अध्याय एक -
मेरा एक मित्र जब पॉडिचेरी घूम रहा था तब उसे एक ट्रैफिक पुलिस ने पकर लिया.. पुलिस का कहना था कि आप वन वे में हैं और मेरा मित्र का कहना था कि यहां कहां लिखा हुआ है कि यह वन वे है? उसने उसे साईन बोर्ड दिखाया जिसमे तमिल में लिखा हुआ था.. मेरे मित्र ने उसे कहा कि उसे तमिल कि समझ नहीं है, तो उस पर उस पुलिस वाले ने कमेंट करते हुये कहा कि तमिल नहीं आती तो तमिलनाडु में क्यों आये? मेरे मित्र ने उस समय उससे बहस के मूड में नहीं था लेकिन बाद में उसका कहना था कि अगर इन्हें हिंदी नहीं आती तो भारत में क्या कर रहे हैं? इन्हें श्रीलंका ही भगा देना चाहिये..
अध्याय दो -
यहां तमिलनाडु में रहते हुये हमने सबसे पहले एक से दस तक तमिल में गिनती सीख ली.. जब शुरूवात में चेन्नई आये थे तब मैं और मेरा मित्र शिवेन्द्र बस से ऑफिस तक का सफर साथ-साथ किया करते थे.. हम जब भी अंग्रेजी में कंडक्टर को कहते थे कि, "अन्ना टू टिकट!! पौंडिबाजार".. तो तमिल में उत्तर आता था.. एक दिन हममे से किसी ने टिकट के लिये कंडक्टर को तमिल में कहा, "अन्ना रंड टिकट!! पौंडिबाजार".. उधर से जवाब आया, "दो टिकट चाहिये?" ;)
(तमिल गिनती में रंड का मतलब दो होता है)
अध्याय तीन -
मेरी एक मित्र का हमेशा कहना होता है कि, "यहां बाजार में कहीं चलते हुये अगर् किसी को हिंदी बोलते हुये सुन लो तो झट से आंखों कि बत्ती जल जाती है.. अरे, ये तो नोर्थ इंडियन है.." ;)
जी हां, यह बिलकुल सच है.. यहां के लोग अपनी भाषा को बिलकुल पकर कर रहते हैं और किसी भी हालत में उसे छोड़ना पसंद नहीं करते हैं.. अगर उन्हें हिंदी आती भी है तो हिंदी ना समझने का नाटक करते रहते हैं.. वैसे अब धीरे-धीरे यह मानसिकता खत्म हो रही है.. खासतौर से उन लोगों का अनुभव जिन्हें हिंदी नहीं आती है और कभी उत्तर भारत चले गये हों तो उनकी परेशानी का कोई ठिकाना नहीं रहा था..
अभी कुछ दिन पहले यहां के एक लोकल समाचार पत्र में मैंने पढ़ा था कि अब यहां के लोग अपने बच्चों को तमिल के साथ-साथ हिंदी भी सिखाने के लिये आगे आ रहे हैं.. क्योंकि अब उन्हें भी समझ में आ रहा है कि इस ग्लोबलाईजेशन के समय में हो सकता है कि उनके बच्चों को उत्तर भारत में जाकर काम करना परे.. उस रिपोर्ट में यह भी था कि यहां के बुजुर्ग जो तमिल भाषा को बिलकुल पकड़ कर बैठे हुये हैं, वे इसे तमिल के ऊपर हिंदी का हमला मान रहे हैं मगर उनके पास भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है..
रोचक अनुभव. करोद्पों दक्षिण भारतीय उत्तर में अपनी रोजी रोटी में लगे हैं. उन्हें कोई परेशानी नहीं है. लेकिन अब जब कुछ उत्तर वासियों को दक्षिण जाना पड़ रहा है तो बड़ा हाय तौबा मचा दिया, ऐसा क्यों? यह आपकी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है.
ReplyDeleteरोचक अनुभव है यह ..पर अब जिस तरह से नौकरी के लिए कहीं भी जाना पड़ सकता है तो बिना किसी भेद भाव के वहां कि भाषा का ज्ञान हो तो अच्छा है ..
ReplyDeleteशायद तमिल के अलावा अन्य भाषा बोलने वाले लोगों की सहायता न करने की समस्या तमिलनाडु में ही सबसे अधिक है। बहुत पहले सन् 1981 में आंध्रप्रदेश में लगभग एक साल तक रहा और वहाँ से सभी क्षेत्रों में मेरा दौरा रहा किन्तु वहाँ इस प्रकार की किसी समस्या का मुझे सामना नहीं करना पड़ा था। वहाँ के लोग तो अपनी समझ के अनुसार हिन्दी बोलकर भी सहायता करने के लिये तत्पर रहते थे।
ReplyDeleteसही है मानसिकता अब बदल रही है। 1999 में जब चेन्नई में रहना शुरू किया तो मैंने भी भाषा के कारण बहुत परेशानी उठाई पर अब बात और है। फ़िर भी खट्टे मीठे अनुभव तो अब भी हो ही जाते हैं।
ReplyDeleteवाह, आपने मेरा अनुरोध स्वीकारा। धन्यवाद। अभी समय का अभाव है व कुछ दिन के लिए बाहर जाना है, आकर मैं भी कभी दक्षिण भारत के रोचक किस्से सुनाऊँगी।
ReplyDeleteसुब्रहमन्यम जी, मानसिकता तो थोड़ी गड़बड़ हो सकती है किन्तु मेरे जैसे लोगों ने तेलुगु सीखने का जी जान से प्रयास किया, यहाँ तक की तेलुगु ट्यूशन तक लगाई।
घुघूती बासूती
कथा उत्तम है। आगे पीछे हिन्दी तो सब भारतियों को अपनानी होगी, या कुएँ में रहना होगा।
ReplyDeleteकोई तीनेक साल पहले वेल्लूर गया था तो वहां के दुकानदार तमिल भाषियों को तरजीह देते थे. हम हिन्दी भाषियों को हिकारत की नजर से देखते थे और जबरन इंतजार करवाते थे. परंतु चेन्नई और बड़े स्थानों में इस तरह की समस्याएँ अब धीरे-2 समाप्त हो रही हैं.
ReplyDeleteकेरल के शहर से दूर के एक कसबे में एक दूकान पर हमें पॉँच युवक मिले. वे अपने लिए सिम कार्ड खरीद रहे थे. दूकानदार से मलयालम में बातें भी कर रहे थे. हमने देखा कि वे आपस में हिंदी बोल रहे हैं. बड़ी ख़ुशी हुई. पूछा कि वे क्या करते है तो उन्होंनेमलयालम में ही उत्तर दिया कि टाइल फैक्ट्री में प्रेस मशीन पर काम करते हैं. निश्चित ही अधिक पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन मोतीहारी से आकर केरल में मलयालम सीख कर जीना सीख लिया.
ReplyDeleteye samasyaa tamilnaadu mein jyada hai aur ye bhi ek rajneetik den hai
ReplyDeleteभाई जो आदमी रोजी रोटी कमाने कहीं भी जाता है वो धीरे धीरे वहां की भाषा अपने आप सीख जाता है, ये सब चिल्लपों राजनीती की रोटी सेकने की कसरत है. किसके पास फ़ुरसत है ये सब करने की?
ReplyDeleteरामराम.
"तमिल नहीं आती तो तमिलनाडु में क्यों आये?"
ReplyDeleteइसी मानसिकता ने तो आज देश को खंडित कर दिया है। क्षेत्रवाद, जातिवाद, लिंग -भेद .....सभी तरह से देश को बांटा जा रहा है!!!
कुछ लिखने आया था, टिप्पणीयों से मन खिन्न हो गया
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ReplyDeleteआपने जिस प्रकार के उदाहरण दिए हैं वे एकतरफ़ा हैं, मानो,जिसने तमिलनाडु तो क्या केवल मद्रास को भी पूरा ठीक ठीक पूरा नहीं जाना।
ReplyDeleteगान्धी जी द्वारा स्थापित व अब संसदीय अधिनियम द्वारा घोषित राष्ट्रीय महत्व की संस्था दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा ( चार राज्यों में) का मुख्यालय चेन्नई में है और अकेले तमिलनाडु से प्रतिवर्ष लगभग १५ से २० हज़ार छात्र हिन्दी की विविध परीक्षाएँ देते हैं।
दूसरी भाषा वाले प्रांत में ऐसी दिक्कतें आती ही हैं...लेकिन हिन्दी और अंग्रेजी तो कम से कम सभी को आना चाहिए ताकि दो भाषाएं तो कॉमन हों जिसमे सभी आपस में संवाद कर सके!
ReplyDeleteमेरा दोस्त तो तमिलनाडु में हिंदी बोलने पर पिट चुका है! कभी फुरसत से पढ़ियेगा।
ReplyDeleteमजेदार वृतांत सुनाए आपने।
ReplyDeleteपी.डी. अंकल इससे बचने के लिये मैं आजकल हिंदी सीख रही हूं.
ReplyDeleteसही कहा आपने
ReplyDeleteचीन अंग्रेजी सीख रहा है
और तमिलनाडु हिंदी
दुनिया बदल रही है
टिप्पणिया लेख को पता नहीं कहा ले जाती है.. बहरहाल बाते विचारणीय है सारी
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