दर्द की कोई उम्र नहीं होती, वो ना तो एक साल की होती है और ना ही सौ साल की.. चाहे वह 26/11 हो, मुंबई बम ब्लास्ट हो, 2002 गुजरात हो, सिख दंगे हो या कुछ भी.. वह हमेशा उतनी ही सिद्दत से महसूस की जाती है जैसे पहली बार..
ठीक एक साल पहले, जैसी भागम भाग यहां चेन्नई की सड़को पर थी वैसी ही आज भी है.. लगभग वैसी ही गाड़ियों का जमावड़ा, वैसी ही भीड़, वैसा ही ट्रैफिक.. कुछ भी तो नहीं बदला है.. बदला है तो बस एक सवाल.. किसी परिचित के मिलने पर लोग पूछते थे कि मुंबई में क्या हो रहा है? आज भी कुछ लोग मिले, उनका सवाल भी वही था.. बस शहर अलग थे.. मुंबई का स्थान कानपुर ने ले लिया था.. सभी पूछ रहे थे कानपुर टेस्ट का क्या हुआ? मगर इस प्रश्न में चिंता नहीं झलक रही थी, सभी खुश थे कि चलो भारत अच्छे से जीतने के कगार पर पहूंच गया है.. क्रिकेट की चिंता सभी को थी, मगर एक अदद सवाल देश के नाम पर नहीं था..
आज किसी ने एक बार भी मुंबई का नाम नहीं लिया, ऑफिस के कामों के अलावा अगर किसी बात की चर्चा हुई तो वो बस क्रिकेट ही था.. मैंने ही बात आगे बढ़ाते हुये कहा कि आज 26/11 है? तो उसके जवाब में अधिकतर लोगों का रवैया बेहद उदासीन था.. किसी ने भी मेरी बात पर सहमती जताने के अलावा अपनी कोई बात नहीं रखी.. मुझे याद है आज से एक साल पहले की बात.. 26/11 से पहले एक एक करके भारत के लगभग हर बड़े शहर में बम धमाके हो चुके थे, बस एक ही महानगर अछूता था, चेन्नई.. मेरे मन में कहीं ना कहीं ये बात बैठी हुई थी कि आज नहीं तो कल चेन्नई की बारी भी आने वाली है.. खैर यह बातें फिर कभी..
अगर 26/11 कि बात करें तो हमारे इस रवैये पर दो बातें कही जा सकती है.. आप जिसे चाहे आशावादी या निराशावादी कह-सुन सकते हैं..
1. हम बीती ताही बिसारिये कि तर्ज पर पिछले साल के मुंबई को छोड़कर आगे निकल चुके हैं..
2. हम अब इतने असंवेदनशील हो चुके हैं कि इन सब बातों का हम पर कोई असर नहीं होता है..
कुछ भी हो, मुझे तो अब यही लगने लगा है कि देश का गुस्सा जिसे मिडिया ने भी खूब हवा दी थी, किसी पेसाब के झाग की तरह ही था.. जो कभी का बैठ चुका है..
चलते-चलते : कल मैंने अपने और्कुट का कैप्शन कुछ ये लगाया था "न्यूज चैनल को टीआरपी, न्यूज पेपर को सर्कुलेशन और राजनितिज्ञों को चंद मुद्दों मिले, मगर हमें 26/11 से कोई सीख भी ना मिली.."
सच कहा प्रशांत ..और पूरी पोस्ट का सार तो तुमने शीर्षक में ही कह दिया .दर्द की कोई उम्र नहीं होती ..बहुत ही सार्थक लिखा..
ReplyDeleteअजय कुमार झा
हम सवालों से घिरे हैं
ReplyDeleteऔर चुप रहते हैं
दर्द भीतर है
खुद ही सहते हैं
सबसे बतियाते हैं
और खुद से कुछ नहीं कहते हैं
हम सिर्फ तात्कालिक विलाप कर पाते हैं
ReplyDeleteऔर कुछ नहीं
बी एस पाबला
अब शोक भी उत्सव होने लगा है।
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने.
ReplyDeleteरामराम.
हम अब इतने असंवेदनशील हो चुके हैं -शायद नहीं मगर चलते रहने का नाम ही जिन्दगी है तो चलते जा रहे हैं.
ReplyDeleteमीडिया ने इतना बैंड बजाया कि लोगों के कान बंद हो गए
ReplyDeleteआत्मा का तो कहीं पता नहीं
प्रंशात भाई हम लोग इन हादसो से कुछ नही सीखते। सच तो ये है जिन परिवारों के सदस्य चले जाते है। उनकी जिदंगियाँ बदल जाती है। नेता लोग भाषणबाजी में और आम लोग जिदंगी के दूसरे रंगो में बिजी हो जाते है। कभी कभी तो यही सब सोचकर गुस्सा आता ...........।
ReplyDeleteद्विवेदी जी ने सही कहा है
ReplyDeleteहम अब इतने असंवेदनशील हो चुके हैं कि इन सब बातों का हम पर कोई असर नहीं होता है...
ReplyDeletePD आज की भाग दौड़ में अगर हम दो घड़ी इस पर सोच लेगें तो पिछड़ जायेगें.. क्योंकि जो नहीं सोच रहा वो हमसे आगे निकल जायेगा.. उसे ज्यादा समय मिलेगा न.. और फिर जब कोइ नहीं सोच रहा तो हमें क्या पड़ी है.. वैसे कानपुर टेस्ट को इतना रोमांचक नहीं होना था न?