Friday, December 31, 2010

बधाईयों की किंकर्तव्यविमूढ़ता

पिछले कुछ दिनों से परेशान हूँ, सोशल नेट्वर्किंग साईट्स पर नववर्ष की शुभकामनाओं से.. ऑरकुट पर मेरे जितने भी मित्र हैं लगभग उन सभी को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, अगर वे मेरे वर्चुअल मित्र हैं तब भी वे आम वर्चुअल मित्र की श्रेणी में नहीं आते हैं.. मगर फेसबुक पर कई लोग ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ और वे लोग ही वर्चुअल शब्द के खांचे में फिट बैठते हैं.. अब ऐसे में जब कोई नववर्ष की शुभकामनाएं भेजते हैं तो मेरे लिए यह किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति हो जाती है.. बधाई के उत्तर में या तो सिर्फ औपचारिकता के लिए आप भी उन्हें उसी तरह कि शुभकामनाएं भेजें, अथवा कुछ भी जवाब ना देकर खुद को एक घमंडी व्यक्ति के रूप में स्थापित कर लें..

मुझसे औपचारिकता निभाना किसी भी क्षण में बेहद दुष्कर कार्य रहा है, और उससे अच्छा खुद को एक अहंकारी व्यक्ति कहलाना अधिक आसान लगता है.. मजाक में कहूँ तो, "अगर मनुष्य एक सामजिक प्राणी है तो मुझमें शत-प्रतिशत मनुष्य वाला गुण शर्तिया तौर से नहीं है.." :)

ऐसा नहीं कि यह सिर्फ नववर्ष के समय ही होता है.. लगभग ऐसी ही स्थिति जन्मदिन की शुभकामनाएं पाते समय भी होती है, ऐसी ही स्थिति होली और दिवाली के समय भी होती है.. मेरे विचार में सभी जानते हैं कि कौन सही में उनका शुभचिंतक है, कौन नहीं है और कौन मात्र औपचारिकता निभाने के लिए बधाई सन्देश भेजते हैं.. अधिकाँश समय मैं भी बधाई सन्देश भेजता हूँ, आखिर सामाजिकता मुझे भी निभानी चाहिए, ऐसे ख्यालात में.. अब ऐसे में मुझे यह मात्र एक तरह का ढोंग जैसा लगने लगता है..

मेरे यह सब लिखने के पीछे का कारण मेरे फेसबुक पर मेरे किये गए अपडेट के उत्तर में आये सन्देश हैं.. मैंने लिखा था कि "Closing my FB for two days to escape from all virtual new year wishes." मेरे कई मित्रों ने प्यार भरी झिडकी सुनाई, उनकी कही बातें मुझे आपत्ति तो कतई नहीं लगा.. इस लेख को उसकी सफाई ही मान लें..

कई लोग मुझे यह कह सकते हैं कि मात्र एक बधाई सन्देश के आदान-प्रदान में ऐसी कंजूसी क्यों? इसके उत्तर में मेरा इतना ही मानना है कि यह मेरा व्यक्तिगत विचार है, और हर किसी के व्यक्तिगत विचार का सम्मान होना भी बेहद जरूरी है..

मित्रों, जरूरी नहीं कि अगर मैं आपसे कभी मिला नहीं, और मात्र आभासी दुनिया से जुड़ाव मात्र रहा हो तो मेरी आपके प्रति आसक्ति कम अथवा अधिक हो जाए.. अलबत्ता कई लोग तो ऐसे हैं वहाँ जिनसे मुझे असल दुनिया के कई लोगों से अधिक जुड़ाव है, जबकि मैं कभी उनसे मिला भी नहीं हूँ.. और वैसे लोगों का प्यार ही है जो मुझे इस आभासी दुनिया में बनाये रखा है.. साथ ही यह बात भी सत्य है कि किसी भी तरह के बधाई सन्देश को पाने के बाद, चाहे वह मेरी सफलता पर दिए गए बधाई सन्देश हों अथवा किसी तीज-त्यौहार पर दिए गए, मैं किंकर्तव्यविमूढावस्था में होता हूँ..

मैं आपके बधाई का उत्तर दूँ अथवा ना दूँ, इससे आपके प्रति मेरा प्यार एवं सम्मान कम अथवा खत्म कतई नहीं होगा.. चाहे वह मेरे आभासी दुनिया के मित्र हो या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.. मैं आप सभी से बेहद प्यार करता हूँ..

Monday, December 20, 2010

केछू पप्प!!

भैया का बेटा.. उम्र दो वर्ष, तीन माह.. मुझे छोटे पापा बोलने कि कोशिश में मात्र पापा ही बोल पाता है, छोटे पापा शब्द उसके लिए कुछ अधिक ही बड़ा है.. इस गधे को, अजी बुरा ना माने मैं अक्सरहां प्यार से गधा-गधी बुलाता ही रहता हूं, अपने छोटे पापा उर्फ़ पापा से बहुत परेशानी है.. परेशानी कि हद भी बिलकुल हद्द तक है.. अब देखिये इसकी परेशानी -

१. पापा बैठे हैं तो भला बैठे क्यों हैं? (मैं कहाँ बैठूँगा? जी हाँ, जहाँ मैं बैठूँगा उसे उसी वक्त वहीं बैठना होता है..)
२. पापा खड़े हैं तो भला खड़े क्यों हैं? (अब पापा जहाँ खड़े हैं वहीं मैं भी खड़ा रहूँगा.. पापा को हटाओ वहाँ से..)
३. पापा घूम रहे हैं तो घुमते क्यों हैं? (पापा नहीं घूमेंगे, मैं घूमूँगा..)
४. पापा खाना क्यों खा रहे हैं? (पापा घर का सारा खाना खा लेंगे.. उन्हें खाने के लिए कुछ मत दो..)
५. पापा पानी क्यों पी रहे हैं? (पापा सारा पानी पी जायेंगे, तो मैं क्या पियूँगा? उन्हें मत दो पानी पीने के लिए..)

मुझे तो इसी बात का संतोष है कि चलो इसे कम से कम अभी ये तो पता नहीं है कि पापा सांस भी लेते हैं.. नहीं तो इसे आपत्ती होगी कि पापा सारा हवा खतम कर देंगे.. फिर मैं कैसे सांस लूँगा?

नखरे इतने हैं इस लड़के के कि मत पूछो.. ऐसे दादी के पास नहीं जाएगा, क्योंकि दादी गोद में लेकर घुमाती नहीं है.. लेकिन अगर इसके छोटे पापा इसकी दादी के पास जाकर बैठ जायेंगे तो इसके तन-बदन में आग लग जाती है.. "पापा पप्प.. केछू आं!! पापा पप्प.. केछू आं!! पापा नै, केछू आं!!(पापा को भप्प कर दिया, और केशू बैठेगा वहाँ.. पापा नहीं, केशू हाँ!!)"

कैसे केशू अपने पापा को 'पप्प' करता है उसका एक नमूना इस वीडियो में आप देख सकते हैं.. कभी कभी बेचारा शरमा शरमा कर भी 'पप्प' करता है..



उसके पापा और उसके बीच के वार्तालाप का एक हिस्सा आप को पेश करता हूं..
सीन 1 :
- केशू, पता है तुमको?
- आं!!
- अरे, ये तो पापा को भी नहीं पता है.. तुमको क्या पता है?
- आं!!

सीन 2 :
- केशू, पता नहीं तुमको?
- नई..
- पापा को भी नई पता है बेटा!!(उदास वाला शक्ल बना कर)
- नई.. ऊंहेंहेंहें..(ठुनकना चालू, कि पापा बताओ)

सीन 3 :
भोरे भोरे, जब केशू का उन्घी भी नहीं टूटा रहता है, भाकुवाया रहता है, तब उसे कार दिखा कर बहलाया जाता है.. पड़ोस के घर में खड़े कार.. तू तार(टू कार).. अगर आपको वो किस्सा होगा तो आप भी इस 'टू' का रहस्य जान जायेंगे.. अगर नहीं जानते हैं तो इस पन्ने से घूम आयें..
तो मुआमला आज भोरे का ही है.. आज भोरे टू कार नहीं, फोर कार लगी हुई थी.. अब केशू को पापा के साथ कार नहीं देखनी थी.. उसे तो दादा के साथ देखनी थी कारें..
- हम भी देखेंगे फोर कार..(केशू के पापा कि आवाज)..
- नई..
- आं.. पापा आं, केशू नई!!
- ऊंहेंहेंहें...
- अच्छा, पापा नई देखेंगे फोर कार.. केशू देखेगा..
अभी भी हम तीन बालकनी में खड़े हैं.. कार कि ओर तीनों ही देख रहे हैं.. मगर कार सिर्फ केशू और उसके दादा ही देख रहे हैं.. उसके पापा नहीं.. उसे डर है कि पापा कहीं सारे कार को देखकर खतम ना कर दें..

सीन 4 :
आज केशू अपने खिलौना गिटार पर सू-सू कर दिया.. उसके पैंट में उसका सू-सू लगा हुआ है उसकी चिंता नहीं.. मगर पहले उसके गिटार को पहले साफ़ करो..
सू-सू करने के बाद उसकी एक समस्या और भी रहती है.. कहीं उसके पैंट बदलने के बीच में उसका छू-छू उसके पापा कुवा(कौवा) को ना दे दें..

चलिए, इस अलिफलैला के किस्से और भी हैं सुनाने को.. अभी तो हम सुनते ही रहेंगे इन किस्सों को.. :)

Wednesday, December 15, 2010

दो बजिया बैराग का एक और संस्करण

एक जमाने के बाद इतने लंबे समय के लिए घर पर हूँ.. एक लंबे समय के बाद मैं इतने लंबे समय तक खुश भी हूँ.. खुश क्यों हूँ? सुबह-शाम, उठते-बैठते इनकी शक्लें देखने को मिल जाती है.. सिर्फ इतना ही बहुत है मेरे लिए.. इतना कि मुझे अपने Loss of Payment का भी गम नहीं.. जी हाँ, Loss of Payment पर छुट्टियाँ लेकर घर पर हूँ.. मगर फिर भी खुश.. इतने लंबे समय तक खुश रहने कि आदत भी खत्म हो चली थी, सो कभी-कभी दुःख कि कमी भी सालती है.. मगर फिर भी खुश हूँ.. मैं इन्हें देख कर खुश हूँ, और वे मुझे देख कर.. जी हाँ, मैं पापा-मम्मी कि ही बात कर रहा हूँ..

अभी-अभी मैं इधर घर आया और भैया का तबादला पटना से कहीं दूर, लगभग हजार किलोमीटर दूर, हो गया.. सो फिलवक्त यहाँ सिर्फ पापा, मम्मी और मैं ही हूँ.. ये अपने बच्चों(दीदी, भैया अथवा मैं) के पास अधिक समय नहीं रहना चाह रहे हैं, इन्हें पटना में ही रहना है.. इनके पास भी कुछ जायज वजहें हैं, जिसे मैं नकार भी नहीं सकता.. और स्वीकार करना भी बेहद कठिन जान पड़ता है.. जब तक मैं यहाँ हूँ, तभी तक.. अभी तो कुछ और दिनों तक यहीं रह कर Work From Home करने कि जुगत में हूँ.. चार कमरे, दो बड़े-बड़े हॉल वाले घर में मात्र तीन आदमी का होना ही उसे सुनसान सा बना देता है.. हाँ मुझे चिढ है इस बड़े घर से.. एक कमरे में अगर मोबाईल कि घंटी भी बजे तो दूसरे कमरे में सुनाई नहीं देता है.. ये सोचता हूँ कि जब मैं भी नहीं होऊंगा तब इन दो प्राणियों को कितना खटकेगा यह घर?

जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ से, और जहाँ भैया नए-नए पदस्थापित हुए हैं वहाँ से भी, पटना आना एक टेढ़ी खीर(भैया के बेटे कि तोतली भाषा में खीर नहीं, 'तीर') ही है.. चेन्नई से कम से कम साढ़े आठ घंटे(वो भी तब जब आप जैसे ही एयरपोर्ट पहुंचे तभी आपको दिन में वाया मुंबई, वाया दिल्ली, फिर पटना जाने वाली एकमात्र फ्लाईट मिल जाए) लगते हैं.. भैया जहाँ गए हैं वहाँ से सबसे पास के बड़े शहर पुणे(वहाँ तक जाने में दो घंटे, फिर फ्लाईट वाया दिल्ली फिर पटना) जाकर पटना आने में भी नौ दस घंटे लगेंगे.. लब्बोलुआब यह कि कोई तुरत आना भी चाहे तो दस घंटे सबसे कम समय सीमा है..

मुझे कई दफे पापा ने कहा कि बिहार सरकार में ही अथवा बिहार में ही कम्प्युटर से सम्बंधित कोई नौकरी अथवा कोई काम शुरू कर दो.. मगर मैं अपनी कुछ व्यावसायिक मजबूरियों(स्वार्थ का ही Sophisticated शब्द मजबूरी) के चलते अभी इधर शिफ्ट नहीं होना चाहता..

इधर पिछले कुछ सालों से जब भी घर(पटना) आना हुआ है तब हमेशा मम्मी को स्वास्थ्य रुपी समस्याओं से घिरा ही पाया हूँ.. हर बार कुछ और निष्क्रियता देखता हूँ.. इस हद तक कि उन्हें अपनी पसंद कि सब्जी बनाने के लिए बोलने से पहले मैं खुद ही वह बना दूँ, उन्हें कोई कष्ट ना हो.. माँ के हाथ कि सब्जी का लालच छोड़ कर.. बाहर के सारे काम पापाजी को करते देखता हूँ.. कम से कम जब मैं नहीं होता हूँ तो कोई और चारा भी नहीं होता उनके पास.. शुरुवाती दिनों में बहुत कष्ट होता था उन्हें सब्जी लाते देख कर भी.. जिस तरह कि जिंदगी उन्होंने जिया है, उसमें उन्हें(या हमें भी) कभी भी सब्जी खरीदने तक कि जरूरत नहीं देखी.. हर वक्त कुछ लोग होते थे यह सब काम करने के लिए.. मगर वहीं उन्हें देखा कि रिटायर होने के बाद अचानक से बेहद खास से बेहद आम होते गए.. मेरे लिए आश्चर्य का विषय मगर पापा के लिए बेहद सामान्य.. शायद जड़ से जुड़ा आदमी ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं.. जो दस नौकर-चाकर के साथ जिंदगी गुजारने के बाद अचानक से वह सब त्याग कर, बिना किसी अहम के सारे कार्य खुद करने लग जाएँ(वे हमें बचपन से ही कहते रहे हैं, "तुम लोग अफसर के बच्चे हो, मैं तो किरानी का बेटा हूँ")..

अभी कुछ दिन पहले पापा कि तबियत जरा सी खराब होते देख मुझे कुछ भविष्य दिखने लगा.. मुझे कुछ यूँ दिखा कि अब मैं भी नहीं हूँ.. वापस अपने कार्यक्षेत्र जा चुका हूँ.. पापा कि तबियत जरा सी खराब हुई, और घर के सारे जरूरी काम ठप्प से पड़ गए अथवा उन पड़ोसियों के जिम्मे आ गए जिनसे हमारे बेहद मधुर सम्बन्ध हैं.. और उस वक्त अगर हम में से कोई आना चाह भी रहा हो तो आ नहीं पा रहा हो..

इधर इन्हें अपने पोते का मोह भी खिंच रहा है.. खैर, जब तक मैं हूँ तब तक फिर भी ठीक है.. कमी कुछ कम खलेगी.. मेरे बाद?? ऐसा पोता जो जन्म से लेकर अभी तक(दो साल से ऊपर तक) इन्हीं के लाड-प्यार के साथ बड़ा हुआ हो.. दिन में एक बार उसकी आवाज सुनने तक को छटपटाते देखा हूँ(जबकि अभी उसे जाने में पन्द्रह दिन बाकी है).. मोह माया का शायद कभी अंत नहीं..

बहुत कठिन जान पड़ता है ये सब अब!!! खुद पर भी, या ऐसे कहूँ कि अपने स्वार्थ पर बेहद शर्मिन्दा भी हूँ.. मगर फिर भी उसे छोड़ नहीं सकता हूँ..

Friday, December 10, 2010

एक सड़क जो कभी शुरू नहीं हुई

आज तक कभी कोई दिखा नहीं है उस घर में.. कभी उसके बरामदे में टहलते हुये भी नहीं.. नहीं-नहीं! कभी-कभी कोई दिख जाता है.. शायद गर्मियों कि शाम जब बिजली आंख-मिचौली खेल रही हो.. सर्दियों में तो शायद कभी नहीं.. गर्मियों के दिनों में पटना में बिजली कि आंख मिचौली खेलनी बेहद आम बात है.. खासतौर से उन दिनों जब मैं पटना में होता हूँ.. वर्ना तो अकसरहाँ मुझे बताया जाता रहता है कि बिजली हर समय रहती है.. हजारों बार उधर से गुजरने के बाद भी शायद ही किसी का दिखना, मगर फिर भी जाने क्यों मुझे वह सड़क अपनी ओर खींचती सी महसूस होती है.. किसी गुरूत्वाकर्षण या चुम्बकत्व के प्रभाव के समान.. मैं नहीं जाना चाहता हूं उधर.. मगर जब कभी उस सड़क के पास से गुजरता हूं मेरे मोटरसायकिल का हैंडल स्वतः ही उस ओर घूम जाता है.. मुझे अच्छे से पता होता है कि उधर कुछ भी ऐसा नहीं है जो मेरे जीवन से संबंधित है.. मगर फिर भी... ना जाने क्यों??????

पुरानी डायरी का पुराना पन्ना - दिनांक ११ जून २००७

Tuesday, December 07, 2010

घंटा हिंदी ब्लॉगजगत!!

हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगजगत!!
हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगजगत!!
हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगजगत!!
हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, घंटा हिंदी ब्लॉगजगत!!
अधिकाँश हिंदी में ब्लॉग लिखने वाले पता नहीं कब तक हिंदी ब्लॉगिंग को शैशव अवस्था में मान कर एक्सक्यूज देते रहेंगे.. ब्लॉग लिखने कि शुरुवात हुए बामुश्किल १०-१२ साल हुए हैं, और हिंदी ब्लॉग लिखने कि शुरुवात हुए लगभग ६-७ साल, मगर अभी तक यह शैशव अवस्था में ही है.. हद्द है ये.. अपनी गलती छुपाने का अचूक उपाय.. इसे शैशव अवस्था का बता दो.. बस्स.. ये नहीं सोचते कि अभी खुद ही हम शैशव अवस्था से आगे कि नहीं सोच पा रहे हैं, बस कहने को बड़ी-बड़ी बातें हैं पास में..

अब तो कभी-कभी लगता है कि अच्छा ही हुआ जो ब्लॉगवाणी बंद हो गया.. कम से कम उतनी चिल्लपों तो अब नहीं होती है.. और ना ही पहले जितने "बधाई, कृपया मेरे यहाँ भी पधारें" जैसा कमेन्ट मिलता है अथवा "अच्छा लगने पर पसंद जरूर करें" जैसा मैसेज पोस्ट के नीचे चिपका हुआ मिलता है.. अब भले ही कमेन्ट कि संख्या कुछ कम हो, मगर जो भी आते हैं कुछ पढ़ने के लिए ही आते हैं.. कहीं कुछ हंगामा बरपा भी तो कम ही लोग आपस में झौं-झौं करते हैं, जब तक बहुतों को पता चले उससे पहले ही लोग लड़ने के बाद अपना फटा कुरता समेट कर जा चुके होते हैं..

लोग बात बात में कहते हैं "हिंदी ब्लॉगजगत", मानो अपनी मानसिकता बना लिए हों कि जो ब्लॉग लिखते हैं बस वही उनके ब्लॉग पढ़ें और कमेन्ट लिखें.. अगर कोई बाहरी पढ़ भी ले तो कमेन्ट करने से पहले अपना प्रोफाईल बनाए तभी कुछ लिखे, नहीं तो हम उसे बेनामी कह कर गालियाँ भी देंगे और अगर मेरा ब्लॉग मोडेरेटेड है तो बेनामी कहकर उसे पब्लिश भी नहीं करेंगे.. मतलब पूरी बात यह कि अगर आप ब्लॉग लिखते हो तो ही मुझे पढ़ो, और अगर पढ़ भी लिए तो जबान बंद रखो!! तिस पर यह रोना कि यहाँ सिर्फ ब्लॉगर ही लिखते हैं और ब्लॉगर ही पढते हैं.. अब कोई खुद ही कुवें में रहना चाहे और बाहर ना निकले तो रोना किस बात का भला?

मुझे अच्छे से पता है कि मेरे इस पोस्ट को ब्लॉगर के अलावा और कोई नहीं पढ़ने वाला है, अगर कोई पढता भी है तो उसे समझ में नहीं आएगा कि मैं क्या और क्यों लिख रहा हूँ ये सब, अगर यह उसके समझ में आ भी जाता है तो यह उसके किसी काम का नहीं होगा.. कुल मिलाकर यह कि ब्लॉग के ऊपर लिख कर कोई भी अपने पाठक वर्ग को निराश ही करता है, कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है..

कुल मिलाकर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हिंदी में लिखे जाने वाले ब्लॉगस को शैशव अवस्था में मानना बंद करें, अगर दस साल के अंग्रेजी ब्लॉगिंग को सौ बरस का माना जाए तो हिंदी ब्लॉगिंग सठियाने कि अवस्था में आ चुका है.. हिंदी ब्लॉग नामक छोटे दायरे से बाहर निकल कर समूचे अंतरजाल के बारे में सोचना शुरू करें.. सबसे अहम बात, अगर आप चाहते हैं कि आपके लिखे पोस्ट को ब्लॉग से बाहर के लोग भी पढ़ें तो ब्लॉग और ब्लॉगरों के बारे में लिखना बंद ना भी करें तो कम अवश्य करें..

अपने उन पाठकों से क्षमा सहित जो ब्लॉग जगत से बतौर लेखक जुड़े हुए नहीं हैं..

डिस्क्लेमर - यह पोस्ट कुछ महीने पहले लिखी गई थी, जिसे मैंने उस वक्त गुस्से में लिखी थी.. इसलिए भाषा भी बेहद तल्ख़ है.. मगर आज इसे पोस्ट करते समय भी मैंने इसकी तल्खियत घटाने कि जरूरत महसूस नहीं की.. किसी को इस भाषा से कष्ट पहुंचे तो अग्रिम माफ़ी ही मांग लेता हूँ..

Monday, December 06, 2010

6 दिसंबर, डा.आम्बेडकर जी और बावरी मस्जिद

छः दिसंबर को भारत देश के लिए गौरवपूर्ण क्षण के साथ शर्मनाक क्षण एक साथ आते हैं.. शर्मनाक क्षण ऐसे जिसे हमें याद ना करना चाहिए, उसे हमारी मीडिया चिल्ला चिल्ला कर उत्तेजित आवाज में खबरें बांचती है, साथ में एक सवाल भी किसी जुमले जैसे उछाल देती है जिसमें हिंदू-मुसलिम सहिष्णुता पर सवाल इस कदर हावी होता है जैसे अगर किसी के मन में कोई राग-द्वेष नहीं है तो क्यों नहीं है? होना चाहिए.. जैसे भाव होते हैं..

गौरवपूर्ण क्षण, यानी डा.आंबेडकर जी का महापरिनिर्वाण दिवस.. एवं शर्मनाक क्षण, यानी बावरी मस्जिद का गिरना..

गौरवपूर्ण क्षण को लेकर मीडिया में कोई हलचल नहीं, ये उनके लिए शर्मनाक क्षण हों जैसे और बावरी मस्जिद का गिरना किसी तरह का गौरव प्रदान करने जैसा.. खैर, इस पर(मीडिया पर) कुछ भी लिखना अपना ही समय बर्बाद करने जैसा है.. मगर फिर भी जब किसी ऐसे व्यक्ति कि तरफ से कोई अजीबोगरीब किस्म का सवाल उछलता है तो उसके जवाब में मन में कई तरह के अन्य प्रश्न पैदा हो जाते हैं.. फिलहाल दो उदाहरण देना चाहूँगा..

पहला उदहारण :
कल रात विनीत ने फेसबुक पर एक प्रश्न पूछा :

आज की रात आपको बाबरी मस्जिद याद आ रहे हैं या फिर आरएसएस के गुंडे?
18 hours ago · ·

उनका यह सवाल मैंने आज सुबह देखा, और लिखा "कोई भी नहीं.. चैन से सोकर उठे हैं अभी.." मगर मन में जो सबसे पहली बात आयी वह यह थी, "यहाँ हर कोई अपनी निजी समस्या से घिरा हुआ है, किसे फुरसत है इन बातों को इतने सालों बाद याद रखने की और समस्या किसी का धर्म देखकर नहीं आता है?" वैसे भी मेरे ख्याल से इन बातों को याद रखने से फायदा भी क्या है? सिवाय नफरत के और क्या मिलेगा इन बातों को याद रख कर?

दूसरा उदहारण :
कुछ बातें मैं डा.आंबेडकर जी के बारे में भी लिखना चाहूँगा.. आज के समय में अगर कोई डा.आम्बेडकर जी को याद ना करे तो तुरत-फुरत में उसे दलित विरोधी बता दिया जाता है, मगर अगर वही व्यक्ति लाल बहादुर शास्त्री जी को याद ना करे तो उसे सवर्ण विरोधी नहीं बताया जाता है!! मैं यहाँ किसी तरह की तुलना नहीं कर रहा हूँ.. हमारे यहाँ कि शिक्षा पद्धति ही ऐसी है जिसमें इन महापुरुषों के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया है.. इसमें किसी को याद रखना और याद ना रखना मैं उसकी अज्ञानता ही समझता हूँ.. आज ही अभय तिवारी जी ने लिखा :

एक समाज सुधारक, दलित समाज के नेता के तौर पर तो सवर्ण समाज उन्हे गुटक लेता है लेकिन विद्वान के रूप में अम्बेडकर की प्रतिष्ठा अभी सीमित है। उसका सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही कारण है कि वे दलित हैं..
7 hours ago · ·

यहाँ मैंने एक और मुद्दे कि ओर बात खींचने कि कोशिश की.. जिसके बारे मैं मैं अभी भी बात कर रहा था, हमारी शिक्षा पद्धति.. ये दीगर बात है कि उसके बनाने वालों में भी अधिकाँश सवर्ण ही रहे होंगे(यह मेरा मत है, मेरे पास कोई सबूत नहीं).. मैंने वहाँ लिखा था, "एक कारण और भी है, सवर्ण समाज कि अज्ञानता.."

तीसरा उदहारण :
दिलीप मंडल जी आम्बेडकर जी कि बात पिछले दो-तीन दिनों से कह रहे हैं.. मगर उनके कहने के तरीके से मुझे सख्त ऐतराज है.. क्योंकि मेरी नजर में यह नफरत को और बढाने जैसी ही बात है.. वे कहते हैं :

डॉ. अंबेडकर के निजी संग्रह में 50,000 से ज्यादा किताबें थीं। उन्होंने जो लिखा है वह करोड़ों शब्दों में है। वे अपने समय के सबसे ज्यादा पढ़-लिखे लोगों में थे (गांधी-नेहरू की तरह नहीं)। खासकर अर्थव्यवस्था पर उनके लेखन को दोबारा पढ़ने की जरूरत है।
10 hours ago · ·

मैंने उनसे इस बाबत सवाल भी पूछे, जिसका जवाब अभी तक नहीं मिला.. मेरा सवाल था "गाँधी-नेहरू की तरह नहीं" से उनका क्या मतलब है? या फिर कैसा मतलब साधना चाह रहे हैं? मेरी इस बात को कुछ अच्छे तरीके से अशोक कुमार पांडे जी कहा :

Ashok Kumar Pandey इस () की कोई ज़रूरत नहीं थी…किसी को चमकदार सफ़ेद बनाने के लिये दूसरे पर स्याही पोतना, दरअसल उसकी सफ़ेदी पर शक़ करना है।
6 hours ago · · 5 people


नोट - फिलहाल इसे पोस्ट से पहले सोच रहा हूँ कि इतने दिनों बाद कुछ लिख रहा हूँ और किन-किन बातों में दिमाग को उलझाए रखे हुए हूँ.. (मुद्दों पर जीने वाले बुद्धिजीवी हो सकता है मेरे इस "किन-किन" शब्दों पर आपत्ती जताए, मगर आम भारतीय ऐसे ही सोचता है यह उन्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा)

Tuesday, November 16, 2010

ताला

आज मैंने उसे बड़े गौर से देखा.. कल्पना अक्सर लोगों को कुछ अधिक ही जहीन बना देती है.. हकीकत से अधिक खूबसूरत भी कल्पना ही बनाती है और कल्पना ही उनमे महान होने का अहसास भी जगाती है.. शायद मैं भी खुद एक कल्पना सा होता जा रहा हूँ, यथार्थ से कहीं दूर.. एक अलग जहान अपनी सी भी लगती है..

वह अभी भी वैसी ही थी जैसी पहले थी.. नाक-नक्स से खूबसूरत होने का पर्याय भी तुम्हे कहा जा सकता है, मगर तुम इतनी भी अधिक खूबसूरत नहीं कि पूरी जिंदगी मात्र खूबसूरती के भरोसे काटा जा सके.. फिर भी तुम्हे देखते रहने को जी करता है.. लगातार.. निरंतर.. अनवरत..

हाँ! मगर जब तुम पास होती हो तो ऐसा लगता है जैसे सारी कायनात मेरे सामने पनाह मांग रही हो.. कोई भी इच्छा-लालसा अधूरी ना रही हो.. सुध-बुध खोकर तुम्हे अपनी आँखों में भर लेने का जी करने लगता है और तुम्हे लगता है कि मैं तुम्हे घूर रहा हूँ..

तुम मेहदी लगाती थी, पूरे दाहिने हाथ में.. और बाएं हाथ में सिर्फ एक वृत्त बनाकर छोड़ देती थी.. मैं तुम्हारे बाएं हाथ को हाथों में लेकर अपनी आँखों से लगा लेता हूँ, मानो मेरे लिए सारा ब्रह्माण्ड उसी वृत्त के इर्द-गिर्द भटक रहा हो.. आज कोई बता रहा था कि मेरे आँखों के चारों और काले धब्बे से बनते जा रहे हैं..

तुम बताती थी कि मैं डेनिम कार्गो में अच्छा लगता हूँ.. वह पीली वाली टीशर्ट तुम्हे याद भी थे जो मैंने कई साल पहले किसी त्यौहार के लिए ख़रीदे थे और माँ से जिद करके पहले ही पहन कर निकल आया था घर से.. पिछली दफे जब घर गया था तो वह बेचारा दबा-सिमटा तह करके अलमीरा में रखा हुआ था.. तुम्हारी दी हुई वह कार्गो डेनिम भी एक सूटकेश में तह करके रखी हुई है.. मन भी इधर कुछ दिनों से कई परतों में दबा हुआ सा तह करके रखा हुआ सा लगने लगा है..

मन भी मुझे कभी-कभी उसी पेड़ कि तरह लगता है जो लगातार रेल के साथ दौड़ लगाता रहता है.. मगर यह मौकापरस्त नहीं होता.. यह रेल के साथ दौड़ लगाने वाले पेड़ कि तरह रिले रेस नहीं दौड़ता, कि एक झटके से दौडना बन्द कर दे और अचानक से दूसरा पेड़ उसी दौड़ का हिस्सा बन जाए.. मन दौड़ता है, रुकता है, मगर साथ ही वहीं खड़े होकर इन्तजार भी करता है, के शायद वह रेल दुबारा वापस आये.. कुछ मन, दूसरे रेलों के साथ दौड़ लगाने में मशगुल हो जाते हैं.. कुछ मन उसी रेल का इन्तजार करते रह जाते हैं, जो पलट कर आने में इस जिंदगी का सा समय लेते हैं..

Friday, November 05, 2010

ड्राफ्ट्स

१:
"आखिर मैं कहाँ चला जाता हूँ? अक्सर कम्प्युटर के स्क्रीन पर नजर टिकी होती है.. स्क्रीन पर आते-जाते, गिरते-पड़ते अक्षरों को देखते हुए भी उन्हें नहीं देखता होता हूँ क्या? या फिर उन्हें देख कर भी ना देखते हुए मैं अपनी एक अलग दुनिया बुनता रहता हूँ और रह-रह कर उस दुनिया से इस दुनिया तक के बीच सामंजस्य बनाने के लिए आँखें स्क्रीन पर टिकी रहती है?" सच भी है कि हर किसी कि अपनी दुनिया भी होती है.. जिसे वह हमेशा साथ लेकर चलता है.. हर एक कि अपनी दुनिया दूसरे कि दुनिया से जुदा भी होती है.. इस दुनिया के साथ चलते हुए किसी दूसरी दुनिया में जीने की कला हर एक को आती है.. और उम्र के साथ-साथ उस दुनिया में भी बदलाव आता है..

२:
मैं आस-पास देखने समझने कि कोशिश करता हूँ.. कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता.. शहर, जाने कौन सा भी हो, अपनी सी शक्लें लिए भागता सा दिखता है.. मैं उठता हूँ.. जी जान लगा कर दौड़ता हूँ.. थकता हूँ.. हांफता हूँ.. रूकता हूँ.. गरियाता हूँ शहर वालों को.. फिर दौड़ने कि हालत में ना होने पर बैठ जाता हूँ, सोचते हुए कि इस रेस में ही जितने वाले क्या जीते? मन का दूसरा कोना बताता है कि कहीं अंगूर खट्टे ना हों.. उसे डपियाटा हूँ, आँखें तरेरता हूँ, इशारों में समझाता हूँ जिससे दोबारा ऐसी बात ना कहे.. वो सब अनसुना करके अपना राग गाये चला जाता है.. एक हिस्सा इस दौड़ को ख़ारिज करने पर तुला हुआ है तो दूसरा अंगूर खट्टे बताना चाह रहा है.. दोनों का शोर में दिमाग पर जोर अधिक होता है.. बेदम होकर गिर जाता हूँ.. सुबह घर वाले बताते हैं कि फिर मैं देर रात तक जगा हुआ था और बेसुध हो कर बिस्तर पर गिरा हुआ था, साथ में सलाह भी आती है कि अपना समय सारिणी को बदलना होगा.. मैं प्रतिकार नहीं कर पाता, बता नहीं पाता हूँ कि अभी तक मैं सोया ही नहीं हूँ.. कितनी रातों से नहीं सोया हूँ.. हर रोज का यही किस्सा.. लोग जिसे सोना कहते हैं.. मेरे लिए वह थक कर होशोहवास खो देना है..

३:
सिगरेट का एक अधजला टुकड़ा असल की हकीकत से रूबरू कराता सा लगता है.. उन दिनों कि याद दिलाता है.. मुफलिसी की.. आधा टुकड़ा जला कर, आधे को अगले समय के लिए बुझा कर रख लेना.. जले टुकड़े को फिर से सुलगाने पर एक अलग ही कड़वाहट मुंह में भर जाना.. यह सब उस रात तक चलता रहा जिसके अगले दिन बढ़ी हुई तनख्वाह ना मिल गई थी.. सब अब मुझे मेरी दुनिया से अलग दुनिया सा लगता है.. या शायद मेरी ही दुनिया का एक अलग आयाम हो जिसका सामना मैं नहीं करना चाहता हूँ.. कहीं मुझे चौथा आयाम भी तो नहीं दिख रहा है, मनुष्यों कि नज़रों से इतर? कहीं जिंदगी हर पल एक नए आयाम में तो प्रवेश नहीं करती है, जिसका पता हमें नहीं लगता है?
जिंदगी भी सिगरेट जैसी ही होती है, यकीन के साथ तो नहीं कह सकता मगर शायद कुछ-कुछ.. जब तक इसे लबों से लगाए रखते हैं, यह एक अलग ही सुखद अहसास देता रहता है.. नशीला अहसास.. जिंदगी भी तो नशा ही है! एक बार इसे बुझा कर और फिर जलाना वैसी ही कड़वाहट घोल जाता है जैसे सिगरेट, या जैसे जिंदगी..
४:
लोग समझते हैं कि मुझे ना सोने की बीमारी है.. अक्सरहां मुझे जगा हुआ ही या आँख खोले किसी सपने में जीते हुए पाते हैं.. सपने अक्सर अच्छे या बुरे होते हैं.. बचपन में एक सपना अक्सर बहुत परेशान करता था मुझे.. अब वह सपना तो नहीं आता, मगर उस सपने का डर अभी तक गया नहीं है.. अब तक किसी से मैंने यह बांटा नहीं है, माँ-पापा से भी नहीं जिनसे अपने बीते प्रेम प्रसंग पर भी बेधड़क चर्चा कर लेता हूँ.. एक बैलगाड़ी और उसमें बंधे दो बैल.. वे बैल बैलगाड़ी के साथ मेरा पीछा करते थे.. मुझे अपने सींघ से डराते थे.. मगर घिर जाने पर मारते नहीं थे, मेरे घिरने पर मुझे मेरे जो कोई भी प्रियजन बचाने आते थे उनका खून पीने लगते.. वे प्रियजन अक्सर अपना रूप बदल कर आते थे.. कभी माँ, कभी पापा, कभी दादी, कभी दीदी.. मैं डरकर जगता, पसीने में भींगा हुआ, फिर माँ से चिपककर सो रहता..

५:
दूसरों का तो पता नहीं मगर मेरे साथ यह अक्सर होता है.. कहीं भाग जाने का मन करने लगता है.. इस "कहीं" शब्द का कोई निश्चित परिभाषा तय नहीं है, यह "कहीं" कहीं भी हो सकता है.. जब ऐसी इच्छा होती है उस वक़्त भी इस "कहीं" का कोई अपना निश्चित "पता" कहीं नहीं होता है.. मगर जिस अक्षांस और देशांतर में उस पल मैं होता हूँ, वहाँ होने कि इच्छा नहीं होती है.. बस भाग जाने का मन करता है.. ये कोई अवसाद कि स्थिति में ही हो, यह तय नहीं है.. सामान्य अवस्था में रहते हुए भी उस तरह कि बातें मन में पनपने लगती है..

ये सभी बातें पांच अलग-अलग विचारावस्था में लिखी गई थी जो मेरे ड्राफ्ट में रखी हुई थी.. आज सभी को एक ही जगह इक्कट्ठा करके यहाँ पोस्ट कर दिया.. अब आपको जो कुछ भी पढ़ने-समझने जैसा लगे वह पढ़े समझे..


Thursday, November 04, 2010

केछू अब बला औल समझदार हो गया है

केशू से पूछे गए कुछ सवाल के जवाब (केशू के बारे में जानने के लिए यहाँ देखें):

प्रश्न : केछू के पास कितना हाथ है?
उत्तर : टू!
प्रश्न : केछू के पास कितना पैर है?
उत्तर : टू!
प्रश्न : केछू के नाक में कितना छेद है?
उत्तर : टू!
प्रश्न : केछू के कितने आईज हैं?
उत्तर : टू!
प्रश्न : केछू कि कितनी दीदी है?
उत्तर : टू!
प्रश्न : केछू के पास कितने कान हैं?
उत्तर : टू!


ये तो सामान्य ज्ञान कि बातें थी.. अब जरा केशू से गणित के सवाल पूछ कर देखा जाए..

प्रश्न : एक और एक कितने होते हैं?
उत्तर : टू!
प्रश्न : टू इन टू वन कितना होता है?
उत्तर : टू!
प्रश्न : फोर बाई टू कितना होता है?
उत्तर : टू!
प्रश्न : थ्री माइनस वन कितना होता है?
उत्तर : टू!


तो देखा आपने, केशू दो साल कि उमर में ही कितना होशियार हो गया है? सारे सवाल के सही जवाब.. हो सकता है कि आपके पास अपने भविष्य के लिए कोई प्लान ना हो, मगर इसने पूरी प्लानिंग कर रखी है अभी से ही.. चलिए अब इससे उस पर सवाल पूछते हैं..

प्रश्न : केछू कितनी शादी करेगा?
उत्तर : टू!
प्रश्न : केछू के कितने बच्चे होंगे?
उत्तर : टू!
प्रश्न : केछू कितना कार खरीदेगा?
उत्तर : टू!




फोटो में - केशू. एक मिठाई खाने के बाद टू वाला मिठाई खाने जा रहा है.. :)

और हाँ, एक बात तो बताना ही भूल गया.. केशू अभी बच्चा है, सो ज्यादा कोमप्लिकेटेड सवाल पूछ कर उसे कन्फूजियायियेगा मत.. :) वो तो बात ये है कि केशू इतना ईमानदार है कि अपना जवाब कभी भी नहीं बदलता है.. केशू हमेशा सही उत्तर देता है, बस सवाल पूछने वाला समझदार होना चाहिए.. :)
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एक सिनेमा का एक दृश्य याद आ रहा है.. कादर खान(शायद वही थे) एक बकरी को दिखा कर बोल रहा था कि ये बकरी बोलती है.. कुछ सवाल भी उसने बकरी से पूछा जिसका सही जवाब मिला.. मसलन :

प्रश्न(बकरी से) : यहाँ बकरी कौन है?
उत्तर : मेएएए!!!
प्रश्न : अप्रैल के बाद कौन महीना आता है?
उत्तर : मेएएए!!! :)

Sunday, October 31, 2010

पुराने डायरी का पन्ना

यह बातें मैंने ३० जून २०१० को लिखी थी.. लिखते वक्त जाने किन बातों को सोचते हुए इतनी तल्खियत में लिख गया था.. आज ना वे बातें याद हैं और ना ही उन बातों के पीछे कि तल्खियत.. फिर भी इसे जस का तस आप तक भेज रहा हूँ..

अब अच्छी कहे या बुरी, मगर जनाब आदत तो आदत होती है.. और जो छूट जाये वह आदत ही क्या? जैसे मेरी एक आदत है.. कहीं कुछ भी अच्छा लिखा दिखा, तो उसे अपने कालेज के उन सहपाठियों को मेल कर देता हूँ जिन्हें अपना मित्र समझता हूँ.. कई बार तो यह भी नहीं बताता हूँ कि यह मैंने लिखी या किसी और ने.. मुझे कभी-कभी अपना लिखा भी पसंद आ ही जाता है.. अपना लिखा पसंद करने में कोई गुनाह भी नहीं दीखता है मुझे.. जब मैं "मेरी छोटी सी दुनिया" में नहीं लिख रहा होता हूँ तो अपने निजी ब्लॉग पर लिखता होता हूँ, इसे स्वांत सुखाय कर्म कहना ही ठीक रहेगा.. किसी निजी डायरी कि तरह, जिसके दरवाजे बंद हैं सभी के लिए.. उन्हें जब कुछ भी मेल करता हूँ, तब मुझे एक-दो को छोड़ किसी से यह उम्मीद बिलकुल नहीं होती है कि वे इसे पढेंगे ही.. वे भी शायद यही समझते होंगे कि क्या पागलों कि तरह इतने लंबी-लंबी कहानियाँ मेल करता रहता है.. खैर इसकी परवाह होती तो अभी तक यह सिलसिला ना चलता होता.. जिस दिन कोई कह देगा कि मत भेजो, उस दिन से उसे भेजना बन्द.. फिलहाल तो यह जारी ही रहेगा.. आदत जो ठहरी.. और आदत इतनी आसानी से थोड़े ही ना जाती है!!!

अभी कुछ दिन पहले कि ही बात है.. मैंने "मानव के मौन" से उठाकर यह कहानी "तोमाय गान शोनाबो" सभी को मेल की.. फिर एक दिन अपने एक मित्र से यूँ ही पूछ बैठा, "आजकल फुरसत में हो(उन दिनों वाकई वह फुर्सत में थे), तो कहानी पढ़ने का पूरा समय मिल जाता होगा? वह कहानी कैसी लगी?" यह मित्र उन मित्रों में से आता है जिनसे यह उम्मीद रहती है कि उसे पसंद आये ना आये मगर वह पढता जरूर होगा.. उसने कहा, "थोडा और खुलकर लिखता तो मस्तराम हो जाता.." मैं भी उसकी बात पर हँस दिया.. खुद के हँसते वक्त मुझे यह भी याद आया कि कैसे उस दिन मैंने उससे जिरह की थी जब मेरे ही कहने पर वह मंटो को पढ़ा था और लगे हाथ उसने भी मंटो को अश्लील कह कर ख़ारिज करने कि कोशिश भी की थी.. साहब, कोशिश क्या की थी, वो तो लगभग ख़ारिज हो भी चुका था.. बड़ी मुश्किल से मंटो को अश्लील होने से बचाया था, शायद!! मगर अब इन जिरहों में नहीं पड़ना चाहता था.. यह सोच कर सिर्फ हँस कर निकल लिया कि हर कोई अपनी सोच के साथ जीता है, मैं भी.. और उस सोच में कोई किसी तरह का खलल नहीं चाहता है..

ठीक ऐसी ही एक मित्र हैं, उसे कई वैसी कहानियों या सिनेमाओं से चिढ है जो सच्चाई दिखाती हो, या फिर उन कहानियों किस्सों को नापसंद करती हो जिसे मैं पसंद करता हूँ.. अभी तक तय नहीं कर पाया हूँ.. उससे भी यह उम्मीद हो चली है कि अधिकांश फीसदी मेरी भेजी कहानियाँ पढ़ती होगी.. क्योंकि अधिकतर मेरी भेजी वैसी कहानियों पर अपनी नापसंदगी जाहिर कर चुकी है जिसका अंत असल दुनिया कि तरह ही निराशाजनक होता है.. शायद उसके ख्वाबों कि दुनिया में असल दुनिया अथवा असल दुनिया कि कहानियों की कोई जगह तय नहीं होगी.. शायद!! पता नही!!! उफ़ ये परीज़ाद के किस्से भी!!!!

मुझे वह दिन भी याद आ गया जब घर पर अपनी एक मित्र के साथ बैठ कर गप्पे हांक रहा था और उधर टीवी भी चल रही थी.. कोई म्यूजिक चैनल था, जिस पर बदल-बदल कर गाने आ रहे थे.. मैं गुलजार के किसी गाने पर अटक गया.. वह मुझसे बेतक्कलुफ़ होकर कह दी, "मुझे गुलजार के गाने कभी समझ में नहीं आते हैं, मगर जब सभी तारीफ़ करते हैं तो अच्छा ही लिखते होंगे.." मैंने कहा, "समझना चाहो ता जरूर समझ में आएगी.." उसका कहना था, "ठीक है, तुम ही समझा दो कभी.." मैंने कहा, "ठीक है, समय आने दो.." मगर मन में चल रहा था कि उसे उन चीजों को कैसे समझाऊं जो भावनाओं पर बहते हैं, परिस्थितियों से गुजरते हैं.. गुलजार साहब, शब्दों से यूँ खेलना ठीक नहीं.. कहीं पढ़ा था, सागर के ब्लॉग पर, "एक सौ सोलह चाँद कि रातें, एक तुम्हारे काँधे का तिल" जैसी बातों को समझाने से उसने मना कर दिया था....अब कोई भला इसे कैसे समझायेगा? ये बचपन के, स्कूल के समय के कमबख्त हिंदी टीचर ने भी कबीर और रहीम के दोहे जैसी चीजों के अलावा कुछ भी नहीं समझाया.. बिहारी तक आते आते उनकी पढाने की कला में चूक हो जाया करती थी, या सिलेबस खत्म, या परीक्षा के चलते टाल जाया करते थे.. इन अथाह प्यार में डूबे गीतों को भी उन्होंने कभी नहीं समझाया जिनमे भावनाएं सच्चाई के साथ सवार रहती है...

एक दफ़ा जब याद है तुमको,
जब बिन बत्ती सायकिल का चालान हुआ था..
हमने कैसे, भूखे-प्यासे, बेचारों सी एक्टिंग की थी..
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था..
एक चव्वनी मेरी थी,
वो भिजवा दो..

सावन के कुछ भींगे-भींगे दिल रक्खे हैं,
और मेरी एक ख़त में लिपटी रात पड़ी है..
वो रात बुझा दो,
और भी कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है,
वो भिजवा दो..

पतझड़ है कुछ,
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट,
कानों में एक बार पहन कर लौट आई थी..
पतझड़ कि वो साख अभी तक कांप रही है..
वो भिजवा दो,

एक सौ सोलह चांद की रातें,
एक तुम्हारे कांधे का तिल..
गिली मेंहदी की खुश्बु,
झूठ-मूठ के शिकवे कुछ..
सब भिजवा दो..


Saturday, October 23, 2010

किस्सों में बंधा एक पात्र

हर बार घर से वापस आने का समय अजीब उहापोह लिए होता रहा है, इस बार भी कुछ अलग नहीं.. अंतर सिर्फ इतना की हर बार एक-दो दिन पहले ही सारे सामान तैयार रखता था आखिर में होने वाली हड़बड़ी से बचने के लिए, मगर अबकी सारा काम आखिरी दिन के लिए ही छोड़ दिया.. साढ़े बारह बजे के आस-पास घर से निकलना भी था और आठ साढ़े आठ से पहले मैं जग नहीं सकता ये भी पता.. कुल मिला कर मैं मानसिक तौर पर इस बात के लिए तैयार था कि कुछ ना कुछ मैं छोड़ कर ही आऊंगा..

"अब ये क्या है?" माँ कुछ दे रही थी, तीन-चार पन्नियों में अच्छे से जकड़ा हुआ एक पैकेट.. "काजू-किशमिश का पैकेट है.. तुम्हे अच्छा लगता है, और मुझे पता है कि तुम खरीदता नहीं है वहाँ.." यही कुछ जवाब आया.. पिछली दफे मैं हर ऐसे किसी पैकेट पर ऐतराज जताता रहता था जिसे मैं चेन्ना में आसानी से खरीद सकता हूँ, मगर अबकी मैं अन्य दिनों कि अपेक्षा चुपचाप सब रखे जा रहा हूँ.. अपना लगभग खाली सा बैग टटोलता हूँ, याद आता है कि आते समय पापा कि कई किताबें याद करके लेता आया था.. कुछ सामान भी था जैसे दीदी की साडी, बच्चों कि कुछ चीजें, एक अन्य मित्र के लिए कांचीपुरम की साडी.. अब बैग लगभग आधा से अधिक खाली है.. हाँ, जितनी किताबें लेकर आया था, लगभग उतनी ही पुनः लेते जाना है.. उसे कंधे पर टांगने वाले बैग में रख लूँगा.. इस बैग को कार्गो में भेजना है, जिसका वजन अधिक नहीं होना चाहिए.. वैसे भी किताबों का वजन कुछ अधिक ही होता है, चाहे दिमाग पर हो या कन्धों पर.. "बगल में एक डब्बा भी रखा हुआ है, उसे भी रख लो.." एक और संवाद, "अब क्या है इसमें?" "मखाना भूंज कर, पीस कर रखा हुआ है.. वहाँ ये नहीं मिलता होगा, खीर बना कर खाना.." मैं थोड़ी सी जगह बनाता हूँ और उसे भी रख लेता हूँ.. आलमीरा से एक शर्ट निकालता हूँ.. पास मौजूद हर चीज से कोई ना कोई किस्सा जुड़ा होता है, कई लोग अपना पात्र निभा चुके होते हैं उन किस्सों में.. उस शर्ट से भी जुड़े कुछ किस्से याद आते हैं.. कुछ-कुछ पुराने जमाने के सिनेमा कि तरह बैक्फ्लैश के कुछ सीन आँखों के सामने से गुजर कर थम जाता है.. कुछ साल पुराने किस्से.. वे किस्से जो आज भी मेरे भीतर कहीं पैठ जमाये हुए हैं, फिर से उस किस्से में अपना पात्र याद नहीं करना चाहता हूँ सो वापस रख देता हूँ..

नाश्ते के लिए पूछा जाता है, मैं मना कर देता हूँ.. कहता हूँ कि एक ही बार खाना खाकर एयरपोर्ट के लिए निकलूंगा.. वापस जाने का उद्देश्य सोचते हुए घर में टहलता हूँ.. पापा मम्मी के कमरे में जाता हूँ.. पापा नाश्ता करके नींद में हैं.. उनके बगल में लेट कर उनके गोद में समाने की असफल कोशिश करता हूँ.. याद आता है कि अब उनसे भी एक-दो इंच लंबा हो चुका हूँ, मगर उनके सामने जाता हूँ तो हमेशा मुझे वही पापा याद आते हैं जो बचपन में दिन भर मुझे गोद में उठाये घुमते थे.. कई किस्से आँखों के सामने घूम जाते हैं.. मुझे वह पापा याद आते हैं जिनके मातहत कर्मचारी उन्हें हम बच्चों के साथ हंसी-ठिठोली करते देख सदमे कि स्थिति में आ जाया करते थे, उन्होंने सपने में भी ये कभी नहीं सोचा था कि इतने कड़क साहब का यह रूप भी हो सकता है.. कुछ उससे पुराने किस्से भी नज़रों के सामने घूमने लगते हैं जब गाँव जाने पर भैया-दीदी कहीं और निकल जाते थे मगर मैं पापा या मम्मी को छोड़ कर कहीं नहीं जाता था और अब हालात कुछ ऐसे हैं कि पापा-मम्मी से सबसे अधिक समय तक अलग रहने का रिकार्ड सा बनाते हुए इतनी दूर फिर से निकल जाना है.. जीवन का लक्ष्य क्या है? क्या पैसे कमाना ही 'कुछ' या 'सब कुछ' है? कहीं मैं किसी मृगमरीचिका के पीछे तो नहीं भागा जा रहा हूँ? कहीं हम सभी किसी मृगमरीचिका के पीछे तो नहीं भाग रहे हैं? कुछ प्रश्न मन में आते हैं, जिनका कोई उत्तर ना पाकर मैं खीज उठता हूँ, और उन्हें नजरअंदाज ना करते हुए भी नजरअंदाज कर देता हूँ.. पापा को नींद में कसमसाते हुए देखकर उनकी गोद में समाने कि अपनी असफल कोशिशों को मुल्तवित कर देता हूँ.. धीरे से उनका हाथ लेकर अपने गाल पर रखता हूँ.. एक किस्सा फिर कहीं नज़रों के सामने घूमने लगता है.. बचपन में भैया के एक मित्र 'रॉबिन्सन हैम्ब्रम' जब पहली दफे हमारे चक्रधरपुर वाले घर में पापा से मिले थे तब बाद में आश्चर्य से बोले थे, "अंकल का हाथ कितना बड़ा है!!" मैं पापा का बायां हाथ अपने दाहिने हाथ में लेकर अपने हाथ से नापता हूँ.. कुछ मिलीमीटर का फर्क अब भी है, अंतर सिर्फ इतना है कि अब मेरा हाथ बड़ा है.. मैं धीरे से उनके हाथ को चूमता हूँ.. और रख देता हूँ..

बचपन में माँ कहती थी, "तुम खा लिए तो मेरा पेट भर गया.." मुझे आश्चर्य होता था.. अहा!! ये कैसा जादू है? जो मेरे खाने से माँ का पेट भर जाता है? मुझे महाभारत का वह किस्सा याद आता है जिसमें भगवान कृष्ण ने मात्र एक चावल के दाने से सभी ऋषि-मुनियों को तृप्त कर दिया था.. हकीकत का ध्यान बड़े होने पर ही आया.. "मिथकें भी भला कभी सच होती है क्या?" जिस दिन घर में पलाव बनता था उस दिन हम सभी भाई-बहन आपस में लड़ते थे माँ के साथ खाने के लिए, वो काजू-किशमिश चुन कर हम लोगों के लिए अलग रख देती थी.. कहती थी कि उन्हें अच्छा नहीं लगता है ये.. सच कहूँ तो मुझे आज भी नहीं पता कि माँ को खाने में क्या अच्छा लगता है? शायद पापा को पता हो.. मगर हमारी हर एक पसंद-नापसंद का ख्याल तब भी रखती थी, और आज भी रखती है.. अब जब हम भी ख्याल रखने के हालत में आ चुके हैं तब भी मुझे सिर्फ इतना ही पता है कि उन्हें 'वेनिला फ्लेवर' का आइसक्रीम बेहद पसंद है.. शायद भैया को इससे अधिक पता हो, उन्हें उनके साथ समय बिताने का अधिक मौके मिले हैं..

मैं वापस उस बड़े वाले हॉल में आता हूँ जिसमे मुझे हर चीज बड़ी-बड़ी दिखती है.. टीवी बड़ा.. सामने टंगे हुए फोटो बड़े-बड़े.. हम सभी की तस्वीर वह टंगी हुई है.. माँ भी बड़े वाले सोफे पर आराम से बैठी हुई है.. उनके पास जाता हूँ.. पास जाकर जमीन पर बैठ कर अपना सर उनके गोद में रख लेता हूँ.. माँ के हाथ को अपने गालों पर महसूस करता हूँ.. बचपन के किये एक जिद्द कि याद हो आती है.. कितना छोटा था, यह अब याद नहीं.. मगर यकीनन मैं बहुत ही अधिक छोटा रहा होऊंगा, क्योंकि बेहद धुंधली सी याद बाकी है.. माँ अपने घर के काम को लेकर हैरान-परेशान सी थी और मैं जिद्द पकड़े बैठा था कि खाना खाऊंगा तो माँ के गोद में ही बैठ कर.. मेरी वह जिद्द पूरी भी हुई, उनके सारे जरूरी कामों को छोड़कर.. उनके गर्भ में समाने कि इच्छा होती है, जिससे उनसे दूर ना जा सकूं.. चूंकि पता है कि यह एक असफल कोशिश ही होगी, सो कोशिश ही नहीं करता हूँ.. रोने कि असीम इच्छा होती है, मगर नहीं रोता हूँ.. यह एक कष्टप्रद स्थिति होती है जब आपको कुछ करने कि असीम इच्छा हो और आप ना कर पायें.. एक बेचैनी, छटपटाहट की धार भीतर ही कहीं घाव करती एवं कुरेदती रहती है.. समय देखता हूँ, समय होने ही जा रहा है.. धीरे से वहाँ से उठ जाता हूँ.. खाना लेता हूँ, खाता हूँ और निकल जाता हूँ मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ.. मैं अपनी पहचान खोता जा रहा हूँ, जिंदगी एक नया पाठ सीखा रही है.. एक ओढ़ी हुई मुस्कराहट जो अब कभी-कभी लगता है मेरी नई पहचान ही बनती जा रही है..

इन सब बातों को बीते हुए लगभग डेढ़ महीना होने को आ रहा है.. देखिये मम्मी, घर से लाया काजू खत्म होने के बाद मैंने फिर खरीद लिया है.. रात के, नहीं-नहीं.. सुबह के साढ़े चार बजने जा रहे हैं.. मेरी माँ मुझसे नाराज है, पापा तटस्थ मुद्रा लिए हैं, और मैं बहुत उदास हूँ.. कारण बता कर दुनिया के सामने नंगा नहीं होना चाहता.. पापा-मम्मी, I Love You Too Much..

इस लेख से कमेन्ट का ऑप्शन स्वेच्छा से हटाया गया है..

Wednesday, October 20, 2010

पटनियाया पोस्ट!!

किसी शहर से प्यार करना भी अपने आप में अजीब होता है.. मुझे तो कई शहरों से प्यार हुआ.. सीतामढ़ी, चक्रधरपुर, वेल्लोर, चेन्नई, पटना!!! पटना इन सबमें भी कुछ अव्वल दर्जे का.. सोलह हजार पटरानियों में रुक्मणि जैसा रुतबा!! जवानी के दिनों में हौसलाअफजाई से लेकर आवारागर्दी तक.. सब जाना पटना से.. अब लगभग सात-आठ साल से पटना से बाहर रहने के कारण कई जगहों के नाम बिसरता जा रहा हूँ, मगर उन गलियों के नक्शों को कौन मिटाएगा जो अंदर तक कहीं खुदी हुई है?

उस शहर से पहली मुलाक़ात बचपन में कभी हुई थी, कब, यह अब याद भी नहीं.. सीतामढ़ी से पटना तक गया था, पापा के साथ टंगके, सरकारी गाडी से जो किसी सरकारी काम से जा रहे थे.. गांधी सेतु पुल के ऊपर से गुजरने में अजीब सा सुखद अहसास अब भी याद है.. बिहार में एक कहावत बहुत प्रसिद्द है "उप्पर से फीट-फाट, अंदर से मोकामा घाट".. इस कहावत कि आत्मा को मेरी पीढ़ी से एक पीढ़ी ऊपर वाले लोग ही समझ सकते हैं.. वे लोग जो गाँधी सेतु पुल से बहुत पहले के थे.. या दीगर बात है कि अगली बार पटना आते समय बिहारसरीफ़ और नवादा से गुजरा था..

बोरिंग रोड, राजीव नगर, रुकुनपुरा, खाजपुरा, मछुवाटोली, पत्थर की मस्जिद, दरभंगा हाउस, पटन देवी, नाला रोड, कदमकुवां, राजेन्द्र नगर, शास्त्रीनगर, गाय घाट, राजापुल.. इन सबसे पहचान के बहुत पहले कि बात थी वो.. सर्पेंटाइन रोड को तो बहुत बाद तक मैं उस पंचमंदिर वाले सड़क के नाम से ही पहचानता था.. उसका नाम तक मालूम ना था मुझे..

नाला रोड वाला वह मित्र अभी भी मुझे चिढाते हुए चिढता है, जिसे अब भी यही लगता है कि उसके घर के सामने से रिक्शे से गुजरने वाली हर लड़की उसे ना देख कर मुझ पर नजर रखती थी.. यह शहर वह शहर है जहाँ मेरी आवारागर्दी के किस्से भी मेरे साथ ही जवान हुए थे.. मेरा कोई भी पुराना मित्र मेरी गवाही दे सकता है कि उन आवारागर्दी के दिनों में भी कभी किसी लड़की से छेड़खानी मैंने ना की थी, मगर चंद मित्र ही उस गवाही में यह जोड़ सकते हैं की राजेन्द्र नगर रोड नंबर दो में पहली बार किसी लड़की के घर का पता जानने के लिए उसके रिक्शे को अपनी स्कूटर के रफ़्तार से कैसे सिंक्रोनाइज़ किया था, जिसके घर के आगे एक तख्ती लगी हुई थे "सावधान! यहाँ कुत्ते रहते हैं!!" आखिरी दफे अगस्त के पटना यात्रा में जब अपने उस नाला रोड वाले मित्र के घर गया था, तब बैंगलोर से फोन पर मेरे मित्र ने नौस्टैल्जिक होते हुए पूछा था, "अबे साले, अभी भी लड़कियां तुझे देख रही थी या मेरे छोटे भाई को?"

कुछ हंसी-हंसी में : मेरी एक कालेज की मित्र पटना के अपराधीकरण के कारण अक्सर कहती थी, "मैं पटना सिर्फ तभी जाउंगी जब तुमलोग शादी करोगे, सुना है बहुत अपराध होता है वहाँ!!" और मेरा पटनिया मित्र उसे और भी डराते हुए कहता था, "अरे पटना के बारे में तो पूछो ही मत.. वहाँ जैसे ही सड़क पर आओगी वैसे ही चारों तरफ गोलियाँ ही चलती मिलेगी.. हमलोग तो झुककर-बचकर निकल जाते हैं.." :)

मेरे साथ एक अजीब विडम्बना रही है अब तक.. जो चाहा वो ना मिला, जो मिला वह चाहने से कहीं बढ़कर.. संतुष्टि कभी ना हो पाती है.. यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे माँ को बदलकर दूसरी माँ सामने रख कर कोई बोले कि यह पहले वाली से भी अच्छी है.. इश्क किया पटना से, भटक रहा हूँ भारत भर के बड़े शहरों में..

गाय घाट के किनारों पर बैठ कर गंगा की परती जमीन को देखते हुए हाजीपुर में फैले हुए कई किलोमीटर तक केले के खेत.. चिनिया केला.. पटना से दरभंगा जाते हुए बस में, चिनिया केला.. उस परती जमीन में कई प्रकार के पक्षियों से लेकर क्रिकेट खेलते बच्चे और मछुवारे अपनी नावों के साथ..

पटना का जिक्र हो और गाँधी मैदान के साथ-साथ पुस्तक मेले और दसहरा और छठ पूजा में साफ़-सुथरी सड़क का जिक्र ना हो तो पटना के साथ नाइंसाफी जैसा महसूस होता है.. मगर जिक्र किसका करूं? बरसात के मौसम में झील जैसा सीन क्रियेट करता हुआ गांधी मैदान का? या फिर एक ही मैदान में कम से कम बीस क्रिकेट टीम को एक साथ पूरे स्पेस के साथ क्रिकेट खेलते हुए बच्चों और जवानों का? या फिर उसी मैदान के किसी कोने में नशे में धुत्त ताश के पत्तों से दांव पर सबकुछ हारते लोगों का? या फिर एक ही मैदान में एक साथ चलते दो-तीन मेले के बावजूद आधे मैदान में राजनीति के दांव लगाते कुछ नेताओं का? शुरू के दिनों में विश्व पुस्तक मेला पटना में दो साल में एक बार लगता था जो बाद में बदलकर हर साल लगने लगा.. उसके चक्कर लगाते हुए कई दफे पूरी पुस्तक ही पढ़ जाना.. कामिक्स वाले स्टाल में बच्चों के साथ अपनी उस क्रमशः के बाद वाली कामिक्स ढूँढना.. दसहरा के समय डाक बंगला चौराहे को घेर कर दो-तीन किलोमीटर तक गाड़ियों का प्रवेश निषेध करने के बावजूद लाखों की भीड़ देखना.. मौर्यालोक के पहले मंजिल से देखने पर ऐसा महसूस होना जैसे विशाल नरमुंडो का झुण्ड चला आ रहा हो.. यूँ तो वह शहर गंदगियों में डूबा रहता है और लोग नगरपालिका को गालियाँ देते नजर आते हैं, मगर छठ पूजा के समय वही शहर के लोग पूरे शहर को उसकी सडकों समेत नहलाकर, झाडू लगाकर साफ़ किये रखते हैं.. पोस्टल पार्क कि खुरपेंच गलियों से निकलना किसी भी नए के लिए आसान ना हो..

मुझे बुरी यादें कभी परेशान नहीं करती है, बुरी यादें मुझे ढाढस बंधाती है.. हौसला देती है.. कुछ और अच्छा, कुछ और नया करने को.. वहीं अच्छी यादें मुझे अक्सर अवसाद में धकेलती है.. अंदर ही अंदर कुछ शूल सा चुभता महसूस होता है.. अच्छी यादाश्त से बुरी शै और कुछ नहीं होती है शायद..

कहीं और जाने से पहले एक चक्कर यहाँ भी लगा लें..

Monday, October 18, 2010

हम ! जो तारीख राहों में मारे गए.

अधिक कुछ नहीं कहूँगा, बस ज़िया मोहयुद्दीन की आवाज़ में यह नज़्म सुनिए :

तेरे होंठो के फूलों की चाहत में हम,
तार के खुश्क टहनी पे वारे गए..
तेरे हाथों के शम्मों की हसरत में हम,
नीम तारीख राहों में मारे गए..

सूलियों पर हमारे लबों से परे,
तेरे होंठों की लाली लपकती रही..
तेरी जुल्फ़ों कि मस्ती बरसती रही,
तेरे हाथों की चांदी चमकती रही..

जब खुली तेरी राहों में शाम-ए-शितम,
हम चले आये लाये जहां तक कदम,
लब पे हर्फ़-ए-गज़ल, दिल में कंदील-ए-गम,
अपना गम था गवाही तेरे हुश्न की..
देख कायम रहे इस गवाही पे हम..

हम ! जो तारीख राहों में मारे गए..
हम ! जो तारीख राहों में मारे गए..

ना रसाई अगर अपनी तदबीर थी,
तेरी उल्फत तो अपनी ही तकदीर थी..
किसको शिकवा है गर शौक के सिलसिले,
हिज्र की क़त्ल्गाहों से सब जा मिले..
क़त्ल्गाहों से चुन कर हमारे अलम..

और निकलेंगे उस साख के काफिले..
जिनके राह-ए-तलब से हमारे कदम..
मुख़्तसर कर चले दर्द के फासले..
कर चले जिनकी खातिर जहाँगीर हम..
जाँ गवां कर तेरी दिलबरी का भरम..

हम ! जो तारीख राहों में मारे गए..
हम ! जो तारीख राहों में मारे गए..
हम ! जो तारीख राहों में मारे गए..




-------------------------
बाद में जोड़ा गया :

इसे एक माफीनामा ही समझ लें.. इस नज़्म का फैज़ से कोई ताल्लुकात नहीं है.. यह पूरी तरह से Zia Mohyeddin का ही है..


Saturday, October 16, 2010

श्रवण कुमार और मैं भला !!!!

कल अहले सुबह बात बेबात कैसे शुरू हुई कुछ याद नहीं है.. मगर बात विकास के साथ हो रही थी और विषय श्रवण कुमार से सम्बंधित.. श्रवण कुमार कैसे थे अथवा उसके माता-पिता कैसे थे, उनकी मृत्यु कैसे हुई, इत्यादी.. मुझे कुछ ही दिन पहले मम्मी से की हुई बात याद आ गई, जो मैं विकास को सुनाने लगा..

किसी बात पर उनसे(मम्मी से) बहस हो रही थी.. वो मुझसे किसी काम के लिए बोल रही थी, और मैं लगातार मना किये जा रहा था.. उन्होंने ताना मारा, यही श्रवण कुमार बनोगे? मैंने पलटवार किया, मैं उतना बेवकूफ नहीं हूँ जितना श्रवण कुमार थे.. मम्मी चौंकी, ये क्या बात हुई भला? मैं बोला, सही बात कही.. उन्होंने पूछा, भला कैसे? मैंने प्रतिउत्तर दिया, और नहीं तो क्या? माँ-बाप बोले तीर्थ यात्रा करनी है, और बेटा तुरत्ते बड़का बला तराजू लेकर आया, माँ-बाप को दोनों पलडों पर बिठाया, फिर ले चला तीर्थ कराने कंधा पर टांग कर.. कितना कष्ट हुआ होगा उनके माँ-बाप को, सो भला? घुमाना ही था तो बैलगाडी करता, पास में पैसा नहीं था तो पहले कमाता फिर घुमाता.. माँ-बाप अंधे ही थे ना, कोई मरणासन्न स्थिति में तो नहीं थे? फिर बात बदली मैंने.. बोला, वैसे भी मुझे पता है कि कल को मैं अगर श्रवण कुमार जैसा हो भी जाऊं तो भी आपलोग उनके माता-पिता जितना स्वार्थी तो ना ही होंगे भला, होंगे क्या? तीर्थयात्रा करने का शौक किस धार्मिक आदमी को नहीं होता है? सो उन्हें भी था.. अच्छा किये जो मन की बात मन में ना रख कर बेटे को भी बता दी.. बेटा तो बेवकूफ था ही, सो चट से ऑफर कर दिया होगा कि आपको कन्धों पर बिठा कर घुमाने ले जाऊँगा, मानो श्रवण कुमार ना हुए हनुमान जी हो गए.. और माता-पिता भी इत्ता स्वार्थी? राम-राम.. बेटा को कितना कष्ट होगा यह सोचने की भी फुरसत नहीं.. बस घूमने जाना है तो जाना है.. माँ-बाप अंधे ही थे ना, कोई लूले-लंगड़े तो नहीं थे.. बेटा कि बेवकूफी को सुधारेंगे सो नहीं.. बेटा को बोलते कि चलो बेटा, कंधवा पे नै चढेंगे, हथवे पकड़ कर घूम आयेंगे.. लेकिन नहीं.. उनको तो पैदल चलने का नाम सुन कर ही आलस आने लगा होगा!! उन दोनों को बेटे के कष्ट के आगे अपना मोक्ष और आलस दिख रहा होगा.. "हमको तो बस इतना पता है कि मेरे माँ-बाप उतना स्वार्थी नहीं हैं!! है क्या?"

खैर, इतनी बात सुन कर मम्मी भी जो बोल रही थी वो भूल गई, और हँसते हुए फोन रख दी.. :)

Wednesday, October 13, 2010

परिभाषा


हर किसी कि उम्र में उसके हिस्से का संघर्ष छिपा होता है.. वह दिन याद आता है, जब दुनिया के साथ संघर्ष के सिलसिले की शुरुवात नहीं हुई थी तब सोचता था.. चौंधिया कर किसी दूसरे के किस्सों को सुनता था.. गुनता था.. व आह्लादित हुआ करता था.. जैसे कितने बड़े और महान आदमी के बीच बैठने का सौभाग्य मिला हो.. कुछ समय बीता.. अपना भी दिन आया, अपने हिस्से के संघर्ष को जीने का.. फिर अपना किस्सा भी कुछ अपनों की बीच भूंकना शुरू किया गया.. आज भी वह संघर्ष का सिलसिला चल रहा है.. फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब भूंकना बंद हो चुका है.. अब ये संघर्ष वैसी ही बात लगती है जैसे दिनचर्या.. जैसे खाते हैं, जैसे सोते हैं, जैसे हगते हैं, जैसे मूतते हैं.. वैसे ही संघर्ष भी कर लेते हैं यार..

अब शांतचित होकर सोचता हूँ, देखता हूँ, तो पाता हूँ कि हर किसी ने अपने हिस्से के संघर्ष को जिया है.. जरूरी नहीं की सभी का संघर्ष आर्थिक ही हो.. किसी का मानसिक, तो किसी का शारीरिक भी होता है.. ये दुनिया किसी को भी बख्सती नहीं है.. अपने ठोकर पर लेकर चलती है.. ऐसी दुनिया जहाँ हर किसी को, हर खुशी की कीमत चुकानी होती है.. जितनी छोटी खुशी, आपके औकात के हिसाब से उतनी ही कम कीमत.. जितनी बड़ी खुशी, आपके औकात के हिसाब से उतनी ही अधिक कीमत.. बिसात बिछी हुई है, बस हर कोई आपके दांव के इन्तजार में खड़ा सा दिखता है.. वो भी तो कहीं खड़ा है, किसी और के चाल के इन्तजार में.. बस शह औ मात!!

रात के इस पहर में अपने दो बजिया बैराग्य को डांट-डपट कर, गरिया कर, मैं अपनी बकवास कर चुका, आपका क्या अनुभव रहा है इस बाबत?

इस नींद को भी मुझी से दुश्मनी क्यों है भला? सोने जाओ तो आती नहीं.. ना सोने के समय, बेसमय आ धमकती है.. रात-बिरात आँख मूंदे ही हिसाब-किताब बिठाने लगता है.. ये तेरा कहाँ, ये तो मेरे हिस्से का गपक गया.. अपने जो दूसरे के हिस्से का गपक गया था उसका हिसाब कोई नहीं.. तेरा.. मेरा.. इसका.. उसका.. किसका? खैर!!!

Sunday, October 10, 2010

रामायण मेरी नजर से



अभी कुछ दिन पहले एक कामिक्स पढ़ रहा था "वेताल/फैंटम" का.. उसमे उसने एक ट्रक के पहिये को जैक लगा कर उठा दिया, वहाँ खड़े बहुत सारे जंगली लोगों ने एक नयी कहावत कि शुरुवात कर दी "वेताल में सौ आदमियों जितना बल है, उसने अकेले कई हाथियों जितना भारी मशीनी दानव को उठा लिया".. यह किस्सा बताने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि किवदंतियां अथवा दंतकथाओं में अतिशयोक्तियाँ शायद ऐसे ही अज्ञान कि वजह से आती है..

जब तक खुद तर्क कर कुछ समझने कि अवस्था में नहीं था तब तक मैंने भी राम को भगवान कि तरह ही पूजा है.. आज जब तर्क से सब समझने कि कोशिश करता हूँ तो उन्हें कुछ कमियों के साथ एक कथा का महानायक, महापुरुष मानता हूँ.. भगवान/अल्लाह जैसी किसी भी चीज पर आस्था ना होते हुए भी कहीं रामायण का जिक्र आता है तो रुक कर उसे सुनना चाहता हूँ.. किसी आदर्श कथा कि तरह.. रामायण से सम्बंधित जितने भी एनीमेशन बने हैं वह सभी देख रखी है मैंने, रामानंद सागर द्वारा बनाये गए रामायण को भी दो-तीन दफे सम्पूर्ण रूप से देखा हूँ.. रामायण महाकाव्य का हिंदी रूपांतरण भी पढ़ा हूँ.. और इतना कुछ देखने पढ़ने के बाद भी अगर कहीं किसी चैनल पर रामायण(अक्सर स्टार के किसी चैनल या कार्टून नेटवर्क पर) आता देखता हूँ तो वहीं ठहर जाता हूँ.. तुलसी कृत रामचरितमानस का हिंदी अनुवाद भी पढ़ा हूँ.. कुल मिला कर मेरे यह सब कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि मुझे यह कहानी अपनी और बेहद आकर्षित करता है.. मेरे मुताबिक यह भारत का या शायद विश्व का सबसे पुरातन साहित्य है, जो संभव है किसी राजा के गुणगान में लिखा गया हो अथवा कोरी कल्पना भी हो सकती है..

आप क्या कहते हैं?

यह तस्वीर मुझे गूगल पर सर्च करने पर मिला.. Indiatimes के साईट का पता दिख रहा है, मगर उसका लिंक गायब है.. खैर इस बढ़िया चित्र के लिए Indiatimes को धन्यवाद तो दे ही दूँ.. वैसे यह एक लेख का हिस्सा था जो अयोध्या मुद्दे पर लिखा था मगर समय पर पोस्ट ना कर सकने के कारण वह लेख अपना अर्थ खो बैठा.. सो उसके इस हिस्से को ही छाप रहा हूँ.. एक अलग तरीके से..

Friday, September 17, 2010

एक अधूरी कविता

उस दिन जब तूने छुवा था
अधरों से और किये थे
कुछ गुमनाम से वादे..
अनकहे से वादे..
चुपचाप से वादे..
कुछ वादियाँ सी घिर आयी थी तब,
जिसकी धुंध में हम गुम हुए से थे..
कुछ समय कि हमारी चुप्पी,
आदिकाल का सन्नाटा..
अपनी तर्जनी से
मुझ पर कुछ आकार बनाती सी,
फिर हवाओं में
उस आकार का घुलता जाना..
किसी धुवें की तरह..
अभी मैं भी तो अधूरा ही हूँ..


Sunday, September 12, 2010

बेवजह

धीरे-धीरे हमारे चेहरे भी एकाकार होने लगे थे.. जैसे मेरा अस्तित्व तुममे या तुम्हारा अस्तित्व मुझमे डाल्यूट होता जा रहा हो किसी केमिकल की तरह.. धीरे-धीरे हमारे द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले शब्द भी सिमट कर एक होते जा रहे थे.. "सही है!!"... "सलीके से सब कर दिए हैं!!"... "चारपाई!!"... अगर आवाज भी एक हो जाती तो अकस्मात लोग समझ ही ना पाते कि मैं हूँ या तुम, या इसके उलट तुम हो या मैं?

एक दिन तुम चली गई.. बिलकुल अचानक.. ठीक उतना ही अचानक जितनी की मृत्यु होती है.. मैं कई दिनों तक सोचता रहा कि तुम जाने से पहले मुझे भी कोई जहर क्यों ना देती गई? अब लगता है, जहर तो तुमने दिया ही.. जीते जाने का जहर.. तुम्हारे बिना जीते चले जाने का जहर.. जो पल-पल जीने या शायद मरने को मजबूर कर दे..

छायावाद के हर उस कवि या लेखक की ही तरह शायद मेरे भीतर भी कोई नदी तुम्हारे लिए बहती होगी.. जिसमे हम दोनों के ख़्वाब अक्सर प्यास बुझाने आते रहे होंगे.. मगर अरसा हुए, जब मुझे लगने लगा कि मेरे भीतर कि वह नदी सूख चुकी है.. या धरती में विलीन हो चुकी है.. सरस्वती की तरह.. आज फिर वहाँ उस नदी से कुछ रिसता हुआ सा पाया.. आज फिर सारी रात मैं सो नहीं पाया..

जी कर रहा है एक सिगरेट जला लूं.. वही सिगरेट जिससे तुम हद दर्जे तक नफ़रत करती थी.. इतने वर्षों बाद भी मुझे याद है जब तुमने कहा था कि तुम्हारे कालेज के अधिकांश लड़के-लड़कियां फोरम के सामने बैठ कर घंटों धुवें तले जीते हैं, मगर चूंकि मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ सो मैं तुम्हें अच्छा लगता हूँ.. ऐसे ही अनगिनत कारण तुम मुझे गिना चुकी थी, मुझे अच्छा बताने के लिए.. सोच रहा हूँ उन सारे कारणों के विरोध में ठीक उलट हो जाऊं.. सोच रहा हूँ आज एक सिगरेट भी जला ही लूँ और या तो उसी के साथ उसी रफ़्तार में धीमे-धीमे जलता रहूँ या फिर तुम्हारी याद को ही धीमे-धीमे राख कर दूँ!!! तुम क्या सलाह दोगी इस बाबत?

ऐसी सजा, देती हवा,
तन्हाई भी, तन्हा नहीं..
नींदे भी अब, सोने गई,
रातों को भी, परवाह नहीं..

ऐसे में बारिश कि बूंदों से अपनी,
साँसों को सहला भी दो..
बढती हवाओं के झोंकों से दिल को,
नगमा कोई ला भी दो..
पलकों की कोरों पे बैठी नमी को,
धीमे से पिघला भी दो..

ये जिंदगी, ऐसी ही थी,
तुमने कभी, जाना नहीं..

जीवन की राहों में आना या जाना,
बताकर नहीं होता है..
जाते कहीं हैं, मगर जान देना,
के आना वहीं होता है..
खोने की जिद में ये क्यों भूलते हो,
के पाना भी होता है..

वो पल अभी, वैसा ही है,
छोड़ा था जो जैसा वहीं..


नोट - गुलाल सिनेमा के इस गीत को पोडकास्ट में नहीं लगा रहा हूँ, उसे नेट पर ढूँढना या फिर खुद ही अपलोड करने जितना मेहनत करने का जी नहीं कर रहा..
एक और आखिरी बात, इसे दो बजिया बैराग्य का हिस्सा ना माना जाए..


Tuesday, September 07, 2010

मेरे घर के बच्चों को डराने के नायाब नुस्खे

बात अधिक पुरानी नहीं है.. इसकी शुरुवात सन 2004 के कुछ साल बाद हुई, जब दीदी कि बड़ी बिटिया को यह समझ आने लगा कि डरना क्या होता है.. फिर शुरू हुई यह दास्तान.. मेरी आवाज गूंजने लगी घर में, "अरे, मेरा मोटा वाला डंडा और रस्सी लाना जरा.. अभी सोमू को बाँध कर पिटाई करते हैं.." (दीदी कि बिटिया को ननिहाल में दिया गया नाम सोमू है..) यह दीगर बात है कि ना तो कभी उसे रस्सी से बाँधा गया और ना ही कभी मोटा वाला डंडा से पिटाई हुई.. कुछ दिनों के साथ के बाद वो प्यारी बिटिया अपने घर चली गई.. मगर उसे वो रस्सी और डंडा भुलाए भी ना भूल पायी.. उसे समझ में आ गया था जिसकी लाठी, उसी की भैंस.. अब वो दीदी और पाहुनजी को हूल देने लगी "पछांत, मोटा बाला डंडा और रच्छी लाना, अभी पिटाई करते हैं".. मेरे लिए तो इतना ही काफी था कि मोटा वाला डंडा के भय से ही सही, कम से कम पछांत मामू उसे याद तो रह गए..

कुछ समय बाद दीदी कि छोटी बिटिया भी हुई.. और उसकी सोमू दीदी उसके बदमाशी करने पर उसे भी पछांत मामू के डंडा से ही डराती रही.. छोटी बिटिया के साथ अधिक समय गुजारने का मौका कभी नहीं मिला.. मेरे लिए वो अप्पू से गप्पू कब बन गई, मुझे भी पता नहीं चला.. सभी के लिए अप्पू, और मेरे लिए गप्पू.. दोनों गाल खूब फुले हुए.. देखते ही खींचने का मन करने लगे, कुछ ऐसा..

इस बार के पटना यात्रा में कुछ अधिक समय गुजारने का मौका मिला जिसे मेरे बुखार ने बर्बाद कर दिया.. किसी को गोद नहीं ले सकता हूँ, कहीं उसे भी बुखार ना हो जाए.. मगर दूर से तो डरा ही सकता हूँ.. है कि नहीं?? :)

कुछ दिनों बाद एक और बच्चे का आगमन हुआ घर में.. भैया-भाभी को बेटा और मुझे भतीजा मिला.. पापा-मम्मी अब नाना-नानी के अलावा दादा-दादी भी बन गए.. उधर दीदी-पाहुनजी का भी प्रोमोशन हो गया इन रिश्तों में.. 24 अगस्त को भैया के बेटे केशू का दूसरा जन्मदिन था..



अब जन्मदिन बच्चों का हो और बैलून ना आये, ये भी कभी होता है भला? नहीं ना!! तो ढेर सारे बैलून भी आये.. और मैंने ऐसे ही मस्ती में एक बैलून फोड़ दिया.. तीनों बच्चे हैरान-परेशान.. ये क्या आवाज किया.. सोमू रानी अब साढ़े छः साल कि थी, सो तुरत समझ गई कि बैलून फूटा.. गप्पू रानी को बताया गया कि बैलून फूटा.. और केशू लाला सोच में कि हुआ तो आखिर क्या हुआ? फिर उसे इतना ही समझ में आया कि बैलून से खेलने पर वो फूट जाता है और उससे डरावनी आवाज आती है..

अब तीनों बच्चों को इकठ्ठा करके, एक बैलून हाथ में लेकर खेलने पर तीनों कि प्रतिक्रिया के बारे में सुने :
सोमू बिना कुछ बोले अपने कान पर हाथ रख कर इन्तजार में रहती कि बैलून अब फूटा तो तब फूटा..

गप्पू बिटिया बिना किसी भाव को चेहरे पर लाये कुछ वाक्य लगातार बोलने लगती है, "मामू.. बैलून मत फोडो मामू.. प्लीज मामू.. बैलून मत फोडो मामू.. हम्फ(लंबी सांस लेने कि आवाज).. मामू.. बैलून मत फोडो मामू.. प्लीज मामू.. बैलून मत फोडो मामू.." यह मंत्र जाप तब तक चलता है जब तक कि उसके मामू, यानी मेरे हाथ से बैलून ना निकल जाए..

अब बचा सबसे छोटा बच्चा.. केशू.. वो तो जैसे ही अपने छोटे पापा के हाथ में बैलून देखता है वैसे ही दहाड़े मर-मर कर रोना चालू.. शुरू शुरू में तो किसी के भी हाथ में बैलून देख कर रोता था, बाद में उसकी समझ में आ गया कि बैलून से खेलते तो सभी हैं मगर फोड़ने का काम बस छोटे पापा का ही है..

कुछ और भी किस्से हैं जिसे मैं संभाल कर लेता आया हूँ.. मौका मिलते ही सुनाता हूँ.. :)

Saturday, August 21, 2010

क्यों पार्टनर, आपकी पोलिटिक्स क्या है?

"Oh! So you are from Lalu's place?"

यह एक ऐसा जुमला है जो बिहार से बाहर निकलने पर जाने कितनी ही बार सुना हूँ.. मानो बिहार में लालू के अलावा और रहता ही ना हो.. वह चाहे कोई भी हो, उसे जैसे ही पता चलता है कि यह बन्दा उत्तर भारत से है तो स्वाभाविक तौर से वह पूछ बैठता है कि कहाँ से हो? उत्तर बिहार के रूप में जैसे ही मिलता है वैसे ही एक कटाक्ष के रूप में सुनने को वही मिलता है.. "Oh! So you are from Lalu's place?"

कम से कम नब्बे फ़ीसदी लोगों का कमेन्ट यही रहता है..

जब मूड ठीक होता है तो बस मुस्कुरा कर सहमति जता कर चल देता हूँ.. जब मूड थोड़ा खराब रहता है तो पलट कर पूछ लेता हूँ "जनाब, यह कहने का आपका मतलब क्या है?" और वह जबदस्ती का कोई तर्क देता है और अंत में कहता है, "Just Kidding buddy" जिसे सुनकर पहले तो मन में गालियाँ देता हूँ कि "अबे, तू मेरे ससुराल वालों में से हो क्या या लंगोटिया यार हो जो बिना परमिट के ही पहली मुलाकात में मजाक करने का अधिकार मिल गया?" फिर उसका कहा अनसुना करके निकल लेता हूँ.. मगर जब मूड बेहद खराब रहता है और इस सवाल से बुरी तरह इरिटेट हो चुका होऊं तो पलट कर मैं कटाक्ष कर देता हूँ "Partner, what is your politics?" अव्वल तो यह सवाल अमूमन उन्हें समझ में ही नहीं आता है, और सामने वाले को अगर यह सवाल समझ में आ गया तो वह इस सवाल से बुरी तरह अकचका जाता है, कि सामने वाला कहना क्या चाहता है? सवाल को नहीं समझने वाले से मैं कुछ कहता नहीं हूँ, समझाना भी नहीं चाहता हूँ.. जिन्हें समझ में आती है उनसे अगला सवाल दाग देता हूँ "Do you want to demoralize me with this question? Or do you want show off that look buddy, I am better than you. Because I am not from Lalu's place, I am from Jaya's or Karunanidhi's place and 'they are very neat and clean'."

अक्सर कुछ कुतर्क सुनने को मिल जाया करते हैं मगर मेरे इस सवाल का अभी तक 'उनसे' संतोषजनक जवाब नहीं मिला है..

माफ़ी चाहूँगा, मगर कुर्ग यात्रा अगले भाग में. :)

Monday, August 16, 2010

दो बजिया बैराग्य - भाग छः

ऐसा लग रहा है जैसे मैं कुछ अधिक ही आत्मकेंद्रित हुआ जा रहा हूँ.. सुबह घर में अकेले.. दिन भर दफ्तर में अकेले.. और शाम में भी अकेले ही.. ऐसा नहीं की किसी मजबूरी के तहत मैं अकेला रह रहा हूँ और ऐसा भी नहीं की संगी-साथी भी ना हों !! बस ये मेरे द्वारा ही चुनी गई स्थिति है.. एक खतरनाक आदत जो अक्सर अवसाद को जन्म देने लगती है.. दफ्तर में भी अक्सर जितना काम होता है उतनी ही बातें भी होती हैं, अब इतने सालों से एक ही जगह काम कर रहा हूँ तो कुछ मित्र भी बना लिए हैं जो बिना काम के भी टोकने चले आते हैं.. ईमानदारी से कहूँ तो अक्सर उनसे जबरदस्ती कि बनाई मुस्कान के साथ ही बात करता हूँ..

पहले ब्लॉग या फेसबुक पर आभासी मित्रों के साथ अच्छा समय गुजर जाता था, धीरे-धीरे उनसे भी वार्तालाप में कमी आ गई है.. कल को यह अचानक से बन्द ही हो जाए तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.. फेसबुक पर कम से कम अभिषेक तो हमेशा मिल ही जाता है.. पिछले महीने भर से सोच रहा हूँ कि लवली से बात करूँ, मगर नहीं कर पा रहा हूँ.. कई दफे उसका नंबर सेलेक्ट करके कैंसिल कर दे रहा हूँ.. हालत कुछ यहाँ तक पहुँच चुकी है कि कुछ जरूरी जगहों पर फोन करनी है, जिसके बिना काम नहीं चल सकता है.. मगर एक-एक दिन करके टालते हुए अब पन्द्रह दिन होने जा रहे हैं उसके.. उन जरूरी चीजों में सबसे पहला नंबर है 'बैंक'..

कुछ किताबें, बस!! एक खत्म हुई, दूसरी शुरू.. दूसरी खत्म हुई तो तीसरी शुरू.. अपने पास रखी सभी किताबें खत्म हुई तो, बाहर से कुछ नई ले ली.. बस!!

दोपहर में अमूमन खाना खा कर घर पर फोन लगाता हूँ.. बिना बात किये हाँ, हूँ कह कर कर फोन रख देता हूँ.. मानो यह जताना चाह रहा था कि देखिये पापाजी, मैं ठीक हूँ.. खाना भी खा लिया हूँ.. आप चिंता ना करें.. अंदर ही अंदर कुछ घुट सा रहा है.. क्या? मुझे भी नहीं पता.. स्नेहा को फोन करता हूँ.. उधर भी फिर वही हाँ, हूँ करके फोन काट देता हूँ.. और वापस अपने खोल में घुस जाता हूँ, जहाँ से मुझ तक किसी का पहुंचना नामुमकिन हो जाए.. किसी चक्रव्यूह कि तरह जिसे भेदना हर किसी के बस की बात ना हो..

किसी से कोई बात करने का मन भी नहीं करता है दिन भर.. कभी कभी लगने लगता है कि कहीं हर दिन घर पर बात करना भी ड्यूटी का ही तो हिस्सा नहीं है? मगर इसका जवाब रात को एक या दो बजे के लगभग मिलता है जब माँ से खूब बात करने का मन करता है.. उस वक्त लगता है कि नहीं, ये ड्यूटी का हिस्सा नहीं है.. उन्हें बताने का मन करता है कि उनसे कितना प्यार करता हूँ या उन्हें कितना मिस करता हूँ.. अक्सर जब वो सामने होती है या फोन पर बात करते समय "क्या कर रहे हो" या "कैसे हो" या "खाना खाये या नहीं" जैसी औपचारिक बातों से बात शुरू होती है, और बात खत्म भी हो जाती है.. मगर रात का समय!!! मुझे पता होता है कि इस समय वो सो रही होंगी, तो भी उन्हें जगाया जा सकता है.. मगर ये भी पता होता है कि फिर वो भी मेरी ही तरह सारी रात सो नहीं पाएंगी.. सबसे छोटे बेटे कि चिंता से..

थोड़ी देर अंदर ही अंदर कसमसाता रहता हूँ.. चलो किसी दोस्त से ही बात कर लूं, जैसी बात मन में आती है.. अब इतनी रात गए कौन जगा हो सकता है? मनोज, ये एक ऐसा सख्श है जिसे मैं कभी भी किसी भी समय फोन कर सकता हूँ.. मगर उसे भी तो सुबह दफ्तर की चाकरी बजानी होती है.. ऐसे वक्त में पंकज को ही अक्सर फोन लगाता हूँ.. थैंक्स पंकज, अक्सर मुझे इतनी रात गए बर्दास्त करने के लिए.. अक्सर मेरी अवसादग्रस्त बाते सुनने के लिए, और ढाढस भी बंधाने के लिए.. स्तुति से भी अक्सर उसी समय बात होती है अगर वह दफ्तर में ना होकर घर में हुई तो.. उसके अमेरिका में होने का ये फायदा तो जरूर मिल रहा है..

सोने से पहले घर पर पापा के नंबर पर एक SMS छोड़ देता हूँ, "Love you & miss you both. Good Night." both लिखने के पीछे कि मनोदशा कुछ समझ में नहीं आती है.. उसे लिखने से पहले एक-दो मिनट सोचता हूँ, फिर वही लिखता हूँ और भेज देता हूँ.. सुबह दस बजे के करीब फोन कि घंटी से नींद खुलती है, और माँ पूछती है कि निशाचर हो क्या? सुबह के चार-पांच बजे तक जगे हुए थे? मैं बस टाल जाता हूँ.. माँ कुछ देर इन्तजार करती है, शायद कुछ कहेगा.. कुछ देर कि चुप्पी के बाद दफ्तर का बहाना करके फोन रख देता हूँ.. मैं फिर से किसी से बात ना करने वाले मनःस्थिति में हूँ.. दिन भर बीतने के बाद फिर से बैंक में फोन नहीं कर पाता हूँ..

दो बजिया बैराग्य के पुराने भाग पढ़ने के लिए लिंक.

कुर्ग यात्रा अगले भाग में.

Tuesday, August 03, 2010

Coorg - वह चाँद, जो सारी रात साथ चलता रहा Part 3

सुबह जागने पर पाया कि वही रेल जो रात चाँद के साथ कदमताल मिला कर चल रहा था, सुबह दूर खड़े पेड़ के साथ रिले रेस लगा रहा था.. जो कुछ दूर साथ-साथ दौड़ते हैं और अचानक कुछ निश्चित दूरी तय करने के बाद किसी और पेड़ को अपने स्थान पर दौड़ने के लिए छोड़ दे रहे थे.. रेल कि खिडकी और उस पर भी उससे झांकता चाँद, मुझे बेहद नॉस्टैल्जिक कर देता है.. बहुत देर तक यूँ ही खिडकी से झांकता रहा, बाद में सभी के सोने के बाद दरवाजे पर खड़े होकर रात के अँधेरे में अपनी रंगीनियत खोकर काली हो चुकी झाडियों पर पड़ती रेल की बत्तियों कि रोशनियों को तेजी से अपना आकार बदलते देखता रहा.. कई दफे लोगों को भी ऐसे ही बदलते देख चुका हूँ, सो उनसे इनकी तुलना करने लगा.. लगा कि ये झाडियाँ उनसे कहीं अच्छी है, कम से कम किसी का विश्वास तो नहीं तोड़ती हैं.. फिर सो गया.. क्योंकि कुछ पता नहीं था कि कल फिर किस समय आराम करने को मिलेगा..

तीन घंटे का सफर जो मैसूर से कुर्ग तक जाता था, उसे हमने लगभग पांच घंटे में पूरा किया.. आराम से रूकते-चलते.. काश जिंदगी भी ऐसे ही आराम से रूकते-चलते कटती होती! यहाँ तो हर मोड़ पर एक दौड़ का आयोजन सा लगता है.. घर से निकलो तो ट्रैफिक की दौड़.. पार्किंग में पहले पार्क करने की दौड़.. दफ्तर पहुँचने पर यही दौड़ अपनी उत्कर्ष पर पहुँच जाती है, जिसके सामने भावनाएं भी बचा पाना दिन-ब-दिन मुश्किल सा लगने लगा है.. देखते हैं कब तक संभाले रख पाता हूँ खुद को इन गलियों से.. वैसे भी जिंदगी तीन के बदले पांच का मौका किसी को नहीं देती.. जो करना है उसी तीन में करो, हो सके तो उससे भी पहले करके किसी और का हक मारो या किसी और की मदद करो, यह आदमी-आदमी पर निर्भर है..

जहाँ हमें जाना था, वह जगह कुर्ग शहर से लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर थी.. पहाडियों के ऊपर कहीं बसी हुई.. जहाँ तक आम आदमियों का जाना संभव नहीं.. पूरी पहाड़ी ही उस "Home Stay" के मालिकों का था.. बस ने हमें जहाँ छोड़ा था वहां से लगभग तीन-साढे तीन किलोमीटर तक "Home Stay" वालों द्वारा चलाये जाने वाले वाहनों से ही जाना संभव था, या फिर पैदल.. पैदल जाना नए लोगों के लिए मुनासिब नहीं था, क्योंकि रास्ते में फिसलन बहुत थी.. मुझे जैसे दो-तीन लोग जो पैदल जाना चाह रहे थे उन्हें इसी वजह से मना कर दिया गया..

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जब हम वहाँ पहुंचे तब तक दोपहर के एक बजने को थे, हलकी बरसात शुरू हो चुकी थी, और मैं बस में आधे घंटे कि नींद पूरी करने के कारण तरोताजा महसूस कर रहा था.. बाहर तीन जीप और एक कमांडर लगी हुई थी जो हमारी ही अगुवाई के लिए आयी थी.. बहुत दिनों बाद ऐसी जीप देखने को मिली, बचपन में पापा जी को ऐसी जीप मिला करती थी जो बाद में जिप्सी या सुमो या एम्बेसडर में बदल गई.. वह जीप भी उन्हें नॉस्टैल्जिक करने को बहुत होगी जिन्होंने कभी वैसी गाड़ियों में सफर किया होगा..

"कुछ साल पहले तक चेंगप्पा परिवार(Honey-Valley Home Stay) ही सभी आगंतुकों का स्वागत खुद करते थे, पर अब उन्होंने काम बढ़ने से कुछ आदमी रख लिए हैं.. मेरी इस बात कि पुष्टि आप इस लेख से कर सकते हैं जो आज से लगभग ढाई साल पहले लिखी गई थी.."


मैं टीम के Organizing Committee में सीधे तौर पर ना होते हुए भी उनकी मदद कर रहा था.. सीधे तौर पर से Organizing Committee से ना जुड़ने के विभिन्न कारणों को जानने के लिए मेरे एक मित्र द्वारा लिखा यह ब्लॉग पोस्ट आपको जरूर पढ़ना चाहिए(ओह, अभी देखा तो उसने वह पोस्ट हटा दिया है.. उसकी भी अपनी कुछ मजबूरियां रही होगी).. अब चूंकि मैं Organizing Committee में ना होते हुए भी उसका एक हिस्सा था तो फर्ज बनता था कि पहले दूसरे लोगों को भेज दिया जाए..

सबसे पहले महिलाओं कि बारी आयी, फिर दूसरों की.. सबसे अंत में बस की पूरी छान-बीन करने के बाद हम(मैं, संतोष और काईला) प्लानिंग कर रहे थे कि साढ़े तीन किलोमीटर कि लगभग सीधी चढाई पैदल ही पार किया जाए.. बाहर हल्की बरसात हो रही थी, लगभग सभी लोग जा चुके थे.. बड़े ग्रुप में नियत स्थान पर सबसे अंत में पहुँचने का सबसे बड़ा घाटा यह होता है कि आपको सबसे अंत में बचा हुआ ऐसा कमरा मिलता है जिसे सभी देख कर छोड़ चुके होते हैं..

जारी...

Coorg - एक अनोखी यात्रा
Coorg - खुद से बातें Part 2

Saturday, July 31, 2010

Coorg - खुद से बातें Part 2

सूरज कि रौशनी मे बारिश होने पर इन्द्रधनुष निकलता है.. चाँद कि रौशनी मे बारिश होने पर भी वो निकलता होगा ना? हाँ!! जरूर निकलता होगा.. मगर रात कि कालिमा उसे उसी समय निगल जाती होगी.. बचपन मे किसी कहानी मे पढ़ा था, "जहाँ से इन्द्रधनुष निकलता था, वहाँ, उसके जड़ में खुशियाँ ही खुशियाँ होती हैं.. उस कहानी के किसी बच्चे को वहाँ जाकर ढेर सारी खुशियाँ मिली थी.." क्यों ना मैं भी कुछ खुशियाँ वहीं से बटोर लाऊं.. खुशियों कि बहुत जरूरत होती है कभी-कभी.. इत्मीनान से खर्च करूँगा.. मगर चाँद की रौशनी में निकलता हुआ इन्द्रधनुष की जड़ में भी क्या खुशियाँ ही होगी?

इन पहाड़ियों के ये पेड़ क्यों इतने मतवाले होकर झूम रहे हैं? इनकी तुलना किसी से भी की जा सकती है.. कोई चाहे तो मतवाला हाथी कह दे.. कोई किसी चीज के लिए मचलता हुआ नटखट बच्चा.. कोई विरह से तडपता हुआ प्रेमी.. भूत-प्रेत मानने वाले उसमे उसे भी देख सकते हैं.. कोई इसे प्रकृति कि एक और छटा मान कर यूँ ही चलता कर दे.. रात के लगभग दो बज चुके हैं.. 6-7 डिग्री सेल्सियस के तापमान में हल्की बूंदा-बांदी में बाहर भींगते हुए मैं भी ये क्या बकवास सोच रहा हूँ.. अब मुझे जाकर सो जाना चाहिए..

इन लोगों को पीने में इतना आनंद क्यों आता है, ये मेरी समझ के बाहर है.. कुछ दफे मैंने भी पीकर नशे को महसूस किया है.. जब नशा उतरता है तो सर भारी रहता है, दिन एक अलग सा ही आलस भरा होता है.. कुल मिलाकर पूरा दिन बरबाद.. खास करके अगर कोई 5 Large से अधिक ले ले तो.. मैंने जब भी लिया था, खुद को कष्ट पहुँचाने की नीयत से ही.. अब इतने हसीन मौसम में कोई क्यों अपना दिन बरबाद करना चाहता है, यह तो वही बताए..

यहाँ लोग कितने निश्चिन्त हैं.. कोई हड़बड़ी नहीं.. किसी चीज कि जल्दी नहीं.. हर काम आराम से.. मैं आराम से हूँ, इसका मतलब ये भी आराम से ही होंगे क्या? ये पहाड़ी लोग जो गीजर क्या होता है ये भी नहीं जानते हैं और सुबह-सबेरे छः बजे से ही भाग-भाग कर हर कमरे में गरम पानी दे रहे हैं.. भले बाहर बरसात ही क्यों ना हो रही हो!!

ये सुबह-सुबह पहाड़ी घूंघट ओढ़े क्या कर रही है? क्या किसी का इन्तजार? या फिर बस अपने सारे आंसूओं को बहाकर चुपके से कहीं और निकल जाने की फिराक में है? इस झरने का पानी सफेद क्यों दिखता है? लोग बताते हैं कि पानी का कोई रंग नहीं होता है.. यक़ीनन वे झूठ बोलते होंगे.. ये बादल भी सफेद, यह झरना भी सफेद.. दोनों ही खूबसूरत.. वो भी जब सफेद कपडे में होती थी तो बला कि खूबसूरत दिखती थी, कुछ-कुछ इसी झरने सा ही.. क्या पता, शायद अब भी वैसी ही होगी.. कई साल बीत चुके हैं अब, इस पर उतने यकीन से 'यक़ीनन' नहीं कह सकता हूँ जैसे ऊपर कह गया हूँ..

जारी...
भाग 1

Wednesday, July 28, 2010

Coorg - एक अनोखी यात्रा

दफ्तर से समय से बहुत पहले ही निकल गया.. टी.नगर बस स्टैंड के पास के लिए, जहाँ मेरा एक मित्र किसी लौज में रहता है, किसी छोटे से दूकान से पकौड़े और जलेबी खरीदा और अपने मित्र के कमरे में ही बैठ कर उसे निपटाया.. हम्म... जलेबी अच्छी थी, एक दफे फिर जाने का इरादा है.. अपने लिए कम, दोस्तों के लिए अधिक.. उन्हें भी वह जलेबी शायद अच्छा लगे.. दो मिनट के पैदल रस्ते पर माम्बलम लोकल रेलवे स्टेशन है उसके घर से, वहाँ से लोकल ट्रेन लेकर हम चेन्नई सेन्ट्रल भी पहुँच गए.. फिर कुछ खास नहीं हुआ, बस हम ट्रेन में सवार होकर मैसूर के लिए निकल लिए जहाँ से हमें कुर्ग के लिए बस लेनी थी.. हाँ, मगर सभी उत्साहित जरूर थे..

पहले रेलवे टिकट लोग टिकट खिडकी से ही लेते थे, और पूरे ग्रुप को एक साथ एक ही कूपे में टिकट मिल भी जाया करता था.. मगर अब जमाना इंटरनेट का है और लोग वहीं से टिकट भी लेते हैं.. नतीजा यह हुआ था कि हम, कुल चालीस लोग, पूरे ट्रेन में छितराए से हुए थे.. लगभग पांच-छः कूपे में हम सभी सवार थे.. आधे लोग सिर्फ और सिर्फ पीने के ही उद्देश्य से आये थे, और पी कर उल-जलूल बातें भी कर रहे थे.. कुछ लोग ऐसे भी थे जो पीने के बाद भी संभले हुए थे, और कुछ लोग वहाँ पहुँच कर पीने की चाह पाले हुए थे.. बाकी बचे आधे लोग इन आधे लोगों कि दबे जुबान बुराई करते हुए अपनी-अपनी तरह के बातों में लगे हुए थे.. कुछ मेरे जैसे भी थे जो कुछ समय इन आधों के साथ बैठते थे, और कुछ समय उन आधों के साथ.. पीने वालों के साथ बैठने में कोई हर्ज नहीं होने के साथ-साथ ना पीने का काम्बिनेशन होने का कुछ तो फायदा होना ही चाहिए था.. *

ग्रुप में बैठ कर शोर-शराबा करना, हंसी मजाक करना मुझे भी बहुत भाता है.. मगर एक हद तक ही, उसके बाद कुछ समय अकेले बैठने की इच्छा होने लगती है.. मुझे मेरे व्यावसायिक दोस्तों ने इसका मौका भी खूब दिया.. मेरे कूपे का टिकट मुझे सौंप कर वे सभी दूसरे कूपे कि और निकल लिए.. मैं सामान कि रखवाली के साथ-साथ कभी खिडकी से बाहर झांकता तो कभी अपने हाथ में पकडे कमलेश्वर कि बातें पढता.. कमलेश्वर को जिसने पढ़ा है वही इसमें डूबने के आनंद को जान सकता है..

रात गहरा चुकी थी और बाहर अँधेरा छाया हुआ था.. बगल में साथ चलते सड़क से कभी-कभी अचानक किसी गाड़ी की बत्ती चमक कर निकल जा रही थी.. किसी छोटे से स्टेशन से तेजी से निकलते हुए रेल के पटरियों के बदलने का शोर एक अलग ही संगीत पैदा करता है, उस संगीत को आत्मसात करने के लिए I-pod का हेडफोन मैं कान से निकालता हूँ और थोड़ी देर के लिए खो जाता हूँ.. यह संगीत सिर्फ और सिर्फ स्लीपर या जनरल डब्बे वालों को ही नसीब है, कृपया ए.सी. वाले यात्री मित्र इसके बारे में ना ही पूछे तो बेहतर! "Ticket Please" की आवाज से यथार्थ में वापस आना कुछ अच्छा नहीं लगा.. खैर, टिकट तो दिखाना ही था.. मैंने अपने टिकट का प्रिंट-आउट सामने करके अपना पर्स निकालना चाहा, जिसमे मेरा ID कार्ड था, मगर टीटी को उसमे कोई रुचि नहीं थी..

* - यह मुझे भी पता है कि रेल मे शराब पीना आपराधिक श्रेणी मे आता है.. मगर पी कर रेल मे सवार होना भी उसी श्रेणी मे आता है या नहीं, यह मुझे नहीं पता.. कृपया मेरे नैतिकतावादी मित्र मुझसे सवाल-जवाब ना करें.. वैसे भी मैं उन सभी कि जिम्मेवारी नहीं ले रखा था जो पी कर चढ़े हुए थे..

जारी...


नोट - वेल्लोरा नामक सीरीज को यहीं छोड़ कर इसे लिख रहा हूँ.. अभी यह दिमाग मे तरोताजा है, शायद बाद मे ना रहे.. इसके बाद उसे भी लिखूंगा..