पहला कमेंट ही कुछ ऐसा था जो PN Subramanian जी ने लिखा था, "रोचक अनुभव. करोड़ों दक्षिण भारतीय उत्तर में अपनी रोजी रोटी में लगे हैं. उन्हें कोई परेशानी नहीं है. लेकिन अब जब कुछ उत्तर वासियों को दक्षिण जाना पड़ रहा है तो बड़ा हाय तौबा मचा दिया, ऐसा क्यों? यह आपकी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है." मुझे बस यह समझ में नहीं आया कि मेरी मानसिकता का पता इतनी आसानी से वे कैसे लगा लिये और व्यक्तिगत आक्षेप लगाने में भी नहीं चूके.. मैंने कहीं भी ये नहीं लिखा था कि मुझे चेन्नई पसंद नहीं या तमिल से मुझे चिढ़ है.. मैं उन्हें उनका चिट्ठा मल्हार से जानता हूं और एक विवेकशील समझता था और अभी भी समझता हूं.. खैर, यह उनकी सोच है..
रंजना [रंजू भाटिया] जी ने लिखा, "रोचक अनुभव है यह ..पर अब जिस तरह से नौकरी के लिए कहीं भी जाना पड़ सकता है तो बिना किसी भेद भाव के वहां कि भाषा का ज्ञान हो तो अच्छा है.." बिलकुल सही कहा आपने.. मगर भाषा कोई भी हो, उसे सीखने में समय लगता है.. और जब बात तमिल की हो, जो एक ऐसी भाषा है जिसका देवनागरी लीपी से कोई संबंध नहीं है तो, ऐसे में उसे सीखने में उत्तर भारत से आये लोगों को समय लगता ही है..
रवि रतलामी जी ने अपना अनुभव भी सुनाया वेल्लोर शहर का.. मैंने अपने कालेज का समय वेल्लोर में ही बिताया है और कालेज में मेरे बैच में एक भी तमिल भाषी विद्यार्थी नहीं था.. अब ऐसे में पूरे ढ़ाई साल मुझे ना तो तमिल सीखने का मौका मिला और पूरा समय हिंदी और अंग्रेजी के सहारे ही बिताना पड़ा.. मैं अभी तक तमिलनाडु में जितने भी शहर में गया हूं उसमें वेल्लोर में ही सबसे अधिक हिंदी भाषी लोग मिले हैं.. क्योंकि वहां का व्यवसाय पूरी तरह से उत्तर भारत से आने वाले मरीजों और विद्यार्थियों पर निर्भर है..
कविता वाचक्नवी Kavita Vachaknavee जी ने कहा, "आपने जिस प्रकार के उदाहरण दिए हैं वे एकतरफ़ा हैं, मानो,जिसने तमिलनाडु तो क्या केवल मद्रास को भी पूरा ठीक ठीक पूरा नहीं जाना।" जी बिलकुल सही पहचाना.. अभी जानने सीखने कि प्रक्रिया से ही गुजर रहा हूं.. सच कहूं तो मैं अभी तक अपने जन्म स्थान दरभंगा को भी ठीक से नहीं जान सका हूं..
अनिल जी ने लिखा, "मेरा दोस्त तो तमिलनाडु में हिंदी बोलने पर पिट चुका है! कभी फुरसत से पढ़ियेगा।" उनके मित्र का अनुभव सच में बहुत भयावह है मगर फिर भी उनसे मेरा कहना है कि दोस्त, अच्छे और बुरे लोग तो हर जगह मिलते हैं.. अगर हम चंद बुरे तमिलभाषी लोगों के चलते हम पूरे तमिलभाषी को ही कठघरे में खरा कर दें हमारी मानसिकता और उनकी मानसिकता में कोई अंतर ही नहीं रह जायेगा..
चलते-चलते मैं अपना एक और अनुभव भी सुनाता चलता हूं.. मैं अभी तक जितने भी तमिल लोगों के संपर्क में आया हूं उसमें से अधिकतर स्वभाव के बहुत विनम्र हैं और मित्रवत भी हूं.. ऑफिस में भी अधिकतर ऐसा होता कि दोपहर के खाने के समय वे मुझसे टूटी-फूटी हिंदी में पूछते हैं, "खाना खाने चलो" और मैं उन्हें जवाब देता हूं, "पोलामा.."(मतलब चलिये)....
रोम में रोमन सा व्यवहार अपेक्षित है।
ReplyDeleteकुछ तो लोग कहेगे , कभी मीठी तो कब खट्टी .
ReplyDeleteमैंने आप का लेख पढ़ा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा , बाकि लोगों की राय है , उसपे मेरा और आपका कोई वश नहीं है .
दक्षिण भारत जाने का काम नहीं पड़ा अतः मुझे कोई अनुभव नहीं है. आप पूर्व में सिलचर तक हिन्दी के सहारे रह सकते है.
ReplyDeleteभाषा का विरोध राजनीतिक है...इससे ज्यादा कुछ नहीं...हमें सभी भारतीय भाषाओं को अपना मानना चाहिए.
संस्कृत सीख रहा हूँ, जब कहीं हिंदी का विरोध होगा, संस्कृत में बोल पड़ूंगा। तब देखेंगे क्या होता है।
ReplyDeleteहा हा अनिल की संस्कृत वाली बात मस्त है... पी डी यार सफाई की कोई जरुरत नहीं.. लिखते जाओ बस
ReplyDeleteआप लिखेंगे तो प्रतिक्रियाएँ तो आएँगी। उन की परवाह न करो। ब्लाग की विधा भी ऐसी ही है कि यहाँ बात लम्बी हो तो तीन चार कड़ियों के बाद समझ आने लगती है।
ReplyDeleteसबकी सुनो .. ब्लॉग पर भी और तमिलनाडू में भी.....और मस्त रहो.
ReplyDeleteन काहू से वैर, और सबसे दोस्ती (यही बेहतर तरीका है, पुराना ज्ञान फिर समझाने का).
किसी भी बातचीत में भाषा केवल 40% रोल अदा करती है, 60% तो भाव-भंगिमाओं का रोल रहता है. यह मैं नहीं कह रहा, रिसर्च कहती है. दुनिया बहुत बड़ी है और समय बहुत कम...मेरे जैसों कि बातों का जवाब देने का समय कैसे निकाल लेते हो - :)
A simple smile whithers away all bitterness.
मित्र,हमारा इरादा किसी भी प्रकार से आपको आहत करने का नहीं था और न ही कोई व्यक्तिगत आक्षेप जैसा आपने मान लिया है. लगता है हमने गलत शब्द का प्रयोग किया."आपकी" के बदले "हमारी" होना चाहिए था.
ReplyDeleteहमें आपके "तैरु सादम" को खीर समझ बैठना याद है और अच्छा लगा था.
अनिल जी वाला संसकृत बोलने का आईडिया थोडा अच्छा लग रहा है। लेकिन यह तभी तक काम करेगा जब तक भाषा को लेकर विरोध हो लेकिन जब मानसिकता रूप-रंग और व्यवहार को देख जबरदस्ती क्षेत्रवाद पर ठहर जायेगी तो संस्कृत वाली बोली मात खा जाने का डर है।
ReplyDeleteजो बचपन से ही जो बोली बोल रहा है उसे वह बोलना सहज लगेगा ही, दूसरी बोली कठिन तो लगती ही है. लोग तो हर जगह के अच्छे होते हैं बस राजनीति वाले सब बर्बाद किये दे रहे हैं जैसे मराठी के राज ठाकरे !
ReplyDeleteअनिल की बात अनिल ना माने?सब अनिल की तरह संस्कृत सिखने की बात कह रहे है तो हमको भी करना पड़ेगा।पीड़ी, फ़िकर नाट चलने दो बिंदास।
ReplyDeleteयह सारा राजनीतिज्ञों का किया धरा है।
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