Monday, August 06, 2007

यह कदम्ब का पेड़ / सुभद्राकुमारी चौहान


मैं आज जब इंटरनेट की खिड़की से झांक रहा था तब अनायाश ही ये कविता हाथ लग गयी, जिसे मैं अपने बाल भारती नाम के पुस्तक में पढा था। ठीक से याद तो नहीं है पर शायद कक्षा एक या दो में। खैर जो भी हो, मुझे ये कविता बचपन से ही बहुत पसंद है और यही नहीं मुझे सुभद्राकुमारी चौहान कि लिखी हुई और भी कई कविताऐं पसंद हैं। चलिये मैं यहाँ इनका एक छोटा सा परिचय देते हुये कविता को पोस्ट करता हूं।


इनका जन्म सन १९०४ में ग्राम निहालपुर, इलाहाबाद में हुआ था और निधन सन १९४८ में हुआ। इनकी कुछ चर्चित कृतियों का नाम इस प्रकार है, झांसी की रानी, मेरा नया बचपन, जालियाँवाला बाग में बसंत, साध, यह कदम्ब का पेड़, ठुकरा दो या प्यार करो, कोयल और पानी और धूप। और इनकी कुछ कालजयी कृतियों के नाम हैं : मुकुल और त्रिधारा। (आप इन लिंकों पर चटका दबा कर अपनी मनचाही कविता को पढ सकते हैं।)



चलिये मैं अब अपनी कुछ और पुरानी यादों को ताजा करते हुये आपके सामने ये कविता रखता हूं।


यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।

किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।

उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।

अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।

माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।

ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।

और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।

जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।

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