"अब ये क्या है?" माँ कुछ दे रही थी, तीन-चार पन्नियों में अच्छे से जकड़ा हुआ एक पैकेट.. "काजू-किशमिश का पैकेट है.. तुम्हे अच्छा लगता है, और मुझे पता है कि तुम खरीदता नहीं है वहाँ.." यही कुछ जवाब आया.. पिछली दफे मैं हर ऐसे किसी पैकेट पर ऐतराज जताता रहता था जिसे मैं चेन्ना में आसानी से खरीद सकता हूँ, मगर अबकी मैं अन्य दिनों कि अपेक्षा चुपचाप सब रखे जा रहा हूँ.. अपना लगभग खाली सा बैग टटोलता हूँ, याद आता है कि आते समय पापा कि कई किताबें याद करके लेता आया था.. कुछ सामान भी था जैसे दीदी की साडी, बच्चों कि कुछ चीजें, एक अन्य मित्र के लिए कांचीपुरम की साडी.. अब बैग लगभग आधा से अधिक खाली है.. हाँ, जितनी किताबें लेकर आया था, लगभग उतनी ही पुनः लेते जाना है.. उसे कंधे पर टांगने वाले बैग में रख लूँगा.. इस बैग को कार्गो में भेजना है, जिसका वजन अधिक नहीं होना चाहिए.. वैसे भी किताबों का वजन कुछ अधिक ही होता है, चाहे दिमाग पर हो या कन्धों पर.. "बगल में एक डब्बा भी रखा हुआ है, उसे भी रख लो.." एक और संवाद, "अब क्या है इसमें?" "मखाना भूंज कर, पीस कर रखा हुआ है.. वहाँ ये नहीं मिलता होगा, खीर बना कर खाना.." मैं थोड़ी सी जगह बनाता हूँ और उसे भी रख लेता हूँ.. आलमीरा से एक शर्ट निकालता हूँ.. पास मौजूद हर चीज से कोई ना कोई किस्सा जुड़ा होता है, कई लोग अपना पात्र निभा चुके होते हैं उन किस्सों में.. उस शर्ट से भी जुड़े कुछ किस्से याद आते हैं.. कुछ-कुछ पुराने जमाने के सिनेमा कि तरह बैक्फ्लैश के कुछ सीन आँखों के सामने से गुजर कर थम जाता है.. कुछ साल पुराने किस्से.. वे किस्से जो आज भी मेरे भीतर कहीं पैठ जमाये हुए हैं, फिर से उस किस्से में अपना पात्र याद नहीं करना चाहता हूँ सो वापस रख देता हूँ..
नाश्ते के लिए पूछा जाता है, मैं मना कर देता हूँ.. कहता हूँ कि एक ही बार खाना खाकर एयरपोर्ट के लिए निकलूंगा.. वापस जाने का उद्देश्य सोचते हुए घर में टहलता हूँ.. पापा मम्मी के कमरे में जाता हूँ.. पापा नाश्ता करके नींद में हैं.. उनके बगल में लेट कर उनके गोद में समाने की असफल कोशिश करता हूँ.. याद आता है कि अब उनसे भी एक-दो इंच लंबा हो चुका हूँ, मगर उनके सामने जाता हूँ तो हमेशा मुझे वही पापा याद आते हैं जो बचपन में दिन भर मुझे गोद में उठाये घुमते थे.. कई किस्से आँखों के सामने घूम जाते हैं.. मुझे वह पापा याद आते हैं जिनके मातहत कर्मचारी उन्हें हम बच्चों के साथ हंसी-ठिठोली करते देख सदमे कि स्थिति में आ जाया करते थे, उन्होंने सपने में भी ये कभी नहीं सोचा था कि इतने कड़क साहब का यह रूप भी हो सकता है.. कुछ उससे पुराने किस्से भी नज़रों के सामने घूमने लगते हैं जब गाँव जाने पर भैया-दीदी कहीं और निकल जाते थे मगर मैं पापा या मम्मी को छोड़ कर कहीं नहीं जाता था और अब हालात कुछ ऐसे हैं कि पापा-मम्मी से सबसे अधिक समय तक अलग रहने का रिकार्ड सा बनाते हुए इतनी दूर फिर से निकल जाना है.. जीवन का लक्ष्य क्या है? क्या पैसे कमाना ही 'कुछ' या 'सब कुछ' है? कहीं मैं किसी मृगमरीचिका के पीछे तो नहीं भागा जा रहा हूँ? कहीं हम सभी किसी मृगमरीचिका के पीछे तो नहीं भाग रहे हैं? कुछ प्रश्न मन में आते हैं, जिनका कोई उत्तर ना पाकर मैं खीज उठता हूँ, और उन्हें नजरअंदाज ना करते हुए भी नजरअंदाज कर देता हूँ.. पापा को नींद में कसमसाते हुए देखकर उनकी गोद में समाने कि अपनी असफल कोशिशों को मुल्तवित कर देता हूँ.. धीरे से उनका हाथ लेकर अपने गाल पर रखता हूँ.. एक किस्सा फिर कहीं नज़रों के सामने घूमने लगता है.. बचपन में भैया के एक मित्र 'रॉबिन्सन हैम्ब्रम' जब पहली दफे हमारे चक्रधरपुर वाले घर में पापा से मिले थे तब बाद में आश्चर्य से बोले थे, "अंकल का हाथ कितना बड़ा है!!" मैं पापा का बायां हाथ अपने दाहिने हाथ में लेकर अपने हाथ से नापता हूँ.. कुछ मिलीमीटर का फर्क अब भी है, अंतर सिर्फ इतना है कि अब मेरा हाथ बड़ा है.. मैं धीरे से उनके हाथ को चूमता हूँ.. और रख देता हूँ..
बचपन में माँ कहती थी, "तुम खा लिए तो मेरा पेट भर गया.." मुझे आश्चर्य होता था.. अहा!! ये कैसा जादू है? जो मेरे खाने से माँ का पेट भर जाता है? मुझे महाभारत का वह किस्सा याद आता है जिसमें भगवान कृष्ण ने मात्र एक चावल के दाने से सभी ऋषि-मुनियों को तृप्त कर दिया था.. हकीकत का ध्यान बड़े होने पर ही आया.. "मिथकें भी भला कभी सच होती है क्या?" जिस दिन घर में पलाव बनता था उस दिन हम सभी भाई-बहन आपस में लड़ते थे माँ के साथ खाने के लिए, वो काजू-किशमिश चुन कर हम लोगों के लिए अलग रख देती थी.. कहती थी कि उन्हें अच्छा नहीं लगता है ये.. सच कहूँ तो मुझे आज भी नहीं पता कि माँ को खाने में क्या अच्छा लगता है? शायद पापा को पता हो.. मगर हमारी हर एक पसंद-नापसंद का ख्याल तब भी रखती थी, और आज भी रखती है.. अब जब हम भी ख्याल रखने के हालत में आ चुके हैं तब भी मुझे सिर्फ इतना ही पता है कि उन्हें 'वेनिला फ्लेवर' का आइसक्रीम बेहद पसंद है.. शायद भैया को इससे अधिक पता हो, उन्हें उनके साथ समय बिताने का अधिक मौके मिले हैं..
मैं वापस उस बड़े वाले हॉल में आता हूँ जिसमे मुझे हर चीज बड़ी-बड़ी दिखती है.. टीवी बड़ा.. सामने टंगे हुए फोटो बड़े-बड़े.. हम सभी की तस्वीर वह टंगी हुई है.. माँ भी बड़े वाले सोफे पर आराम से बैठी हुई है.. उनके पास जाता हूँ.. पास जाकर जमीन पर बैठ कर अपना सर उनके गोद में रख लेता हूँ.. माँ के हाथ को अपने गालों पर महसूस करता हूँ.. बचपन के किये एक जिद्द कि याद हो आती है.. कितना छोटा था, यह अब याद नहीं.. मगर यकीनन मैं बहुत ही अधिक छोटा रहा होऊंगा, क्योंकि बेहद धुंधली सी याद बाकी है.. माँ अपने घर के काम को लेकर हैरान-परेशान सी थी और मैं जिद्द पकड़े बैठा था कि खाना खाऊंगा तो माँ के गोद में ही बैठ कर.. मेरी वह जिद्द पूरी भी हुई, उनके सारे जरूरी कामों को छोड़कर.. उनके गर्भ में समाने कि इच्छा होती है, जिससे उनसे दूर ना जा सकूं.. चूंकि पता है कि यह एक असफल कोशिश ही होगी, सो कोशिश ही नहीं करता हूँ.. रोने कि असीम इच्छा होती है, मगर नहीं रोता हूँ.. यह एक कष्टप्रद स्थिति होती है जब आपको कुछ करने कि असीम इच्छा हो और आप ना कर पायें.. एक बेचैनी, छटपटाहट की धार भीतर ही कहीं घाव करती एवं कुरेदती रहती है.. समय देखता हूँ, समय होने ही जा रहा है.. धीरे से वहाँ से उठ जाता हूँ.. खाना लेता हूँ, खाता हूँ और निकल जाता हूँ मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ.. मैं अपनी पहचान खोता जा रहा हूँ, जिंदगी एक नया पाठ सीखा रही है.. एक ओढ़ी हुई मुस्कराहट जो अब कभी-कभी लगता है मेरी नई पहचान ही बनती जा रही है..
इन सब बातों को बीते हुए लगभग डेढ़ महीना होने को आ रहा है.. देखिये मम्मी, घर से लाया काजू खत्म होने के बाद मैंने फिर खरीद लिया है.. रात के, नहीं-नहीं.. सुबह के साढ़े चार बजने जा रहे हैं.. मेरी माँ मुझसे नाराज है, पापा तटस्थ मुद्रा लिए हैं, और मैं बहुत उदास हूँ.. कारण बता कर दुनिया के सामने नंगा नहीं होना चाहता.. पापा-मम्मी, I Love You Too Much..
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