जब कभी उदास शाम का जिक्र आता है तो कुछ जगहें दिलो-दिमाग से नहीं निकल पाता है.. जहां दीन-दुनियां से बेफिक्र ना जाने कितने ही उदास शामें बिताया हूं.. "मैं और मेरी तन्हाई" जैसी हिंदी सिनेमा मार्का डायलॉग भी याद आ जाती है.. पहली बार घर से बाहर आने का गम और उस पर हर दूसरे दिन नौस्टैल्जिक हो जाना.. कभी घर की याद आना तो कभी दोस्तों की.. कुछ दोस्त साथ में भी थे.. जिसमें एक खासमखास मित्र भी था.. मनोज.. उसकी सबसे बड़ी खूबी यह की वो मुझे हद से ज्यादा मानता था.. यहां तक की मैं ये दावा कर सकता हूं की मेरे घरवालों को अगर चोड़ दिया जाये तो उससे ज्यादा मुझे कोई भी नहीं मान सकता था.. मगर अपनी आदत से मजबूर.. जब भी कुछ बुरा लगे तो बस अपने भीतर ही दबा कर बैठ जाओ.. किसी की याद आये तो और भी ज्यादा अकेलेपन की तलाश में निकल जाना..
अक्सर जे.एन.यू. के पुस्तकालय से अपना बस्ता संभालकर बाहर निकलते हुये रात के 8-9 बज जाया करते थे.. पुस्तकालय के कैंटीन में ही आठ रूपये का मशाला दोसा खाकर निकल पड़ता था.. मन में एक संकल्प की कुछ बनना है और घर की याद भी बहुत आती थी.. घर जाना भी नहीं चाहता था और घर की याद भी बहुत आती थी.. कमोबेश सांप-छछूंदर जैसी स्तिथी बन गयी थी.. सबसे ज्यादा मम्मी की याद आती थी.. कभी उनसे अलग जो नहीं हुआ था इससे पहले..
पुस्तकालय से निकल कर घर जाने की इच्छा नहीं होती थी.. लगता था की वापस जाकर फिरसे सिगरेट का धुवां जो किसी और के मुंह से निकल कर मेरे भीतर घुसे, इससे तो अच्छा थोड़ी देर और यहीं कहीं बिता लिया जाये.. एक बार फिर से अकेलेपन की तलाश.. मुझे खुद कभी समझ नहीं आया अभी तक, मैं अकेलेपन में क्या तलाशता हूं.. कदम बिना किसी से कुछ पूछे अपनेआप PSR हिल की ओर निकल जाते थे.. वहीं एक पत्थर पर बैठ कर ना जाने क्या-क्या सोचता हुआ.. कभी अतीत में झांकता तो कभी भविष्य की ओर मुंह ताकता.. एक लड़की की याद भी बहुत सताती थी.. ऐसा लगता था जैसे वो जगह(PSR हिल ) हर समय गुलजार ही रहता हो.. अधिकतर जोड़े किसी रोमांटिक स्थान के तलाश में वहां पाये जाते थे, कुछ लड़के उन जोड़ों को घूरने के लिये आते थे तो कुछ मुझ जैसे अकेलेपन की तलाश में वहां भटक जाते थे..
उदास शामों की सिलवटें अक्सर,
अपना निशान छोड़ जाती हैं..
जाने क्यों? कुछ शाम उदास होती हैं और,
कुछ शाम उदास कर जाती हैं..
प्राशंत भाई अगर हमारी सलह मानो तो अब यह**मेरी छोटी सी दूनिया ** को हम दोनो की छोटी सी दूनिया** का नाम देदो,भाई यह उम्र ही कुछ ऎसी हे,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख हे , लेकिन उदासी बहुत हे, जब बच्चे उदास हो तो अच्छा नही लगता, सो अब बन जाओ एक से दो..सारी दुनिया हंसती हुई लगे गी
जी राज साहब.. जब कभी मैं 1 से 2 हुआ तो जरूर से इसका नाम बदल कर हम दोनों की छोटी सी दुनिया कर दुंगा.. :)
ReplyDeleteरोज़ शाम आती थी.. मगर ऐसी ना थी..
ReplyDeleteघर कितनी ही बार हो आएँ। उस की याद नहीं जाती।
ReplyDelete'शाम को भी तनहा उदास देखा है,
ReplyDeleteजब भी देखा है बेआस सा क्यूँ देखा है"
Regards
itna chhota sa post lekin itna achha , sahi kahte hain, bhaawnaaon ko bayaan karne ke liye panne bharne ki jarurat nahi, do char shabdon mein hi kaam chal jata hai
ReplyDeleteअब तुम अपनी उम्र बता ही दो भाई ?confuse हो गया हूँ... तो तुम्हे कॉलेज छोड कितने साल हो गए है ?
ReplyDeleteघरवालों को अगर छोड़ दिया जाये तो उससे ज्यादा मुझे कोई भी नहीं मान सकता था...??
ReplyDelete..मेरा क्या हाँ ?? बाबू गुस्सा हो जायेगी ..फ़िर मिठाई से भी नही मानेगी :-(
अरे लवली.. तुम्हें तो मैंने घरवालों की श्रेणी में ही रख दिया है.. छोटी बहन घर से बाहर की थोड़े ही होती है.. वो तो बाबू, मैं दोस्तों की बात कर रहा था.. :)
ReplyDeletetab thik hai.nahi to ..........
ReplyDeleteLagta hai Anuragji ke blog par jyaada jaana ho raha hai, aajkal :-)
ReplyDeleteकुछ शामें उदास कर जाती है...अच्छा हैं, काफी एकेलापन है...
ReplyDelete@ अनुराग जी - मैं दो बार कालेज छोड़ चुका हूं.. :D
ReplyDeleteपहली बार ग्रैजुएसन करने के बाद और दूसरी बार पोस्ट ग्रैजुएसन करने के बाद..
पहली बार बी.सी.ए. किया था और उसमें जब अंतिम सेमेस्टर में जब प्रोजेक्ट का समय आया तब मैं दिल्ली चला गया था और जे.एन.यू. के पास रहना शुरू कर दिया था..
एम.सी.ए. मैंने बस पिछले साल ही खत्म किया है.. मगर कालेज 2006 मे ही छूट गया था क्योंकि मुझे मेरी कंपनी में ही अंतिम सेमेस्टर का प्रोजेक्ट मिल गया था..
वैसे बंदे की उम्र 27 साल बस अभी अभी हुआ है.. :)