तुम्हें आखिरी बार आते हुये भी और जाते हुये भी यहीं से देखा था.. सफेद सूट धूप में चमक रहा था.. इतना कि दूर से नजर आ जाए.. बाल खुले थे या बंधे हुये, लंबे थे या छोटे, जब तुम चलती थी तब आवाज आती थी या नहीं, तुम हंसते या रोते समय कैसी दिखती थी, इन सबका मेरे लिये कोई अर्थ नहीं था.. तब बस तुम्हारे होना ही मेरे लिये एक अर्थ रखता था और अब तुम्हारा नहीं होना..
आखिरी बार जब हम साथ थे और खुश थे, ये वही जगह थी.. उस दिन भी बरसात हो रही थी और आज भी.. अंतर बस यह रह गया है कि उस दिन कि बरसात रूमानियत भर जाती थी और आज कि बरसात विरह.. यूं ही खड़ा भींग रहा था लेकिन मन जैसे रीता ही रह गया..
जब भी इस शहर में आता हूं तो एक बेचैनी साथ लिये जाता हूं.. मन में एक हूक सी उठती रहती है.. कभी-कभी सोचता हूं कि अपनी इस भावना कि हत्या भी कर डालूं.. ठीक उसी गीत कि तरह जो मुझे हमेशा तुम्हारी याद दिलाती थी और उसे मैं नहीं सुनता था.. एक दफे दिन-रात कई दिनों तक मैं उसी गीत को सुनता रहा, इतनी बार कि उसे लेकर मन में जो भी भाव अपनी छाप छोड़ जाते थे, वे सभी खत्म हो गये.. उसी तर्ज पर उस शहर में, उन जगहों के इतने चक्कर लगा डालो कि उनको लेकर भावनाशून्य हो जाऊं.. कोई तड़प दिल में बाकी ना रहे.. कोई कसक दिल में बाकी ना रहे.. पथराती आंखों से मैं वहां से गुजरूं, बिना कोई भाव मन में लाये..
कई बार कोशिश भी कि की तुम्हारी यादों को मिटा डालूं.. कई बार जलाने कि भी कोशिश हुई और जला भी डाला.. मगर इस शहर के रूमानियत से वह अहसास फिनिक्स कि तरह राख के ढ़ेर से फिर से जी उठता है.. जैसे लगता है कि मेरी रूह में समा चुकी हो तुम..
मेरी प्रीत भी तू,
मेरी गीत भी तू,
मेरी रीत भी तू,
संगीत भी तू..
मेरी नींद भी तू,
मेरा ख्वाब भी तू,
मेरी धूप भी तू,
माहताब भी तू..
मेरी खामोशी भी तू,
मेरी गूंज भी तू,
मेरी बूंद भी तू,
समुंद भी तू..
मेरी सांस भी तू,
मेरी प्यास भी तू,
मेरी आस भी तू,
रास भी तू..
मेरा नक़्स भी तू,
मेरी हूक भी तू,
मेरा अक्स भी तू,
मेरी रूह भी तू..
मेरा मान भी तू,
मेरा ज्ञान भी तू,
मेरा ध्यान भी तू,
मेरी जान भी तू..
मेरा रंग भी तू,
ये उमंग भी तू,
मेरा अंग भी तू,
ये तरंग भी तू..
मेरे जिगर के सरखे-सरखे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..
मेरे लहू के कतरे-कतरे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..
मेरी गीत भी तू,
मेरी रीत भी तू,
संगीत भी तू..
मेरी नींद भी तू,
मेरा ख्वाब भी तू,
मेरी धूप भी तू,
माहताब भी तू..
मेरी खामोशी भी तू,
मेरी गूंज भी तू,
मेरी बूंद भी तू,
समुंद भी तू..
मेरी सांस भी तू,
मेरी प्यास भी तू,
मेरी आस भी तू,
रास भी तू..
मेरा नक़्स भी तू,
मेरी हूक भी तू,
मेरा अक्स भी तू,
मेरी रूह भी तू..
मेरा मान भी तू,
मेरा ज्ञान भी तू,
मेरा ध्यान भी तू,
मेरी जान भी तू..
मेरा रंग भी तू,
ये उमंग भी तू,
मेरा अंग भी तू,
ये तरंग भी तू..
मेरे जिगर के सरखे-सरखे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..
मेरे लहू के कतरे-कतरे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..
क्यों चली गयी तुम? कहां चली गयी तुम? जाना ही था तो आयी क्यों थी? किसी को दिलासा दिलाकर छोड़ जाना अच्छा नहीं होता.. आ जाओ तुम, कहीं से भी.. बस उड़कर.. देखो तुम्हारे बिना मैं कितना अकेला हूं, कितना उदास हूं..
b'ful.. hamare sath to panga kar diya bhai jaan aapne... jab bhi mann baut udas hota hai us din shabd jaise dil mein pahuch jate hai aur nichod dete hai use.. aaj wahi din hai.. mann bahut udas hai aur uske aapke in bhawuk shabdo ne rula diya..
ReplyDeleteRohit Tripathi
सब ठीक है, मगर, "आत्मा के निर्जीव होने का अनुभव" क्या है?
ReplyDeleteएक शब्द का त्रुटिपूर्ण उपयोग। आत्मा तो अजर, अमर और अविनाशी है। आप रूप (शरीर)की बात कर रहे हैं, उसे आत्मा कह रहे हैं।
जरा सोच कर देखें!
मुझे भी कई बार इस आत्मा के निर्जीव होने का अहसास होने लगता है... ये शरीर के निर्जीव होने की बात नहीं है... भीतर जो प्राण है वो मरता हुआ सा लगता है... शरीर की मृत्यु से ख़ुद को तकलीफ़ शायद नहीं होती होगी लेकिन आत्मा के निर्जीव होने का अहसास बहुत बुरा होता है.
Deleteऔर हाँ जब कहते है कि "उसके आँख का पानी मर चुका" तो क्या सचमुच पानी मरता है.
शब्दों पर न जाओ सर भावनाओं को समझो.
शब्दों पर ना जाओ सर भावनाओं को समझो.
Deleteजब कहते हैं कि "उसके आँख का पानी मर गया " तो क्या सच में पानी मर रहा होता है. :)
dinesh sir, kaahe bachche ke post ka kabaara kar rahe hain.. :)
ReplyDeleteitna dimag par jod de kar likha tha ki dimag ka jod-jod hil gaya tha.. us par bhi aap majak uda diye.. :)
क्या कहा ? दिमाग पर जोर देकर लिखा था !
ReplyDeleteदिमाग पर जोर देकर ब्लॉगिंग ?
करके देखते हैं :)
फ़िर ब्लागींग की क्या जरुरत ? :)
ReplyDeleteरामराम.
@ वकील साहब, हमारे यहां कहा जाता है कि "उसकी तो आत्मा ही मर गई" शायद इसी संदर्भ मे आत्मा को निर्जीव कहने का तात्पर्य हो सकता है.
ReplyDeleteरामराम.
" काश सुनने वाला सुन ले .....
ReplyDeleteबहुत उदास है कोई तेरे जाने से...हो सके तो लौट आ किसी बहने से... तू लाख खफा सही मगर एक बार तो देख कोई टूट गया तेरे दूर जाने से...."
Regards
कुछ गीतो का रिश्ता दिल से जुड़ा होता है...
ReplyDeleteऔर हाँ आत्मा वाला पार्ट ठीक कर लेना.. वरना आत्मा भटकती रहेगी... :)
अच्छी बात है ......
ReplyDeleteटिपण्णी के लिए कुछ और सोचा था, आत्मा पर ही ध्यान चला गया. :-)
ReplyDeletevo bhi tipiya do abhishek bhai.. :)
ReplyDeleteबहुत उदास है कोई तेरे जाने से...हो सके तो लौट आ किसी बहने से... तू लाख खफा सही मगर एक बार तो देख कोई टूट गया तेरे दूर जाने से....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, बधाई।
ओह्ह भाई तुम दिमाग पर जो दे कर मत लिखा करो ..हमारे दिल पर पढ़ते पढ़ते बहुत जोर पड़ता है इस से :)
ReplyDeletelijiye sir ham aa gaye aapka utsaah wardhan hetu....lekin itni udaasi kyun bhai jaan?
ReplyDeleteही ही ही....
ReplyDeleteअच्छा भला प्रशांत भाई ने अपना दर्दे-दिल (अगर कोई हो तो) बयान किया था. एक लतीफा याद आ गया.
एक अंग्रेजी के मास्टर साहब कि कन्या अपने लड़का-मित्र(ब्वाय-फ्रेंड) के साथ टप ली. एक जनाब सांत्वना देने पहुंचे.
बोला-छोडिये भी, ईश्वर को यही मंजूर था.
गुरूजी बोले- मुझे उससे कोई समस्या नहीं. लड़के को जानता हूँ. अच्छे परिवार का है, मंदी के ज़माने में भी कमा रहा है....
जनाब बोले- तो दिक्कत क्या है?
गुरूजी ने कहा- दिक्कत ये है कि एक पन्ने का लव-लेटर छोड़ गई है, उसमें भी बारह स्पेलिंग मिस्टेक
द्विवेदी जी इतना सूक्ष्म विवेचन करते हैं कि कोई बदमाशी चलेगी नहीं.
खैर इतना बता देन कि पोस्टिया तो समझे में ना आई. अब जईसे-तईसे टिपिया रहे हैं....
हमें भी अच्छा नहीं लगा द्विवेदी जी का इस तरह डिस्टर्ब करना। बताओ जब कॊई तू ही तू को देख रहा हो उस समय भला बो स्पेलिंग देखेगा? तू ही तू से तू-तू ,मैं-मैं न हो जायेगी।
ReplyDeleteमैं तो
ReplyDeleteपूर्णतयः
काव्य धारा में
बह गया था .......
चेहरे पर
संजीदगी
छा गई थी
पर अब कार्तिकेय जी की
प्रतिक्रिया पढ़कर ठहाका लगा रहा हूँ ,,,,,,