Monday, September 29, 2008

कुछ बदनाम गीत जो खूब सुने गये(सुट्टा सांग)

लोग उन्हें बदनाम गीत मानते हैं, मगर किसी कालेज के होस्टल में जाकर देखिये तो पता चलेगा कि कैसे ये बदनाम गीत अच्छे-अच्छे गीतों का बैंड बजा रहे हैं.. अब इसे किसने गाया है, किसने लिखा है और संगीत संपादक कौन है मुझे पता नहीं है.. आप अगर इसके बोल पर ना जाकर बस संगीत और गिटार के धुनों को सुनेंगे तो आपका मन भी झूम उठेगा..

बोल में बस गालियों की भरमार है, सो मैं यहां इसे लिख रहा हूं मगर जहां कहीं भी गालियां होगी वहां आपको सेंसर बोर्ड द्वारा पास किये गये किसी सिनेमा कि तरह बीप ही पढने को मिलेगा.. :) अब मैं गाने को तो एडिट नहीं कर सकता हूं सो आप अगर सुनना चाहते हैं तो नीचे विजेट लगाया हुआ है.. वहां जाकर सुने..

मैं एक बार फिर बताना चाहूंगा कि आप इसके बोल पर ध्यान ना देकर बस गिटार पर ध्यान दें.. सच में जबरदस्त है..

दोस्तों में बैठा, मैं सुट्टा पी रहा..
पापा ने मुझे सुट्टा पीते देख लिया..
घर जब पहूंचा मुझे बीप हो गया..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..

कालेज में गया, मुझे प्यार हो गया..
उसने भी मुझसे मेरा सुट्टा छीन लिया..
सड़कों पे घूमा मैं तन्हा रह गया..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..

शादी हुई, मैं हसबैंड बन गया..
रात भर बीप, मैं थककर गिर गया..
खुशियों की खातिर मेरा सुट्टा छीन गया..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..

बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..
बीप सुट्टा, सुट्टा ना मिला..

बीप, बीप, बीप बीप बीप बीप..
बीप, बीप, बीप बीप बीप बीप..
बीप, बीप, बीप बीप बीप बीप..
बीप, बीप, बीप बीप बीप बीप..
:)
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Sunday, September 28, 2008

उड़नतस्तरी पर टिपिया कर मुसीबत ना पालें

कुछ दिन पहले मैंने समीर जी के ब्लौग, उड़नतस्तरी पर सबसे पहले टिपियाने वालों में से था.. टिपियाने को तो मैंने टिपिया दिया, मगर ऐसी मुसिबत पाल ली कि अब सोचता हूं कि आगे से ना टिपियाऊं.. और अगर टिपियाऊं भी तो आगे से आने वाले टिपण्णी ई-मेल के द्वारा प्राप्त करने के लोभ में ना परूं..

अरे दोस्तों अब आप ही बताईये कि मैं करूं तो क्या करूं? एक के बाद एक नहीं भी तो 100 ई-मेल मुझे मिल चुके हैं.. अब एक दिन में 100 मेल मिले और उन्हें पढने का लोभ मैं संभाल ना पाऊं तो इसका मतलब है कम से कम 50 से 75 मिनट बस मैं उसे पढने में ही गंवा दूं.. खैर जब ऊपर वाले कि मेरा मतलब है उड़नतस्तरी जी की यही इच्छा है तो यही सही.. :)

ये पोस्ट मैंने बस यूं ही लिखा है, मस्ती में.. मुझे पता है कि समीर जी इस चुहलबाजी को तो समझ ही जायेंगे मगर मैं यह इसलिये स्पष्ट कर रहा हूं कि कोई और इसे गलत तरीके से ना ले.. समीर जी के किसी भी पोस्ट को उसके टिपण्णी समेत पढने पर और उस पर टिपियाने वाले नये नामों के प्रोफ़ाईल में जाकर उनके ब्लौग पर जाकर देखिये.. बस इतने भर से ही आपको पता चले जायेगा कि हिंदी चिट्ठों का संसार बस ब्लौगवाणी और चिट्ठाजगत तक ही सीमित नहीं है.. वो कहते हैं ना, सितारों से आगे जहां और भी है..


समीर जी का फोटू, उनके औरकुट प्रोफाईल से उड़ाई गई.. :)

रोमांटिक होकर ब्लौग लिखना और टिपियाना

जरा भविष्य में झांकते हुये कल्पना किजिये, प्रशान्त कि शादी हो चुकी है और वो बहुत ही रोमांटिक मूड में बैठा अपनी बीबी से बातें कर रहा होता है.. उनकी बीबी भी बहुत ही रोमांटिक मूड में थी.. अचानक.. जी हां.. अचानक प्रशान्त उठते हैं और अपने कंप्यूटर ऑन कर कोई रोमांटिक सा कोई पोस्ट या फिर कविता लिख डालते हैं.. और उधर उनकी बीबी बेचारी गुस्से से लाल-पीली होती रहती है..

1-2 दिन पहले कुछ ऐसा ही मजाक किया मेरी भाभी ने.. वो तो बस बोल कर चुप हो गई.. मजे लेने लगी.. मगर तभी मैंने उन्हें आगे का दॄष्य दिखाया.. मैंने कहा -

अब प्रशान्त अपना ब्लौग पोस्ट करके वापस आ गये और फिर से रोमांटिक माहौल बनाने लगे.. जब माहौल पूरी तरह से रोमांटिक हो चुका था तभी उसकी बीबी उठी और बोली अभी आती हूं.. वो भी कंप्यूटर ऑन की और पोस्ट पढकर उसपर टिपियाने लगी.. और हो गया पूरे रोमांटिक माहौल का पूरी तरह से कबाड़ा.. :)

और ये सुन कर भाभी खुश होकर हंसने लगी.. भाभी होती ही ऐसी हैं.. देवर के रोमांटिक माहौल का कबाड़ा सुनकर कितना खुश होती हैं.. :)

Thursday, September 25, 2008

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह

कहीं कुछ मन नहीं लग रहा था.. रात बहुत हो चली थी.. एक कश मारने कि इच्छा बहुत हो रही थी.. मगर नहीं मारा.. शायद घर में होता तो लगा भी लिया होता.. मगर ना लगाऊं इस कारण से रखता ही नहीं हूं घर में.. मोबाईल उठा कर देखा.. कुछ मैसेज दोस्तों को फॉरवार्ड भी किये.. मेरे कई दोस्तों को लगता होगा कि बहुत मैसेज भेजता है, मगर सच्चाई ये है कि जब बहुत उदास होता हूं या जीवन की आपाधापी से भागने का मन करता है तब अपना ध्यान भटकाने के लिये मैसेज भेजना शुरू कर देता हूं.. फिर मोबाईल में गानों को पलटने लगा.. एक फोल्डर दिखा, "रात का सफ़र"..

इसमें जिस तरह के गाने हैं वैसे गाने मुझे रात के अंधेरे में सुनने में जाने क्यों अच्छा लगता है.. 7-8 गानों का छोटा सा कलेक्शन इस फोल्डर में दिखा.. मैंने गानों को चालू कर दिया.. आवाज इतनी कि विकास की नींद ना खुले.. मगर मैं जानता था कि वो अभी जगा ही होगा.. गाने कि शुरूवात हुई सेलिन डिओन के एक गाने से जिसके बोल थे "That's the way it is.." फिर "हमको दुश्मन कि निगाहों से ना देखा किजे.." उसके बाद गुलजार कि बारी, "खामोश सा अफ़साना.." अगले दो गीतों को मैंने आगे बढा दिया.. अब गीत सुनने का भी मन नहीं कर रहा था.. मगर गानों को बंद करने से पहले ही गुलाम अली कि आवाज कानों में पड़ी जिसे मैं नजर अंदाज करके गाने बंद नहीं कर पाया.. "किया है प्यार जिसे हमने जिंदगी की तरह.." मैं ये गाना गुलाम अली के अलावा जगजीत-चित्रा की आवाज में भी सुन चुका हूं.. एक बार किसी और की आवाज में भी सुना था ये गीत मगर याद नहीं किसकी आवाज थी.. खैर मुझे तो ये गुलाम अली के आवाज में ही अच्छा लगता है.. फिर सोने से पहले इसे 4-5 बार सुना.. घड़ी में देखा रात के 2 बज चुके थे.. फिर शायद नींद आ ही जाये सोचकर गानों को बंद करके लेट गया.. जाने फिर कब नींद आ गई..

आप फिलहाल ये गीत सुनिये.. बाकी बातें बाद में करते हैं.. और अगर आपको यह जानकारी हो कि ये गीत किसी और ने भी गाया है तो मुझे बताना ना भूलें..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..

बढा के प्यास मेरी, उसने हाथ छोड़ दिया..
वो कर रहा था मुरौव्वत भी दिल्लगी की तरह..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..

किसे खबर थी बढेगी, कुछ और तारीखी..
छुपेगा वो किसी बदली में चांदनी की तरह..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..

कभी ना सोचा था हमने कतील उसके लिये..
करेगा वो भी सितम हमपे, हर किसी की तरह..

किया है प्यार जिसे, हमने जिंदगी की तरह..
वो आसनां भी मिला, हमसे अजनबी की तरह..


गुलाम अली की आवाज में ये गीत यहां है -
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जगजीत-चित्रा की आवाज में ये गीत यहां है -
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Wednesday, September 24, 2008

शिव जी कि खुशी का राज

आजकल शिव जी बहुत खुश दिखाई दे रहे हैं.. आखिर हो भी क्यों ना? घर में लैंड लाईन कनेक्शन जो लग गया है.. अरे भाई, माना की यह कनेक्शन बी.एस.एन.एल. का नहीं है, एयरटेल का है.. पर क्या हुआ, आखिर है तो लैंडलाईन ही ना.. अब बिहार के लोगों को क्या पता चलेगा कि चेन्नई में एयरटेल और बी.एस.एन.एल. के नंबरों में अंतर क्या होता है, वो तो बस यही देखेंगे कि लैंड लाईन है या नहीं? अब कोई भी लड़की वाले उसके लिये रिश्ता लेकर आयेंगे तो रिश्ता शिव को पसंद होने पर भी उसे तोड़कर नहीं जायेंगे.. आखिर हम भी अब लैंड लाईन वाले हो गये हैं..

ये वाकया कुछ ऐसा है कि हम लोगों ने अभी घर में ब्रॉडबैंड कनेक्शन लिये हैं.. और उसी कनेक्शन के लिये हमने एयरटेल का लैंड लाईन भी लगवाया है.. चलो भाई, ब्रॉडबैंड कनेक्शन के बहाने अब हम भी लैंड लाईन वाले हो गये हैं.. और सबसे ज्यादा शिव खुश है इस बात पर..

वैसे भी आज-कल शिव पर खुशियों का पहाड़ टूट पड़ा है.. ऑफिस में उसकी टीम सिनेमा देखने का प्लान बना रही है और इस शुक्रवार को देखने भी जा रही है.. अब सिनेमा तो सिनेमा है.. कला को भला कोई जाति-पाती, धर्म-भाषा में बांध कर रख सका है भला? सो उन्होंने विचार किया कि तमिल सिनेमा देखने में भी कोई बुराई नहीं है.. और बन गया प्लान तमिल सिनेमा देखने का.. शिव बहुत खुश है कि इस शुक्रवार को तमिल सिनेमा देखने जा रहा है..

एक और खुशी इस कारण से है कि अभी वो घर जा रहा है.. अब कोई घर जाकर खुश क्यों ना हो भला? मगर उसकी खुशी दोगुनी तब हो गई जब उसने सुना कि उसके ऑफिस की टीम छुट्टियां मनाने ऊंटी जा रही है.. और वो भी तब जब वो अपने घर में होगा.. अब अपने टीम के साथियों को खुश देखकर, जिनके साथ आज-कल वो अपना सबसे ज्यादा समय बिताता है, शिव भला खुश क्यों ना हो? इसे ही कहते हैं टीम स्पिरीट..

शिव तो बेचारा शर्मीला प्राणी है.. अपने जबान से कुछ ना कहेगा.. मगर आप सभी भी उसकी इन खुशियों में शामिल होकर उसे बधाईयां देते जाये.. वो कहते हैं ना खुशियां बांटने से बढती है.. तो उसकी इस तिगुनी खुशी को छः गुनी या फिर साठ गुनी कर दें..

अरे सोच क्या रहे हैं? बस अभी से चालू हो जायें..

इसे पढने वाले यह ना समझ लें कि मैं शिव कुमार मिश्र जी के बारे में लिख रहा हूं.. यह तो हैं हमारे पुराने मित्र शिवेन्द्र कुमार गुप्ता जी..

Sunday, September 21, 2008

अनिता जी! मुझको पहचान ना पायेंगी आप, मैं हूं डॉन

आज अनिता जी ने मेरे पिछले पोस्ट पर टिपियाया और पूछा कि कौन वाले आप हैं.. मेरा उत्तर है, मैं हूं डॉन.. अरे चौंकिये मत, ये नामांकरण तो मेरे एक मित्र नीता ने किया था और उसका साथ वाणी भी देती है.. नीता तो अब भी मुझे डॉन ही बुलाती है, वाणी अब बोलना छोड़ दी है.. वैसे मेरा डायलॉग डॉन वाले डायलॉग से कुछ अलग है..

"डॉन को पहचानना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.."

अनिता जी ने प्रियंका को स्नेह देने के साथ लिखा था - बारिश में बाइक यात्रा, वाह हम तो सोच कर ही मजा ले रहे हैं। प्रियंका को खास स्नेह, इतनी तेज बाइक चलाने के लिए। हम तो कार इस स्पीड में दौड़ाते हैं, दुपहिया तो संभलती ही नहीं। रोड काफ़ी अच्छा लग रहा है। जनाब आप के ब्लोग पर जो आप का फ़ोटो लगा है और ये जो यात्रा वर्णन के फ़ोटोस हैं उसमें तो बहुत अलग लग रहे हैं। कौन से वाले आप हैं?…:)

मेरे कालेज में पढने वाली मेरी एक छोटी बहन अर्चना(कालेज में कभी उससे मिल नहीं सका था, मगर ब्लौग कि दुनिया में आकर उससे जान-पहचान हो गई..) ने भी एक बार यह प्रश्न पूछा था.. "भैया आपकी हर फोटो अलग सी क्यों लगता है?" मैंने उसे कहा था की मैं इस पर कभी विस्तार से लिखूंगा.. आज अनिता जी का कमेंट पढकर इस पर लिखने का मौका मिल गया..

आप इस चित्र को देखिये, मेरे विभिन्न रूप.. किसी भी रूप में मैं आपके सामने आ सकता हूं.. अगर मुझे पहचान सकते हैं तो पहचान लिजियेगा..

इसमे लाल रंग से जिस चित्र पर निशान बना हुआ है, मेरे उसी गेट-अप को देख कर नीता ने मेरा नाम डॉन रखा था..

कहिये आप क्या कहते हैं? :)

Saturday, September 20, 2008

चेन्नई-वेल्लोर बाईक ट्रिप(विकास द्वारा)


जैसे कि वेल्लोर जाने का हम लोगों का पहले से प्रोग्राम था.. चन्दन के पापा-मम्मी और चन्दन से भी मिलने.. बहुत दिन हो गए थे मोटे से मिले हुए.. पहले ये प्रोग्राम शनिवार को बन रहा था लेकिन चन्दन उस दिन CMC में व्यस्त रहता इसलिए ये प्रोग्राम रविवार को शिफ्ट हो गया.. और शनिवार को शिव और अतिन्द्र का ऑफिस भी था.. अतिन्द्र!! जी हाँ नाम सुना सुना लग रहा होगा.. The perfect boy of our MCA batch.. आजकल उसको सुधारने में लगे हुए हैं.. इसी सुधारने के चक्कर में उसको बोले थे "तू भी चल चंदू से मिलने.." वो तैयार भी हो गया था.. लेकिन शनिवार रात में हमलोग शिव का बर्थडे सेलिब्रेट कर रहे थे.. केक और कोल्ड ड्रिंक से उसको नहवाकर.. तभी हम अमित से पूछे की "वेल्लोर चलेगा तू भी?" जवाब आया हाँ और साथ भी सवाल भी "बाइक से चेलागे क्या?" फिर चालू हुआ डिसकसन.. बाइक से चलने के विरोध में और समर्थन में.. वैसे विरोध में सिर्फ हम थे और समर्थन में बाकी सब.. आश्चर्यजनक तौर से शिव भी.. और सबसे ज्यादा वजनदार समर्थन था प्रियंका का.. काफी उत्साहित थी.. मेरे को सिर्फ इतना डाउट था की एक ही बाइक है अमित के भाई का बाकी दोनों स्कूटी.. एक 100cc का एक 125cc का.. कहीं बीच में इंजन बाहर निकल कर हाथ पैर नहीं पड़ने लगे.. लेकिन आमित और प्रियंका का बस चलता तो स्कूटी से ही वर्ल्ड टूर पर निकल पड़ता.. तो फाईनल हुआ कि हमलोग रविवार सुबह 6 बजे निकल जायेंगे.. आतिन्द्रा बाइक का नाम सुनते ही बहुत सारा काम गिनाने लगा और बोला की "तू जा.. हम बाद में जायेगा(बंगाली स्टाईल में).." हम बोला ठीक है..:) जो मन है वो कर..

सिर्फ 2 घंटे लेट यानी 8 बजे हमलोग निकले प्रियंका को लेने और करीब 8.20 में हमलोग पोरुर सिग्नल तक पहुँच गये.. उसके बाद हमलोग बाइक और स्कूटी का आदान प्रदान करते करते करीब 11 बजे वेल्लोर पहुँच गए..

रास्ते में शिव भी वाणी का स्कूटी में हाथ साफ किया और करीब 25-30 किलोमीटर चलाया भी.. और प्रियंका तो हद की हुई थी.. स्कूटी से ही Pulsar को पीछे छोड़े जा रही थी.. एक जगह हमलोग चाय-कॉफ़ी के लिए रुके और प्रियंका जिद कर के Pulsar ले ली.. किसी तरह हिम्मत कर के अमित उसके पीछे बैठा.. एक तो स्कूटी से पकड़ में नहीं आ रही थी.. अब तो Pulsar मिल गया.. Speedometer का digital reading अमित के चेहरे से साफ़ नज़र आ रहा था.... 70......75......80.......85.....बस बहुत हो गया......
अब प्रियंका पकड़ में नहीं आ रही थी तो उसको पकड़ने के खयाल से हमी उसके पीछे बैठे.. पता नहीं किसको किसको याद कर रहे थे.. खैर अच्छा चलाती है.. बस एक दो बार पीछे से कार वाला सब पास नहीं मिलने के कारण गरिया कर चला गया..

वेल्लोर पहूंचने के बाद प्रशान्त हमलोग को पार्टी दिया चाईना टॉउन में..(आफ़रोज़ और वाणी को बहुत मिस किया गया..) फिर हमलोग जम के आइस क्रीम भी खाये लेकिन पान नहीं खा पाये.. साला चंदन डरा दिया की पापा बहुत डांटतें हैं.. तो इसी डर से और शिव के भी डर से पान नहीं खाया
गया.. शिव और पान के बीच में अजीब रिश्ता है.....जब भी शिव पान खाता है तो उसके अंदर ज़माने भर का थूक आ जाता है....थूक यानी पान का पीक.. और उसका शिकार अगल बगल वाले लोग बनते हैं.. वाणी और हम इसको झेल चुके हैं..

अंकल लोग का प्लान था गोल्डेन टेंपल जाने का लेकिन हमलोग में से किसी को मन नहीं था.. सिर्फ अमित को छोड़ कर.. वैसे चन्दन पूरा कोशिश कर रहा था की शिव चले.. आखिर उसको मंदिर घूमाने का अनुभव जो है.. लेकिन कोई नहीं हिला..
अंत में तय हुआ की सभी कोई चलते हैं और उधर से ही हमलोग निकल जायेंगे..
लेकिन तब तक बारिश के आसार दिखने लगे और अमित ने डिसिजन लिया की गोल्डेन टेंपल अंकल लोग को जाने दो और हमलोग यहीं से निकल जाते हैं.. Nice decesion.. तो हमलोग वहां पेट्रोल वेट्रोल डलवा कर निकल पड़े..

रास्ते में मस्त बारिश मिला.. पता नहीं जब हमलोग बाईक उठाते हैं बारिश कहाँ से आ जाता है.. मैसूर ट्रिप में यही हुआ था.. खैर बारिश रुकने का 45 मिनट इंतजार कर के हमलोग उसी में निकल पडे और भींगते सुखते पहुँच ही गए..

कुल मिला के ठीक ही रहा.. सभी ने मस्ती किया..

Thursday, September 18, 2008

अनुभव के साथ कूपमंडुकता भी आती है

बहुत पहले मेरे बॉस ने मुझे कहा था की, "Experiance brings stupidity." वो उस समय अपनी तुलना मुझसे कर रहे थे.. उन्होंने कहा था कि अनुभव के साथ सोचने की दिशा ही बदल जाती है.. लोग सोचने लगते हैं कि जैसा उनके साथ हुआ था वही सही है, भले ही वो सबसे ज्यादा गलत हो.. ये कुछ ऐसा ही है जैसे कोई अंधविश्वास.. किसी समय कोई व्यक्ति घर से बाहर कहीं जा रहा होगा, उसी समय उसे छींक आ गई होगी, और बाद में उसका सारा काम खराब हो गया होगा.. बस उसी से ये माना जाने लगा होगा की जाते समय छींक आने से काम खराब हो जाता है..

आज सुबह बहुत देर से बिस्तर छोड़ा.. जब आंख खुली तब घर से मेरे सारे मित्र अपने-अपने ऑफिस जा चुके थे.. घड़ी में देखा तो 10.20 हो रहा था.. रात में 4 बजे के बाद ही नींद आई थी.. हड़बड़ी में उठा और जल्दी से तैयार हुआ.. फिर समय देखा तो 10.40 हो रहे थे.. सोचा कि 10 मिनट मेल चेक कर ही सकता हूं.. कंप्यूटर ऑन करके मैंने जी-मेल खोला.. दिनेश राय जी का पत्र आया हुआ था, जिसमें उन्होंने लिखा था की उन्होंने मेरा ई-पता अपने बेटे को दिया है जो अभी एम.सी.ए. के पांचवीं सेमेस्टर में है.. एक पत्र उनके बेटे वैभव राय द्विवेदी का भी था.. जिसमें उसने कुछ सलाह मांगी थी..

मैं सोच में पर गया.. अभी कितना खुला आसमान है उसके सामने.. जिधर चाहे और जिस तकनीक में चाहे, वो खुद को ढाल सकता है.. चाहे डॉट नेट हो या जावा या फिर ओपेन सोर्स.. मगर यही एक-दो साल के अनुभव के बाद वो जिस तकनीक में काम करता होगा उसमें थोड़ा बंध कर रह जायेगा.. जिस स्थिति में मैं अभी हूं.. मगर फिर भी कुछ हद तक किसी नये तकनीक में काम कर सकता हूं.. मगर यही अगर 3-4 साल का अनुभव हो जाने पर क्या होगा.. टाईप्ड होकर रह जायेंगे.. जिस तकनीक में काम करते होंगे बस वही सूझेगा.. किसी और तकनीक के बारे में तो सोच भी नहीं सकेंगे.. और अगर किसी और तकनीक में काम करना पड़ा तो बहुत मुश्किल होगी उसे सीखने में..

खैर वैभव ने मुझसे कुछ प्रश्न पूछे हैं.. मैं चलता हूं उसे उसका उत्तर देने.. आप लोगों से फिर मिलता हूं..
---अलविदा..

Tuesday, September 16, 2008

अजी नाम में ही तो सब कुछ है


शेक्सपीयर का लिखा हुआ और धीरे-धीरे लोकोक्ति में बदल चुक यह वाक्य कि, नाम में क्या रखा है.. मगर मजे की बात तो यह है कि जब उसने लिखा था तब उसके नीचे अपना नाम भी लिख ही दिया जिससे सभी ये जाने की इसे किसने लिखा है.. मेरा तो मानना है कि नाम में ही सभी कुछ रखा है.. कोई नामी-गिरामी आदमी जब कोई बकवास भी करता है तो सभी कान लगा कर उसकी बात सुनते हैं.. साथ में वाह-वाही भी करते हैं.. और यदी कोई अनाम व्यक्ति अगर कुछ बहुत गूढ बातें भी करता है तो कोई उसकी बात नहीं सुनता है.. साहित्य की नजर से देखने पर भी आप यही पायेंगे की छपता उसी का है जिसका कोई नाम हो, नहीं तो अच्छी रचनायें भी यूं ही फेंकी हुई मिलेगी..

आजकल मेरे भतीजे का कोई अच्छा सा नाम ढूंढा जा रहा है.. बेचारा बहुत दिनों तक बिना नाम के ही रहा.. सभी कोई अच्छा सा नाम उसके लिये सोच रहे हैं.. यूं तो कुछ नाम अभी विचाराधिन हैं मगर कोई नाम अभी तक तय नहीं हुआ है.. घर का पुकारू नाम केशू रख दिया गया है..

जब इसका जन्म हुआ था तब मुझसे पुछा गया की क्या नाम रखना है, साथ में यह भी कहा गया की भागवान के नाम पर होना चाहिये.. मैंने तुरत-फुरत ही कहा, "मुर्गन" या "मुर्गेशन".. :) सभी मुझपर चिल्लाना शुरू कर दिये कि कैसा नाम चुन रहे हो बेटा का? लग रहा है जैसे चिकेन कबाब का नाम रख रहे हो.. मैंने बताया की दक्षिण में यह नाम बहुत प्रसिद्ध है.. भगवान के ही नाम पर है.. मगर फिर एक अवरोध कि नाम कृष्ण या फिर कम से कम भगवान विष्णु के नाम पर होना चाहिये.. मैंने फिर सुझाया, "श्रीनिवासन" या "श्रीनिवास".. अगर आंध्रप्रदेश के मुताबिक नाम रखना हो तो श्रीनिवास और अगर तमिलनाडु के नाम पर रखना हो तो श्रीनिवासन.. अबकी बार मेरी भाभी की प्रतिक्रिया कुछ ऐसी थी.. "बाप रे!! आप तो पूरे मद्रासी बन गये हैं.. मेरे बच्चे का नाम बिगाड़ कर छोड़ियेगा.. आपसे नाम नहीं रखवाना है.."

अब आप ही बताईये, मैं जहां रहूंगा वहीं की संस्कृति को याद रखूंगा ना? वैसे भी मुर्गन नाम कितना अच्छा है.. जब भी अपने बच्चे की याद आयेगी, साथ में चिकेन भी याद आयेगा.. ;)

वैसे अभी "सुशांत प्रियदर्शी" नाम रखे जाने की प्रबल दावेदारी है(भले ही भगवान के नाम पर ना हो".. बच्चे के दादाजी का सुझाया नाम है.. भैया के नाम से भी बहुत मिलता जुलता नाम है क्योंकि भैया का नाम "सुस्मित प्रियदर्शी" है.. भैया के पहले नाम का पहला और अंतिम अक्षर से भी मिलाप हो रहा है.. सच कहें तो मुझे भी ये नाम पसंद है.. आखिर उसके अपने छोटे पापा के नाम से भी तो बहुत मिलता है.. "प्रशांत प्रियदर्शी"..

आप क्या कहते हैं.. कुछ आप भी सुझायें.. मगर फिर से एक बात कहूंगा.. नाम 'S' अक्षर से ही शुरू होना चाहिये..

Sunday, September 14, 2008

सच में मम्मी, कहां फंसा दी

कुछ दिन पहले मैंने अपने एक पोस्ट में अपने भतीजे के जन्म पर एक पोस्ट लिखा था की क्या मम्मी कहां फंसा दी.. वो पोस्ट बस एक मजाक भर में लिखा हुआ था.. खुशियों से भरा हुआ.. मगर कभी-कभी सच में लगता है की क्या मम्मी कहां फंसा दी जन्म देकर.. हर दिन एक नयी चुनौती का सामना करना पड़ता है.. नये अंतर्द्वंद सामने आते हैं.. हर समस्या को हम उचित तरीके से हल नहीं कर पाते हैं तो कुछ समस्याओं का समाधान हमारे बस के बाहर की चीज लगती है, जो होती भी है.. कभी कुछ ना कर पाने का दर्द होता है तो कभी कुछ करने पर भी खोने का डर लगा रहता है..

अगर मैं अपने जीवन के अबतक के बीते हुये सालों पर गौर करता हूं तो पाता हूं की मैं जितना पाने के लायक हूं उतना मुझे कभी मिला नहीं है.. खासतौर पर मैं जो कुछ भी पाने के लिये जी-तोड़ मेहनत करता हूं वो मुझे कभी नहीं मिला है.. जिस किसी से बहुत ज्यादा लगाव होता है, वो मेरे जीवन में क्षणभर से ज्यादा नहीं रहता है.. चाहे वो कोई भौतिक पदार्थ हो या कोई मित्र हो या कोई अपना..

कुछ चीजें इतनी अधिक तकलीफ पहूंचाती है जो मेरे सहनशक्ति से बाहर लगता है.. तब मन में ये जरूर लगता है की क्या मम्मी कहां फंसा दी.. पापा-मम्मी से बहुत ज्यादा लगाव है मुझे, मगर उनसे इतनी दूर हो गया हूं कि जब कभी मुझे उनके साथ की जरूरत होती है तब कभी उन्हें अपने पास नहीं पाया हूं.. स्वभाव कुछ ऐसा मिला है कि अपनी बात अपने भीतर ही रख लेता हूं, किसी से मन की कुछ बात कहना भी चाहूं तो कह नहीं पाता हूं.. कई बार ये भी महसूस हुआ है की अंदर ही अंदर घुटा जा रहा हूं..

कहने को तो ब्लौगिंग एक ऐसा संसार है जहां आप अपने मन की बात बिना किसी सोच-संकोच के रख देते हैं, लिख देते हैं.. मगर हिंदी ब्लौगिंग का चरित्र अंग्रेजी ब्लौगिंग से अलग है.. यहां हम सभी सार्वजनिक होते हैं.. अब ऐसे हालात में अपने मन की बात को सार्वजनिक करना भी उचित नहीं होता है.. किसी सीमा में रहकर ही अपने मन की बात लिखता हूं.. सच कहूं तो मैं अभी भी अंदर ही अंदर घुट रहा हूं.. क्या करूं, कहां जाऊं कुछ समझ में नहीं आ रहा है..

जाता हूं मम्मी से बात करने.. उन्हें कहने.. उनसे पूछने.. कि क्या मम्मी कहां फंसा दी जन्म देकर..

कुछ दिनों से ब्लौगजगत से बिलकुल बाहर हो चला था.. अपने कुछ निजी कारणों से.. अपने अगले पोस्ट में बताता हूं यहां चेन्नई में किये गये बाढ सहायता कार्यों के बारे में..

Thursday, September 11, 2008

Saturday, September 06, 2008

एक नरसंहार के बाद दूसरे भीषण नरसंहार की तैयारी

जैसा की सुशांत झा जी का एक लेख मैंने मोहल्ला पर पढा था की ये बाढ नहीं नरसंहार है.. बिहार में आये बाढ को मैं भी नरसंहार की संज्ञा देना ज्यादा उचित समझता हूं.. राष्ट्र के कर्ता-धर्ता, राज्य प्रसाशन, जिला प्रसाशन.. सभी जानते थे की बाढ आनी है.. मगर सभी हाथ पर हाथ धरकर बैठ पानी के आने का इंतजार कर रहे थे.. आखिर बाढ का पानी और पैसे का जबर्दस्त संबंध जो है..

अगर राष्ट्र स्तर पर देखा जाये तो अभी सारे राजनितिक दल सियासत की राजनीति खेलने में लगे हुये हैं.. आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है जो अगले चुनाव से पहले खत्म नहीं होने वाला है.. अगर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो वहां भी मनमोहन सिंह की कठपुतली सरकार और नेपाल की माओवादी सरकार एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोपों में ही घिर कर रह गयी है.. भारत सरकार का कहना है की भारत अपने ईंजिनियरों और मजदूरों को तटबंध की मरम्मत करने के लिये वहां भेजी थी जहां तटबंध टूट रहा था और जो नेपाल के हिस्से में आता है जहां माओवादियों ने उन्हें मार-पीट कर भगा दिया, और नेपाल सरकार का कहना है की मजदूरों के साथ मेहनताना को लेकर कुछ दिक्कतें आयी थी जिसके कारण वे लोग वहां से लोग वहां से वापस आ गये थे.. अभी हाल-फिलहाल में मैंने किसी न्यूज पोर्टल पर पढा था की इंजिनियर वहां तब पहूंचे थे जब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो चुकी थी..

खैर अब समय ऐसे वाद-विवाद से कहीं आगे करने का आ चुका है.. अभी समय है एक नरसंहार के बाद दूसरे नरसंहार को नहीं होने देने का.. मेरी जानकारी के मुताबिक जब बाढ का पानी उतरता है तो पीछे छोड़ जाता है कई तरह कि बीमारियां.. घुटने भर कीचड़.. विस्थापितों का दर्द.. बिलखते अनाथ बच्चे.. और इन सबसे मरने वालों की संख्या बाढ से मरने वालों से कहीं ज्यादा होती है.. अगर अभी भी हम नहीं चेते तो इस भीषण नरसंहार के हम भी भागीदार होंगे..

जैसा की हमें पहले ही ज्ञात है, 30 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हो चुके हैं और उन्हें कम से कम 3-4 महिनों तक राहत शिविरों में रहना पर सकता है.. अगर हम 100 दिनों का भी अनुमान लगाते हैं और 50 रूपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का सोचते हैं तो भी हर दिन 15 करोड़ का खर्च आता है.. मुझे नहीं पता है कि कित्ने पैसे अभी तक इकट्ठा हुआ है बाढ राहत के लिये, मैं अभी आंकड़े जुटा रहा हूं, मगर मुझे ये पता है कि 1500 करोड़ से कहीं ज्यादा खर्च होने वाला है इन सब पर.. और इतने पैसे अभी तक नहीं आ पाये हैं.. मैं आप सभी से ये आग्रह करता हूं की जितना हो सके आप मदद करें और दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करें.. अगर आप अभी भी कुछ ना करेंगे तो इस अगले भीषण नरसंहार के लिये आप सभी भी जिम्मेदार होंगे..

मेरे अगले पोस्ट में - आप कैसे और क्या कर सकते हैं, और चेन्नई में हम क्या कर रहे हैं इसकी जानकारी..

Friday, September 05, 2008

छुट्टियों में मुझे व्यथित करने वाले कुछ अहम प्रश्न

अभी कुछ दिनों पहले मैं छुट्टियों में घर गया हुआ था.. अगर आप मेरा चिट्ठा पढते होंगे तो आपको पता होगा की कुछ खुशियां मेरे परिवार में आयी है.. घर में हर दिन, हर तरफ उत्सव सा ही माहौल था.. मगर इन सबके बीच कुछ प्रश्न मुझे लगातार व्यथित करता रहा.. "बाढ़".. बिहार का शोक कही जाने वली नदी कोशी अपने पूरे उफान पर थी.. घर पर होने के कारण समाचार चैनलों को भी करीब से देखने का मौका मिला..

अगर अभी हाल-फिलहाल की बात छोड़ दिया जाये तो शुरूवाती दिनों में किसी भी चैनल पर कोई खबर नहीं थी.. ये हालात है बुद्धिजिवियों का गढ माने जाने वाले बिहार का.. सबसे अधिक पत्रकार पैदा करने वाली भूमी पर संकट और उसी धरती का कहीं कोई कवरेज नहीं और अगर कहीं कवरेज था भी तो वो बस खानापूर्ती करने के लिये.. इसी बीच भारत के होनहार खिलाड़ी सुशील कुमार भारत के लिये ओलंपिक में पदक भी जीते मगर उन दिनों जेड गुडी बिग बॉस क्यों छोड़कर जा रही है ये बात समाचार चैनलों को ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहा था.. कोशी और बिहार का मानों भारत में कोई अस्तित्व ही नहीं था..

मेरे पड़ोस की एक भाभी जिनका मायका बीरपुर है अपने भाई के हवाले से बता रही थी(जो हाल-फिलहाल में ही अपनी जान बचा कर वहां से आया था) की कैसे कोशी अपना रौद्र रूप मनुष्यों को दिखा रही थी.. किस तरह से लाशों का ढेर उनके घर के सामने से बह कर जा रही थी.. चारों ओर एक प्रकार का हाहाकार मचा हुआ था जो बेआवाज थी.. बस पानी का कलरव.. मेरे मन में कुछ करने का जज्बा हिलोरें मार रहा था, मगर उचित संस्था या व्यक्ति से संपर्क नहीं होने के कारण कुछ नहीं कर सका.. बाढ में जाकर लोगों की सेवा करने का भी ख्याल आया, मगर ये भी जानता था की घर से मुझे कोई भी अपनी जान सांसत में डालने के लिये मुझे वहां कोई नहीं भेजने वाला है.. सो किसी से ये बात कही नहीं.. इसी बीच मेरे एक मित्र के मित्र जो मधेपुरा के रहने वाले थे और वहां अपने रिश्तेदारों को बचाने के लिये जा रहे थे उनसे मैंने संपर्क साधा और 3 लाईफ़ जैकेट खरीद कर उन्हें दिया.. ये कहकर की जितनों की जिंदगी बचा सकते हैं बचा लाईयेगा..

मगर अभी भी एक अहम प्रश्न मेरे सामने था.. क्या 3 लाईफ जैकेट काफी है? उत्तर मुझे पता है.. नहीं.. मगर फिर भी जो कुछ हम कर सकते हैं वो हमें करना चाहिये..

अगले पोस्ट में - एक नरसंहार के बाद अगले भीषण नरसंहार की तैयारी