Thursday, November 26, 2009

ये बूढ़ी पहाड़ियां अक्सर उदास सी क्यों लगती हैं?


जब कभी किसी हिल स्टेशन पर घूमने जाता हूं तो वहां की पहाड़ियां अक्सर मुझे बहुत उदास सी लगती हैं.. लगता है जैसे कुछ कहना चाहती हों.. अपना दर्द किसी से बांचना चाहती हों, मगर उन्हें सुनने वाला वहां कोई ना हो.. लम्बे-लम्बे देवदार के अधिकांश अधसूखे, अधमुर्झाये और जो पेड़ साबूत बचें हो उन्हे बचाने की गुहार की मुद्रा में ये पहाड़ियां मुझे लगती हैं..

जब हमने चेन्नई से अपनी यात्रा शुरू की तब हमने भी उस नियम को निभाया जिसे "इंडियन टाईमिंग" के नाम से जाना जाता है.. सुबह 7.15 पर कार्यालय के सामने मिलने की बात तय करके सभी आराम से आये, और 7.30 में यात्रा शुरू होने के बजाय 8.10 में यात्रा शुरू हुई.. 7.45 के लगभग फनिन्द्र का एक एस.एम.एस. आया की वह किन्ही निजी कारणों से नहीं आ पायेंगे.. कुछ मन तो उदास हुआ मगर उदास होने से क्या होता है, जब जाना ही है तो खूब मजे करके लौटना है, यही सोच कर उसे खुद पर हावी नहीं होने दिया.. रास्ता चेन्नई-बैंगलोर हाईवे से होकर जाता है जो वेल्लोर से कुछ आगे जाकर हाईवे छोड़ येलगिरी की ओर निकल पड़ता है.. वेल्लोर से गुजरते हुये वो पहाड़ी(जहां की तस्वीर अपने ब्लौगर प्रोफाईल में लगा रखी है) और अपना कालेज भी नजर आया और रास्ते में सलमान खान के वांटेड सिनेमा का तमिल संस्करण, जिसके हीरो विजय हैं, भी देखा.. एक-एक सीन हिंदी वाले सिनेमा जैसा ही था..

रास्ते में दो-तीन जगह रूकना भी हुआ और जिस कारण से धीमे-धीमे सूरज भी भी सर पर चढ़कर नीचे उतरने को चल पड़ा.. अंततः सूरज के नीचे भागने से पहले ही हम अपने गंतव्य पर पहूंच गये.. वहां पहूंचते ही, लोग "Where is Mike?" के नारे बुलंद करने लगे.. और मैं सोच रहा था की हम लोग किसी तरह का लाऊडस्पीकर लेकर तो आये नहीं हैं तो ये लोग "Mike" क्यों ढ़ूंढ़ रहे हैं? खैर थोड़ी ही देर मे यह उलझन भी सुलझ गई.. पता चला की "Mike" नाम का व्यक्ति इस रिसोर्ट की देखभाल करता है.. :)

आम तौर पर मैं किसी भी पहाड़ी वाले जगह पर जाते समय, घाटियों से गुजरते हुये ढ़ेर सारे चित्र अपने कैमेरा से लेता हूं, मगर इस बार जाते समय मैंने नहीं लिया.. चलती गाड़ी से वैसे भी कुछ अच्छा आता नहीं है, ऊपर से हर घाटी मुझे एक जैसी ही लगती है(शोले का एक डायलॉग याद आ रहा था, "मुझे तो हर पुलिस वाले की शक्लें एक सी ही लगती है")..

अगर येलगिरी की बात की जाये तो मुझे यह पर्यटन स्थल जैसा नहीं लगा.. अभी तक पर्यटन स्थल जैसी भीड़-भाड़ नहीं है यहां.. ना ही पर्यटन स्थल जैसी सुविधायें हैं, मगर यही कुछ कारण है जिसके कारण मुझे यह जगह बेहद पसंद आया.. वैसे भी जैसे लगभग शहर एक जैसा ही होता है, एक जैसे मॉल, एक जैसी ना समझ में आने वाली सड़कें.. ठीक वैसे ही सारे हिल स्टेशन भी एक से ही लगते हैं मुझे.. कम से कम यहां जीवन का स्वभाविक प्रवाह तो है.. एक जगह है ट्रेकिंग के लिये, जिसके लिये जगह-जगह एक बोर्ड टंगा हुआ है कि क्या करें और क्या ना करें? पता नहीं कितने लोग उन संदेशों का पालन करते हैं? घाटी में घुसते ही ढ़ेर सारे पालीथिन इधर-उधर फेंके हुये देख कर मुझे तो नहीं लगता कि सभी उस तरह के निर्देशों को मानते ही होंगे.. पास में एक छोटी सी झील भी है जहां लोग बोटिंग का मजा लेते हैं.. इसके अलावा अगर आप यहां आना चाहते हैं तो तभी आयें जब आपके पास ढ़ेर सारा समय हो और आप एकांत की तलाश में हों.. नहीं तो यह जगह बेकार है आपके लिये..

खाना खाकर कुछ लोग क्रिकेट खेलने में व्यस्त हो गये, तो कुछ लोग फुलबॉल.. और मेरे जैसे चंद लोग तालियां बजाने और फोटो लेने में व्यस्त हो गये.. शाम ढ़लते ही आग जला दिया गया, जिसमें लोग हाथ सेंक सके.. तो वहीं कुछ दूरी पर पीने-पिलाने का भी दौर चल निकला.. एक बात मैंने हर जगह कॉमन देखी है, पीने के बाद लोग ना जाने कैसे एक दूसरे के भाई बन जाते हैं और अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजों की शरण में चले जाते हैं.. "तू तो मेरा भाई जैसा है.." या फिर "यू आर लाईक माय एल्डर ब्रदर.." जैसे जुमले भी उछलने लगे.. वहीं लड़किया और महिलायें अंताक्षरी जैसे खेलों में लग गई.. और मैं पीने वाले लोगों के बीच बैठ कर उनकी बहकी-बहकी बातों का मजा लेने लगा.. :) बगल में गाने बज रहे थे, और मेरे कुछ मित्र नाच भी रहे थे.. मैं भी थोड़ी देर उनमें शरीक हो गया.. थोड़े ठुमके लगा कर फिर से उन लोगों को ढ़ूंढ़कर बाते करने लगा जो पीकर अलग ही रंग में आ चुके थे..


अगले दिन सुबह उठकर सभी लोग झील की ओर निकल लिये.. कुछ बाहर झील के किनारे बैठकर आनंद उठाये और कुछ लोग नौकायन के मजे लेकर.. फिर वापस आकर खाना खाकर कुछ खेल खेले गये और फिर वहां से रवाना होने का समय आ गया..

चलते-चलते - कल मैं अपना मोबाईल घर में ही भूल गया.. पूरे दिन भर कई बार मुझे ये भ्रम होने लगा था की मोबाईल के अलावा भी कुछ है जो मैं भूल रहा हूं.. मगर कुछ था नहीं.. ये मोबाईल की आदत भी बहुत बुरी हो चली है.. खैर कल का दिन इसी बहाने कम से कम शांती से तो बीता.. :)

9 comments:

  1. इस पोस्ट का विवरण प्रेरित कर रहा है कि ऐसी ही किसी जगह घूमने जाया जाए।

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  2. बड़ी दिलचस्प सैर करा दी मित्र तुमने

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  3. बहुत लाजवाब शब्दों में आपने इस यात्रा वृतांत को लिखा, आनंद आया.

    रामराम.

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  4. अच्छा है बन्धु! आजके युग में जो बिना मोबाइल दिन निकाल सके वह महायोगी कहलाता है! स्थितप्रज्ञ!

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  5. प्रशांत जी,
    आपने देवदार का जिक्र किया है.
    साहब, दक्षिण में देवदार कहाँ मिलेगा? उसके लिए तो हिमालय पर जाना पड़ेगा. और वे पहाड़ियां उदास नहीं जीवंत लगती हैं. हर घाटी एक सी नहीं, नए रंग की लगती है.

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  6. बहुत सुन्दर वृतांत!!

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  7. भीड़ भाड़ के आदि जब शांत पहाडियों पर जाते है तो कभी कभार
    खामोश पहाड़िया उदास लगती ही हैं ...!!
    सुन्दर यात्रा वृतांत ...!!

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  8. एक बार घर पर मोबाईल भूल गया था.. उस दिन बाकि दिनों से ज्यादा काल्स आये.. और सबने खूब सुनाया मुझे.. खैर पहाड़िया वाकई कुछ कहती सी लगती है..

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  9. इसका मतलब कंही निकलना पड़ेगा घूमने के लिये,वो भी बिना मोबाईल लिये।बढिया लिखा पीडी।

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