Saturday, August 18, 2007

एक कहानी बचपन की


मेरे पापाजी को पैर दबवाने का बहुत शौक है, खासकर खाना खाने के बाद। ये हम बच्चों कि बचपन से ही ड्युटी रहती थी की खाना खाने के बाद पापाजी का पैर दबाना है। और हर बच्चों की तरह हम भी बचते रहते थे की खाना खाने के बाद पापाजी के सामने नहीं पड़ना है, नहीं तो वो जिसे पहले देखेंगे उसे ही आज की ड्युटी करनी परेगी। लेकिन फिर भी कोई न कोई पकड़ में आ ही जाता था। फिर एक दिन पापाजी ने हम दोनों भाईयों के बीच अपना दोनो पैर बांट दिया, कि ये वाला पैर प्रशान्त दबाएगा और दुसरा वाला छोटू। और हमेशा एक कहानी सुनाया करते थे। यहां इतनी भुमिका बांधने के पीछे का कारण बस वही कहानी सुनाना था। मैं शर्त लगा कर कह सकता हूं कि आपको वो कहानी जरूर मजेदार लगेगी।


गुरूजी का पैर



एक गुरूजी थे, उनके दो चेले थे। ये जमाना गुरूकुल के समय का था जब बच्चे गुरूकुल पढने के लिये जाते थे और शिक्षा पूरी करके ही वापस घर लौटते थे। दोनों चेले अपने गुरूजी को बहुत मानते थे और उनक हर कहा मानते थे। जंगल जाकर लकड़ी काटते थे, गुरूकुल कि सफाई करते थे। गुरूजी का दिया हुआ हर कार्य करते थे और मन लगा कर पढाई भी करते थे। गुरूजी भी उन्हें बहुत मानते थे और तन-मन-धन लगा कर उनको शिक्षा देते थे।

गुरूजी कि एक आदत थी, दोपहर के समय जब सारा काम हो जाता था तो अपने दोनो चेले से पैर दबवाते थे, और वो दोनो भी पूरा दिल लगा कर अपने गुरूजी का पैर दबाते थे। गुरूजी भी मेरे पापाजी की ही तरह अपने दोनो पैरों को अपने चेले में बांट रखे थे। बायां पैर पहले चेले के हिस्से में था तो दायां पैर दूसरे चेले के हिस्से में।

एक दिन की बात है, पहला चेला बीमार पर गया। इतना बीमार की उठ भी नहीं सकता था। उस दिन गुरूजी ने दूसरे चेले को कह, "बेटा आज तो वो पहला वाला बीमार पर गया है, सो आज तुम ही मेरा दोनो पैर दबा दो।" इतना सुनना था की दूसरे चेले को गुस्सा आ गया। उसने सोचा की पहले वाले का पैर मैं क्यों दबाऊँ, और ये सोच कर वो एक बड़ा सा पत्थर उठाया और जब तक गुरूजी उसे रोकते तब-तक गुरूजी के बांये पैर को उस पत्थर से तोड़ दिया।

अब अगले दिन पहला वाला चेला ठीक होकर गुरूजी के पास पहुंचा और देखा की गुरूजी का बायां पैर टूटा हुआ है। वो गुरूजी से पूछ कि ये कैसे हुआ। गुरूजी ने उसे सब कुछ बताया। जब उसने सुना की दूसरे चेले ने उसका वाला गुरूजी का पैर तोड़ डाला है तो गुस्से से आग-बबूला हो गया और बदले की सोचने लगा कि कैसे इसका बदला लूं। फ़िर वो भी एक बड़ा सा पत्थर उठा कर लाया और गुरूजी का दायां पैर भी तोड़ डाला। अब गुरूजी बेचारे उन दोनों को कोसने के अलावा कर भी क्या सकते थे।



ये कहानी सुन कर हम सभी भाई-बहन बहुत खुश होते थे और मन ही मन सोचते थे की कितने बुद्धु चेले थे गुरूजी के। हम तो कभी भी ऐसा नहीं करेंगे।


अब ये तो मुझे पता नहीं की पापाजी क्या सोचकर ये कहानी सुनाते थे। पर आज वही कहानी एक याद बन कर दिल में बस गया है। आज हम सभी भाई बहन बड़े हो चुके हैं और भैया-दीदी की शादी भी हो चुकी है, पर उस समय जो हमलोग भागते फिरते थे की पापाजी का पैर दबाना परेगा, आज वही पैर दबाने को तरस जाते हैं। पता नहीं वो चरण देखने कब नसीब होंगे। आज पापा मम्मी पटना में अकेले हैं और मुझे पता है वहां पापाजी का पैर दबाने वाला भी कोई नहीं है!

3 comments:

  1. bahut hin auchha likhe ho dost mujhe bhi aupne ghar ki yad aa gayi. Waise main bata doon aupne bare mein ki mera to hobby tha pair dabana. Pitaji ke alawa ghar mein jo log bhi aate thae mujhse pair dabwaye bin nahi jate thae.jab mein 8vin class mein tha to us din ek list banaya tha ki main kitne logon ka pair daba chuka hoon, us samay mera aakda tha 66...

    abhi bhi jab bhi ghar jata hoon to jarur ye kam karta hoon. Hamlog to kabhi kabhi aupne swarth ke liye bhi pitaji ka pair dabate thae. Manlo kuch TV pe serial ya cinema aa raha hai aur hame dekhna hai to der tak pitaji ka pair dabate raho aur dekhte raho, bada hin auchha tarika tha, wiase to hamare yahan TV aur cinema par pratibandh tha...

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  2. aapne kaise keh diya ki ghar par papa ka paer dabane ke liye koi nahin hai, kyoon main nahin hoon kya
    susmit

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  3. Maine jab ye post kiya tha us samay aapka transfer to patna ho chuka tha, but you didn't joined there. You were still in Lucknow.. :)

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