कल दीदी का फोन आया, तक़रीबन रात साढ़े दस बजे के आस पास.. अक्सर जब भी फोन करती है तो उसका समय दस से ग्यारह के बीच ही होता है.. बहुत खुश होकर फोन कि थी और सिर्फ एक सूचना देकर एक मिनट से भी कम समय में फोन रख दी.. बोली कि मैंने आखिर अपना इमेल बना ही लिया है और आपको(सबसे छोटा होने के बाद भी सभी मुझे घर में 'आप' ही कहते हैं.. क्यों, कारण फिर कभी) मेल भी कर दिए हैं.. इससे पहले शायद 2001 के लगभग दीदी Rediff पर अपना इमेल यूज करती थी, अब तो उसे उसका ID भी याद नहीं है पासवर्ड कि बात तो बेहद दूर है..
बचपन से लेकर अभी तक दीदी मुझे लगभग हर मुसीबत(जो उन्हें ज्ञात हो) से बचाती आई है.. मैं कितना भी याद करने कि कोशिश करता हूँ मगर मुझे यह कभी याद नहीं आता कि दीदी कभी भी मुझपर हाथ उठाई हो.. हाँ, मगर ऐसे किस्से खूब याद हैं जब मैंने बचपन कि नासमझी में दीदी को मारा हूँ.. एकाध किस्सों को छोड़ दिया जाये तो मुझे पापाजी से जब कभी भी पिटाई लगी है तो सिर्फ और सिर्फ दीदी को मारने के कारण ही.. और उस समय भी मुझे बचाने वाली दीदी ही हुआ करती थी.. पापाजी से लगभग लड़ लेती थी कि मेरे भाई को मत मारिये..
पटना में आने के बाद से जब भैया आगे कि पढाई के लिए घर से बाहर निकल गए और मेरा घर से बाहर निकलना कुछ बढ़ा, तब दीदी ही मेरी मित्र-सखा सब कुछ थी.. उसी समय पहली बार हमें जेबखर्च के नाम पर कुछ मिलना शुरू हुआ था.. 1999-2000 कि बात कर रहा हूँ.. वैसे जेबखर्च मिलना-ना मिलाना, दोनों मेरे लिए बराबर ही था.. घर के सारे सामान मैं ही लाता था, सो कभी ये हिसाब नहीं रहता था कि मैंने अपने जेबखर्च से घर का सामान खरीद लिया है या फिर घर के सामान के लिए मिलने वाले पैसे को अपने ऊपर खर्च कर लिया है..
कुल जमा 300 रूपये हमें मिला करता था, और दीदी के पास वह जब कभी 500-1000 के पास पहुँचता था तब दीदी वह सारे पैसे मुझ पर खर्च कर देती थी.. कभी कोई सनग्लास तो कभी कोई टीशर्ट्स तो कभी कुछ.. दीदी कि शादी के समय दीदी के पास लगभग 300-400 रूपये थे उन्ही जेबखर्च से बचे हुए और वह भी दीदी मुझे दे दी थी.. मैंने भी उन्हें 2003 से अभी तक छुपा रखा है अपनी एक डायरी के अंदर.. यक़ीनन रूप से मैं यह कह सकता हूँ कि वह पैसे मुझ से कभी भी खर्च ना हो सकेगा..
मेरी वह डायरी भी एक अजीब अजायब घर से कम नहीं दिखती है.. एक स्केच जो मेरे लिए मोनालिसा के पेंटिंग से भी अधिक कीमती है.. दीदी के दिए कुछ रूपये, और जीजाजी से लिए गए 5 अमेरिकन डॉलर.. मेरे लिए कुछ अमूल्य पेपर कि कतरने.. दो-तीन सूखे हुए गुलाब कि झड़ी हुई पंखुडियां जिनसे अब खुश्बू नहीं आती.. कुछ खास लोगों के पासपोर्ट साइज की तस्वीरें.. इन सबमे से अगर उन रूपयों और डॉलर को हटा दिया जाए तो बाकि चीजों कि कीमत पांच पैसे भी कोई ना लगाये, मगर मैं उन्हें अपने उस ताले वाले डायरी में हमेशा बंद करके रखता हूँ.. इस कदर कि कोई उसे देख भी ना सके..
बिहार और बिहार के बाहर के लोगों का अक्सर यह मानना होता है कि जो भी बिहार बोर्ड से पढ़ा-लिखा है तो उसकी अंग्रेजी खराब होना निश्चित है(अभी तक के अनुभव से इसे सही पाया भी है, बिहारी विद्यार्थी को अक्सर इसी मोर्चे पर मात खाते भी देखा है).. दीदी इसे भी मिथ्या साबित कर दिखाई थी.. हम दोनों भाई केंद्रीय विद्यालय से पढ़े होने के बाद भी दीदी कि अंग्रेजी के सामने कुछ भी नहीं थे..
घर में शुरू से ही एक स्कूटर रहा है और बाद में एक कार भी आ गई थी.. हम सभी के वयस्क होने के बाद भी पापाजी अक्सर हमें उसे चलाने से रोकते थे.. किसी अनजाने भय से ग्रसित होकर कि एक्सीडेंट कर देगा, वगैरह-वगैरह.. दीदी अक्सर मुझे स्कूटर निकलने को कहती थी और जब तक मैं वापस ना आ जाऊं तब तक घर में संभाले रखती थी कि किसी को पता ना चल जाए कि मैं स्कूटर लेकर सिखने निकल गया हूँ.. कार में मामले में स्थिति अलग थी, कार थोड़ी बड़ी थी और सभी को आराम से पता चल जाता(फिर भी दो-तीन दफ़े मैं जब पटना में अकेला होता था तो कार लेकर कालेज चला जाता था, कुछ चलाने के लालच से और कुछ शो-ऑफ करने के लालच से)..
जब घर में हम दो बच्चे ही थे(भैया इंजीनियरिंग कि पढाई के लिए पहले ही बाहर जा चुके थे) तो उनमे झगडा होना भी जरूरी था.. और हम झगड़ते भी थे.. पूरे दो साल तक मैं हर दिन सुबह साढ़े छः-सात बजे तक दीदी को कालेज छोडने जाता था.. और यह रूटीन मेरा कभी नहीं टूटा, चाहे हम दोनों में कितना भी अनबन चल रहा हो.. हर दिन सुबह दीदी को उठाना और अगर झगडा चल रहा हो तो कोई सामान पटक कर शोर मचा कर उठाना, मगर उठाना.. गर्मी हो बरसात हो या 3-4 डिग्री वाली हाड़कंपाती सर्दी..
इसे अचानक से यहीं खत्म कर रहा हूँ, क्योंकि इसे मैं चाह कर भी किसी इंड प्वाइंट तक लाकर खत्म नहीं कर सकता.. ऐसे ही अनाप-सनाप लिखता ही चला जाऊंगा..
दो बजिया बैरागी पार्ट 1
दो बजिया बैरागी पार्ट 2
अरे ! पहले दो पैराग्राफ तो लग रहा है ....मैंने ही लिखे हैं ! ठीक यही तो मेरे और मेरी बड़ी बहन के साथ होता रहा है |
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरणात्मक मोड में चल रहे हो!
ReplyDeleteअनाप शनाप -इसी को तो बुद्धिमान लोग ब्लागिंग कहते हैं !
ReplyDeleteजे अनाप शनाप ही तो अच्छा लग रहा है, घटनाएँ सभी के साथ होती हैं, पर ब्लॉगर ही कलमबद्ध कर पाता है, जुटे रहिये कलमवीर ..
ReplyDeleteये पूजी कभी ना ख़त होगी सच है....डायरी पूरा आजयब खाना है मगर लिखने वाले के लिए वों पूरी दुनिया...
ReplyDeleteइन रिश्तों कि कहानी का भी the end नहीं हो पता ...लिखते ही चले जाते हैं हम...
बिहार और बिहार के बाहर के लोगों का अक्सर यह मानना होता है कि जो भी बिहार बोर्ड से पढ़ा-लिखा है तो उसकी अंग्रेजी खराब होना निश्चित है(अभी तक के अनुभव से इसे सही पाया भी है, बिहारी विद्यार्थी को अक्सर इसी मोर्चे पर मात खाते भी देखा है).
ReplyDeleteठीके कहते हैं।
बचपन को कुरेदना ही चाहिए, स्नेह का सोता फूट ही जाता है।
ReplyDeleteanaap-shanaap?
ReplyDeletebhai yaadein aur is tarah ki yadein to kabhi anaap-shanaap nahi hoti bandhu....
likhe jao jo yad aaye.....ham hain na padh rahe hain,
waiting for next
एक सच बताऊँ ... जब मैंने तुम्हें पहली बार पढ़ा था तो मुझे लगा था इतनी ज़मीनी बात करने वाला ज्यादा पोस्ट नहीं लिख सकता... लेकिन में गलत था... अपनी साफगोई और इमानदारी के कारण तुम बहुत कुछ लिख सकते हो जो प्रभावित करती रहेंगी... (माफ़ करना PD मैंने तुम्हारे बारे में गलत सोचा था)
ReplyDeleteबीती बातें........। जब आदमी बीती बातों की नदी में गोते लगाता है तो वह उस नदी में ही रहना चाहता है। यह सच। वैसे आपके जैसी एक डायरी हमारे पास भी है देखना कहीं आप ही की तो नही ले आए हम चुराके :)
ReplyDeleteदीदी को ईमेल कर देना ये लिंक और पोस्ट(उनकी नयी वाली id पे) ...सामने से इतना सब कुछ कहा तो होगा नहीं...और ना कभी कहोगे...
ReplyDeleteमुझे भी बहुत कुछ याद आ रहा है...अपने दो छोटे भाइयों की करतूतें ...
अभी मैं क्या कहूँ बताओ??तुम्हारी बातों से अक्सर कुछ न कुछ अपनी बातें भी याद आ जाया करती हैं
ReplyDeleteरश्मि जी से सहमत!!
ReplyDeleteऔर ये दीदिया जाने किस मिट्टी से बनी होती है.. यार कभी कभी तो मै इस पूरी फ़ीमेल कौम के बारे मे सोचता हू.. कि भगवान क्या खाकर इन्हे बनाता है..
पढकर बहुत अच्छा लगा... बहुत ही ज्यादा अच्छा!!
अनाप -शनाप नही !!! बहुत सुंदर यादों के साथ आप अपनी लेखन शैली को ल्क चल रहे हैं ।
ReplyDeleteअद्भुत संस्मरण! बेहतरीन!
ReplyDeleteबड़ी दीदी ऐसी ही होती है।
ReplyDeleteए भाई, और लिख देते...हमें इ अंट-शंट पढ़ने में मजा आने लगा था कि पट से खतम कर दिये. हम भी आप ही की तरह कबाड़ी हैं. बहुत सारा कबाड़ इकट्ठा कर रखा है अपनी एक सन्दूक में...
ReplyDeleteआप को लोग पता नहीं आप क्यों कहते हैं...हमारे पूरबी यू.पी. और बिहार वालों को ये बीमारी बचपनै से लग जाती है...छोटे-बड़े सबको आप कहने की. इ कौन सा आश्चर्य का बात है.
इ दीदी लोग ऐसी ही होती हैं. हमारी दीदी भी हमें हमेशा अम्मा की मार से बचाये रखती थीं. बाउ तो खैर मारते ही नहीं थे.
और कौन कहता है कि बिहारी लोगों की इंगलिश अच्छी नहीं होती...हाँ किसी-किसी की नहीं भी होती है. पर हमारे गोल में कुछ ऐसे आइ.ए.एस. की तैयारी करने वाले भाई लोग हैं, जो अंग्रेजी बोलने लगते हैं, तो उ फटाफट और उ भी अमेरिकन एक्सेंट में.
पार्ट फोर कब आयेगा...दीदी के बारे में थोड़ा और लिखिये न...आजकल हम अपने अम्मा-पिताजी के बारे में लिखने में जुटे हैं ऐसे ही अंट-शंट...
अंग्रेजी के मामले में यूपी बोर्ड भी बिहार से कम नहीं ।
ReplyDeleteओह, कितनी प्यारी दीदी।
ReplyDeleteदिल को छू लेनेवाली बातें।
ReplyDeleteलिखते रहिए ऐसे अनाप-सनाप
अच्छा लगता है।
bahut achha likhen hain aap...pehli baar aj apke blog pe aai main
ReplyDeleteji aapki tippani padhi apne blog pe..:)...bahut hi umda lekhan hai aapka bhi....han sach mein. didi ko ye link zaroor bhej dijiyega, aise baatein saamne mushkil se hi kahi jaati hain...:)
ReplyDeleteji aapki tippani padhi apne blog pe..:)...bahut hi umda lekhan hai aapka bhi....han sach mein. didi ko ye link zaroor bhej dijiyega, aise baatein saamne mushkil se hi kahi jaati hain...:)
ReplyDeleteji aapki tippani padhi apne blog pe..:)...bahut hi umda lekhan hai aapka bhi....han sach mein. didi ko ye link zaroor bhej dijiyega, aise baatein saamne mushkil se hi kahi jaati hain...:)
ReplyDelete