शनिवार का दिन है, दफ्तर में अकेला बैठा हुआ हूँ.. कोई मजबूरी नहीं, बहुत अधिक काम नहीं.. अगले हफ्ते शुक्रवार की छुट्टियों के इंतजामात करने के लिए आज दफ्तर में हूँ.. एक डिफेक्ट है, बहुत आसान सा, मगर उस पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा हूँ.. उसे ऐसे ही छोड़ रखा है, पता है कि कितना भी दिमाग खराब करूँ, अब आज नहीं होने वाला है तो नहीं ही होगा, बाद में देखा जायेगा इसे.. घर जाने की भी इच्छा नहीं हो रही है..
चेन्नई एक ऐसा शहर है जहाँ आप कहीं भी चुपचाप अकेले बैठ कर समय गुजारने के बारे में नहीं सोच सकते हैं, हर जगह लोगों की रेलमपेल इतनी अधिक होती है और साथ में इतनी गर्मी की अगर वहाँ पंखा ना हो तो आप एक जगह टिक ही नहीं सकते, खासतौर से जब अकेले हों.. कुल मिलाकर एक ही जगह बचती है, समुद्र तट, और वहाँ भी जाने की इच्छा नहीं है.. घर जाना नहीं चाह रहा हूँ क्योंकि अभी किसी मित्र के साथ का इच्छुक नहीं हूँ..
चश्मे की दूकान पर जाना है, चश्मे का नया फ्रेम बनवाना है, पुराना इतनी बुरी तरह खराब हो गया है की आप उसकी तुलना किसी एंटीक पीस से कर सकते हैं, और ऊपर से बहुत सारे स्क्रैचेज चश्मे के शीशे पर.. बहुत दिनों से टाल रहा था, मगर आज सुबह घर से ठान कर निकला था की लौटते हुए आज नये के लिए ऑर्डर दे ही दूँगा.. मगर अब लग रहा है आज भी यह टल जायेगा.. दफ्तर से निकल कर उस चश्मे की दूकान के अलावा एक दो जगह और भी जाना था, मगर वहाँ जाने की भी इच्छा अब नहीं हो रही है.. तब जबकि जरूरी सभी कुछ है.. घडी की बैटरी खत्म हो गई है.. लैपटॉप की दूकान पर जाकर कुछ पूछताछ करनी है.. कुछ सामान किसी शौपिंग मॉल से जाकर लानी है.. ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह..
कुछ दिन पहले एक अच्छी खबर पर मन इतना खुश था की कोई बेहद अजीज पास होता तो गले से लगाकर खुशी जाहिर कर देता.. चाहे घर के लोग या दोस्त.. कुछ लोगों को फोर करके खुशी बांटी, मगर आस पास कोई नहीं.. पिछले सात-आठ साल से अकेला रहने की वजह से अकेला रहने की इस कदर आदत हो चुकी है कि किसी का लगातार साथ मुझे घबरा सा देता है.. इस व्यवहार में कुछ बदलाव तब आया था जब अभी ढाई महीने घर पर लगातार रहा.. मगर फिर चार-पाँच महीने में वैसा ही होता जा रहा हूँ.. कई महीनों बाद सिगरेट पीने की बेवजह तलब सी लग रही है.. मन में आ रहा है की बीस सिगरेट वाला डब्बा खरीद कर एक ही बार में सारा पी जाऊं.. यू नो, चेन स्मोकिंग? आगे देखता हूँ तो लगता है कि समय कि रफ़्तार कितनी धीमी है, मगर पीछे मुड कर देखता हूँ तो लगता है कि इसकी रफ़्तार सी तेज कुछ भी नहीं, प्रकाश कि गति को भी ये मात दे दे.. हर वह बात जो बस कल की ही लगती है, दरअसल बरसों पुरानी बात हो चुकी होती है..
अभी दफ्तर से बाहर निकलूंगा भी तो ट्रैफिक इतनी अधिक होगी कि गाड़ी चलानी मुश्किल.. हद्द है, सडकों पर भी चैन नहीं.. ऊपर से T.Nagar से आने-जाने का रास्ता!! लोग ऐसे लुधके होंगे दुकानों में जैसे आज नहीं लेंगे तो सारा सामान हमेशा के लिए खत्म ही हो जायेगा..
ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह.. ब्लाह..