बदलाव जीवन का अटूट सत्य है.. आज से तीन-साढ़े तीन साल पहले मुझमे बदलाव बहुत-बहुत समय बाद आता था.. मगर आजकल उसी बदलाव को आने में सालभर भी नहीं लगता है, और देखते ही देखते पूरी सोच को ही एक नया घुमाव मिल जाता है.. आजकल ऐसा लग रहा है कि मैं फिर किसी भीषण बदलाव की ओर बढ़ रहा हूं.. पता नहीं यह अच्छा होगा या बुरा..
अगर कार्यालय की ही बात करूं तो, पहले जिन बातों पर अपनी असहमती का सुर हमेशा ऊंचा किये फिरता था, अब उन्हीं बातों को चुपचाप मुस्कुरा कर सुनता हूं.. कुछ कहता नहीं.. अब शायद समझ गया हूं कि मेरे कुछ-कहने सुनने से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है.. कभी-कभी लगता है कि इस तरह के विचार किसी लाचारी या विवशता के तहत आने शुरू हुये हैं या फिर मन ही मन एक तरह का विद्रोह इन सबके खिलाफ पनप रहा है? आने वाले समय में ही शायद इन सब प्रश्नों के उत्तर मिल सके..
खैर चाहे कुछ भी हो, मगर एक बात अब अक्सर मन में आती है.. जितनी अधिक मायूसी और परेशानी जिंदगी में आती है, उतनी ही बार एक बार फिर उठकर उन सबसे लड़ने का मन करता है.. अंदर से एक जिद्द सा पनपता है, कुछ अच्छा करने को.. जिंदगी पहले से कुछ और बेहतर बनाने को.. आजकल कुछ ऐसी ही धुन लिये जी रहा हूं.. बचपन में पापाजी अक्सर एक कविता सुनाया करते थे, "मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है.." इसे सार्थक कर दिखाने की जिद्द सी मन में है..
चलते-चलते : "आजकल ब्लौग लिखना बहुत कम हो गया है.. कई बार कुछ लिखने बैठता हूं तो इतने सारे विचार एक साथ मुझ पर हमला करते हैं कि उनके बीच मैं कोई तारतम्य ही नहीं बिठा पाता हूं.. तो वहीं कई बार हिंदी ब्लौग जगत के तिल का ताड़ बनाने वालों को पढ़ सुनकर भी मन आहत हो जाता है.."
जीवन के अनुभव बदलाव की ओर ही ले जाते हैं ,बदलाव जरूरी भी है..
ReplyDeleteइसी का नाम जिन्दगी है PD साहब, मन के अन्दर का गुबार निकालना बहुत जरूरी है, मैं भी यहाँ ब्लॉग पर ही सुबह से शाम तक झक मारता रहता हूँ, क्या मिलता है? मौद्रिक रूप में देखे तो कुछ नहीं लेकिन अगर दुसरे ढंग से देखू तो मानसिक शांति, अतः आप से भी अनुरोध करूंगा कि लिखते रहिये jab jab vakt mile कोई पढ़े अथवा नहीं !
ReplyDeleteबदलाव आना बहुत आवश्यक है विशेषकर तब जब वह सकारात्मक हो। भाग्य को न मानें तो भी यह तो तय है कि बराबर मेहनत का बराबर फल नहीं मिलता।
ReplyDeleteतिल को ताड़ बना देना भी एक कला ही है।
घुघूती बासूती
अच्छा है धीरे धीरे मेच्योर हो रहे हो ..या खालिस भाषा में कहे तो बूढा रहे हो .... आज अपनी बिल्डिंग की छत पे जाकर कॉलेज के कुछ पुराने दोस्तों को फोन लगायो ....बियर शियर पीते हो या नहीं ...
ReplyDeleteआप का यह बदलाव गंभीर है और सही है। जो दोष आप देख रहे हैं वे सब व्यवस्था के हैं। व्यवस्था अकेला व्यक्ति नहीं पूरी जनता या उस का एक बड़ा हिस्सा बदलता है।
ReplyDeleteachha laga........
ReplyDeletebahut achha laga !
lagaataar aya karo bhai, bahut khub likhte ho.
-abhinandan !
डॉ अनुराग की बात पर ध्यान दिया जाए, मित्र!
ReplyDeleteबी एस पाबला
जमाये रहिये जी!
ReplyDeleteप्रशांत जी ये हाल तो हमारा भी काफी दिनों से है। पर अपना गुस्सा अपने पर ही निकाल रहे है। वैसे "मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है.." ये लाईन वाकई बहुत पसंद आई। वैसे अनुराग जी की सलाह पर भी गौर किया जा सकता है:)
ReplyDeleteइसे ही ,शायद, अनुभव से पके बाल कहते हैं.
ReplyDeleteइसमें कोई बुराई नहीं, कि व्यवस्था के प्रति विद्रोह में धार कम हो रही है।
ReplyDeleteविद्रोह अगर पेशाब के झाग सा हो, तो कोई सकारात्मक परिणाम नहीं देगा। परिपक्वता के लक्षण अच्छे हैं.. लेकिन यौवन बरकरार रखें।
अनुराग जी की सलाह भी काबिले-गौर है...
अच्छा बदलाव है.. लगे रहो..
ReplyDeleteमुझे तो लगा कि कहना चाह रहे हैं: दर्द जब हद से अधिक बढ़ जाए तो दवा बन जाता है :)
ReplyDeleteभाई जिन्दगी मै बदलाव जरुरी है, मायूस कभी मत होना, युही हंसते रहो.... ओर कोई दिल का गुबार हो तो उसे उडेल दो.... दिल मै कभी मत रखो, फ़िर हमेशा खुश रहोगे.
ReplyDeleteसोच सही दिशा में बढ़ रही है।
ReplyDeleteगलत कुछ नहीं है।शुभकामनाएं।
पीडी,परिवर्तन प्रगति का परिचायक है।
ReplyDeleteयहां मेरे अच्छे भविष्य की शुभकामनाओ के साथ आने वाले मित्रगणों को धन्यवाद देना चाहूंगा.. और साथ ही अनुराग जी के कमेंट से लोगों में जो जिज्ञासा पैदा हो गई है उसे भी शांत किये देता हूं.. :)
ReplyDeleteमैं बीयर शीयर पीता तो नहीं हूं मगर मुझे उससे कोई ज्यादा परहेज भी नहीं है.. अभी तक वीकडेज चल रहा था सो कोई भी मित्र अधिक बात करने की स्थिति में नहीं था.. आज एक एक करके सभी को फोन लगाता हूं.. मगर छत पर बैठ कर नहीं.. क्योंकि आजकल चेन्नई में दो-तीन दिनों से मूसलाधार बारीश हो रही है.. :)