Sunday, October 31, 2010

पुराने डायरी का पन्ना

यह बातें मैंने ३० जून २०१० को लिखी थी.. लिखते वक्त जाने किन बातों को सोचते हुए इतनी तल्खियत में लिख गया था.. आज ना वे बातें याद हैं और ना ही उन बातों के पीछे कि तल्खियत.. फिर भी इसे जस का तस आप तक भेज रहा हूँ..

अब अच्छी कहे या बुरी, मगर जनाब आदत तो आदत होती है.. और जो छूट जाये वह आदत ही क्या? जैसे मेरी एक आदत है.. कहीं कुछ भी अच्छा लिखा दिखा, तो उसे अपने कालेज के उन सहपाठियों को मेल कर देता हूँ जिन्हें अपना मित्र समझता हूँ.. कई बार तो यह भी नहीं बताता हूँ कि यह मैंने लिखी या किसी और ने.. मुझे कभी-कभी अपना लिखा भी पसंद आ ही जाता है.. अपना लिखा पसंद करने में कोई गुनाह भी नहीं दीखता है मुझे.. जब मैं "मेरी छोटी सी दुनिया" में नहीं लिख रहा होता हूँ तो अपने निजी ब्लॉग पर लिखता होता हूँ, इसे स्वांत सुखाय कर्म कहना ही ठीक रहेगा.. किसी निजी डायरी कि तरह, जिसके दरवाजे बंद हैं सभी के लिए.. उन्हें जब कुछ भी मेल करता हूँ, तब मुझे एक-दो को छोड़ किसी से यह उम्मीद बिलकुल नहीं होती है कि वे इसे पढेंगे ही.. वे भी शायद यही समझते होंगे कि क्या पागलों कि तरह इतने लंबी-लंबी कहानियाँ मेल करता रहता है.. खैर इसकी परवाह होती तो अभी तक यह सिलसिला ना चलता होता.. जिस दिन कोई कह देगा कि मत भेजो, उस दिन से उसे भेजना बन्द.. फिलहाल तो यह जारी ही रहेगा.. आदत जो ठहरी.. और आदत इतनी आसानी से थोड़े ही ना जाती है!!!

अभी कुछ दिन पहले कि ही बात है.. मैंने "मानव के मौन" से उठाकर यह कहानी "तोमाय गान शोनाबो" सभी को मेल की.. फिर एक दिन अपने एक मित्र से यूँ ही पूछ बैठा, "आजकल फुरसत में हो(उन दिनों वाकई वह फुर्सत में थे), तो कहानी पढ़ने का पूरा समय मिल जाता होगा? वह कहानी कैसी लगी?" यह मित्र उन मित्रों में से आता है जिनसे यह उम्मीद रहती है कि उसे पसंद आये ना आये मगर वह पढता जरूर होगा.. उसने कहा, "थोडा और खुलकर लिखता तो मस्तराम हो जाता.." मैं भी उसकी बात पर हँस दिया.. खुद के हँसते वक्त मुझे यह भी याद आया कि कैसे उस दिन मैंने उससे जिरह की थी जब मेरे ही कहने पर वह मंटो को पढ़ा था और लगे हाथ उसने भी मंटो को अश्लील कह कर ख़ारिज करने कि कोशिश भी की थी.. साहब, कोशिश क्या की थी, वो तो लगभग ख़ारिज हो भी चुका था.. बड़ी मुश्किल से मंटो को अश्लील होने से बचाया था, शायद!! मगर अब इन जिरहों में नहीं पड़ना चाहता था.. यह सोच कर सिर्फ हँस कर निकल लिया कि हर कोई अपनी सोच के साथ जीता है, मैं भी.. और उस सोच में कोई किसी तरह का खलल नहीं चाहता है..

ठीक ऐसी ही एक मित्र हैं, उसे कई वैसी कहानियों या सिनेमाओं से चिढ है जो सच्चाई दिखाती हो, या फिर उन कहानियों किस्सों को नापसंद करती हो जिसे मैं पसंद करता हूँ.. अभी तक तय नहीं कर पाया हूँ.. उससे भी यह उम्मीद हो चली है कि अधिकांश फीसदी मेरी भेजी कहानियाँ पढ़ती होगी.. क्योंकि अधिकतर मेरी भेजी वैसी कहानियों पर अपनी नापसंदगी जाहिर कर चुकी है जिसका अंत असल दुनिया कि तरह ही निराशाजनक होता है.. शायद उसके ख्वाबों कि दुनिया में असल दुनिया अथवा असल दुनिया कि कहानियों की कोई जगह तय नहीं होगी.. शायद!! पता नही!!! उफ़ ये परीज़ाद के किस्से भी!!!!

मुझे वह दिन भी याद आ गया जब घर पर अपनी एक मित्र के साथ बैठ कर गप्पे हांक रहा था और उधर टीवी भी चल रही थी.. कोई म्यूजिक चैनल था, जिस पर बदल-बदल कर गाने आ रहे थे.. मैं गुलजार के किसी गाने पर अटक गया.. वह मुझसे बेतक्कलुफ़ होकर कह दी, "मुझे गुलजार के गाने कभी समझ में नहीं आते हैं, मगर जब सभी तारीफ़ करते हैं तो अच्छा ही लिखते होंगे.." मैंने कहा, "समझना चाहो ता जरूर समझ में आएगी.." उसका कहना था, "ठीक है, तुम ही समझा दो कभी.." मैंने कहा, "ठीक है, समय आने दो.." मगर मन में चल रहा था कि उसे उन चीजों को कैसे समझाऊं जो भावनाओं पर बहते हैं, परिस्थितियों से गुजरते हैं.. गुलजार साहब, शब्दों से यूँ खेलना ठीक नहीं.. कहीं पढ़ा था, सागर के ब्लॉग पर, "एक सौ सोलह चाँद कि रातें, एक तुम्हारे काँधे का तिल" जैसी बातों को समझाने से उसने मना कर दिया था....अब कोई भला इसे कैसे समझायेगा? ये बचपन के, स्कूल के समय के कमबख्त हिंदी टीचर ने भी कबीर और रहीम के दोहे जैसी चीजों के अलावा कुछ भी नहीं समझाया.. बिहारी तक आते आते उनकी पढाने की कला में चूक हो जाया करती थी, या सिलेबस खत्म, या परीक्षा के चलते टाल जाया करते थे.. इन अथाह प्यार में डूबे गीतों को भी उन्होंने कभी नहीं समझाया जिनमे भावनाएं सच्चाई के साथ सवार रहती है...

एक दफ़ा जब याद है तुमको,
जब बिन बत्ती सायकिल का चालान हुआ था..
हमने कैसे, भूखे-प्यासे, बेचारों सी एक्टिंग की थी..
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था..
एक चव्वनी मेरी थी,
वो भिजवा दो..

सावन के कुछ भींगे-भींगे दिल रक्खे हैं,
और मेरी एक ख़त में लिपटी रात पड़ी है..
वो रात बुझा दो,
और भी कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है,
वो भिजवा दो..

पतझड़ है कुछ,
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट,
कानों में एक बार पहन कर लौट आई थी..
पतझड़ कि वो साख अभी तक कांप रही है..
वो भिजवा दो,

एक सौ सोलह चांद की रातें,
एक तुम्हारे कांधे का तिल..
गिली मेंहदी की खुश्बु,
झूठ-मूठ के शिकवे कुछ..
सब भिजवा दो..


8 comments:

  1. यार मुझे तो मेल नहीं करते तुम :)

    एक बार की बात है, अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठा हुआ था...युहीं किसी ने कह दिया की कुछ एक शायरी सुना दो...मैंने कहा की गुलज़ार का कुछ सुनाऊं? उसने हामी भरी तो मैंने यही सुनाया था...

    उसकी प्रतिक्रिया थी - "उसका लिखा समझने में कभी कभी अजीब लगता है...वैसे गुलज़ार भी ठीक ठाक लिख लेता है." ..
    उसने फिर मेरे चेहरे के तरफ देखा, और एकदम चुप हो गया...कुछ नहीं बोला... फिर मैंने ही कहा की जो समझ में ना आये उसके बारे में बात मत करना कभी.. :)

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  2. दोस्त मैं यहाँ उन दोस्तों कि बात कर रहा हूँ जो ब्लॉग से नहीं जुड़े हुए हैं और ब्लॉग नहीं पढते हैं.. मगर हैं हिंदीभाषी ही.. :)

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  3. चलो बच गए तुम.. :)

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  4. कभी-कभी लगता है कि हमलोग दूसरी दुनिया के लोग हैं, जो शास्त्रीय संगीत सुनते हैं और गुलज़ार की तारीफें करते हैं. पर शुक्र है कि मेरे अधिकांश दोस्त मेरी ही तरह दूसरी दुनिया के हैं.
    मंटो को मैंने बहुत पहले पढ़ा था, शायद पन्द्रह साल पहले. उनकी कहानियाँ मुझे भी मेल कर दिया करो.

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  5. वो सब भिजवा दो ......
    भाई, मेल मुझे भी कर दिया करो...........
    देखो आपकी इस पोस्ट से दो ने और प्यारे लिंक मिल गए ......... सागर और मानव के .....
    बढ़िया लगा.......

    बाकी आज की पोस्ट में तो मेरी सोच की साड़ी बातें लिख दी............

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  6. कुछ यहाँ भी सरका दीजिये, ज्ञान से शत्रुता तो हमारी भी नहीं है।

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  7. थोड़ी व्याख्या भी ठेल देते तो क्या बिगड़ जाता :)

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  8. gulzar ki baat kar ke to ekdum bhaav vibhor hi kar diya aapne...achha lagta hai dekh kar ki aap ki blogging isi zor shor se jaari hai... :)

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