हाथ से फिसल जाती हैं रेत..
मैंने तो हाथ खोल दिये थे,
फिर भी एक कण ना बचा सपनों का..
एक आंधी सी आयी थी,
जो उसे उड़ा ले गई..
हां वो आंधी समय की ही थी..
और मैं अब तक,
हवा में उड़ते उन कणों के इंतजार में हूं..
कभी तो हवा की दिशा बदलेगी...
पापा जी को पैर दबवाने की आदत रही है. जब हम छोटे थे तब तीनों भाई-बहन उनके पैरों पर उछालते-कूदते रहते थे. थोड़े बड़े हुए तो पापा दफ्तर से आये, ख...
हवा में उड़ते उन कणों के इंतजार में हूं..
ReplyDeleteकभी तो हवा की दिशा बदलेगी
जरुर ..... उम्मीद पर दुनिया कायम है।
स्वप्न साकार हुये के पहले पकड़ेंगे तो फुर्र ही होंगे। मुठ्ठी बन्द हो या खुली।
ReplyDeleteसाकार होने पर वे और सुन्दर लगेंगे।
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सुन्दर आशावादी रचना-बधाई!!!
ReplyDeleteहाथ से फिसल जाती है रेत...शायद टंकण में भूलवश जाते लिख गया है. :)
ठीक कर लिया जी.. :)
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