उस शहर से पहली मुलाक़ात बचपन में कभी हुई थी, कब, यह अब याद भी नहीं.. सीतामढ़ी से पटना तक गया था, पापा के साथ टंगके, सरकारी गाडी से जो किसी सरकारी काम से जा रहे थे.. गांधी सेतु पुल के ऊपर से गुजरने में अजीब सा सुखद अहसास अब भी याद है.. बिहार में एक कहावत बहुत प्रसिद्द है "उप्पर से फीट-फाट, अंदर से मोकामा घाट".. इस कहावत कि आत्मा को मेरी पीढ़ी से एक पीढ़ी ऊपर वाले लोग ही समझ सकते हैं.. वे लोग जो गाँधी सेतु पुल से बहुत पहले के थे.. या दीगर बात है कि अगली बार पटना आते समय बिहारसरीफ़ और नवादा से गुजरा था..
बोरिंग रोड, राजीव नगर, रुकुनपुरा, खाजपुरा, मछुवाटोली, पत्थर की मस्जिद, दरभंगा हाउस, पटन देवी, नाला रोड, कदमकुवां, राजेन्द्र नगर, शास्त्रीनगर, गाय घाट, राजापुल.. इन सबसे पहचान के बहुत पहले कि बात थी वो.. सर्पेंटाइन रोड को तो बहुत बाद तक मैं उस पंचमंदिर वाले सड़क के नाम से ही पहचानता था.. उसका नाम तक मालूम ना था मुझे..
नाला रोड वाला वह मित्र अभी भी मुझे चिढाते हुए चिढता है, जिसे अब भी यही लगता है कि उसके घर के सामने से रिक्शे से गुजरने वाली हर लड़की उसे ना देख कर मुझ पर नजर रखती थी.. यह शहर वह शहर है जहाँ मेरी आवारागर्दी के किस्से भी मेरे साथ ही जवान हुए थे.. मेरा कोई भी पुराना मित्र मेरी गवाही दे सकता है कि उन आवारागर्दी के दिनों में भी कभी किसी लड़की से छेड़खानी मैंने ना की थी, मगर चंद मित्र ही उस गवाही में यह जोड़ सकते हैं की राजेन्द्र नगर रोड नंबर दो में पहली बार किसी लड़की के घर का पता जानने के लिए उसके रिक्शे को अपनी स्कूटर के रफ़्तार से कैसे सिंक्रोनाइज़ किया था, जिसके घर के आगे एक तख्ती लगी हुई थे "सावधान! यहाँ कुत्ते रहते हैं!!" आखिरी दफे अगस्त के पटना यात्रा में जब अपने उस नाला रोड वाले मित्र के घर गया था, तब बैंगलोर से फोन पर मेरे मित्र ने नौस्टैल्जिक होते हुए पूछा था, "अबे साले, अभी भी लड़कियां तुझे देख रही थी या मेरे छोटे भाई को?"
कुछ हंसी-हंसी में : मेरी एक कालेज की मित्र पटना के अपराधीकरण के कारण अक्सर कहती थी, "मैं पटना सिर्फ तभी जाउंगी जब तुमलोग शादी करोगे, सुना है बहुत अपराध होता है वहाँ!!" और मेरा पटनिया मित्र उसे और भी डराते हुए कहता था, "अरे पटना के बारे में तो पूछो ही मत.. वहाँ जैसे ही सड़क पर आओगी वैसे ही चारों तरफ गोलियाँ ही चलती मिलेगी.. हमलोग तो झुककर-बचकर निकल जाते हैं.." :)
मेरे साथ एक अजीब विडम्बना रही है अब तक.. जो चाहा वो ना मिला, जो मिला वह चाहने से कहीं बढ़कर.. संतुष्टि कभी ना हो पाती है.. यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे माँ को बदलकर दूसरी माँ सामने रख कर कोई बोले कि यह पहले वाली से भी अच्छी है.. इश्क किया पटना से, भटक रहा हूँ भारत भर के बड़े शहरों में..
गाय घाट के किनारों पर बैठ कर गंगा की परती जमीन को देखते हुए हाजीपुर में फैले हुए कई किलोमीटर तक केले के खेत.. चिनिया केला.. पटना से दरभंगा जाते हुए बस में, चिनिया केला.. उस परती जमीन में कई प्रकार के पक्षियों से लेकर क्रिकेट खेलते बच्चे और मछुवारे अपनी नावों के साथ..
पटना का जिक्र हो और गाँधी मैदान के साथ-साथ पुस्तक मेले और दसहरा और छठ पूजा में साफ़-सुथरी सड़क का जिक्र ना हो तो पटना के साथ नाइंसाफी जैसा महसूस होता है.. मगर जिक्र किसका करूं? बरसात के मौसम में झील जैसा सीन क्रियेट करता हुआ गांधी मैदान का? या फिर एक ही मैदान में कम से कम बीस क्रिकेट टीम को एक साथ पूरे स्पेस के साथ क्रिकेट खेलते हुए बच्चों और जवानों का? या फिर उसी मैदान के किसी कोने में नशे में धुत्त ताश के पत्तों से दांव पर सबकुछ हारते लोगों का? या फिर एक ही मैदान में एक साथ चलते दो-तीन मेले के बावजूद आधे मैदान में राजनीति के दांव लगाते कुछ नेताओं का? शुरू के दिनों में विश्व पुस्तक मेला पटना में दो साल में एक बार लगता था जो बाद में बदलकर हर साल लगने लगा.. उसके चक्कर लगाते हुए कई दफे पूरी पुस्तक ही पढ़ जाना.. कामिक्स वाले स्टाल में बच्चों के साथ अपनी उस क्रमशः के बाद वाली कामिक्स ढूँढना.. दसहरा के समय डाक बंगला चौराहे को घेर कर दो-तीन किलोमीटर तक गाड़ियों का प्रवेश निषेध करने के बावजूद लाखों की भीड़ देखना.. मौर्यालोक के पहले मंजिल से देखने पर ऐसा महसूस होना जैसे विशाल नरमुंडो का झुण्ड चला आ रहा हो.. यूँ तो वह शहर गंदगियों में डूबा रहता है और लोग नगरपालिका को गालियाँ देते नजर आते हैं, मगर छठ पूजा के समय वही शहर के लोग पूरे शहर को उसकी सडकों समेत नहलाकर, झाडू लगाकर साफ़ किये रखते हैं.. पोस्टल पार्क कि खुरपेंच गलियों से निकलना किसी भी नए के लिए आसान ना हो..
मुझे बुरी यादें कभी परेशान नहीं करती है, बुरी यादें मुझे ढाढस बंधाती है.. हौसला देती है.. कुछ और अच्छा, कुछ और नया करने को.. वहीं अच्छी यादें मुझे अक्सर अवसाद में धकेलती है.. अंदर ही अंदर कुछ शूल सा चुभता महसूस होता है.. अच्छी यादाश्त से बुरी शै और कुछ नहीं होती है शायद..
कहीं और जाने से पहले एक चक्कर यहाँ भी लगा लें..
"उप्पर से फीट-फाट, अंदर से मोकामा घाट" एकदम गर्दा पोस्ट! ऊ का कहते हैं हमलोग पटना में....मिजाज टनटना गया :D
ReplyDeleteअरे आपने तो मेरी याद भी ताज़ा कर दी ..मैं भी ५ साल पटना में रहा हूँ... असल में पटना तो मेरा नानीघर है, अरे वहीँ पत्थर की मज्सिद के पास त्रिपोलिया हॉस्पिटल तो जानते ही होंगे...मेरा जन्मस्थान है वो..
ReplyDeleteसो काफी भावनाएं जुड़े हैं वहां से...
पटना में पटाना ।
ReplyDeleteस्तुति सही कही...मिजाज टनटना गया एकदम..
ReplyDeleteदोस्त बहुत कुछ बातें मैंने सोच के रखी थी, कभी लिखने के लिए, वो तुमने लिख दिया...ठीक किया..क्यूंकि मैं तुम्हारे जैसा बिलकुल लिख नहीं पाता...
और हाँ,
राजेन्द्र नगर हम भी कभी चक्कर लगाये थे, स्कूटर से..कोचिंग खत्म होने के बाद, जल्दी जल्दी में...की वापस घर भी पहुंचना है :)
(तुम गेस कर ही सकते हो क्यों?) :)
पोस्ट का पूरा मजा इसे ही कहते हैं।
ReplyDeleteअच्छी यादाश्त से बुरी शै और कुछ नहीं होती है शायद..वाकी सच है...अब तक जो सोच वो पाया नहीं जो पाया ..वो उम्मीद से बढ़ कर ..पता नहीं साली जिन्दगी किस गली में मटर गस्ती कर रही है...
ReplyDelete@"उप्पर से फीट-फाट, अंदर से मोकामा घाट"
ReplyDeleteपता नहीं कुछ और कहने लायक बचता है या नहीं....... दरअसल ये लेख आपने अपने मित्रों और जान पहचान वालों के लिए लिखा है....... और मेरे ख्याल से मैं यहाँ कहीं नहीं ठहरता...
पर पढ़ पूरा है.... लिखने का दंग और प्रवाह तो आपका अपना है ही.
और मैं टिप्पणी देने की आदत से मजबूर......
खुशकिस्मत हो...किसी शहर को अपनी हथेली की तरह जानते हो...और इतनी सारी खट्टी-मीठी यादों का ज़खीरा भी है...जिन्हें इतने प्यार से बाँटा है.
ReplyDeleteहर दो-तीन साल पर शहर बदलनेवाले का दर्द जुदा होता है....हर जगह के होकर भी किसी ख़ास जगह के नहीं होते.
अब तो मुंबई ही अपनी लगने लगी है....क्यूंकि बच्चे भी तुम जैसा ही जुड़ाव महसूस करते हैं,इस शहर से.
बिहार के अपराधीकरण इमेज की तो खूब कही..... मेरे पास एक दक्षिण भारतीय लड़की पेंटिंग सीखने आती थी. जब उसे पता चला,'मैं बिहार की हूँ'... चौंक कर कहने लगी,"वहाँ तो बम- गन वगैरह टोकरियों में बिकते हैं " मैने कहा ,"हाँ...वहाँ जब हम सब्जी खरीदने जाते हैं....कहते हैं दो चार बम भी डाल देना, थैले में"
असल रिपोर्ट तो तुमने छुपा ली है, कि किस किस जगह पर किन किन लड़कियों से पिटे थे :P ;)
ReplyDeleteपटना मेरा नानीघर है तो बचपन से पटना जाना लगा ही रहता था फिर जब रहने आये तो और करीब से देखा...कोलेज में पढ़े, कोचिंग किये...बहुत कुछ सीखे. आवारागर्दी तो कम किये, जानते ही होगे पटना में लड़कियां ज्यादा आवारागर्दी नहीं कर सकती hain. सारा घूमना फिरना साथ में. यादों का पोथा मैं भी रखा है, किसी दिन खोलूंगी :)
कभी देखा नहीं पटना पर ये पटनीयाया पोस्ट पढकर लग रहा है एक बार देख ही लिया जाये :)
ReplyDeleteमैं अब कॉलेज में था, तब एक कैसेट सीडी की दूकान थी...नाम था "शिल्पा सी.डी शॉप", उस दूकान के मालिक से घनिष्ठता इतनी हो गयी थी की जब भी जाता वहां तो बहुत सी बातें होती, चाय वाय पीते हम लोग....
ReplyDeleteएक दिन सुबह जब गया उसके दूकान तो अखबार में एक खबर आई थी की बिहार में किसी गाँव में कुछ अपराधी ने दो तीन लोगों को मार डाला और बहुत ज्यादा सख्या में हथियार भी बरामद हुए....ये खबर सुनने के बाद वो मुझसे पूछने लगा की क्या वहां सभी के घर में बन्दूक रहता है...
मैंने भी चुटकी लेते हुए कहा की हाँ, हम सब के घर में कम से कम तीन चार बन्दूक तो रखते ही हैं....:)
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ReplyDelete.
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आप का यह संस्मरण पढ़ अपना पुराना शहर भी पूरी शिद्दत से याद आने लगा है... शुक्रिया यादों को यों जगाने के लिये...
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असली ब्लॉग्गिंग इसे कहते है ....अफ़सोस इत्ते अनौपचारिक हम ना हुए !......पी डी भाई !
ReplyDeleteबहुत मजेदार...शहर भीतर बस जाता है जहन में..
ReplyDelete''मुझे तो कई शहरों से प्यार हुआ.. सीतामढ़ी, चक्रधरपुर, वेल्लोर, चेन्नई, पटना!!!'', प्यार करना तो आपका जज्बा है, एक बार विकसित हो गया फिर किसी भी (शहर) पर रोपित-आरोपित हो जाता है. वैसे यह जज्बा मातृभूमि से आरंभ हो तो जड़ें अधिक गहरी और मजबूत होती हैं.
ReplyDeleteकई रोज़ बाद तुम्हारी कोई पोस्ट पढ़कर आनंद आया
ReplyDeleteपोस्ट 'फिल्मी पटना' बनाते हुए, यादों के सहारे शहर में घूम रहा था, आपके पेज पर आया तो लगा किसी मेहमाननवाज ने अपने घर लाकर सामने गर्मजोश चाय की प्याली रख दी हो.
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