मैं कर्म प्रधानता पर विश्वास रखने वालों में से हूं और समय के साथ थोड़ा भाग्यवादी भी होता जा रहा हूं.. मगर फिर भी अच्छे भाग्य के लिये भगवान की प्रार्थना करना मुझे मेरे स्वाभिमान को ठेस पहूंचाने जैसा लगता है.. अगर जीवन की किसी परेशानी से मैं भगवान की शरण में जाऊं तो मुझे यह लगेगा की मैं अंदर से हद दर्जे तक का स्वार्थी भी हूं, जो कभी तो भगवान को नहीं मानता था मगर जैसे ही मुसीबत आन पड़ी वैसे ही पूजा-पाठ में तल्लीन हो गया..
मेरे लिये किसी की इबादत करने से अधिक महत्वपूर्ण है उन जरूरतमंदो की फिक्र करना जिन्हें सच में मदद चाहिये.. किसी भिखारी को पैसे देने से अच्छा मैं समझता हूं उसे खाने को कुछ खरीद देना(जो भिखारी अक्सर नहीं लेते हैं, उन्हें तो पैसा चाहिये).. किसी बूढ़ी अम्मा को सड़क पार करवाना, चाहे उसके बदले मुझे ऑफिस में 5 मिनट और देर हो जाये(आज भी एक अम्मा याद आती है जिन्हें सड़क पार करवाने के एवज में ललाट पर एक प्यार भरा किस और ढ़ेर सा आशीर्वाद मिला था).. किसी छोटे अनजान बच्चे को किसी दुकान से पचास पैसे वाली कैंडी खरीद कर देना मेरे लिये भगवान को पूजने से अधिक महत्वपूर्ण है..
चलते-चलते : आज सुबह-सुबह एक महाशय मुझसे भिड़ गये कि भगवान को मानो.. मेरा कहना था कि मैं तो आपको नहीं कह रहा हूं की आप भगवान को ना माने और ना ही कोई बहस कर रहा हूं? फिर आप जबरी मेरे पीछे क्यों लग गये हैं कि भगवान को मानो? मानने वाले के अपने तर्क हैं और ना मानने वाले के अपने.. दोनों ही समानांतर रेखा की भांती कभी नहीं मिल सकते हैं.. खैर इस चक्कर में आप लोगों को यह झेलना पर गया.. :)
अरे आप तो सच्चे धार्मिक निकले !!
ReplyDeleteबिल्कुल सही.. मैं भी एसे ही तर्क दिया करता हूँ..
ReplyDelete"घर से मस्जिद है बहुत दूर चलों यूं कर लें.. किसी रोते हुए बच्चे को हसांया जाये..."
ये ही तो धर्म है.. बाकी तो सभी दस्तुर है.
हाँ ईश्वर है... और 100 प्रतिशत है।
ReplyDeleteयदि मैं आपसे कहूं कि एक कम्पनी है जिसका न कोई मालिक है, न कोई इन्जीनियर, न मिस्त्री । सारी पम्पनी आप से आप बन गई, सारी मशीनें स्वंय बन गईं, खूद सारे पूर्ज़े अपनी अपनी जगह लग गए और स्वयं ही अजीब अजीब चीज़े बन बन कर निकल रही हैं, सच बताईए यदि में यह बात आप से कहूं तो क्या आप मेरी बात पर विश्वास करेंगे ? क्यों ? इस लिए कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि बिना बनाए कम्पनी या कम्प्यूटर बन जाए।
स्वयं हम तुच्छ वीर्य थे, नौ महीना की अवधि में विभिन्न परिस्थितियों से गुज़र कर अत्यंत तंग स्थान से निकले,हमारे लिए माँ के स्तन में दूध उत्पन्न हो गया,कुछ समय के बाद हमें बुद्धि ज्ञान प्रदान किया गया, हमारा फिंगर प्रिंट सब से अलग अलग रखा गया, इन सब परिस्थितियों में माँ का भी हस्तक्षेप न रहा, क्योंकि हर माँ की इच्छा होती है कि होने वाला बच्चा गोरा हो लेकिन काला हो जाता है, लड़का हो लेकिन लड़की हो जाती है। अब सोचिए कि जब कोई चीज़ बिना बनाए नहीं बना करती जैसा कि आप भी मान रहे हैं तथा यह भी स्पष्ट हो गया कि उस में माँ का भी हस्तक्षेप नहीं होता तो अब सोचें कि क्या हम बिना बनाए बन गए ???????
मेरे लिये किसी की इबादत करने से अधिक महत्वपूर्ण है उन जरूरतमंदो की फिक्र करना जिन्हें सच में मदद चाहिये..'
ReplyDeleteसही है उस् तथाकथित धार्मिकता से तो अच्छा है.
भईया पूजा और किसे कहते हैं
ReplyDeleteआप जो करते हैं मेरे विचार में भी वही इबादत है, पूजा है, प्रार्थना है
सच कहिये क्या आपको उनकी आंखों मे भगवान नजर नही आता
प्रणाम स्वीकार करें
मै भी भगवान को ओरो की तरह नही मानता, मंदिरो मै पुजा पाठ कर के घंटे बजा कर,लेकिन उस भगवान के कहे अनुसार चलता हुं,कभी किसी का हक नही मारा, किसी को दुखी नही किया( सिर्फ़ उन्हे दुखी किया जो दुसरो को दुख पहुचाते है) हर किसी कि उचित मदद की...
ReplyDeleteआप की बात से सहमत हुं
प्रशान्त जी आपने छोटी रचना में बहुत कुछ कह दिया , बस समझनें वालो का फेर है। मेरा भी यही मानना है जो आप कहते है । मेरा तो मानना है कि इस दुनियाँ मे माँ और बाप से बड़ा प्रत्यक्ष भगवान हो ही नहीं सकता । फिर बात वहीं आकर रुकती है कि आप किसे मानते है या हम । अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकार्य करें ।
ReplyDeleteआप भगवान को नहीं मानते। यह जानकार आपके प्रति मेरा लगाव और अधिक बढ़ गया।.
ReplyDeleteशाबास , भावनाओं के बदले वैज्ञानिक दृष्टि से सोचें शहीद भगत सिंह की पुस्तक " मै नास्तिक क्यों हूँ पढ़ें ।
ReplyDeleteभगवान को मानना चाहीये पर अंधविस्वास नही करना चाहीये।
ReplyDeleteवैसे मैने एसा एक बार किया था तब मै 9th क्लास मे पढता था और मैने एक फिल्म देखा था "नास्तीक" फिल्म आधे मे ही छोड दिया था।
एक बार यही बात मैने कहा था। जो आप कह रहे हैं। और उसी दिन साम को बडे आराम से अपने दोस्त के साईकल को चला रहा था और वो पिछे बैठा था। चलते चलते करीब पंद्रह मिनट बाद उसका दोस्त मिल गया वो उसे मारने के लिये दौडा तो बोला अबे धीरे धीरे क्या चला रहा है तेज चला। मै ईतना सुनते ही सिरीयस हो कर खुब तेज साईकल चलाने लगे।
आगे एक मोड था वो रास्टा T जैसा था और मैने रोका नही और तेज करता गया तभी पिछे से बोला "अबे, अब तो गै" मै समझा नही और तभी आगे से एक कार करीब 100 के स्पिड से कार आई और एकदम वहीं मैने ब्रेक मार और गलती से साईकल का हैंडल मुड गया था जिससे हम बच गै
मुझे वो २ - ३ सेकेंड कभी तक याद है पता नही मैने ब्रेक कैसे मार दिया था और हेंडल भी मोड दिया।
वो कार एकदम हवा की तरह आई थी, थोडा सा भी टच भी हो जाता तो साईकल का हेंडल भी हमे उपर पहूंचाने के लिये काफि था।
वैसे सब आपकी मर्जी है। मै मानता हूं। जब कहीं जाना होता है लम्बी यात्रा पर तो भगवान को प्रणाम कर के जाता हूं।
मै कभी भी अंधविशवास नही करता की ये चढाने से भगवान खुश होंगे या ईस दिन को ये नही करना चाहीये, आदी।
बस मन मे हैं, सबको रखना चाहीये।
शुद्ध और पवित्र घर :)
मना कर देने पर भी बहुत सलाहकार आ गए हैं। मैं ने अद्वैत वेदान्त को समझने की कोशिश की है। वे इस यूनिवर्स को ही भगवान, सत् या ईश्वर मानते हैं और इसे ब्रह्म कहते हैं। इस समष्टि में जो कुछ भी है वह सब कुछ उसी का अंश है। यह ब्रह्म या यूनिवर्स विज्ञान के नियमों से चलता है। अब बताइए भगवान को मानने और न मानने से क्या फर्क पड़ रहा है। वह है भी औऱ नहीं भी। भगवान को मानने वाले उसे ऐसा मानते हैं जैसा न तो वह कभी था और न कभी होगा।
ReplyDeleteजाकी रही भावना जैसी।ज़रूरतमंदो की मदद करना सबसे बड़ा धर्म और भगवान को पाने का रास्ता भी,चाहे वो उसे माने या ना माने।वैसे एक बात सही कही है पीडी मुसीबत मे भगवान को याद करके स्वार्थी साबित होने से अच्छा है भगवान को न मानना।
ReplyDeleteअब एक स्वीकारोक्ति मेरी भी,मैं भी हर ज़रुरतमंद की बनते तक़ मदद करता हूं और भगवान को भी मानता हूं लेकिन इसका मतलब ये नही है कि हर किसी को भगवान है और उसे मानो कहता फ़िरता हूं।ये तो अपनी श्रद्धा का मामला है,एकदम निजी मामला।
अनिल पुसदकर के अनुसार: ये तो अपनी श्रद्धा का मामला है,एकदम निजी मामला। ...सही कहा है.
ReplyDeleteधर्मं वही जो आपकी बुद्धि/विवेक से जन्मे. पर्याप्त बुद्धि के लिए किसी भी देश का (अंतर्राष्ट्रीय मानक पर आधारित) स्कूली सेलेबस पर्याप्त है.
दुसरे को जबरन प्रोत्साहित करना...अपराध सरीखा है.
सही है! भगवान को भी कोई फरक नहीं पड़ता!
ReplyDeleteसच्ची भक्ति वे जानते हैं।
विष्णु नागर की "ईश्वर की कहानियाँ " पढ़ें ।
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