Tuesday, May 05, 2009

एक सस्ती शायरी मेरी तरफ से भी, अपने रविश भैया से सीखकर

रह रह कर एक चेहरा,
आंखों में कौंध सा जाता है..
क्या वह वही सनम था,
जिसमें कभी खुदा नजर आता है?


आजकल रविश जी कि सस्ती शायरी के चर्चे ब्लौग से लेकर फेसबुक तक हो रही है.. कल ही विनीत ने भी उनके चर्चे अपने ब्लौग पर आम किये थे.. और आज हम भी उनसे कुछ सीख कर अपनी सस्ती शायरी बनाने बैठ गये.. :)

13 comments:

  1. सही जा रहे हो बि्डु!!!

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  2. ह्म्म्म...हो सकता है..खुदा ने अपना ब्लॉग एड्रेस बदल लिया हो.

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  3. हां भाई खुदा ने अपना घर हमारी गली मे बना लिया है. मिलना हो तो आजाना.:)

    रामराम

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  4. अच्छा लिख रहे हो!

    एक सुझाव है कि "क्या यह वही सनम था" को "क्या यह वही सनम है" कर दो ताकि काल की गलती सुधर जाये। (और वास्तव में यह वही सनम "है" जिसे कि तुम "था" बताते हो।)

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  5. nahi ji, yah kal ki galti nahi hai.. maine isi kaal ka prayog kiya hai.. :)

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  6. सही :) लिखते रहो खुदा यूँ ही नजर आ जायेगा

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  7. शायरी तो है, पर इसे सस्ती क्यों कह रहे हो।

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  8. इसे बेच दो अगर कुछ पैसे मिले तो ट्रीट दे देना :) :)
    नहीं बिची तो समझ लेना सस्ती है

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  9. लगे रहो।ये शेरो-शायरी लक्षण कुछ ठीक नज़र नही आ रहे है पीडी। सनम,खुदा कहीं कोई इश्क-फ़िश्क का लफ़्डा तो नही ना।

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  10. शायरी तो है, पर इसे सस्ती क्यों कह रहे हो।

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