जाने किसका इंतजार है मुझे..
जब घर में अकेला होता हूं मैं,
सन्नाटों से घिरा होता हूं मैं..
कोई आहट सी होती है तो,
चौंक जाता हूं..
दरवाजे पर निगाहें टिकी होती है,
दस्तक कोई दे रहा हो जैसे..
जाने किसका इंतजार है मुझे..
अखबारों को पलटते समय,
निगाहें बेकरार होती है जैसे..
हर खबर को पढकर,
कुछ ढूंढती हुई निगाहें जैसे..
अखबारों के हर पन्ने से,
खेल रहा होता हूं मै..
जाने किसका इंतजार है मुझे..
कभी चबूतरे पर बैठा हुआ,
सड़कों पर नजरें जमाये,
कुछ सोचते हुये..
दौड़ते-भागते गाड़ियों में जैसे,
कुछ ढूंढ रहा होता हूं मैं..
जाने किसका इंतजार है मुझे..
भीड़ में चलते लोगों में,
किसी को पहचानने कि
कोशिस कर रहा होता हूं मैं..
पता नहीं कोई मिल जाये कभी..
इन ख्यालों में घुम रहता हूं मैं..
जाने किसका इंतजार है मुझे..
मेरे खास मित्र मनोज द्वारा प्रस्तुत यह कविता.. यह उनका प्रथम प्रयास है, आप उनका उत्साहवर्धन अपने टिप्पणियों द्वारा करें..
चित्र के लिये Artbywicks.com को साभार..
मनोज को बधाई उनके इस प्रथम प्रयास पर ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता .
और कविता पढ़वाने के लिए आपका शुक्रिया ।
भागती-दौडती ज़िदगी मे इंसान के अकेलेपन का सजीव चित्रण किया है मनोज जी ने।उनको अपने पहले प्रयास की बहुत-बहुत बधाई,ये सिलसिला जारी रहेगा,इन्ही शुभकामनाओं के साथ आपका भी आभार अच्छी रचना पढने का मौका देने के लिये।
ReplyDeleteकभी चबूतरे पर बैठा हुआ,
ReplyDeleteसड़कों पर नजरें जमाये,
कुछ सोचते हुये..
दौड़ते-भागते गाड़ियों में जैसे,
कुछ ढूंढ रहा होता हूं मैं..
जाने किसका इंतजार है मुझे..
मनोज जी को बधाई इतनी सुंदर रचना के लिए और आपको
धन्यवाद इसे पढ़वाने के लिए !
सुन्दर। मनोज के परिचय में कुछ पंक्तियों की अपेक्षा थी।
ReplyDeleteमनोज साहब को इस रचना के लिए बधाई और आपको धन्यवाद इसे पढ़वाने के लिए !
ReplyDeleteBahut hi achchi Kavita hai...
ReplyDeleteMujhe kafi pasand aayi hai...
Bahut khub...