Tuesday, March 25, 2008

जो मन में आयेगा कहूंगा तुझे, आखिर मेरी बहन हो!!(पार्ट I)

घर से मैं सुबह 4 बजे निकल चुका था.. बाहर कुछ औटो तो लगे हुये थे मगर उसके चालक गहरी निंद्रा में थे और मैं जानता था की उन्हें उठाने का कोई मतलब नहीं था क्योंकि वो या तो जाते नहीं या फिर जगने के बाद उनका नखरे ज्य़ादा होता.. खैर अगर कोई औटो नहीं मिलने की स्थिती में तो उन्हें जगाना था ही जिसकी नौबत नहीं आयी..

मैं औटो से एयर पोर्ट पहूंचा जहां से मुझे दिल्ली की फ्लाईट पकड़नी थी.. मेरा फ्लाईट नंबर शायद DC610 था जो समय पर थी और उसने समय पर दिल्ली पहूंचा भी दिया.. दिल्ली जाने से पहले डा.प्रवीण चोपड़ा जी से मेरी बात हुई थी और उन्हीं से मैंने पूछा था की मेरठ जाने के लिये बस कहां से मिलेगी.. मेरठ में मेरी मुहबोली बहन रहती है शिल्पी और मुझे उससे मिले कई साल हो गये थे, सो उससे मिलने की इच्छा तीव्र हो गई ती.. प्रवीण जी ने जैसे मुझे बताया था मैं वैसे ही दिल्ली एयरपोर्ट से औटो लेकर ISBT पहूंचा और वहां कुछ खा-पीकर(जो कहीं से भी स्वास्थवर्धक तो नहीं था) मेरठ जाने वाली बस में बैठ गया..

1 बजे के लगभग बस वाले ने मुझे मेरठ उतार दिया.. जैसा की भारत के किसी भी रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड या एयरपोर्ट के आस-पास होता है, मेरे उतरते ही मुझे ढेर सारे रिक्सा चालकों ने घेर लिया.. मैंने बिना किसी रिक्से वाले की तरफ़ देखे ही मोलभाव करना शुरू कर दिया और वहां से मुझे शिल्पी के बैंक तक जाना था जहां वो काम करती है क्योंकि वो शुक्रवार था और वो वहीं थी.. शौदा 10 रूपये में पटा और शौदा पटते ही रिक्से वाले ने मुझसे मेरा बैग ले लिया अपने रिक्से पर चढाने के लिये.. तब मैं पहली बार उस रिक्से वाले की तरफ देखा जो कम से कम 70 साल से ज्यादा का रहा होगा.. जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा वैसे ही मैंने उससे अपना बैग ले लिया क्योंकि मुझे अच्छा नहीं लग रहा था की मुझे बैठा कर वो अपना रिक्सा खींचे.. मगर तभी ये भी ख्याल आया की ये भी तो किसी मजबूरी के कारण ही इस उम्र में भी रिक्सा चला रहा है और अगर मैं नहीं बैठूंगा तो फिर से इसे दूसरा ग्राहक पटाने में बड़ी दिक्कत होगी.. सो अंततः मैं उसी के रिक्से पर बैठ गया मगर शिल्पी के बैंक पहूंचकर 10 के बदले 20 रूपये दे दिये और बोला "बाबा रख लो इसे.."

मैंने पाया वो थी तो अपने आफिस में मगर काम में उसका मन नहीं लग रहा था उसका.. बेसब्री से वो मेरा इंतजार कर रही थी.. उसके आफिस में लगभग हर कोई ये जान रहा था की इसका भाई आज यहां आने वाला है.. कुछ लोग तो इस आश्चर्य में भी थे की ये लड़की तो बस तीन बहन थी, अचानक से एक भाई कहां से पैदा हो गया..:) वहां उसने मुझसे पूछा की पैर भी छूना परेगा क्या? मैंने मना कर दिया..
शेष अगले अंक में...



शिल्पी

7 comments:

  1. प्रशांत जी, यह बुजुर्ग उम्र वाले रिक्शेवाले जिन्हें हम जैसे 70-80-90 किलो के हट्टों-कट्टों को लाद कर हांकना पड़ता है, इन के बारे में मैं भी बिलकुल आप जैसे ही विचार रखता हूं। मैं भी यही सोचता हूं कि सिस्टम में, समाज के ताने-बाने में कहीं तो गड़बड़ है कि जिस की वजह की इस उम्र में ये लोग इतना मेहनत वाला काम करते हैं। मेरी मां भी मेरी तरह इन रिक्शे वालों को ही हमेशा प्रोत्साहित करती दिखती थी। लेकिन अभी अभी कुछ अवसर इस तरह के भी याद आ रहे हैं ...शायद 15-20 साल पहले के ...जब कहीं जाने की जल्दी हुया करती थी तो रिक्शे वाले का चुनाव भी कुछ इस तरह किया जाता था जैसे कि शहर के चौंक से कोई मज़दूर को दिहाड़ी पर लाया जाता है। यह आप ने अपनी पोस्ट में एक बहुत गहरा मुद्दा टच किया है। हम सब को बहुत सोचने पर मज़बूर करेगा।
    और हां, आप की डियर मुंहबोली बहन के दर्शन कर के अच्छा लगा....मुझे कभी यह बात समझ में नहीं आई कि यह ऊपर वाला वहां बैठा-बैठा यह कैसे कैसे खेल रच रहा है कि सारी मातायें और सारी बहनें एक जैसी ही क्यों दिखती हैं, लगती है ......वात्सल्य एवं प्रतिमूर्ति......ठीक इसी वक्त वह वाला गाना याद आ रहा है....फूलों का तारों का सब का कहना है, एक हज़ारों में मेरी बहना है !!

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  2. अच्छी लगी यह पोस्ट।

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  3. बहुत प्यारी हैं शिल्पी। पोस्ट की अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।

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  4. अच्छी पोस्ट बंधु! अगली किश्त की प्रतीक्षा रहेगी!

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  5. अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।

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  6. बढि़यॉं पोस्‍ट, बधाई

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  7. आप हमारे शहर आए ,बहुत पुराने दिनों की याद ताजा कर दी ,मैंने अपनी मेडिकल की पढाई सूरत गुजरात से की है ओर वहां ऑटो का चलन है ...छुट्टियों मी मेरे गुजराती दोस्त घूमने के लिए जब आए टू मेरृत बस स्टैंड पर रिक्शा को देखकर वे भी चौंक गए ..पूरे रस्ते जैसे guilt महसूस करते रहे की एक आदमी खींच रहा है ....अब टू रिक्शा मी चलना न के बराबर है पर मैंने उसके बाद से कभी मोलभाव नही किया......

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