Wednesday, August 29, 2007

स्वप्न की चाह

ये कविता मैंने बहुत पहले लिखी थी और मुझे ये किसी बेकार तुकबंदी से ज्यादा कुछ नहीं लगी थी इसलिये अपने ब्लौग पर इसे नहीं डाला था। वैसे ये मुझे आज भी बहुत ज्यादा पसंद नहीं है फिर भी मैंने सोचा की अगर मैं अपनी अच्छी चीजें यहां डालता हूं तो मुझे अपनी खराब चीजों को भी सबके सामने रखना चाहिये। और इसी सोच ने मुझे इसे पोस्ट करने की प्रेरणा दी।

स्वप्न देखने कि इच्छा,
अब भी मन मे उठती है।
जब भी सपने देखता हूं,
मंजिल दूर नजर आती है।
इस तरह वो दिल को,
कुछ और दुखा जाती है।
सोचता हूँ कि जीवन
बस यूँ ही गुजर नही होती है।
और ये असीम इच्छाऐं,
कभी पूरी नही होती है।
फिर भी सपने देखने की चाह,
कभी खत्म नहीं होती है।
सपनों के इस दौर में,
हर दिन सपनों के बाजीगर मिलते हैं।
और हर दिन सपनों के मृगत्रिश्ना के,
छलावे दिखाई देती है।
अपने वज़ूद की तलाश में,
खुद अपनी लाश उठाये,
भटकता फिर रहा हूं गली-गली,
देखिये ये तलाश कब खत्म होती है।

3 comments:

  1. बहुत अच्‍छी कविता है। ऐसे ही लिखते रहा करो।

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  2. pata nahi yeee kavita prashant ko kyo nahi achii lagi. jaha tak mai prashant ko janta hu mujhe lagta hai ki vo god mai to vishvas kerta nahi hai to shayad sapno per bhi vishwas nahi kerta hogaa issiliyee usse kavita pasand nahi aaiii, per mujhee achi lagi.

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  3. prashant,,,, yaar aapko ye kawita kyun nahi aachee lagi...mujhe pata nahi chal raha hai..
    Guru kamal ka hai..

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