कल अहले सुबह बात बेबात कैसे शुरू हुई कुछ याद नहीं है.. मगर बात विकास के साथ हो रही थी और विषय श्रवण कुमार से सम्बंधित.. श्रवण कुमार कैसे थे अथवा उसके माता-पिता कैसे थे, उनकी मृत्यु कैसे हुई, इत्यादी.. मुझे कुछ ही दिन पहले मम्मी से की हुई बात याद आ गई, जो मैं विकास को सुनाने लगा..
किसी बात पर उनसे(मम्मी से) बहस हो रही थी.. वो मुझसे किसी काम के लिए बोल रही थी, और मैं लगातार मना किये जा रहा था.. उन्होंने ताना मारा, यही श्रवण कुमार बनोगे? मैंने पलटवार किया, मैं उतना बेवकूफ नहीं हूँ जितना श्रवण कुमार थे.. मम्मी चौंकी, ये क्या बात हुई भला? मैं बोला, सही बात कही.. उन्होंने पूछा, भला कैसे? मैंने प्रतिउत्तर दिया, और नहीं तो क्या? माँ-बाप बोले तीर्थ यात्रा करनी है, और बेटा तुरत्ते बड़का बला तराजू लेकर आया, माँ-बाप को दोनों पलडों पर बिठाया, फिर ले चला तीर्थ कराने कंधा पर टांग कर.. कितना कष्ट हुआ होगा उनके माँ-बाप को, सो भला? घुमाना ही था तो बैलगाडी करता, पास में पैसा नहीं था तो पहले कमाता फिर घुमाता.. माँ-बाप अंधे ही थे ना, कोई मरणासन्न स्थिति में तो नहीं थे? फिर बात बदली मैंने.. बोला, वैसे भी मुझे पता है कि कल को मैं अगर श्रवण कुमार जैसा हो भी जाऊं तो भी आपलोग उनके माता-पिता जितना स्वार्थी तो ना ही होंगे भला, होंगे क्या? तीर्थयात्रा करने का शौक किस धार्मिक आदमी को नहीं होता है? सो उन्हें भी था.. अच्छा किये जो मन की बात मन में ना रख कर बेटे को भी बता दी.. बेटा तो बेवकूफ था ही, सो चट से ऑफर कर दिया होगा कि आपको कन्धों पर बिठा कर घुमाने ले जाऊँगा, मानो श्रवण कुमार ना हुए हनुमान जी हो गए.. और माता-पिता भी इत्ता स्वार्थी? राम-राम.. बेटा को कितना कष्ट होगा यह सोचने की भी फुरसत नहीं.. बस घूमने जाना है तो जाना है.. माँ-बाप अंधे ही थे ना, कोई लूले-लंगड़े तो नहीं थे.. बेटा कि बेवकूफी को सुधारेंगे सो नहीं.. बेटा को बोलते कि चलो बेटा, कंधवा पे नै चढेंगे, हथवे पकड़ कर घूम आयेंगे.. लेकिन नहीं.. उनको तो पैदल चलने का नाम सुन कर ही आलस आने लगा होगा!! उन दोनों को बेटे के कष्ट के आगे अपना मोक्ष और आलस दिख रहा होगा.. "हमको तो बस इतना पता है कि मेरे माँ-बाप उतना स्वार्थी नहीं हैं!! है क्या?"
खैर, इतनी बात सुन कर मम्मी भी जो बोल रही थी वो भूल गई, और हँसते हुए फोन रख दी.. :)
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हा हा हा ...बढ़िया पोस्ट भैया ...अच्छा है आप श्रवन कुमार बनने से बच गए नहीं तो कंधे पे लेकर घुमाते फिरते....
ReplyDeleteहे भगवान ! इतना कुछ श्रवण के मां बाप भी सोचते तो रामायण ही न हुई होती...
ReplyDeleteवेसे बन भी नही सकते.क्योकि वो तुम जेसा पढा लिखा नही था.
ReplyDeleteआज के तार्किक और तथाकथित श्रवण कुमार को उनकी तार्किकता सहित नमन!
ReplyDeleteअरे भाई तब की परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही थीं । समझा करो ।
ReplyDelete5.5/10
ReplyDeleteलेखन में मनोरंजन के साथ ही मौलिकता भी है
बढ़िया पोस्ट
इस पूरी कहानी को एक नया ही परिप्रेक्ष्य दे दिया आपने।
ReplyDeleteपूरे नौटंकी हो!
ReplyDeleteअच्छा हुआ तुम्हारी मम्मी फोन पर थी...सामने होती तो मस्त पिटाई खाते. :D
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ReplyDeleteis nazar se to hamne kabhi socha hee nahi tha...maza aa gaya...
ReplyDeleteबहुत बड़ी दुष्टात्मा है तू..... :)
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