सब रूक सा जाता है..
पंछियों का शोर
मद्धिम सा पर जाता है..
एक आदत
जिसके छूट जाने का भय
ख़त्म सा होता दिखता है
जीने की आदत..
एक ओस की बूँद
किसी आँखों से टपकती
सी दिखती है..
एक दिन अचानक...
राग-दरबारी का शोर
सुनाई देना बंद सा हो जाता है..
मानो बहरों की जमात में
हम भी शामिल हो गए हैं..
कुछ न कह पाने से
गूंगे होने का अहसास
बढ़ता जाता है..
एक दिन अचानक...
एक लकीर सी खींचती दिखती है..
किसी धुवें की तरह..
कुछ दीवारों पर
तो कुछ दिल पर..
एक दिन अचानक...
प्रशान्त बहुत ही भाव भीनी कविता हे,लगता हे यह कविता दगॊं, या कुछ ऎसे ही हालात पर लिखी हे, यह कविता अति सुन्दर हे...
ReplyDeleteएक लकीर सी खींचती दिखती है..
किसी धुवें की तरह..
कुछ दीवारों पर
तो कुछ दिल पर..
एक दिन अचानक...
सब कुछ बेगाना सा लगता हे.
धन्यवाद
बहुत ही भाव भीनी कविता हे
ReplyDeleteअति सुन्दर
बहुत गहरे भाव हैं, बधाई.
ReplyDeleteआप की इस कविता का भाव बहुत ही उदासी भरा है। जैसे कोई महाप्रयाण पर जा रहा हो। ऐसा क्यों भाई? इस समय तो हम आप से ऊर्जावान आशावादी कविताओं की आशा कर सकते हैं।
ReplyDeleteऐसी कविता लिखेंगे तो कविता पढ़ने की लत लग जाएगी।
ReplyDeleteइस कविता को पसंद करने के लिये आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद..
ReplyDelete@दिनेश जी - जब मेरा मन बहुत उदास होता है तभी कविता बाहर निकलती है.. इसमें मेरी कोई गलती नहीं है.. :)
देर से आया हूँ....अच्छी कविता के लिए बधाई...
ReplyDeleteउदासी घर पे नासिर बाल खोले सो रही है जैसा भाव है....
उदास रहना और होना बुरा नहीं है....आप उदास हों और और लिखें....
@ बोधिसत्व : आपके पत्र के लिये धन्यवाद.. सही कहूं तो मुझे पता ही नहीं था की आप मेरा चिट्ठा पढते भी हैं.. आपके कमेंट से बहुत प्रोत्साहन मिला.. :)
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