अभी कल ही की बात है, अजित अंजुम जी ने अपने फेसबुक पर Absolute Honesty कि बात की थी.. उनका सवाल कुछ यूँ था :
वहाँ मैंने लिखा था :
Prashant Priyadarshi मैं कहूँगा.. आपने जितनी बातें लिखी हैं कम से कम उस पर अभी तक तो खड़ा उतर ही रहा हूँ.
Prashant Priyadarshi मैं फिलहाल डंके की चोट पर यह कह रहा हूँ क्योंकि मेरी तनख्वाह अभी उतनी तो है ही कि मुझे वह सब करने की जरूरत पड़े.. और मौके भी मिले हैं.. मगर अभी तक तो मैंने किसी तरह का Tax नहीं मारा है और ना ही कोई फर्जी बिल दिखा कर पैसे निकाले हैं.
हो सकता है कि अजित जी के कुछ पैमाने रहे हों Absolute Honesty की, मगर मेरी समझ में उनके मुताबिक मैं भले ही Absolute Honesty की कसौटियों पर खड़ा उतर रहा हूँ मगर खुद अपनी ही नजर में नहीं.. मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ कि किस-किस समय मुझे यह सिस्टम एवं समाज भ्रष्ट होने पर मजबूर किया था..
पहली घटना - एक दफे बैंगलोर में MG Road के पास मैं अपने दोस्त की मोटरसायकिल से गुजर रहा था, जब ट्रैफिक पुलिस ने मुझे हाथ देकर रोका.. पुरे दल-बल के साथ कम से कम 25-30 पुलिस वाले रहे होंगे.. जिसने मुझे हाथ देकर रोका था उसने मुझसे वाहन संबंधित सारे कागजात मांगे, जो मेरे पास थे और मैंने दिखाया.. उसे देखने के बाद उसने बोलना शुरू किया की "तुमने रेड लाईट तोडा(जबकि वहाँ कोई लाल बत्ती नहीं थी), तुम्हारी गाडी हाई स्पीड पर थी(मैं उस समय 30-35 से अधिक गति से नहीं जा रहा था), वन वे में उलटे तरफ से जा रहे थे(मैं सही था).." कुल मिलाकर लगभग ढाई हजार के जुर्माने कि बात की उसने.. उसने कहा की जाकर मजिस्ट्रेट से मिल लो(सनद रहे, कि सभी वहाँ मौजूद थे और सभी मिले हुए थे).. मजिस्ट्रेट का कहना था कि पहले थाने जाना होगा, इत्यादि-इत्यादि.. फिर एक पुलिस ने मुझे साईड ले जाकर मुझे कहा की 500 दे दो, तो तुम्हारे ढाई हजार बच जायेंगे और झंझट भी नहीं होगा.. मेरी चेन्नई जाने वाली बस छूट ना जाए इस कारण मैंने जो भी मेरे पास उस समय था वह ले दे कर वहाँ से पीछा छुडाना ही पसंद किया.. मैंने उस दिन 300 रूपये घूस दिए, जो अकारण ही थे.. यह लगभग ढाई साल पहले की घटना है..
दूसरी घटना - चेन्नई रेलवे स्टेशन के ठीक सामने वाले सिग्नल पर यू टर्न(U Tern) लेने की आज्ञा है.. लगभग साल भर पहले की घटना है.. U Tern लेने के लिए हरी बत्ती जल रही थी और मैंने U Tern लिया.. उसी वक्त मेरी गाड़ी बंद हो गई, और वापस शुरू करने में लगे 1-2 सेकेण्ड में ही ट्रैफिक पुलिस ने आकर मेरी गाड़ी की चाभी निकाल ली.. और फिर से वही सब शुरू हो गया जो बैंगलोर में हो चुका था.. तब भी मेरे पास सारे कागज़ थे, मगर पिछले बार के अनुभव से जो मैंने सीखा था वह यह की सीधा सौ की पत्ती पकड़ा दो, कम से कम दो सौ बचेंगे..
तीसरी घटना जो कई दफे घट चुकी है - अब जब कभी ट्रैफिक पुलिस हाथ देती है रोकने के लिए तो बिना रुके वहाँ से आगे बढ़ जाता हूँ, ऐसे दिखाते हुए की मैंने देखा ही नहीं कि उसने रूकने के लिए कहा था.. क्योंकि अंजाम मुझे पता है.. दीगर बात यह है कि मैं अपने सारे कागजात अब भी साथ रखता हूँ..
चौथी घटना - लगभग दस साल पहले कलकत्ता से दुर्गापुर जाते समय बिना टिकट यात्रा की थी.. वह यात्रा भी मजबूरीवश करनी पड़ी थी.. मुझे जल्द से जल्द दुर्गापुर पहुंचना था, और सबसे पहले आने वाली ट्रेन "कालका मेल" थी जिसका यात्री स्टेशन दुर्गापुर नहीं था, वह ट्रेन वहाँ अपने कर्मचारी बदलने के लिए रूकती थी.. जब मैंने कलकत्ता के टिकट खिडकी पर 'मेल' ट्रेन के लिए दुर्गापुर तक का टिकट माँगा तो उसने कहा कि आज सिर्फ एक ही 'मेल' ट्रेन वहाँ से होकर जाती है, मगर उसका स्टेशन वहाँ का नहीं है.. तुम्हें आगे तक का टिकट लेना होगा.. मेरे पास आगे के स्टेशन तक के देने के लिए पैसे नहीं थे, सो मैंने बहुत आग्रह किया की जनरल टिकट पर तो ट्रेन का नाम नहीं होता है.. आप कृपया टिकट दे दें.. अंततः टिकट नहीं मिलने की स्थिति में मैं बेटिकट यात्रा किया..
फिलहाल अपने इतने ही कुकर्म याद आ रहे हैं जब मैंने कानूनी रूप से कुछ गलत कार्य किया था.. कुछ किस्से हर किसी पास होंगे, यहाँ बांचे कि कब आपने मजबूरीवश कोई क़ानून तोडा हो अथवा भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया हो!!
हम सिर्फ सुनेंगे.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया अभी तो रिश्वत देने के लिये जिंदगी पड़ी है, नहीं देंगे तो काम आसानी से नहीं होंगे या होंगे ही नहीं, क्योंकि हमारे पास समय नहीं है। अगर इंतजार करेंगे तो रिश्वत से ज्यादा तो हमारा नुक्सान हो जायेगा।
ReplyDeleteवैसे हमने भी एक पोस्ट लिखी थी,मैंने आजतक कितनी रिश्वत दी उसका हिसाब (जितना याद आया) जिसमें आपने लिखा था कि २५० रुपये रिश्वत दी है, हिसाब रखिये हमारा आंकड़ा तो डेढ़ लाख से ऊपर पहुँच चुका है।
हम तो चार्टड एकाउन्टेन्ट ठहरे...धंधे की बात है...कहाँ तक बतायें? :) इसलिए सिर्फ सुन रहे हैं.
ReplyDeleteपहली और दूसरी घटनाओं में आप ने कोई घूस नहीं दी। वह वर्दी वाले लुटेरों की लूट थी और आप लूटे जा रहे थे।
ReplyDeleteतीसरी घटना लूट से बचने का उपक्रम मात्र है, वहाँ भी भ्रष्टाचरण नहीं है।
चौथी घटना में भी भ्रष्टाचरण नहीं है। विपत्तिकाल में कुछ नियम अपवाद होते हैं।
मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था, पिताजी को अक्सर खंड मुख्यालय जाना होता था। जो हमारे स्टेशन से अगला ही होता था। वे वहाँ से वापसी में टिकट न ले पाए। रेल स्टाफ सब उन्हें जानता था। उन्हें बिना टिकट आना पड़ा। लेकिन अपने स्टेशन पर उतरते ही उन्हों ने टिकट खरीदा और फाड़ कर फैंक दिया। मैं गर्व से इस घटना को कई दिनों तक अपने साथियों को सुनाता रहा। जब कि उस में गर्व की कोई बात नहीं थी।
कई बार किया है हमने गलत काम...हाँ बिना टिकट यात्रा भी कई बार किया है....एक बार मेरे पास मात्र 50 रूपये बचे थे और मुझे देल्ही से घर जाना था अपने सारे दोस्तों से उधारी मांग के थक जाने के बाद ....गुस्से में आ कर बिना टिकट मैने देल्ही से घर तक आया हूँ....इसके अलावें अल्ल्हाबाद से तो कई बार बिना टिकता हमने यात्रा की है...लेकिन बात वही है जब भी की है किसी वजह से मेरे पास टिकट लेने भर के लिए पैसे नहीं थे या फिर मैं पेड़ों का इन्तेजाम नहीं कर सका था...
ReplyDeleteहाँ कई बार आपको सर्टिफिकेट बनवाने के लिए भी सुविधा शुल्क की गोली देनी पड़ी है..उब करके खुद मुहरें बनवा कर हमने फर्जी सिग्नेचर कर फॉर्म जमा कर दिए थे...
जो मजबूरी का फायदा उठाये, वह पापी है। यदि आप को लगता है कि आप मजबूर थे उनके सामने तो भार स्वतः कम हो जाता है।
ReplyDeleteइस लेख का आशय कहीं यह तो नहीं है कि 'हम सभी भ्रष्ट हैं' हमें भ्रष्टाचार पर कुछ नहीं बोलना चाहिये; हम डूब मरना चाहिये।'
ReplyDeleteमैं इस तरह की तर्कावली के बजाय यह कहूँगा कि भ्रष्टाचार की कई श्रेणियाँ हैं; अधिकांश जनता उस श्रेणी में आती है कि वे मजबूरी में भ्रष्ट आचरण अपनाते हैं। बड़ा भ्रष्टाचारी यही तो चाहता है कि सबको लगे कि सभी भ्रष्ट हैं। पेंसिल चुराने वाले और टैंक चुराने वाले समान चोर नहीं हैं। दुनिया का कोई भी कानून सभी अपराधों के लिये और सभी परिस्थितियों में समान दण्ड निर्धारित नहीं करता।
कमाल है! इसीलिए मैं फेसबुक की ओर झांकता भी नहीं. फोकट की बेबुनियाद, रद्दी बहस चलती है. गली चौराहों की पानठेलों में होती बहसों की तरह.
ReplyDeleteअजित अंजुम जैसों को बताओ कि भारत की अधिकांश जनता (जो गरीबी रेखा के आसपास, ऊपर-नीचे है) एब्सल्यूट ऑनेस्ट है, क्योंकि उसके पास डिसऑनेस्ट होने के लिए न साधन है, न पैसा और न ही ललक!
जनता कभी भी डिसऑनेस्ट होने के लिए जेनेटिकली प्रोग्राम्ड नहीं है, और न ही वो बॉर्न डिसऑनेस्ट होता है. सिस्टम से लड़कर, थक हार कर वो डिसऑनेस्ट बनता है. - और ये बात तो हर कोई जानता है.
देखा गया कि प्रशांत के दिये घूस के पैसे क्रमश कम होते हुये शून्य हो गये। इससे साबित होता है घूस कम हो रही है और समाज ईमानदार हो रहा है। :)
ReplyDelete@ विवेक रस्तोगी जी - वहाँ मैंने 250 लिखा था जो सही भी था.. क्योंकि पहली घटना में मैंने 150 दिए थे और 150 मेरे मित्र ने जो मेरे पीछे बैठा था..
ReplyDelete@ समीर जी - साथ बनाए रखें.. :)
@ दिनेश जी - मैं भी शायद वही सोच रहा था, मगर प्रकट नहीं कर पाया.. आपने उसे शब्दों का रूप दे दिया.. धन्यवाद..
@ अन्जुले - कालेज के समय मेरे सारे मित्रों का सर्टिफिकेट को अटेस्ट मेरे पापा या फिर भैया किया करते थे.. जब पापा-भैया पास नहीं होते थे तब वे सब भी नकली स्टाम्प लगा कर खुद ही हस्ताक्षर किया करते थे.. कुछ की तो मजबूरियां थी, और कुछ आलस के मारे थे..
@ प्रवीण जी - सहमत..
@ अनुनाद जी - इस लेख का आशय यह कटाई नहीं है की "हम सभी भ्रष्ट हैं' हमें भ्रष्टाचार पर कुछ नहीं बोलना चाहिये; हम डूब मरना चाहिये।'" मैंने तो बस अपने मन की बात कही और आप सब से जानना चाहा कि कब और किस हालत में मजबूरीवश हम सभी क़ानून का पालन ना कर सके, जबकि हम करना चाहते थे..
@ रवि जी - आगे अंजुम जी ने आगे लिखा है की अगर आपको कभी भ्रष्ट आचरण करने का मौका ही ना मिला(चाहे वह किसी भी वजह से हो) हो तो आपसे निवेदन है की इस बहस से दूर रहें.. उन्होंने वह सवाल उनसे पूछा था जिन्हें मौका मिला हो, मगर वे उसका फायदा ना उठाये हों..
वैसे आपकी बात मान कर(मेल वाली बात) हम भी रेगुलर होने का प्रयास कर रहे हैं.. :)
@अनूप जी - ये भी तो कह सकते हैं कि प्रशांत समय के साथ स्मार्ट होता जा रहा है.. :D
अजीब-सी पोस्ट कि पढ़ कर मन कैसा कैसा हो गया...राजेश खन्ना "रोटी" में गाते हुये याद आ गए ॥"पहला पत्थर वो मारे...जिसने पाप न किया हो"
ReplyDeleteअपने बारे में सोचता हूँ तो तुम्हारे संसमरण जैसे जाने कितने वाकिए याद आते हैं....वैसे मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कई बार भ्रष्टों से निपटने के लिए खुद भी भ्रष्ट होना निहायत ही जरूरी हो जाता है| शेष रविरतलामी जी की टिप्पणी ने मन खुश कर दिया |
बाबु, एक किस्सा मेरा भी सुन ही लो..
ReplyDeleteपिछले साल जनवरी की बात है.मेरे कुछ मार्क्सकार्ड और सर्टिफिकेट हैदराबाद से आते वक्त चोरी हो गए थे.लैपटॉप वाले बैग में रखा था मैंने...शायद जिसने लिया हो वो ये सोच के हाथ मार लिया होगा की लैपटॉप मिलेगा..खैर,
बैंगलोर में संजय नगर पुलिस थाने में जब मैं रिपोर्ट लिखाने पहुंचा तो मुझसे सीधे सीधे 600 रूपये ले लिए गए.और उस समय वहां पे सभी सीनिअर, जूनियर इन्स्पेक्टर मौजूद थे..कूल मेरे दसवीं से लेकर इंजीनियरिंग तक के मार्क्सकार्ड और कुछ सर्टिफिकेट भी चोरी हो गए थे, तो उन्हें देना ही पड़ा...
कभी बात होगी तो पूछ लेना, बता दूंगा :) वैसे तुम्हारे ही लेवल के हैं हम भी.
ReplyDeleteमेरा एक कार लोन नवंबर में खत्म हुआ.. लोन खत्म होने पर आर सी में 'हैपोथेकेशन' हटाना था.. और ये ९० दिन में करना था... फरवरी में जब दिल्ली गए तो सोचा पहला काम ये किया जाए.. सोचा १० मिनिट का काम नै.. आर सी है और बैक की चिट्ठी है.. ये काम कितना मुश्किल है इसका पता चला जब में २२ किमी चल के द्वरका से शेखसराय आर टी ओ ऑफिस पहुंचा... पता चला इसके लिए इंसोरेंस चाहिए, पी ओ सी चाहिए.. ये सब तो था... पर समस्या आई.. एड्रेस प्रूफ की.. और एड्रेस प्रूफ उस घर का जो आर सी में लिखा था.. और वो घर तो में दो साल पहले खाली कर चुका.. अब ये कहाँ से पैदा किया जाए.. मूर्खता ये की की उस पते से एक सरकारी बैंक में खाता था.. कभी इस्तेमाल नहीं करता था तो उसे बंद करवा दिया.. हम तो अटक गए.. कुछ नहीं सुझा तो एक कंसल्टेट की सेवाए ली... ३००० रु फीस दी.. और उसने दो/तीन सप्ताह बाद हमें नई आर सी थमा दी..
ReplyDeleteवैसे कंसल्टेंट को 'दलाल' भी बोलते है...:)
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