Tuesday, October 07, 2008

२४ घंटे, जो ख़त्म होता सा ना दिखे

मेरे मित्र अमित द्वारा

अमूमन मैं इतना लम्बा नहीं लिखता हूँ.. उतना धीरज ही नहीं है की लिखू.. पता नहीं क्यों आज लिखने का मन कर रहा है और आज लिख रहा हूँ.. इससे पहले भी मेरे साथ बहुत साड़ी अजीबोगरीब घटनाएं हो चुकी हैं.. मगर आमतौर से मैं बांटता नहीं हूँ और बांटता भी हूँ तो बहुत कम लोगो से..

शुरु से शुरु करते हैं.. पहले मैं हरेक दूसरे हफ्ते या हर हफ्ते बैंगलोर जाया करता था.. पर इस बीच में हालत कुछ ऐसे हो गए कि मैं लगभग एक-दो महीनों से बैंगलोर नहीं जा सका.. पिछले हफ्ते किसी तरह मौका निकाल कर मैंने बैंगलोर जाने का मन बनाया और शुक्रवार को निकल पड़ा बैंगलोर के लिए.. अक्सर मैं ऑफिस से ही निकला करता था लेकिन उस दिन मैं ऑफिस से घर आया फिर घर से निकला.. घर से निकलते ही मुझे अपने आस पास के चीज़ों पर से कण्ट्रोल ख़तम होता सा लगाने लगा.. ऐसा मुझे काफी बाद मैं पता चला.. खैर!! घर से निकलते ही लिफ्ट के पास पहुंचा.. बटन दबाया.. पर लिफ्ट काम नहीं कर रहा था.. ऐसा अक्सर होता है.. इसलिए मैं सीढियों से नीचे गया..

फिर बारी आई ऑटो लेने कि.. जिस भी ऑटो वाले से पूछो कोई ८०-९० रूपये से कम बोल नहीं रहा था.. मेरे घर से कोयम्बेदु(चेन्नई इंटर सिटी बस स्टैंड) तक का साधारण किराया ४० रूपया है.. मैंने लगभग १० ऑटो छोडे फिर जाकर एक ऑटो वाले ने ४५ रूपये में मुझे कोयुम्बेदु पहुंचाया.. अब यहाँ सबसे पहले मुझे वापसी का टिकट लेना था.. आमतौर से मैं वापसी का टिकट बैंगलोर से चेन्नई ले लेता हूँ जिससे आते समय कोई दिक्कत ना हो.. और जाने का टिकट वहीँ लेता हूँ.. इसके लिए मुझे ATM से पैसा निकालना था.. अभी तक ज्यादा कुछ नहीं हुआ था.. खैर जब ATM के पास गया तो पता चला ATM ख़राब है.. मेरे पास सिर्फ १०० रूपये थे.. मुझे हर हालत में पैसा निकालने थे.. फिर क्या मैंने वापस ऑटो लिया और वापस १०० फीट रोड आकर पैसे निकाला और फिर उसी ऑटो से वापस बस स्टैंड पहुंचा.. अब मुझे टिकट लेना था वापसी का और मैं सोच रहा था की काश टिकट काउंटर पर भीड़ ना हो.. और यही हुआ भी.. टिकट काउंटर पर बिलकुल भीड़ नहीं थी.. देख कर जान में जान आई(पर मुझे पता नहीं था कि क्या होने वाला है मेरे साथ).. बस मेरे आगे 2 लोग ही थे.. ३ मिनट में मेरा नंबर आ गया..

टिकट काउंटर पर जो बैठा था उसने मेरी सारी जानकारी फीड कर दिया और टिकट निकालने के लिए उसने कन्फर्म बटन दबा कर मुझसे पैसे ले लिए.. बस अब इंतजार था प्रिंटआउट आने का.. ५ मिनट बीता.. १० मिनट बीता.. १५ मिनट हो गए.. पर कुछ नहीं आया.. उसने फिर से कन्फर्म बटन दबाया.. कुछ आना था नहीं सो नहीं आया.. इंतजार करते-करते ३० मिनट हो चले.. वो बटन दबाता पर कुछ नहीं होता.. बीच में मैंने उससे कहा भी कि फिर से बंद करके शुरू करे पर वो नहीं माना.. खैर इसी तरह करते-करते एक घंटे हो गए.. टाइम १० बजकर ३० मिनट.. बैंगलोर जाने वाली बसें निकलती जा रही थी और मैं लाचार होकर बस देखता जा रहा था.. अब टिकट काउंटर वाले किसी जानकार को बुला रहे थे.. मैं उन्हें अपनी बात समझा भी नहीं सकता था.. तमिल मैं बोल नहीं सकता और इंगलिश उन्हें समझ में नहीं आ रही थी.. अबा समय था ११.०० PM.. किसी तरह मैंने उन्हें फिर से ऍप्लिकेशन को बंद करने और शुरू करने के लिए मना लिया.. और अंततः ११.२० तक मेरा टिकट हाथ में आ गया..

लेकिन अब तक लगभग सारी बसें जा चुकी थी.. एक बस खुलने वाली थी.. मैं दौड़ के वहां पहुंचा.. कंडक्टर दिख नहीं रहा था.. तभी एक आदमी ने आवाज़ दिया.. मैं गया उसके पास.. ताबेअत्याप जैसा ही दिख रहा था.. एक कंडक्टर के पास जो होना चाहिए सब थे उसके पास.. खैर! मैंने पुछा आप उस बस के कंडक्टर हो.. उसने कहा हाँ और ये भी की बस एक सीट खाली है, जल्दी करो.. मुझे भी जल्दी थी.. मैंने उसे पैसे दिए और उसने मुझे सीट नंबर ३४ का टिकट दे दिया.. मैं भाग कर बस के अन्दर गया.. लेकिन यह क्या? उस सीट पर कोई और बैठा था.. उसने अपना टिकट दिखाया और उसका भी नंबर ३४ था.. बस लगभग खुल चुकी थी और स्टैंड से निकलने लगी थी.. मैं नीचे उतरा कंडक्टर को खोजने.. वो तो कहीं नहीं मिला इस बस का कंडक्टर मिला.. मैंने उससे कहा की ३४ सीट नंबर पर कोई है जबकि वो मेरी जगह है.. उसने इंतजार करने को कहा...मैं फिर बस के अन्दर चला गया.. बस स्टैंड से निकल चुकी थी और मैं बेवकूफ जैसे बस में खडा था.. कंडक्टर आया.. वो सीट नंबर ३४ के पास गया.. फिर वापस आया.. उसने मुझसे पुछा की ये टिकट मैंने दिया है और मैंने यहाँ झूठ बोला क्योंकि अबतक मैं जान चूका था की मुझे किसी ने मामू बना दिया है.. बस मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा, "हाँ भाई आपसे ही तो लिया है.." बेचारा सोच में पड़ गया.. अंततः उसने मुझे ड्राईवर के ठीक पीछे भैटने का ऑफर किया.. वहां बैठ नहीं सकते थे इसलिए मैंने उससे पैसा वापस के लिए कहा..

क्रमशः...

11 comments:

  1. कोई कोई दिन ऐसा ही होता है, जहा पैर रखो वहीं टांग फंस जाती है।

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  2. मामू मजा आ रहा है, जल्दी से आगे भी सुनाओ, लेकिन यह शव्द मामू है बडा प्यारा, लेकिन इस का असली मतलब मुझे नही मालुम हमारे पंजाबियो मै मामा शव्द तो है, ओर मेरे बच्चे प्यार से मामा को मामू ही पुकारते है, लेकिन मुझे लगता है इस मामू का कुछ ओर भी अर्थ होगा, क्योकि फ़िल्मो मे भी तो भाई लोग मांमू पुकारते है,
    कृप्या आप इस मांमू का मतलब भी जरुर बताये, लेकिन आप की बस यात्रा तो अभी शुरु हुयी है??
    अभी से यह सब आगे क्या होगा???
    धन्यवाद

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  3. सही है ऐसा होना भी चाहिये...स्तर को बनाये रखने के लिए जरुरी है/

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  4. बहुत गजब लिखा भाई ! ये जरुरी है !

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  5. कैसे कैसे दिन!

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  6. तीर स्नेह-विश्वास का चलायें,
    नफरत-हिंसा को मार गिराएँ।
    हर्ष-उमंग के फूटें पटाखे,
    विजयादशमी कुछ इस तरह मनाएँ।

    बुराई पर अच्छाई की विजय के पावन-पर्व पर हम सब मिल कर अपने भीतर के रावण को मार गिरायें और विजयादशमी को सार्थक बनाएं।

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  7. ड्राईवर के ठीक पीछे भैटने का ऑफर किया.. वहां बैठ नहीं सकते थे इसलिए मैंने उससे पैसा वापस के लिए कहा..

    बेवकूफी तुम करो और अपनी बेवकूफी का मुआवजा किसी और से लो. मैंने उज्जैन स्टेशन पर भी तरह का उजड्ड pa देखा था, तीन लड़के (जो की बिहारी टोन में बातें कर रहे थे). तीनों एक साथ चायवाले के पास पहुंचे, चाय मांगी, दो लोग बिना पैसे दिए निकल लिए, चायवाले ने जब बचे हुए लड़के से पैसे मांगे तो लड़ने लगा की, 'मुझे क्या मालूम कौन चाय ले कर निकल गया, साथ में चाय पीने आए थे तो क्या रिश्तेदार हो गए जो मैं पैसे दूँ!', वेंडर की कम्प्लेन करने की धमकी देने लगा. आख़िर में सिर्फ़ ख़ुद के ही पैसे दिए. जबकि चाय लेने से पहले वे साथ घूम रहे थे, और बाद में बोगी में भी साथ ही गपिया रहे थे.

    पूर्वी भारत लगते ही ट्रेन में डाके पड़ने लगते हैं, बोगियों के फिक्स्चर्स गायब मिलते हैं, ट्रेनें अनाधिकृत स्टेशनों पर रुकने लगतीं हैं, टीटी एक सिगरेट की रिश्वत पर जुर्माना माफ़ कर देते हैं!

    यह क्षेत्र विशेष के लोगों की खासियत है या ऐसी घटनाएँ अनायास ही घाट जातीं हैं?

    मेरे इस कमेन्ट को किसी के ख़िलाफ़ न समझा जाए, मैंने जो देखा वह कहा.

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  8. @ab inconvenienti : मुझे तो आपसे बड़ा उजड्ड कोई और नहीं दिखता है.. आप लिखते हैं "यह क्षेत्र विशेष के लोगों की खासियत है या ऐसी घटनाएँ अनायास ही घाट जातीं हैं?" और साथ ही कहते हैं "मेरे इस कमेन्ट को किसी के ख़िलाफ़ न समझा जाए, मैंने जो देखा वह कहा.".. ठीक एक लाईन के बाद पलटी मार गये महाराज.. पूरे एक क्षेत्र विशेष के विरोध में लिख कर कहते हैं कि किसी क्षेत्र के विरूद्ध ना समझा जाये.. वाह.. वाह.. साधू.. साधू..
    सबसे पहले तो मैं आपको सलाह देना चाहूंगा कि कुछ भी कमेंट लिखने से पहले आप पोस्ट को पूरा पढा करें.. पूरे बिहारियों को उजड्ड कहने से पहले यह तो जरूर ही जान लें कि वह पोस्ट किसी बिहारी ने ही लिखा है किसी और ने.. यहां सबसे पहले मैंने लिखा है मेरे मित्र अमित द्वारा.. और मेरे पूरे चिट्ठे पर कहीं भी अमित का परिचय नहीं दिया हुआ है जिससे आप यह मान लें कि वह भी बिहारी ही होगा..

    आज आपने मुझे मजबूर कर दिया जिसके कारण मैंने पहली बार इतनी तल्खी के साथ कमेंट किया..

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  9. बहुत बढिया लेख ! बहुत पसंद आया ! शुभकामनाएं !

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  10. @ab inconvenienti ... महाशय आप बात किधर की किधर ले गए ? ठीक है पूर्वोत्तर भारत में ऐसा होता है या उज्जैन में ऐसा हुवा है तो उस बात का यहाँ क्या ताल्लुक है ? आप क्या कहना चाहते हैं ? महाशय आप जो बात कहना चाह रहे हैं वो सारे भारत में ही लागू होती है ! ना की किसी क्षेत्र विशेष पर या जाती विशेष पर ! कौन से क्षेत्र की ट्रेने पुरी साबत छोडी जाती हैं ? और इन्होने अगर पैसे वापस मांगे तो आपको क्या तकलीफ हुई जो आपने आधे भारत को ही उठाई गिरा कहने की ठान ली ! भाई ज़रा सोच समझ कर बात किया करो !

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  11. Are waah bhai...maza aa gaya...kaafi dino baad aapke blog per aaya.....ek ek kar ke saare post phada....kaafi interesting hai....aage kya hua ye bhi to bataaiye?
    Kaushal

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