चलिये मैं आपको बताता हूं कि कैसी रही मेरी दीपावली..
जब आप घर से 2500 किलोमीटर दूर अकेले, अपने दोस्तों के साथ होते हैं और कोई खास पर्व आपके सामने होकर गुजर जाता है तो यह पल बहुत चुभते हैं.. बस वैसी ही रही मेरी भी दीपावली.. बचपन को याद करके नौस्टैल्जिक भी खूब हुआ.. मुझे याद आ रहा था कि कैसे मैं घर के सबसे छोटे सदस्य कि भूमिका बखूबी निभाता था.. मिठाई और पटाखों कि लंबी सूची बनाता था.. कई बार घर के लोग मना भी करते थे कि इतने पटाखे मत लो.. ये बस पैसे कि बरबादी है.. मगर अधिकतर मेरी मांगे पूरी हो ही जाती थी.. जो मांगें पूरी नहीं होती थी उनके बारे में मैं सोचता था कि बड़ा होकर खूब मस्ती करूंगा.. जैसे बड़े होने पर लोगों के पास पैसे अपने आप आ जाते हैं.. अब दुनिया की नजर में बड़ा भी हो चुका हूं, पैसे भी कमाने लग गया हूं.. मगर ना जाने कहां से एक संकोच कि दिवार भी खड़ी हो गई है.. पैसे आने पर उसे बचाने का भी सोचने लगा हूं.. यह बात और है कि कुछ बचता नहीं है.. :)
सबसे ज्यादा तब अखरा जब मन में पटाखे खरीदने कि इच्छा भी नहीं हुई.. डर सा गया.. कहीं यह बड़ा होने कि निशानी तो नहीं है? कहीं मैं बड़ा तो नहीं हो गया हूं? बचपन तो बचपन, 20 साल का होने के बाद भी चुटपुटिया चलाने वाली पिस्तौल हर दीपावली पर खरीदना नहीं भूलता था.. अपने अपार्टमेंट के कुछ बच्चों को उसे चलाता देख अच्छा लगा.. लगा जैसे कि बचपन अब भी वैसा ही है जैसा आज से 20 साल पहले हुआ करता था..
पिछले साल कि दीपावली भी याद आई, जब मैं 3 साल के बाद दीपावली में घर पर था.. मगर मेरे लिये वो दीपावली इसलिये खास थी क्योंकि भैया कि शादी के समय मैंने नयी-नयी नौकरी करनी शुरू कि थी जिस कारण छुट्टी नहीं मिल रही थी और मैं बिलकुल मेहमान कि तरह 2 दिनों के लिये घर गया था.. भाभी से ठीक से बाते भी नहीं कर पाया था.. अब उसके बाद पहली बार घर जा रहा था और वो भी दीपावली मे.. अब मुझसे ज्यादा खुश और कौन हो सकता था?
यूं तो मैं पूजा-पाठ से कोशों दूर रहता हूं मगर पिछले साल दीपावली में पूजा के समय आरती बहुत मन से गाया था.. आरती गाने के पीछे कारण श्रद्धा नहीं बल्की गीत था जो मैं गा रहा था.. उस आरती वाले विडियो का प्रयोग इस दीपावली में बखूबी हुआ.. घर में बस शिवेन्द्र ही था जिसके हिस्से पूजा-पाठ करने कि जिम्मेदारी थी, मगर उसे लक्षमी-आरती याद नहीं थी और उस खाली स्थान को मेरे गाये पिछले साल के आरती वाले विडियो से भरा गया..
अक्सर घर में साफ सफाई चलती ही रहती है खासकर तब से जब हमारे घर में खटमलों ने हमला बोला था मगर अब हम उस हमले को पूरी तरह से नेस्तनाबूत कर चुके हैं.. :) मगर उस दिन पूरे घर कि सफाई सुबह उठ कर मैंने और मेरे मित्रों ने कि.. अपना घर सजाने के लिये ना जाने कितने ही मकड़ियों का घर उजाड़ दिया.. दोपहर में अफ़रोज़ भी आ गया.. घर में गैस पिछले 2-3 दिनों से नहीं था और किसी के पास ऑफिस से उतना समय नहीं मिल रहा था कि गैस भराया जाये, सो यह काम भी उसी दिन करना था.. उत्तर भारत में दीपावली के दिन लोग अपनी दुकानें खुला रखते हैं और उनके बीच यह मान्यता है कि दुकान जितना चलेगा, लक्ष्मी उतना ही घर में आयेगी.. मगर उसके ठीक उलट यहां लोग अपनी दुकाने बंद किये हुये थे.. घर के पास वाले जिस होटल में हम खाते हैं, वो भी बंद था सो दुसरे होटल में जाना परा.. गैस वाले ने गैस तो रख ली मगर बोला कि आज ही दे पाना संभव नहीं होगा.. सो उस दिन बिना गैस के ही काम चलाना पड़ा..
सांझ ढलते-ढलते प्रियंका भी घर आ गयी.. फिर शिवेन्द्र और प्रियंका जाकर कुछ दिये और मोमबत्ती का इंतजाम भी कर आये.. थोड़ी देर बाद प्रियंका अपने घर पूजा करने चली गयी.. रात में जितनी थोड़ी सी गैस बची हुयी थी उससे मैगी बनाई फिर सो गये.. जहां फोन पर बधाईयां देनी थी वह भी दे डाला मगर बाहर से फोन कम ही आये, क्योंकि उत्तर भारत में दीपावली अगले दिन था..
अब सोचता हूं तो लगता है कि कैसे किसी पर्व-त्योहार पर पापा-मम्मी हमारी लगभग हर मांग पूरी करते थे? उनके पास कोई कुबेर का खजाना तो था नहीं.. वही बंधा-बंधाया वेतन मिलता था.. पांचवे वेतन आयोग के आने से पहले तो बहुत ही कम हुआ करता था.. अब पाता हूं कि हमारी हर मांग को पूरा करने के लिये वो कहीं ना कहीं अपने भविष्य कि योजनाओं में कटौती करते रहे होंगे.. क्योंकि अब समझ गया हूं, बड़े होने पर पैसा अपने आप नहीं चला आता है.. उसके लिये मेहनत करनी होती है..
अभी मैं सोच रहा था कि डा.अनुराग जी जैसे ही कोई त्रिवेणी हम भी अंत में लगाते हैं.. कुछ अजीब सा बन पड़ा जो मैं नहीं लिखने वाला हूं.. उम्मीद है डा.साहब ही अब इसका इलाज करेंगे.. :D
ट्राई तो कर त्रिवेणी लिखने का.. देखें तो जरा.
ReplyDeleteकर को करो पढ़ना..भाई.
ReplyDeleteअब पाता हूं कि हमारी हर मांग को पूरा करने के लिये वो कहीं ना कहीं अपने भविष्य कि योजनाओं में कटौती करते रहे होंगे.. क्योंकि अब समझ गया हूं, बड़े होने पर पैसा अपने आप नहीं चला आता है.. उसके लिये मेहनत करनी होती है..
ReplyDeleteसही में जब ख़ुद पर बीतती है तभी हर बात समझ आती है ! बहुत बढिया लिखा ! डा. अनुराग जी की देखादेखी हमने भी खूंटा गाड़ दिया ! आप काहे शर्मा रहे हैं ? जैसे भी लिखा गया उसको छाप दीजिये ! यहाँ सब घर वाले ही हैं ! शरमाना कैसा ? :)
ठीक है जी.. उसे अगले पोस्ट में डालेंगे.. आप लोग पढ़ लिजियेगा.. बस हंसियेगा मत.. :)
ReplyDeleteदीपावली ठीक रही! पर घर से बाहर होने पर मन न जाने कैसा कैसा रहता है और बच्चे बाहर रहें तब मां-बाप का भी।
ReplyDeleteआप वाकई बड़े हो चुके हैं। लेकिन बचपना जितना बाकी है उसे सहेज कर रखना भी जरूरी है, वरना जीवन बहुत मुश्किल हो जाता है।
बालक, जल्दी बड़े हो रहे हो! :)
ReplyDeleteदीवाली सचमुच ऐसा त्यौहार है जब घरवाले भी अगर बच्चा बाहर हो उसकी उम्मीद करते है....होस्टल में एक दो साल हमने भी ऐसे गुजारे थे ओर इस दर्द को महसूस किया था ...अब लगता है एक उम्र में आकर माँ बाप को आपकी जरुरत ज्यादा महसूस होती है फ़िर भी वे आपको उड़ने के लिए खुले आकाश में छोड़ देते है......
ReplyDeleteत्रिवेणी की एक खास डेफिनेशन है...गुलज़ार ने अपनी एक अलग किताब त्रिवेणी लिखी है जिसमे उनकी त्रिवेणी ही त्रिवेणी है ..कमलेश्वर ने सबसे पहले अपने सारिका के सम्पादकीय दौर के समय में उनकी त्रिवेनिया छापी थी ....कभी मौका मिले तो खरीद कर पढ़ना....उनकी लास्ट कैसेट जो जगजीत सिंह के साथ है ....पहली बार कुछ त्रिवेनियों को उनमे गाया गया है ....इसकी आखिरी लाइन पञ्च लाइन होती है.. ...
भाई साहब, पटाखे न छुडा पाने का अफ़सोस न पालिए, सिर्फ़ इस वज़ह से कोई माई का लाल आपके बचपने पर प्रश्नचिह्न नहीं उठा सकता... निश्चिंत रहिये आपके लेखों में बचपने की मासूमियत पूरी शिद्दत के साथ जिंदा है.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लिखा आप ने अपने दिल का दर्द.... पहले पहले हमे भी बहुत दर्द होता था, फ़िर आदत हो गई या हम पत्थर दिल हो गये या फ़िर हमारी भावनेय मर गई, फ़िर शादी हुयी, बच्चे हुये ओर अब बच्चो मै अपना बचपना देखते है,ओर बच्चे भी वही बाते करते है जो हम करते थे.
ReplyDeleteThankx to everyone..
ReplyDelete@कार्तिकेय जी - दुःख इस बात का नहीं की पटाखे नहीं छुडा पाए.. दुःख इस बात का हुआ की पटाखे छुडाने का मन ही नहीं किया..
@डा.अनुराग जी - मैं यह किताब ढूंढता हूँ.. मगर यह तो पक्की बात है की यहाँ चेन्नई में नहीं मिलने वाली है.. :)
@समीर जी - आपका पहला कमेंट "ट्राई तो कर त्रिवेणी लिखने का.. देखें तो जरा."
दूसरा कमेंट "कर को करो पढ़ना..भाई."
सर आपके पहले कमेंट में आदेश झलक रहा है और दुसरे में आग्रह.. आप मुझे आदेश ही दें तो मुझे ज्यादा अच्छा लगेगा.. :)
@दिनेश जी - जी आपसे मैं सहमत हूं..
@ज्ञान जी - आप लोगों का सानिध्य पा कर बड़ा हो रहा हूं.. :)
@ राज जी - जी धन्यवाद..