की कोशिश करता हूं..

मैं पागल हूं,
क्योंकि मैं अंग्रेजी को,
अपना सब कुछ मानने वाले समाज में,
भी हिंदी बोलना चाहता हूं..

मैं पागल हूं,
क्योंकि मैं अपना समय बरबाद होने की चिंता छोड़कर,
दूसरों की मदद करना चाहता हूं..

मैं पागल हूं,
क्योंकि मैं महाराष्ट्र या गुजरात नहीं,
बिहार जाना चाहता हूं..

मैं पागल हूं,
क्योंकि मैं किसी जलसे में,
किसी के कपड़े फाड़ने के पक्ष में नहीं हूं..

मैं पागल हूं,
क्योंकि ऐसे लोगों को दुनिया,
पागल ही कहती है..

और मैं खुश हूं,
क्योंकि मैं पागल हूं..

Monday, February 04, 2008

मायूसी भरे दिन

आज अपना भेजा खपा कर कुछ भी लिखने का मन नहीं कर रहा है पर समय भी तो काटना है। कमबख्त साफ्टवेयर बनाने वालों कि भी अजीब जिंदगी होती है। जब काम मिले तो इतना की अपनी झोली तो भड़े ही भड़े दुसरों कि झोली भी खीचने का मन करने लगे और जब काम ना हो तो बस भैया ठन ठन गोपाल।

हम तो भैया आज-कल ठन ठन गोपाल वालों की जमात में शामिल हैं। दिन भर सभी को ललचाई निगाह से देखते रहते हैं। किसी के पास कोई काम हो तो दे दो भाई, अब ब्लौग पढ कर जिंदगी नहीं कटती। सुबह सुबह आफिस आकर बस नेट पर ही अपनी पसंद कि चीजों को ढूंढकर समय बिताता हूं जैसे तैसे।

पिछले 1-2 महीनों से बस इसी हालत में जिंदगी काट रहा हूं। आज ही डा. महेश परिमल जी का ब्लौग पढ रहा था उसमें उन्होंने लिखा था की जब हम अपनी जिंदगी को बोझ समझने लगते हैं तभी ये जुमला इस्तेमाल करते हैं। अब वे तो बड़े ज्ञानी आदमी हैं, मैं अभी इस हालत में नहीं हूं की उनका कहा झुठला सकूं और मेरे साथ आजकल यही सच्चाई भी है।

हर दिन सुबह आफिस आना और चुपचाप बिना किसी काम के अपने क्यूबिकल में शाम तक बैठना मेरे लिये किसी जंग को जितने से कुछ अलग नहीं है। ना सो सकते हैं, ना कोई विडियो देख सकते हैं, ना कोई गाना सुन सकते हैं और ना ही कोई काम है। पर लाग इन टाइम और लाग आउट टाइम में कम से कम आठ घंटे का अंतर तो होना ही चाहिये। अब आप ही कहिये ये भी भला कोई बात है?

वो तो फिर भी मैं खुद को थोड़ा खुशकिस्मत समझता हूं की मैं अभी फिलहाल ऐसे टीम में हूं जहां आर्कुट और यूट्यूब कोछोड़कर कुछ भी बैन नहीं है, नहीं तो ब्लौग भी नहीं होता समय बिताने के लिये। ना गूगल पर रोज का समाचार ही पढ पाता।

खैर देखिये मायूसी का ये दौर कब रूकता है। कब मैं सुबह-सुबह उठूं और मुझे ये नहीं सोचना परे कि आज आफिस में क्या करूंगा। कब मुझे ये सोचने का मौका भी ना मिले कि आज का दिन कैसे काटूंगा। कई लोगों को तो ये किसी जैकपाट से कम नहीं लगता होगा की बैठे-बिठाये पूरा पैसा मिल जाता है, पर मुझे तो फिलहाल ये दिन किसी पहाड़ से कम नहीं लग रहा है। अब मुझसे और नहीं लिखा जाता। कोई मेरी हालात पर तरस तो खाओ।
बू हू हू हू............


Sunday, February 03, 2008

समय और रेत

मुट्ठी बंद करने से,
हाथ से फिसल जाती हैं रेत..
मैंने तो हाथ खोल दिये थे,
फिर भी एक कण ना बचा सपनों का..
एक आंधी सी आयी थी,
जो उसे उड़ा ले गई..
हां वो आंधी समय की ही थी..
और मैं अब तक,
हवा में उड़ते उन कणों के इंतजार में हूं..
कभी तो हवा की दिशा बदलेगी...

Saturday, February 02, 2008

एक एनोनिमस की टिप्पणी

मेरे "अविनाश" वाले पोस्ट पर एक एनोनिमस महाशय की टिप्पणी आयी है। मेरे पूरे ब्लौगिये जीवन में ये दूसरी एनोनिमस टिप्पणी आयी है। मुझे आज तक समझ में नहीं आया है कि जब लोग अपनी पहचान छुपाना ही चाहते हैं तो ये टिप्पणी करने को क्यों आतुर रहते हैं?
आप भी पढिये एनोनिमस जी कि टिप्पणी और उसका जवाब भी..

Anonymous said...
घन्नू भाई,देश के एक महान पत्रकार की जानकारी देकर आपने बहुत भला किया है - खासकर हिंदी पत्रकारिता का। वैसे अविनाश को मैं भी जानता हूं- वो शायद मुझे नहीं जानते। पहली बार दिल्ली में वे हरिवंश के ओएसडी के तौर पर नमूंदार हुए थे - चंद्रशेखर जी पर छपने जा रही किताबों के सहयोगी उपसंपादक के तौर पर। अचानक पता चला कि अविनाश लौट गए। क्योंकि कई आर्थिक अनियमितताओं का आरोप लगा था। अब वे बड़े महान हैं। एनडीटीवी में काम करना शायद महानता की निशानी है।

अविनाश said...
शुक्रिया Anonymouse, मेरे बारे में ये नयी जानकारी देने का। क्‍योंकि मुझे पता है कि मैंने अपना काम पूरा करके ही दिल्‍ली से रुख़सत किया। ये तथ्‍य उन किताबों पर भी छपा है, जो मैंने सहयोगी (दरअसल एकल संपादक) के तौर पर पूरा किया। वैसे, आर्थिक अनियमितताएं मेरी बड़ी ख्‍वाहिश रही है, पर साला अभी तक जुगाड़ लगा नहीं है।

Friday, February 01, 2008

अरे सर क्या बताऊं, इस बार तो मस्त-मस्त आइटम एडमिशन ली है

"अभी कुछ दिन पहले तो देखे थे की कैंपस में खुल्लम-खुल्ला एक फारेनर लड़का और एक फारेनर लड़की किस कर रहे थे और क्या-क्या नहीं कर रहे थे जैसे...(सेंसर्ड...)। जब एक फैकल्टी आकर रिक्वेस्ट किये की "This is India not Europe so please be mannered." तब जाकर दोनों अलग हुये। चीन से तो भड़कर आइटम लोग एडमिशन ली है और दिल्ली कि तो बात ही मत पूछिये। अरे सर क्या बताऊं, इस बार तो मस्त-मस्त आइटम एडमिशन ली है।"

पिछली बार मैं जब कालेज गया था तब मेरा एक जूनियर मुझे ये बता रहा था और मेरी मजबूरी उसे झेलने की थी क्योंकि वो मेरे एक बहुत पुराने मित्र (जो कालेज में मेरा जूनियर भी था) के साथ था। उसके चेहरे पर ये बताते हुये जो खुशी के भाव आ रहे थे उसका तो मैं वर्णन भी नहीं कर सकता हूं, जैसे मानो वो किसी खजाने का पता मुझे बता रहा हो।

काफी देर तक उसकी इस तरह की बातों को झेलता रहा। कुछ और नहीं कर सकता था क्योंकि कई बार सिनीयर होने का घाटा भी उठाना पड़ता है और दूसरी बात ये कि हर किसी से बहस करने की उर्जा मेरे भीतर नहीं है। सामान्यतः मैं उसी से बहस करता हूं जिसे मैं बहस के लायक समझता हूं और कम से कम मैं उस लड़के को बहस के लायक तो नहीं ही समझता हूं।

खैर जब मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछा की तुम्हारी कोई बहन है? और उसके उत्तर देने से पहले ही मैंने कहा की अगर कोई बिलकुल ऐसी ही बातें तुम्हारी बहन के बारे में बोले तो कैसा लगेगा? चलो मान लेते हैं कि तुम्हारे सामने ना बोले, पीठ पीछे ही बोले और तुम्हें इसका पता ही चल जाये तो?

अब उसने खींसे निपोरनी शुरू कर दी। और बोला क्या सर आप तो मूड ही खराब कर दिये। और फिर कुछ देर की खामोशी के बाद हम अपने-अपने रास्ते चल दिये। मुझे पता है जिस तरह का उसका स्वभाव है उसमें अगर वो मेरा जुनियर नहीं होता तो मुझसे भिड़ गया होता। सिनीयर होने के कुछ फयदे तो कुछ नुकसान भी हैं।

मेरे कालेज का मेन बिल्डिंग