छः दिसंबर को भारत देश के लिए गौरवपूर्ण क्षण के साथ शर्मनाक क्षण एक साथ आते हैं.. शर्मनाक क्षण ऐसे जिसे हमें याद ना करना चाहिए, उसे हमारी मीडिया चिल्ला चिल्ला कर उत्तेजित आवाज में खबरें बांचती है, साथ में एक सवाल भी किसी जुमले जैसे उछाल देती है जिसमें हिंदू-मुसलिम सहिष्णुता पर सवाल इस कदर हावी होता है जैसे अगर किसी के मन में कोई राग-द्वेष नहीं है तो क्यों नहीं है? होना चाहिए.. जैसे भाव होते हैं..
गौरवपूर्ण क्षण, यानी डा.आंबेडकर जी का महापरिनिर्वाण दिवस.. एवं शर्मनाक क्षण, यानी बावरी मस्जिद का गिरना..
गौरवपूर्ण क्षण को लेकर मीडिया में कोई हलचल नहीं, ये उनके लिए शर्मनाक क्षण हों जैसे और बावरी मस्जिद का गिरना किसी तरह का गौरव प्रदान करने जैसा.. खैर, इस पर(मीडिया पर) कुछ भी लिखना अपना ही समय बर्बाद करने जैसा है.. मगर फिर भी जब किसी ऐसे व्यक्ति कि तरफ से कोई अजीबोगरीब किस्म का सवाल उछलता है तो उसके जवाब में मन में कई तरह के अन्य प्रश्न पैदा हो जाते हैं.. फिलहाल दो उदाहरण देना चाहूँगा..
पहला उदहारण :
कल रात विनीत ने फेसबुक पर एक प्रश्न पूछा :
उनका यह सवाल मैंने आज सुबह देखा, और लिखा "कोई भी नहीं.. चैन से सोकर उठे हैं अभी.." मगर मन में जो सबसे पहली बात आयी वह यह थी, "यहाँ हर कोई अपनी निजी समस्या से घिरा हुआ है, किसे फुरसत है इन बातों को इतने सालों बाद याद रखने की और समस्या किसी का धर्म देखकर नहीं आता है?" वैसे भी मेरे ख्याल से इन बातों को याद रखने से फायदा भी क्या है? सिवाय नफरत के और क्या मिलेगा इन बातों को याद रख कर?
दूसरा उदहारण :
कुछ बातें मैं डा.आंबेडकर जी के बारे में भी लिखना चाहूँगा.. आज के समय में अगर कोई डा.आम्बेडकर जी को याद ना करे तो तुरत-फुरत में उसे दलित विरोधी बता दिया जाता है, मगर अगर वही व्यक्ति लाल बहादुर शास्त्री जी को याद ना करे तो उसे सवर्ण विरोधी नहीं बताया जाता है!! मैं यहाँ किसी तरह की तुलना नहीं कर रहा हूँ.. हमारे यहाँ कि शिक्षा पद्धति ही ऐसी है जिसमें इन महापुरुषों के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया है.. इसमें किसी को याद रखना और याद ना रखना मैं उसकी अज्ञानता ही समझता हूँ.. आज ही अभय तिवारी जी ने लिखा :
यहाँ मैंने एक और मुद्दे कि ओर बात खींचने कि कोशिश की.. जिसके बारे मैं मैं अभी भी बात कर रहा था, हमारी शिक्षा पद्धति.. ये दीगर बात है कि उसके बनाने वालों में भी अधिकाँश सवर्ण ही रहे होंगे(यह मेरा मत है, मेरे पास कोई सबूत नहीं).. मैंने वहाँ लिखा था, "एक कारण और भी है, सवर्ण समाज कि अज्ञानता.."
तीसरा उदहारण :
दिलीप मंडल जी आम्बेडकर जी कि बात पिछले दो-तीन दिनों से कह रहे हैं.. मगर उनके कहने के तरीके से मुझे सख्त ऐतराज है.. क्योंकि मेरी नजर में यह नफरत को और बढाने जैसी ही बात है.. वे कहते हैं :
मैंने उनसे इस बाबत सवाल भी पूछे, जिसका जवाब अभी तक नहीं मिला.. मेरा सवाल था "गाँधी-नेहरू की तरह नहीं" से उनका क्या मतलब है? या फिर कैसा मतलब साधना चाह रहे हैं? मेरी इस बात को कुछ अच्छे तरीके से अशोक कुमार पांडे जी कहा :
Ashok Kumar Pandey इस () की कोई ज़रूरत नहीं थी…किसी को चमकदार सफ़ेद बनाने के लिये दूसरे पर स्याही पोतना, दरअसल उसकी सफ़ेदी पर शक़ करना है।
6 hours ago · · 5 people
नोट - फिलहाल इसे पोस्ट से पहले सोच रहा हूँ कि इतने दिनों बाद कुछ लिख रहा हूँ और किन-किन बातों में दिमाग को उलझाए रखे हुए हूँ.. (मुद्दों पर जीने वाले बुद्धिजीवी हो सकता है मेरे इस "किन-किन" शब्दों पर आपत्ती जताए, मगर आम भारतीय ऐसे ही सोचता है यह उन्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा)
किन विषयों पर कितना ध्यान देना है, आजकल मीडिया निर्धारित करने लगा है।
ReplyDeleteप्रशांत जी, आज दिन भर चिट्ठाजगत बंद रहा; शायद उसे पहले ही मालूम था - की ६ दिसम्बर की रुदालियाँ गाई जायेंगी....
ReplyDeleteलेकिन फेसबुक और ऑरकुट तो चालू था ही न......
एक तो चिटठा लिख कर आपने ये रस्म पूरी कर दी...... बधाई.
6 दिसंबर पर इस तरह से भी कोई बात कही गई, जैसी इस पोस्ट में, देख कर अच्छा लगा, ताजगी महसूस हुई, हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
ReplyDelete@ प्रवीण जी - मेरे मुताबिक़ मीडिया की जगह "बाजार" अधिक उपयुक्त शब्द होगा.. :)
ReplyDelete@ दीपक बाबा जी - मैं किसी भी ब्लॉग पर जाने के लिए किसी अग्रीगेटर पर कभी नहीं जाता हूँ, सो मुझे चिट्ठाजगत का हाल चाल नहीं पता..
अगर आप ब्लॉग लेखन को धर्म मानते हैं तो मुझे इस सनातन धर्म का "चार्वाक" ही समझें.. जो इस धर्म के हर नियम को तोड़ने को हमेशा उत्सुक रहता है..
धन्यवाद आपके बधाई के लिए :)
@ राहुल जी - Thanks a lot sir.. :)
(..) यही कुछ और इशारा करती है... आर्थिक मुद्दे को रीवाइज करने की जरुरत होगी इससे सहमत हो सकता हूँ... क्योंकि जमाना कभी बदला...
ReplyDeleteतुमने बहुत अच्छी बात उठाई है. मुझे तुमपर नाज़ है टाइप... सचमुच ताजगी भरा है.
प्रशान्त...मैं जानता हूँ तुम किसी ब्लॉग को पढ़ने के लिए किसी भी अग्रीगेटर पे नहीं जाते...कारण भी मुझे पता है :)
ReplyDeleteकुछ दिनों से फेसबुक पर नहीं गयी, नहीं तो मैं भी यही कहती विनीत की पोस्ट पर "कोई नहीं" पर मैंने डॉ. आंबेडकर को याद किया. तुमने जो प्रश्न उठाये हैं, अक्सर मेरे जेहन में भी उठते हैं. हमारा मीडिया अच्छी बातों की जगह नकारात्मक बातों को ज्यादा उछालता है. और जहाँ डॉ. अम्बेडकर की बात आती है, वहाँ लोग तुलना शुरू कर देते हैं, जबकि मुझे लगता है कि किसी एक विद्वान से दूसरे की तुलना की ही नहीं जा सकती.
ReplyDeleteमैं अभय जी की इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आंबेडकर को विद्वान का दर्जा इसलिए नहीं मिल पाया की वे दलित थे. आज जो भी पढ़े-लिखे लोग हैं उन्हें एक अर्थवेत्ता के रूप में जांते भी हैं और मानते भी हैं.