आज मैंने उसे बड़े गौर से देखा.. कल्पना अक्सर लोगों को कुछ अधिक ही जहीन बना देती है.. हकीकत से अधिक खूबसूरत भी कल्पना ही बनाती है और कल्पना ही उनमे महान होने का अहसास भी जगाती है.. शायद मैं भी खुद एक कल्पना सा होता जा रहा हूँ, यथार्थ से कहीं दूर.. एक अलग जहान अपनी सी भी लगती है..
वह अभी भी वैसी ही थी जैसी पहले थी.. नाक-नक्स से खूबसूरत होने का पर्याय भी तुम्हे कहा जा सकता है, मगर तुम इतनी भी अधिक खूबसूरत नहीं कि पूरी जिंदगी मात्र खूबसूरती के भरोसे काटा जा सके.. फिर भी तुम्हे देखते रहने को जी करता है.. लगातार.. निरंतर.. अनवरत..
हाँ! मगर जब तुम पास होती हो तो ऐसा लगता है जैसे सारी कायनात मेरे सामने पनाह मांग रही हो.. कोई भी इच्छा-लालसा अधूरी ना रही हो.. सुध-बुध खोकर तुम्हे अपनी आँखों में भर लेने का जी करने लगता है और तुम्हे लगता है कि मैं तुम्हे घूर रहा हूँ..
तुम मेहदी लगाती थी, पूरे दाहिने हाथ में.. और बाएं हाथ में सिर्फ एक वृत्त बनाकर छोड़ देती थी.. मैं तुम्हारे बाएं हाथ को हाथों में लेकर अपनी आँखों से लगा लेता हूँ, मानो मेरे लिए सारा ब्रह्माण्ड उसी वृत्त के इर्द-गिर्द भटक रहा हो.. आज कोई बता रहा था कि मेरे आँखों के चारों और काले धब्बे से बनते जा रहे हैं..
तुम बताती थी कि मैं डेनिम कार्गो में अच्छा लगता हूँ.. वह पीली वाली टीशर्ट तुम्हे याद भी थे जो मैंने कई साल पहले किसी त्यौहार के लिए ख़रीदे थे और माँ से जिद करके पहले ही पहन कर निकल आया था घर से.. पिछली दफे जब घर गया था तो वह बेचारा दबा-सिमटा तह करके अलमीरा में रखा हुआ था.. तुम्हारी दी हुई वह कार्गो डेनिम भी एक सूटकेश में तह करके रखी हुई है.. मन भी इधर कुछ दिनों से कई परतों में दबा हुआ सा तह करके रखा हुआ सा लगने लगा है..
मन भी मुझे कभी-कभी उसी पेड़ कि तरह लगता है जो लगातार रेल के साथ दौड़ लगाता रहता है.. मगर यह मौकापरस्त नहीं होता.. यह रेल के साथ दौड़ लगाने वाले पेड़ कि तरह रिले रेस नहीं दौड़ता, कि एक झटके से दौडना बन्द कर दे और अचानक से दूसरा पेड़ उसी दौड़ का हिस्सा बन जाए.. मन दौड़ता है, रुकता है, मगर साथ ही वहीं खड़े होकर इन्तजार भी करता है, के शायद वह रेल दुबारा वापस आये.. कुछ मन, दूसरे रेलों के साथ दौड़ लगाने में मशगुल हो जाते हैं.. कुछ मन उसी रेल का इन्तजार करते रह जाते हैं, जो पलट कर आने में इस जिंदगी का सा समय लेते हैं..
वह अभी भी वैसी ही थी जैसी पहले थी.. नाक-नक्स से खूबसूरत होने का पर्याय भी तुम्हे कहा जा सकता है, मगर तुम इतनी भी अधिक खूबसूरत नहीं कि पूरी जिंदगी मात्र खूबसूरती के भरोसे काटा जा सके.. फिर भी तुम्हे देखते रहने को जी करता है.. लगातार.. निरंतर.. अनवरत..
हाँ! मगर जब तुम पास होती हो तो ऐसा लगता है जैसे सारी कायनात मेरे सामने पनाह मांग रही हो.. कोई भी इच्छा-लालसा अधूरी ना रही हो.. सुध-बुध खोकर तुम्हे अपनी आँखों में भर लेने का जी करने लगता है और तुम्हे लगता है कि मैं तुम्हे घूर रहा हूँ..
तुम मेहदी लगाती थी, पूरे दाहिने हाथ में.. और बाएं हाथ में सिर्फ एक वृत्त बनाकर छोड़ देती थी.. मैं तुम्हारे बाएं हाथ को हाथों में लेकर अपनी आँखों से लगा लेता हूँ, मानो मेरे लिए सारा ब्रह्माण्ड उसी वृत्त के इर्द-गिर्द भटक रहा हो.. आज कोई बता रहा था कि मेरे आँखों के चारों और काले धब्बे से बनते जा रहे हैं..
तुम बताती थी कि मैं डेनिम कार्गो में अच्छा लगता हूँ.. वह पीली वाली टीशर्ट तुम्हे याद भी थे जो मैंने कई साल पहले किसी त्यौहार के लिए ख़रीदे थे और माँ से जिद करके पहले ही पहन कर निकल आया था घर से.. पिछली दफे जब घर गया था तो वह बेचारा दबा-सिमटा तह करके अलमीरा में रखा हुआ था.. तुम्हारी दी हुई वह कार्गो डेनिम भी एक सूटकेश में तह करके रखी हुई है.. मन भी इधर कुछ दिनों से कई परतों में दबा हुआ सा तह करके रखा हुआ सा लगने लगा है..
मन भी मुझे कभी-कभी उसी पेड़ कि तरह लगता है जो लगातार रेल के साथ दौड़ लगाता रहता है.. मगर यह मौकापरस्त नहीं होता.. यह रेल के साथ दौड़ लगाने वाले पेड़ कि तरह रिले रेस नहीं दौड़ता, कि एक झटके से दौडना बन्द कर दे और अचानक से दूसरा पेड़ उसी दौड़ का हिस्सा बन जाए.. मन दौड़ता है, रुकता है, मगर साथ ही वहीं खड़े होकर इन्तजार भी करता है, के शायद वह रेल दुबारा वापस आये.. कुछ मन, दूसरे रेलों के साथ दौड़ लगाने में मशगुल हो जाते हैं.. कुछ मन उसी रेल का इन्तजार करते रह जाते हैं, जो पलट कर आने में इस जिंदगी का सा समय लेते हैं..