चौकन्नी निगाह हर वक्त, चाहे परिक्षा कक्ष हो या घर। कोई आ तो नहीं रहा है। कोई देख तो नहीं रहा है। शायद किसी की निगाह मुझे चोरी-छिपे देख रही है। कौन है? अरे ये तो अपने ही कक्षा का छात्र है, देखने दो। ये मेरा क्या बिगाड़ लेगा मेरा। अगर किसी को कुछ बोला तो बाहर ना देख लूंगा इसे!! मेरा डर तो होगा ही इसे। अगर नहीं होगा तो आज हो जायेगा।
जूते में पुरजी। मोजे में पुरजी। पेंसिल बक्से में भी अलग-अलग तह बना कर रखा हुआ पुरजी। स्कूल के पहचान पत्र में भी पुरजी। बेल्ट में घुसी हुई पुरजी। छोटे-छोटे अक्क्षर में पुरजी बनाने का अभ्यास भी तो करना पड़ा था। कितनी मेहनत का ये काम था वो इसे करने वाला ही समझ सकता है।
संस्कृत, हिंदी और समाज-अध्ययन तो फिर भी बिना चोरी के पास कर लेता था पर अंग्रेजी, मैथ और साइंस का बेरा कैसे पार हो ये समझ में नहीं आता था। फलतः बस एक ही उपाय दिखता था, नकल।
ये कहानी मैं सुना रहा हूं अपने बचपन की जब मैं कक्षा आठवीं में पढता था। अचानक से अंग्रेजी का हौवा मेरे सामने कक्षा छः से आ गया था जो भागने का नाम ही नहीं ले रहा था। पांचवी कक्षा तक अपने स्कूल के सबसे होनहार छात्रों में से एक छात्र को नकल ही एकमात्र उपाय नजर आ रहा था। मैं आठवीं कक्षा में शत-प्रतिशत चोरी करके किसी तरह 50% से ज्यादा अंक लाने में सफल रहा था, पर वो घटना मुझे जीवन के कई पाठ सिखा गई थी।
उस दिन दीदी को पेंसिल बाक्स की जरूरत पड़ी थी और मैं अपनी परीक्षा के बाद से उस पेंसिल बाक्स से सारे चिट-पूर्जे ठीक से नहीं निकाल कर फेंक नहीं पाया था। एक तरफ मेरे हाथ में मेरा वार्षिक परीक्षाफल था जो पिछले 2-3 सालों में सबसे बढिया था और दूसरी तरफ भैया मुझे आकर ये बता रहे थे की मेरी चोरी पकड़ी गई है और घर में सभी को पता चल गया है।
मैं भाड़ी कदमों से चलते हुये घर पहूंचा और सोच रहा था की मुझे अभी बुलाया जायेगा और जमकर डांट पड़ेगी शायद मार भी परे। मैं इंतजार करता रहा मगर कहीं से कोई बुलावा नहीं आया। किसी ने कुछ नहीं कहा, कुछ भी नहीं। यहां तक बात भी नहीं की उस बारे में। और ना ही परीक्षाफल के बारे में पूछा गया।
मैं शर्म से गड़ा जा रहा था। बाद में मैं खुद जाकर पापाजी से रोते हुये इसके बारे में कहा और उन्होंने समझाया की "किसी भी चीज को पाने के दो रास्ते होते हैं, एक गलत राह जो बहुत आसान होता है मगर उस पर चल कर मंजिल तक नहीं पहूंचा जा सकता है और दूसरा संघर्ष का राह जिस पर चलकर हम कहीं भी पहूंचे लगता है कि यही मंजिल है।"
उस घटना के बाद से मैंने परीक्षा में चोरी करनी बंद कर दी। कई बार गिरा फिर खुद संभला। मगर उनका कहा कभी भूला नहीं। शायद आसान राह चुनता तो मैं आज जहां कहीं भी हूं वहां तक पहूंचना मेरे लिये एक सपना के अलावा और कुछ नहीं होता।
मेरे पापाजी मेरे आदर्श हैं, मैं हमेशा उनके जैसा ही बनना चाहूंगा। वो भी विद्यार्थी जीवन में एक साधारण छात्र थे पर अपनी मेहनत से उन्होंने अपने जीवन में जो भी चाहा उसे पाया।
खुद गलती का अहसास करना सबसे बड़ी बात है।
ReplyDeletewhat I will say that you are not good at it, I never dared to do that.. but I personally know few guys/girls.. thay were master at it.. any way.. have you watched bollywood movie "Gulam" starring Amir khan.. one dialouge is there.. I follow that..watch it and let me know..
ReplyDeleteआप सुधर गए! ईसके लीये बधाई!!
ReplyDeleteमेरे लीये परचा चलाना मजबुरी हो जाती है क्यो की मुझे उस वक्त दो रासते दीखते हैं पहला >> परची चलाओ वर्ना फेल। दुसरा रासता >> पुरा साल बर्बाद हो जाएगा और वैसे भी 1st और 2nd टर्म मे चीटीग नही कीया है फाईनल मे तो करना ही पडेगा।
करो या मरो।
मै भी ईस आदत को आज से छॊड देता हुं अब पढ के जाऊंगा।
शाबास कुन्नू सिंह को, आदत छोड़ने के लिये
ReplyDeleteऔर बधाई, 12वीं में पहुँचने की।
मेरी शुभकामनायें उनके साथ रहेंगीं।
… और प्रशान्त, पापाजी के लिये आपकी भावना देखी।
आप देखें
http://pati-patni.blogspot.com/2007/07/blog-post.html