Tuesday, January 27, 2009

बंबई से आया मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो

लगभग 6 महीने पहले की बात है.. एक दिन सुबह 8.30 में सो कर उठा और नीचे चला गया अखबार लाने.. वापस घर आया तो देखता हूं कि वाणी आयी हुई है.. ठीक है, कोई आश्चर्य नहीं, वो तो आती ही रहती है.. नींद भी ठीक से खुली नहीं थी, भदेस भाषा में कहें तो दिमाग भकुवाया हुआ था.. तभी संजीव भी अंदर कमरे से निकला.. मन में ख्याल आया कि अच्छा संजीव आया है.. तभी दिमाग में किसी ने जोर से चिल्लाया, "अबे संजीव आया है.." कुछ अता-पता नहीं और मुंबई से यहां कैसे टपक गया? और फिर जब तक 2-3 लात नहीं मार लिया तब तक चैन नहीं आया.. उस दिन यह महाशय बस वाणी को बताये थे कि मैं चेन्नई आ रहा हूं.. किसी और को इस खबर की भनक तक नहीं लगी थी..

तो ऐसे हैं हमारे लाल साहब(इनका पूरा नाम संजीव नारायण लाल है, जो कब बदल कर लाल साहब में तब्दील हो गया पता भी नहीं चला..) हर समय अति-उत्साहित, और कहते हैं ना कि अति हर चीज कि बुरी होती है.. मेरा यह भी मानना है कि अति का उत्तर हमेशा अति ही होता है.. जैसे तूफान से पहले की शांति या तूफान के बाद की शांति.. अतिउत्साह में किसी भी प्रकार के एडवेंचर करने को तैयार रहते हैं, और इसमें इनके साथ अधिकतर कुछ ना कुछ गड़बड़ होती ही रहती है.. मगर इसका ना तो इन्हें कोई गिला होता है और ना कोई असर, यह तो बस धूनी रमाये किसी साधू कि तरह हैं जो हमेशा मस्त रहते हैं.. योजनायें बनाते हैं ऐसी-ऐसी, कि बड़े-बड़े महारथी ढ़ेर हो जायें.. मगर इन्हें उन महारथी का भी ख्याल आ जाता है तभी तो उन योजनाओं को कभी पूरा नहीं करते हैं..

खैर, हमारे यह पुरातन झारखंढी और नवीनतम मुंबईया मित्र 23 जनवरी को हमारे घर पधारे.. मुंबई से बैंगलोर और फिर वहां से वेल्लोर होते हुये इनके चरण चेन्नई की पवित्र धरती को भ्रष्ट की.. रात लगभग 10-11 बजे के आसपास विकास निकला घर से बोलकर कि संजीव यहां सिग्नल के पास आ गया है वहां से उसे लेकर आते हैं.. उस सिग्नल से हमारा घर लगभग 200-300 मीटर है.. लगभग 5-10 मिनट के बाद दरवाजे से संजीव को और साथ ही अपने फोन पर विकास का नंबर आते देखा.. विकास सिग्नल पर संजीव को खोज रहा था और लाल साहब हमारे घर पर थे.. यहां भी एक्साईटमेंट का मोह खत्म नहीं हुआ इनका.. वाणी भी दफ़्तर के थका देने वाले समय सारणी को पूरी तरह निभा कर संजीव से मिलने आयी थी..

उतनी रात में अचानक से तय हुआ कि कुछ खाने के लिये लाया जाये.. मैं, संजीव और वाणी निकल गये कुछ खाने का सामान ढ़ूंढ़ने.. उससे एक दिन पहले ही मेरी नई गाड़ी आयी थी.. मैंने अभी तक गाड़ी के कागजों का फोटोकॉपी भी नहीं कराया था.. समय ही नहीं मिला था.. उन कागजों को वाणी को देते हुये कहा कि अपने स्कूटी में इसे रख लो, वापस आकर ले लूंगा.. कुछ मिटाईयां खरीद कर वापस आये.. वाणी बहुत थकी हुई थी सो उससे उस समय पेपर नहीं मांगा.. सोचा कि जायेगा कहां, इसके स्कूटी में ही तो है..

अब अगले दिन दोपहर में जब पेपर लेने गया तो वो स्कूटी में नहीं था.. मन में पहला ख्याल यही आया कि संजीव और वाणी अकेले ही कुछ भी गड़बड़ करने के लिये काफी हैं तो जब दोनों साथ में हों तो क्या कुछ नहीं कर सकते हैं? और ऊपर से साथ में मैं भी!! वो मशहूर कहावत तो आपने सुनी ही होगी, "तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा.." वाणी से पूछा तो बोली कि उसे बस इतना याद है कि मैंने उसे कुछ दिया था रखने को, मगर उसे यह भी याद है कि वो रखी नहीं थी.. मुझे इतना ही समझ में आया कि यह खो चुका है.. फिर भी अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिये अपार्टमेंट के सुरक्षा कर्मी से पूछा, मगर किसी ने उसे वह पेपर नहीं दिया था..

अब मैं, विकास और वाणी तीनों मिलकर क्या किया जाये और क्या किया जा सकता है इस पर विचार करने लगे.. फिर शोरूम वाले को फोन किया और उसने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, सब पेपर दुबारा मिल जायेगा मंगलवार को.. मैं सोच रहा था कि मिलने को तो मिल जायेगा मगर कितना एम्ब्रेसिंग सिचुवेशन होगा? सोचेगा की दो दिन भी संभाल कर नहीं रख पाया, और खो दिया.. खैर चिंता तो खत्म हो गई थी..

अब आते हैं परसो(यानी रविवार) शाम में.. विकास को गार्ड ने बुलाया यह कह कर की अपार्टमेंट के सेक्रेटरी आपको बुला रहे हैं.. विकास गया.. उसके जाने पर सेक्रेटरी ने उसे डांट पिलाई कि तुम युवा लोग जिम्मेदारियों को समझते नहीं हो.. इतना महत्वपूर्ण कागज यूं ही कहीं छोड़ देते हो.. इत्यादी, इत्यादी.. और उसे पेपर दे दिया.. उसने बताया की उसे यह मिला और उसने उसे गार्ड को ना देकर खुद रख लिया..

विकास बेचारा घर आकर हमें बोल रहा है कि गलती करो तुम दोनों और डांट हमें सुनना पड़ता है.. और हमने विकास को अच्छे दोस्त का तमगा दे डाला जिससे ऐसे ही भविष्य में भी हमारी गलतियों का ठीकरा उसी के सर फूटता रहे.. :) इस घटना से सबक सीख कर मैंने सबसे पहले उन कागजों का फोटो-कॉपी कराया और असली कागज को संभाल कर रख लिया..

कहते हैं ना, अंत भला तो सब भला.. :)

12 comments:

  1. good morning!! soye rahoge to aisi aisi khurafatein to hongi hi. ab aankhein khol kar ghoomo...kahin bike bhi to aise hi nahin chalte ho, nahin to suraksha par ek lecture main bhi dungi. arey tumhari nahin, sadak par chalne wale baaki logo ki :D

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  2. अब विकास को समझ आ रहा होगा कि शरीफ़ों की संगत का क्या मतलब होता है? :)

    भाई जरा सम्भाल के रखना कागज.

    रामराम.

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  3. क्या अंदाज है भाई की समझदारी के ..जाग जाओ अब भाई ..:)

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  4. कहते तो यही हैं . पर ठीक है क्या !

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  5. सुसुप्तावस्था से जागृतावस्था में आने पर बधाई.. पर समझ नहीं आया की डिक्की से कागज खिसके कैसे? स्कुटी कि डिक्की तो काफी गहरी होती है, लोक भॊ होता है?

    आप तो गार्ड को डांट पिला आइये.. "आज तो कागज चोरी हुआ कल को कुछ और होगा... ड्युटी पर सोते रहते हो?".. और एक क्लास सचिव की ले डालिये... आखिर आपके दोस्त तो डांट पड़ी है..:)

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  6. नहीं रंजन जी, मेरी मित्र ने स्कूटी में पेपर रखा ही नहीं था.. वो बगल में खड़े एक बाईक पर रख कर भूल गई थी..
    अब गार्ड को डाटूंगा तो सोचेगा कि मैं साबासी दे रहा हूं.. उसे हिंदी या अंग्रेजी नहीं आती है.. उससे बात करना खुद को ही सजा देने से कम नहीं है.. ;)

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  7. अच्छा अनुभव है. आभार.

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  8. waah waah, achha weekend raha yaani aapka!

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  9. @ पूजा - चुनाव का समय आने दो, मैं भी जागूँगा.. :) और तुम अपना लेक्चर मेरे रास्ते में आने वाले लोगों को सुनाओगी तो ज्यादा फायदा होगा.. :D

    @ रंजू दीदी - अभी तो सोने जा रहा हूँ, कल फिर ऑफिस जाना है.. अभी तो मत जगाईये.. :(

    @ ताऊ - अबकी बार इतना संभल कर रखा है कि जरूरत परने पर मुझे भी नहीं मिलेगा.. :)

    @ विवेक भाई - फिलहाल तो सब बढ़िया ही दिख रहा है..

    @ सुब्रमण्यम जी - धन्यवाद..

    @ पियूष भाई - जी हाँ पियूष भाई..
    रहस्य और रोमांच से भरपूर.. :)

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  10. चलिए, अन्‍त भला सो सब भला। यह सब न हो जिन्‍दगी में नमक ही न रहे।

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  11. अपने संस्मरणों की किताब बना लो अब. :)

    सही है..संजीव और विकास की सुना ली..अब नया सुनाओ.

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  12. सुंदर, अतीव सुंदर

    अब सलाम क्या करें लीजिये बोल देते हैं...

    जय हो

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